शनिवार, 30 अप्रैल 2011

फ़ुर्सत में : खट्टर पुराण द्वितीय अध्यायः

नमस्कार मित्रों !


श्रीरामचरितमानस में गोस्वामीजी ने कहा है, “भाय-कुभाय, अनख-आलसहुँ ! नाम लेत मंगल दिशि दसहुँ !!” किसी भी प्रकार से हो राम-नाम मंगलकारी ही होता है। मिथिला-वासी खट्टर काका अवध के रामजी की चर्चा की रसधारा बहा रहे हैं। – करण समस्तीपुरी





खट्टर काका रामनवनी के लिए फलाहार का प्रबंध कर रहे थे ! मैं ने पूछा, खट्टर काका, आज रात में पुराने तालाब पर रामलीला है. देखने चलिएगा ना ?


खट्टर काका बोले, "अभी तुम लोग जवान हो. जाओ तमाशा देखो ! हम बूढों को भला खेल तमाशे से क्या मतलब ?


मैं- ऐसा क्या…. खट्टर काका? रामलीला में तो सब को जन चाहिए. मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी की लीला है. रामचंद्र जी एक से बढ़ कर एक आदर्श दिखा गए हैं.


खट्टर काका- हूँ ! सो तो दिखा ही गए हैं ! किस तरह अबला पर पराक्रम दिखाना चाहिए. कैसे किसी औरत पर तीर चलाना चाहिए. कैसे किसी औरत का नाक-कान काटना चाहिए. कैसे किसी गर्भिणी स्त्री को जंगल में छोड़ना चाहिए. समझ लो कि स्त्री की हत्या से ही राम की वीरता शुरू होती है और स्त्री की हत्या से ही ख़त्म ! अपनी पूरी जिंदगी में यही तो राम की उपलब्धि है.


मैं- परन्तु.....


खट्टर काका- परन्तु क्या ? दरअसल शुरू से ही उन्हें अच्छी शिक्षा नही मिली. गुरु मिले विश्वामित्र जैसे, जिन्होंने तारका-बध से श्री गणेश ही करवाया. अन्यथा अवला पर कही क्षत्रीय का अस्त्र चला है ? इसमे तो सीधा विश्वामित्र का दोष है. लेकिन क्या कहा जाए ! विश्वामित्र की तो सारी बातें ही उल्टी है. ब्रह्मा की श्रृष्टि को उल्टा कर दिया. फिर पाणिनि के व्याकरण को उल्टा कर दिया. वर्णाश्रम धर्म को उल्टा कर दिया. फिर निति-मर्यादा को उल्टा कर दिया…. तो इसमे (एक क्षत्रीय का औरत पर अस्त्र चलाना) क्या आश्चर्य !!


मैं- खट्टर काका, रामचंद्र जी के न्याय की मर्यादा तो देखिये. इसी न्यायप्रियता के कारण सीता जैसी पत्नी को भी वनवास तक देने में उन्हें कोई संकोच नही किया !


खट्टर काका- अरे ! न्याय नहीं अन्याय. न्याय क्या यही है कि किसी के कहने पर किसी को फांसी चढ़ा दें ? अगर न्याय ही करना था तो वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों को राजसभा में बुलाते, दोनों के वक्तव्य सुनते और जो न्याय-सभा का निर्णय होता सो सुना देते . लेकिन राम भला इतना क्यों करने लगे. सीता को चुप चाप जंगल भेज दिया. वो भी क्या तो छल से. ये कैसा आदर्श है? एक साधारण प्रजा को जो अधिकार मिलना चाहिए महारानी सीता को वो भी नही मिला !


मैं- लेकिन राम तो प्रजारंजन का आदर्श दिखाना चाह रहे थे.


खट्टर काका- झूठ ! अयोध्या की प्रजा सीता का वनवास कभी नही चाहती थी. तभी तो चुप-चाप रातो-रात रथ हांक दिया गया. और लक्ष्मण, तो सब में हाज़िर ! शूर्पनखा का नाक काटना है, तो चाकू लेकर तैयार. सीता को वन भेजना है, तो रथ ले कर तैयार. सुबह में जब प्रजा को सीता के वनगमन की ख़बर लगी तो हाहाकार मच गया. सम्पूर्ण अयोध्या में करुण क्रंदन होने लगा. किंतु राम जी भला जिद के आगे प्रजा की विनती कब सुनने लगे ? अपने वनवास के समय जब उन्होंने प्रजा की एक नही सुनी तो अब क्या सुनेंगे ?


