फ़ुरसत में ...
राजघाट से सस्ता साहित्यमंडल तक ...!
मनोज कुमार
पिछले दिनों एक जरूरी काम से दिल्ली जाना हुआ। सामने प्रश्न था कि काम समाप्त हो जाने के बाद बचे समय का कैसे उपयोग किया जाए? तभी मन में ख्याल आया कि क्यों न कुछ ब्लॉगर मित्रों को परेशान किया जाए।
सबसे पहले अरुण को धरा। छोटा है, छोटे भाई समान – पर वह चैट या मेल में मेरी बीवी को “आंटी” बोलता है। न जाने क्यूँ ? कभी मिला नहीं है `उनसे’। फिर भी, यदि कहता है, तो मुझे तो दो ही बात लगती हैं, या तो खुद को बहुत छोटा समझता है या फिर मुझे बड़ा-बूढ़ा दिखाना चाहता है ... जो भी हो, बात मेरी समझ से बाहर है। एक बार मैंने उससे कह ही दिया “इस बात पर तुम्हारी आंटी को ऐतराज हो या न हो, उन्हें भले आंटी कहते रहो, मुझे अंकल मत कहना, वरना...... !!”
खैर इंडिया गेट के पास से उसको फोन किया और शास्त्री भवन के पास मेरे पहुंचने से पहले ही वह सड़क पर हाजिर था। उसको साथ लेने के कई फायदे थे। उनमें से एक यह कि वह बातें बहुत बनाता है और मुझे सुनना अच्छा लगता है। ऐसे लोग मुझे विशेष अच्छे लगते हैं जो बातों के बीच सुनने वाले के प्रश्न, तर्क या उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार नहीं करते और अपनी बात बताते, सुनाते चले जाते हैं। अरुण मुझे अच्छा लगता है।
उसकी गप का रथ कहां-कहां दौड़ जाता है, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता। विज्ञापन वर्ल्ड से लेकर झोपड़पट्टी तक की खबर रखता है। इसी तरह के आम आदमी पर एक उपन्यास भी लिख रहा है “फुटानी चौक” नाम से। … और मल्टीप्लेक्स और रियल स्टेट वर्ल्ड की भी बात करता ही है। इस दौरान वह जोनाथन स्विफ्ट, एप्टिक हे और न जाने किन-किन की चर्चा करता रहा। अंग्रेजी साहित्य में अपनी कोई रुचि रही नहीं। … और आपको हो या नहीं, लेकिन अरुण और सलिल जी को आश्चर्य हुआ ही कि मैंने सिडनी शेल्डन के अलावा, वह भी दो चार ही, किसी अन्य अंग्रेजी साहित्यकार को नहीं पढ़ा है। अब आप कह सकते हैं कि शेल्डन कब से साहित्यकार की श्रेणी में गिने जाने लगे ?
अरुण जब साथ होता है तो दिल्ली की सड़कों पर चलने में मुझे कोई चिंता नहीं होती। गली का चप्पा-चप्पा छाना हुआ है उसका। यह भी राज इस बार उसने खोल ही दिया कि दिल्ली में अपने आरम्भिक संघर्ष के दिनों में वह ऐसा काम करता था कि उसे हर गली, मुहल्ला घूमना पड़ता था। उसके उन दिनों के अनुभव मुझे अब काम आते हैं।
मुझे राजघाट और गांधी संग्रहालय जाना था ताकि बापू के आशीष के साथ उनका कुछ साहित्य भी मिल जाए पढ़ने को। गया तो था इसी उद्देश्य से, पर हाय री क़िस्मत, … हमने इस बात का ध्यान ही नहीं दिया कि सोमवार को यहां अवकाश होता है। गांधीजी सोमवार को मौन रखते थे।
लौटते समय हम मौन थे।
अब लगा की सलिल जी को भी छेड़ ही आउँ। ... साथ में छोटा भाई तो है ही, बड़े भाई का अशीर्वाद भी ले लिया जाए। फोन से पूछा, “फ्री हैं...?”
सलिल भाई कहने लगे, “कितना समय लोगे … ?”
मैंने कहा, “यह तो आपके आशीर्वाद पर निर्भर करता है ... जितना बड़ा आशीर्वाद देंगे उतना ....”
हमारे धमकते ही लपक कर उसी ताजगी से मिले जैसे वे प्रायः दिखते हैं और दफ्तर के सारे काग़जातों को उन्होंने ऐसे किनारा लगाया कि बेचारे टेबुल पर से गिरते-गिरते बचे।
हमारे बैठते ही शीतल पेय हाजिर था। शीतल पेय का त्वरित गति से हाज़िर हो जाना हमें चौंका नहीं पाया। ... बड़े आराम से बैठे हम समझ रहे थे कि यह एक संकेत था कि आज आशीर्वाद और सान्निध्य सीमित समय के लिए ही है। हम तो अधिकांश समय मौन श्रोता की भूमिका निभाते रहे ... पर एक वक्ता के तौर पर सलिल जी सदैव हमें न सिर्फ़ प्रभावित करते रहे हैं बल्कि उनको सुनना अच्छा लगता रहा है। उनमें एक अच्छे स्क्रिप्टराइटर और मंचीय अभिनेता के गुण के साक्षात दर्शन हो रहे थे। सलिल जी तो ज्ञान का भंडार है। कौन सा ऐसा विषय है जिस पर वो धारा प्रवाह नहीं बोल सकते। जिस तरह उनकी लेखनी संवेदना से ओत-प्रोत होती है … वाणी भी उसी भावना की मिठास लिए। जेम्स हेडली चेज को पढ़कर बड़े हुए सलिल जी आज भी जासूसी निगाह से मन की बात पढ़ लेते हैं … तो सुदर्शन फाकीर के शेर में ताजा-तरीन स्थितियों का साम्य भी ढूंढ लेते हैं। अधिक कोशिश न करते हुए भी हमें उनका पर्याप्त आशीर्वाद मिला और जब रुखसत हुए तो वो हमें सड़क तक छोड़ने भी आए।
अब जहां तीन ब्लॉगर हों तो सड़क भी ब्लॉगर मीट का स्थल बन ही जाती है, भला हो इन्द्र देवता का कि थोड़ी राहत थी, वर्ना ब्लॉग जगत की गर्मी दिल्ली की गर्मी के सामने पानी भरने लगती है। वहां खड़े राव स्टडी सर्कल पर मेरी निगाह गई और सलिल जी ने कन्फर्म किया कि यही वह जगह है जहां हम अर्थाभाव के कारण अपने ‘उन’ दिनों में न आ पाए पर हसरत बहुत थी। हां, उन्होंने जो ट्रेडमार्क बताया वहां पढ़ने वालों का, उसका एक नजारा प्रत्यक्षं किम् प्रमाणं की तरह मिल ही गया कि यहां जब गुजरती लड़की के हाथ में सिगरेट देख लीजिए तो समझ जाइए कि इसी स्टडी सर्किल की है। हमें हमारे IAS Coaching Institute East & West Academy पटना के दिन याद आ गए जब क्लास में सिगरेट स्टूडेंट और टीचर साथ-साथ पिया करते थे और हम मुजफ्फरपुर जैसे छोटी जगह के लोग आश्चर्य से मुंह फाड़े देखा करते थे ।
वहीं से 150 मीटर की दूरी पर स्थित मेरा अगला पड़ाव था ... सस्ता साहित्य मंडल। अरुण साथ था। हम पैदल बढ़ लिए। बड़े भाई अपने आशीर्वाद की पोटली लिए देर तक हमें जाते देखते रहे।