खट्टर काका मखाना का छिलका छुड़ाते हुए बोले- मान लो कि पूरा अयोध्या का एकमत निर्णय अगर सीता का वनवास होता फिर भी इनका अपना कर्तव्य क्या होता था? जब इन्हे मालूम था कि सीता निर्दोष हैं, अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुकी हैं, फिर दुनिया के कहने से क्या हो जता है? ये अपने न्याय पर अटल रहते. अगर इसमे प्रजा विद्रोह की आशंका थी तो पुनः भरत को गद्दी सौंप पत्नी के साथ स्वयं भी वनवास को चले जाते. तब आदर्शपालक समझे जाते. लेकिन राजा राम तो केवल राज गद्दी ही समझे, प्रेम नही. सीता तो अपने पातिव्रत्य के आगे पूरी दुनिया के साम्राज्य को धूल के समान ठुकदा देती लेकिन राम तो पति धर्म के आगे अयोध्या का मुकुट भी नही छोड़ सके.


मैं- खट्टर काका, लगता है सीता के वनवास से आपको बहुत दुःख है !


खट्टर काका- दुःख कैसे नही होगा…! बेचारी सीता का जन्म दुःख में ही बीत गया! जब से ससुराल आयी, कभी सुख का मुंह तक नही देखा! जिस स्वामी के साथ फूल सी कोमल सीता ने जंगल का ख़ाक छाना, सुख का समय आते ही उन्होंने ही दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका. वन में तो हाय सीता हाय सीता कर रहे थे. उनके लिए आकाश पताल एक किया गया. समुद्र पर पूल बांधा गया. और सीता जब आयी तो घर कहाँ नसीब. इसीलिए कहा जाता है कि पश्चिम में बेटी नही व्याहना चाहिए.


मैं ने देखा की खट्टर काका की आँखे भर आयी थीं. कुछ देर तक स्तब्ध रहे. फिर कहने लगे, सीता जैसी देवी का ऐसा करुण अंत!!! वो आजीवन राम की सेवा में संलअग्न रहीं. उनकी संतुष्टि के लिए आग तक में कूद गयी, लेकिन इस सर्वश्रेष्ठ सती के प्रति इन लोगों का कैसा निर्दयी व्यवहार रहा! आठ माह की गर्भिणी स्त्री को घर से बाहर कर दिया. ऐसे अपमान से तो गला दबा कर मार देते. बेचारी मिथिला की बेटी थी सहनशील, सुशील, कुछ बोलने वाली नही! अगर दूसरे जगह की रहती तो उन्हें भी पता चलता. मैं पूछता हूँ, अगर उन्हें सम्बन्ध ही तोड़ना था तो वापस मायके भेज देते. एक असहाय गर्भिणी स्त्री को जंगल में कैसे भेजा गया? ऐसी निष्ठुरता पश्चिम के लोगों में ही हो सकती है. बेचारी को इस पृथ्वी पर न्याय की उम्मीद नही थी, तभी तो वे पाताल की शरण में चली गयीं. जिस धरती की कोख से उत्पन्न हुई आख़िर उसी में समा गयी. विश्व के इतिहास में ऐसा अन्याय और किसी के साथ नही हुआ! तभी तो धरती तक का कलेजा फट गया !!


मैं ने सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा- खट्टर काका, दरअसल वो धोबी और धोबिन सारे फसाद की जड़ थे.


खट्टर काका लाल- लाल आंखों से मुझे देखते हुए बोले - मैं तुम से पूछता हूँ कि किसी धोबी को अपने घर में झगरा हो और वो गुस्सा कर के गधा पर से गिर जाए तो क्या मैं तेरी चाची को घर से निकाल दूंगा ? अगर मैं राजा होता तो उसे पकड़वा कर मंगवाता और दो चार डंडे देकर पूछता क्यूँ बे बदमाश ! छोटी मुंह बड़ी बात !! अपनी बीवी की तुलना सीता से करने चला है ! ज़रा उसे भी तो आग में खडा कर के देखो. कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली. लेकिन रामचंद्र तो छोटे लोगों की संगत में ही रहे. निषाद-मल्लाह, शबरी-भीलनी, जटायु-गिद्ध, भालू-बन्दर इन्ही के बीच रहे. अच्छे लोगों का संगत मिला कहाँ ? फिर धोबी की बात कैसे टाल सकते थे ? पिता ने नौकरानी की बात पर इन्हे वनवास दिया तो इन्होने धोबी की बात पर अपनी पत्नी को जंगल भेज दिया. उनके वंश में शूद्रों की युक्ति ही चलती थी. घर में मंथरा और बाहर में दुर्मुख !