गांधी जी के आशीर्वाद से 1925 में इस मंडल की स्थापना हुई थी, ताकि हिन्दी में उच्च-स्तरीय साहित्य को बिना किसी फ़ायदे के आम जन तक सस्ती मूल्य की पुस्तकें पहुंचाई जाएं। इसके लिए आरंभिक फंड के रूप में “तिलक स्वराज्य फंड” से 25,000 रुपये मिले थे। गांधी जी के ऊपर सैंकड़ो पुस्तकें यहां से प्रकाशित हो चुकी हैं और गांधी जी के कई बहुत ही क़रीबी, जैसे घनश्याम दास बिड़ला, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जमनालाल बजाज, देवदास गांधी जैसे व्यक्तित्व इस सोसाइटी के फाउंडर मेम्बर थे। सस्ता साहित्य मंडल को अपने पुननिर्माण की दौड़ से गुजरता देख अरुण हतोत्साहित हुआ, पर मेरे लिए तो यह खजाना मिलने के समान था। वहां उपस्थित लोगों ने मेरा भरपूर साथ दिया और कहा आप कलकत्ते से हमारी पुस्तक लेने आए हैं तो हम देंगे जरूर … बस्स, आप ढूँढ लीजिए। बगल के स्टोरनुमा रूम में सारी पुस्तक गड्-मड्ड पड़ी थीं। बहुत दिनों से धनश्यामदास बिड़ला की लिखी पुस्तक “बापू” ढूँढ रहा था। गांधी जी तो अंधेरे में चमकने वाले व्यक्तित्व हैं, उनका साहित्य उस धूल और अंधेरे के बीच भी चमक रहा था। मैंने जी-भर कर गांधी साहित्य की कुछ पुस्तकें उठाईं। सस्ता साहित्य मंडल की स्थापना इसी उद्देश्य से ही तो हुई थी।
उन्हीं पुस्तकों के पास मेरी नज़र “गदर की चिनगारियाँ” पर पड़ी। कुछ न कुछ जानी पहचानी सी लगी। उसे उठाया तब रचयिता के नाम पर नजर पड़ी। मुंह से निकला ... ‘अरे यह तो ब्लॉगर हैं – डॉ शरद सिंह..’ ...
मेरी पुस्तकों की थैली में वह पुस्तक भी आ गई। शरद जी को तो मैं लगभग उन्हीं दिनों से फॉलो कर रहा हूँ जबसे उन्होंने ब्लॉग लिखना शुरू ही किया था। उनके सारे ब्लॉग ज्ञान का भंडार हैं। खुद भी कम ज्ञानी नहीं। स्त्री विमर्श पर कई उपन्यास लिख चुकी हैं, काव्य संग्रह, खजुराहो और इतिहास पर पुस्तकें, धर्म, आदिवासियों की समस्या पर पुस्तकें, और न जाने क्या क्या... कितना कुछ। टीवी, रेडियो, चलचित्र यूनिसेफ़ ... धारावाहिक, पटकथा लेखन ...सब जगह उन्होंने अपनी धाक जमाई हुई है। समाज सेवा से भी जुड़ी हैं। उनकी अनेक किताबें और रचनाएं … ज्यों ज्यों पढ़ता हूँ … उनके सामने नतमस्तक होता जाता हूँ।
‘गदर की चिनगारियाँ’ का अध्ययन चल रहा है । सोचा इस पर पुस्तक चर्चा लिख कर “आँच” पर डालूँ। शरद जी का ई-मेल आईडी उनके प्रोफाइल पर है नहीं और टिप्पणी बॉक्स में जाकर यह सब लिखना मुझे उचित नहीं लगता। ... और बिना सहमति के आँच पर हम चर्चा कर नहीं सकते। शायद इस पोस्ट के माध्यम से उन तक मेरी बात पहुँचे और अगर मेरे प्रस्ताव पर उनकी सहमति हुई तो “गदर की चिनगारियाँ” पर कुछ चर्चा होगी अगले किसी अंक में ..........
आपने दिल्ली यात्रा का पूरी तरह सदुपयोग किया और हमे भी इंतज़ार रहेगा आपके माध्यम से गदर की चिंगारियों का अवलोकन करने का…………
जवाब देंहटाएंबढि़या आत्मीय परिचय.
जवाब देंहटाएंसमय का सदुपयोग ..बहुत अच्छी रही रिपोर्ट ... डा० शरद जी की पुस्तक आंच पर आए तो हमें भी बहुत कुछ जानने का अवसर मिलेगा
जवाब देंहटाएंछोटे भाई की बड़ी गपशप, बड़े भाई का बड्डा सा आशीर्वाद और शरद जी के उपन्यास की चर्चा, एक ही पोस्ट में एक साथ सब कुछ| बातों बातों में कई सारी बातें बतियाना कोई आप से सीखे|
जवाब देंहटाएंहई देखिये !! उलाहना भी दे दिये इतना आत्मीयता के साथ कि हम कुछ कहियो नहीं सकते हैं.. पाठकगण को यह बता दें कि हमारे छोटे भाई मनोज जी के कहने का तात्पर्ज एही था कि बड़े भाई कुछ खिलाए नहीं खाली सीतल पेय पिलाकर टरका दिए जबकि लंच का टाइम हो रहा था... अब का बताएं कि हमरा हालत त सुदामा का तरह हो रहा था कि पोटली में चावल छुपाएँ कैसे अउर प्रियवर को खिलाएं कैसे..
जवाब देंहटाएंइहो लिख गए कि हम अपने बक बक के आगे उनका बतिया सुनिए नहीं रहे थे.. अपने गेयान बांचने में लगे थे...
चलिए भाई जी फुर्सत में, फुरसत से लिखिए मारे हैं तो हमरा आभार भी सुईकार कीजिये.. अरुण जी तो बहुत प्रिय हैं हमारे भी!! उनकी साथ बात करके आनंद भी आता है और जीवन को देखने का एगो नया द्रिस्टी मिल जाता है!!
डॉ.शरद की पुस्तक की चर्चा की प्रतीक्षा रहेगी!!
जवाब देंहटाएंमनोज जी आपने यह तो बताया नहीं कि किस तरह सस्ता साहित्य मंडल में अपने लोगो को ढूंढ निकला...एक मिनट में परिचय हो गया सबसे...आपको बताऊँ कि वहां जो संपादक मिले थे श्री शैलेन्द्र जी उनसे एक दो बार और मुलाकात हो गई है... बड़े प्रिय व्यक्ति हैं... हम तो परिचय करने में तो हम परहेज नहीं रखते ....बाकी आपके साथ समय बिताना अच्छा लगता है... दिल्ली की सडको से बहुत परिचय है... अब किसी से कहियेगा नहीं... कई बार तो शुरुआत के दिनों में दू रुपया बचाने के चक्कर में झंडेवालान से पांडव नगर.. कोई १२ किलोमीटर पैदले चल देते थे... तब इतना ट्रैफिक नहीं था और फुटपाथ पर चलना आसान था... रविवार को कनाट प्लेस बंद रहता था सन २००० में.... सो हम उसी दिन आते थे और एक सपना पाले थे कि एक दिन अपना भी एक दफ्तर होगा इस कनाट प्लेस में... ऊँची बिल्डिंग के पीछे से सच को भी करीब से देखते थे... हनुमान मंदिर पर बिकने वाला फेमस कचौड़ी को बनते देख लीजिये तो कहियेगा नहीं लेकिन फिर भी खाते हैं हम.... अच्छा लगता है अपनी बातें बता कर.. स्व-प्रेरणा से बड़ा कुछ भी नहीं.... हाँ ! आपकी पत्नी को अंटी नहीं चाची जी कह रहे थे...उसका करन है कि हम हैं ३६ के... और अब भी कोई ना कोई कोर्स कर ही रहे हैं.. डिस्टेंस एजुकेशन से.. सो नए बच्चो के बीच खुद को तीस से कम का ही मानते हैं... इसलिए उनको ससम्मान चाची कहे... हमको नहीं लगता कि उनको एतराज होगा... बाकी कवि कभी बूढा नहीं होता.. सो आप तो चिरयुवा है.. रहेंगे..
जवाब देंहटाएं... सलिल जी से मिलना अपने अनुभव को समृद्ध करना है... वे तो लंच का आग्रह कर रहे थे.. लेकिन हमारी पत्नी उस दिन बड़े प्यार से 'बिडिया" (मिथिला इलाके में सर्दी के दिनों में साग को बेसन में लपेट कर सुखा लिया जाता है और उसे बाद में सब्जी के रूप में खाया जाता है.. हलके तेल में भून कर.. आलू के साथ सरसों के मसाले के साथ.. ) बना कर दी थी .. जिसे मैं छोड़ना नहीं चाहता था...सो उस दिन लंच रह गया.. बाकी मनोज जी भारत सरकार के पंचतारा लंच करके आये थे...