मैं- खट्टर काका, ये तो उन्होंने नीति के रक्षा के लिए...


खट्टर काका मुझे डांटते हुए बोले- नीति नही अनीति. जब क्षत्रिय धर्म का आदर्श दिखाना था तो बाली को पेड़ की ओंट से छुप कर क्यों मारा ? आमने सामने लड़ कर मारना चाहिए था. तभी "कालहु डरय न रण रघुवंशी" वाला बचन कहाँ गया था ? यदि मर्यादा की रक्षा करनी थी तो उसी अनीति के लिए सुग्रीव को क्यों नही दण्डित किए ? प्राणदंड किसे दिया तो बेचारे शम्बूक को जो चुप-चाप सात्विक प्रवृति से तपस्या कर रहा था.


मैं- लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम ........


खट्टर काका- तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहो, लेकिन मुझे तो उनके जैसा झट-पट काम सैतान वाला आदमी दूसरा मिलता ही नही है! वन में हिरन के पीछे क्या दौर लगाई थी? सीता के वियोग में कैसे पेड़ पौधों को पकड़-पकड़ कर रो रहे थे ? तुरत सुग्रीव से दांत कटी रोटी और सीता के खोज में दो चार दिन विलंब क्या हुआ कि तीर धनुष ले कर तैयार. न समुद्र को पूजते देर न उस पर प्रत्यंचा कसते. लक्ष्मण को शक्तिवान क्या लगा, लगे रणभूमि में ही विलाप करने. ऐसी अधीरता भी कहीं आदमी को शोभा देती है, वो भी क्षत्रिय को !


मैं- उन्होंने मनुष्य का अवतार लेकर ये सारी लीलाएं दिखाईं है. इसीलिए ....


खट्टर काका किशमिश की काठी चुनते हुए बोले- असल में यह दोष राम का नही है, बल्कि उनके पिता ही बहुत जल्दबाज थे. उनके सारे कार्य भी देख लो. शिकार खेलने गए. सरयू किनारे कुछ आवाज़ हुई. तुरत तीर चला दिया. ये भी नही सोचा कि कोई आदमी भी पानी भर सकता है. आख़िर श्रवण कुमार को बेधकर अंधे माता-पिता को पुत्र वियोग में मरने पर मजबूर कर दिया. उसका परिणाम यह हुआ कि ख़ुद भी पुत्र वियोग में हा हा करते हुए मरे ! मैं पूछता हूँ, जब दो-दो पटरानियाँ मौजूद ही थी तो बुढापे में तीसरी शादी की क्या जरुरत आन पडी? और "वृद्धस्य तरुणी भार्या प्रानेभ्योपि गरीयसी !" कैकेयी में ऐसा लिप्त हुए कि युद्धक्षेत्र में भी उनको रथ पर ले कर ही जाते थे. और रथ भी कैसा, मौके पर धोखा दे गया. नाम के दशरथ और काम का एक रथ भी नही. नही तो कैकेयी को रथ की धुरी में अपनी उंगली क्यों लगानी पड़ती? और बलिहारी उस उंगली की !! जब उंगली इतनी मजबूत थी तभी तो कलेजा भी इतना कठोर था. खैर किसी तरह से पत्नी के प्रताप से वृद्ध रजा के प्राण बचे. और उन्होंने आँख मूँद कर वचन दे दिया कि," जो मांगोगे वही मिलेगा" ! ज़रा सोचा भी नही कि कहीं आकाश का तारा मांग बैठे तो क्या करते ? वो तो रानी ने बहुत धर्म बचाया. अन्यथा कहीं राम के प्राण मांग लेते तो सत्यपाल रजा दशरथ की क्या स्थिति होती? और राजपूती शान में एक बार बचन दे ही दिया तो फिर इतना विलाप क्यूँ? आख़िर चौदह वर्ष के बाद राम को वापस तो आना ही था. धैर्य से प्रतीक्षा करते. नही अगर बहुत अधिक पुत्र स्नेह था तो स्वयं भी साथ हो लेते. ऐसा तो किया नही. हा… राम हा….राम कहते हुए छाती पीट-पीट कर मर गए. क्षत्रीय का हृदय कहीं इतना कमजोर हुआ है.