... डॉ. शरद जी के पुस्तक चर्चा की प्रतीक्षा है...
.... फुर्सत में खुद से मिलकर अच्छा लगा...
मनोज कुमार जी,
जवाब देंहटाएंसंभवतः मुझे यहां तक आने में कुछ विलम्ब हो जाता किन्तु अपने ब्लॉग पर स्नेहिल संगीता स्वरूप जी की सूचना पढ़ते मैं सीधे यहां आ पहुंची...यहां आपके दिल्ली भ्रमण के संस्मरण में अपनी पुस्तक ‘गदर की चिनगारियाँ’ की चर्चा पा कर इतना सुखद लगा कि उसे शव्दों में प्रकट कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है. आभारी हूं कहना पर्याप्त तो नहीं है फिर भी आभारी हूं ... यह आपका बड़प्पन और सदाशयता है कि ‘गदर की चिनगारियाँ’ की ‘आंच’ में चर्चा करना चाहते हैं. यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है और आपके इस प्रस्ताव पर मेरी हार्दिक सहमति है. मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी.
आत्मीय स्मरण हेतु पुनः आभार.
best
जवाब देंहटाएंसब कुछ चलचित्र की तरह दिखता चला गया !
जवाब देंहटाएंशरद सिंह जी की पुस्तक की समीक्षा की प्रतीक्षा है !
आभार !
आपके द्वारा दिल्ली यात्रा की सहेजी यादें ब्लॉगर्ज़ को भी याद रहेंगी.
जवाब देंहटाएंअभी दिनकर जी की एक कविता पढ़ रहा था। इस रचना पर टिप्पणी के रूप में उसी कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ-
जवाब देंहटाएंगंगा पूजन का साज सजा,
कल कंठ-कंठ में तार बजा,
स्वर्गिक उल्लास, उमंग यहाँ,
पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
तुलसी दल सा परिपूत हृदय,
अति पावन पुण्य प्रसंग यहाँ।
साधुवाद।
जमाना हो गया बीड़िया का तरकारी खाए...अब तो स्वादों भुला गए...
जवाब देंहटाएंखैर , ऐसे लिख दिया आपने सारा संस्मरण और उसपर टिप्पणियां भी ऐसी आयीं की लग रहा है पूरे समय हम भी वहां उपस्थित रहे...
इस जीवंत, रोमांचक संस्मरण को सांझा करने के लिए आभार...
यूँ तो लगता है बिना मिले भी सभी व्यक्तित्व से पूर्ण रूपेण परिचित हैं,पर फिर भी इन माध्यमों से जानना और अपनी धारणा की पुष्टि पाना, सुखकर लगता है...
वाह!
जवाब देंहटाएंआपने दिल्ली यात्रा का खूब सदुपयोग किया!
अब हमारी भी इच्छा है इन तीन सुधीजनों से मिलना हो, पढ़ना तो नियमित होता है।
जवाब देंहटाएंपरिचय की आत्मीयता अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंआत्मीयता का उजास फ़ैलाती इस सुंदर संस्मरण को साझा करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
बढ़िया संस्मरण !
जवाब देंहटाएंNice post.thanks
जवाब देंहटाएंआपको तो देल्ही में खूब मज़ा आया होगा
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा समय का सदुपयोग किया
बहुत सुन्दर मनोज जी
जवाब देंहटाएंइस प्रस्तुति में आत्मीयता के भाव साफ़ दिखाई दे रहे हैं ,बहुत खूबसूरत
आप फुर्सत में हो या जल्दी में, दिल से ही लिखते है . आत्मीयता तो ऐसे झलकती है जैसे कुम्भ के मेले में बिछड़े दुगो भाई लोग कितने साल बाद मिला हो .पढ़कर मन गदगद हो जाता है . शरद सिंह जी की किताब की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी .
जवाब देंहटाएंथे तो हम भी उस दिन दिल्ली में ही पर ... मिलना हो ना पाया ... अरुण जी से भी मिलना तै हुआ था ... खैर मुलाकात बाकी है ... जल्द ही होगी यही उम्मीद है ...
जवाब देंहटाएं@ शिवम भाई,
जवाब देंहटाएंबात तो हुई थी। पर आगे का कार्यक्रम मालूम न हो सका और हम मिल भी न सकें। अगली यात्रा कब होगी बताइएगा, हम तो मंगल को जा रहे हैं।
@ अशीष जी,
जवाब देंहटाएंबेजोड़ उपमा, कुंभ के बिछड़े ...!
@ उपेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंसच में हमने समय का ख़ूब सदुपयोग किया।
@ डोरोथी,
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद आपके दर्शन हुए। बहुत अच्छा लगा ब्लॉगजगत में आपकी फिर से सक्रियता देखकर।
@ डॉ. शरद सिंह जी,
जवाब देंहटाएंआभार आपका जो आपने अपनी उपस्थिति दर्ज़ की और हमें ‘गदर की चिनगारियाँ’ को आँच पर लाने की सहमति प्रदान की।
@ बड़े भाई (सलिल जी),
जवाब देंहटाएंहम त आपका आसीरबाद लेने गए थे, अउर ऊहे पा के गद-गद थे। इसके अलाबा जो मिला आपका गियान अउर दर्सन ऊ सब तो बोनस था।
@ एस.एन. शुक्ल जी,
जवाब देंहटाएंआभार आपके प्रोत्साहन के लिए।
आनंद आया दिल्ली यात्रा का संस्मरण पढ़ कर ..
जवाब देंहटाएंडॉ.शरद सिंह जी की पुस्तक की समीक्षा का इंतज़ार है
@ रंजना बहन
जवाब देंहटाएंआपका इंतज़ार हम कब से कर रहे हैं कोलकाता आने का!
प्रोत्साहन का आभार!
@ आचार्य राय जी,
जवाब देंहटाएंआपका आशीर्वाद मिला, हम धन्य हुए।
@ आ. भूषण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आपका प्रोत्साहन के लिए।
@ अरुण जी
जवाब देंहटाएंजो संगर्ष आपने दिल्ली की सड़कों की खाक छानते हुए किया है, वह आपकी कविताओं के यथार्थ में दिखता है।
'बिडिया" तैयार रखिएगा, २६ को आ रहा हूं। साथ खाएंगे। शायद बड़े भाई चंडीगढ हों, पर हम तो एक बार फिर राजघाट और गांधी संग्राहलय जाएंगे।
आपने तो पूरा सदुपयोग किया दिल्ली प्रवास का ... अरुण जी से अक्सर चैट में उनके व्यक्तित्व की कल्पना करता हूँ ... आज आपसे सुन भी लिया ...
जवाब देंहटाएंAAPKEE DILLEE YATRA HAMEN BHEE
जवाब देंहटाएंSUKHAD LAGEE HAI . LEKHAN AATMIY
HO TO AESAA HEE HOTAA HAI .
aapki,bhaasha saral hai, shailee nadi ki tarah parvhit hoti hai,aap dil se likhte hain, achhi post pr badhyee
जवाब देंहटाएंमैं इस संस्मरण का अनौपचारिक प्रथम पाठक हूँ और अभी तक में अन्तिम प्रतिक्रिया भी मेरी ही होगी। यह आलेख और इसकी लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि भाषा का संवेद्य होना कितना जरूरी है।
जवाब देंहटाएंबकौल कबीर ’तू कहता कागद की लेखी। मैं कहता आँखिन की देखी॥’ ’आँखिन देखी’ लेखन का प्रभाव एक बार पुनः प्रतिष्ठित हुआ।
@ अरुणजी,
बिड़िया की तरकारी का चर्चाकर मुँह में पानी भरवा दिये हैं। अगिला बेर दिल्ली आये तो जुर्माना के साथ अदा करना पड़ेगा।