मैं ने देखा कि खट्टर काका जिस पर शुरू होते हैं उसका उद्धार ही कर देते हैं. अभी दशरथ जी पर लगे हैं. फिर भी मैंने कहा कि लोग रामायण के चरित्रों से शिक्षा ग्रहण करते हैं....


खट्टर काका- शिक्षा तो मैं भी ग्रहण करता हूँ. बिना देखे निशाना नही लगना चाहिए. बिना सोचे बचन नही देना चाहिए. और अगर बचन दे दिया तो छाती नही पीटनी चाहिए.


मैं- खट्टर काका, आप केवल दोष ही देखते हैं.


खट्टर काका- तो गुण तुम ही दिखा दो.


मैं- महाराज दशरथ कैसे सत्यनिष्ठ थे ....


खट्टर काका- जो श्रवण कुमार बन कर अंधे माता पिता को धोखा देने गए.


मैं- राम चंद्र जी कैसे पितृभक्त थे...


खट्टर काका- जो पिता की मृत्यु का समाचार सुन कर भी सीधा आगे बढ़ते गए. लौट कर श्राद्ध कर्म करना भी उचित नही समझा.


मैं- लक्ष्मण कैसे भ्रातृभक्त थे…


खट्टर काका- जो एक भाई के तरफ़ से दूसरे भाई पर धनुष तान कर खड़े हो गये !


मैं- भरत कैसे त्यागी थे ...


खट्टर काका- जो चौदह वर्ष तक भाई की कोई खोज ख़बर भी मुनासिब नही समझा. राजधानी के राज काज से फुर्सत होती तब तो जंगल की सुधि लेते. अगर भरत अयोध्या से सेना लेकर पहुँच जाते तो राम को रावण से लड़ने के लिए बन्दर भालुओं का अहसान तो नही लेना पड़ता.


मैं- हनुमान जी कैसे स्वामिभक्त थे....


खट्टर काका- जो अपने स्वामी सुग्रीव को छोड़ कर दूसरे के साथ हो लिए.


मैं- विभीषण जैसा आदर्श.....


खट्टर काका- जो घर का भेदी लंका दाह करा दिया ! भगवान् ऐसे विभीषणों से देश की रक्षा करें.


मैं- तो आपके अनुसार रामायण में एक भी आदर्श पात्र नही है ?


खट्टर काका- है न ! रावण !


मैं- हा.. हा.. हा.. हा ! आप भी खट्टर काका हर बात में मजाक ही करने लगते हैं.


खट्टर काका- मैं मजाक नही कर रहा ! जरा तुम्ही रावण में कोई दोष तो दिखाओ !


मैं- धन्य हैं खट्टर काका ! सभी लोगों को रावण में दोष ही दोष नजर आते हैं और आपको एक अदद दोष नही मिलता ...


खट्टर काका- तो तुम्ही दिखा दो ना !


मैं- सीता-हरण...


खट्टर काका- वो तो मर्यादा पुरुषोत्तम को मर्यादा सिखाने के लिए, जो किसी कि बहन का नाक- कान नही काटना चाहिए. जल में रह कर मगर से बैर नही करना चाहिए. मृगमरीचिका के पीछे नही भागना चाहिए. किसी स्त्री का अपमान नही करना चाहिए. देखो, रावण ने सीता को लंका ले जाकर भी नाक कान नही काटा ! रनिवास में नही ले गया, अशोक वाटिका में रखा. लोग उसे भले ही राक्षस कहें पर उसके मर्यादापूर्ण व्यवहार से हर किसी को शिक्षा लेनी चाहिए.


मैं- खट्टर काका, आप तो उलटी गंगा बहा देते हैं. रावन जैसे अन्यायी का पक्ष लेते हैं और सीतापति सुंदर श्याम को....


खट्टर काका- " सीतापति निष्ठुर श्याम" कहो ! मिथिला की बेटी अयोध्या गयी और उसका नतीजा यह हुआ कि ससुराल का सुख तो दूर की बात कभी लौट के मायके भी नही आ पायी. इसी वजह से हमलोग पश्चिमी लोगों से रिश्ता करने में हिचकते हैं. पता नही किस लग्न में सीता की शादी हुई थी! लग्न तो मुनि वशिष्ठ ने ही बताया था, "अग्रहण शुक्ल पंचमी ! लेकिन क्या फायदा हुआ ! इसीलिए मिथिला में लोग अग्रहण मास में कन्यादान के लिए सहस तैयार नही होते.


मैं- आपको सीता वनवास का बड़ा हार्दिक क्षोभ है. लगता है अगर रामचंद्र जी आपको मिल जाते तो बिना लड़ाई किए नही छोड़ते ! आख़िर प्रणाम भी करते या नही ?


खट्टर काका- प्रणाम कैसे करता ? मैं ब्रहमन, वो क्षत्री्य! मैं तो उन्हें आशीर्वाद देता, कि सद्बुद्धि हो ! दूसरे अवतार में ऐसा न कीजियेगा ! मेरे जैसे ही किसी ब्रह्मन को मंत्री बनाइएगा. ऐसा काम मत कीजियेगा जिस से लोग "ए राम" कहे !!


मैं- खट्टर काका, फिर आप रामनवमी व्रत क्यों करते हैं ? मन में तो उन्हें देवता मानते ही होंगे ?


खट्टर काका- मानते हैं सो कोई उनके गुण के कारण क्या? वो तो सीता जैसी भगवती के पति थे इसीलिए भगवान्! यदि महारानी सीता नही मिलती तो भगवन कहाँ से होते ? बस दशरथ के पुत्र या अयोध्या के राजा भर रह जाते. जितने भी कार्य उन्होंने किया वो तो हर क्षत्रीय राजा करता ही है. बस एक ही कार्य उन्होंने विशेष किया. जानकी की प्रतिमा बना कर शेष जीवन बिता दिया लेकिन दूसरी शादी नही की ! इसी बात पर मैं उनका सारा कसूर माफ़ कर देता हूँ ! सीता के कारण राम का महत्व है ! इसीलिए "सीताराम" कहते हैं ! पहले सीता फिर राम !


मैं- खट्टर काका, आपको सीताजी से इतना स्नेह है फिर रामचंद्र जी पर ऐसे क्यूँ बरसते हैं ?उनके पुरखों तक को नही बख्शते हैं !


खट्टर काका प्रसाद के थाल में तुलसी-दल रखते हुए बोले- "अरे बुद्धू ! इतना भी नही समझते हो? मैं उनके ससुराल का आदमी हूँ ! ससुराल के हजाम की गाली भी प्यारी लगती है मैं तो खैर ब्रह्मन हूँ ! दूसरा ऐसे कहेगा सो किसी की मजाल है ! मैथिल का मुंह बंद करने का सामर्थ्य भगवान् में भी नही है!"

(इतिश्री भारतखण्डे जम्बूद्वीपे खट्टरपुराणान्तर्गते सपितररामोद्धार नामः द्वितीयो अध्यायः सम्पूर्णं)
*पं हरिमोहन झा की मैथिली पुस्तक “खट्टर ककाक तरंग” से साभार.*

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

शिवस्वरोदय-41

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आचार्य परशुराम राय

श्रीदेव्युवाच

कथं प्राणस्थितो वायुर्देहः किं प्राणरूपकः।

तत्त्वेषु सञ्चरन्प्राणो ज्ञायते योगिभिः कथम्।।220।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – माँ पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं- प्राण की हवा में स्थिति किस प्रकार होती है, शरीर में स्थित प्राण का स्वरूप क्या है, विभिन्न तत्त्वों में प्राण (वायु) किस प्रकार कार्य करता है और योगियों को इसका ज्ञान किस प्रकार होता है?

English Translation – Goddess Parvati said to Lord Shiva, “ How does this life force exist in the air, in what form does it exist in the body, how does it work in the Tattvas and how is it known to Yogis?”

शिव उवाच

कायानगरमध्यस्थो मारुतो रक्षपालकः।

प्रवेशे दशाङ्गुलः प्रोक्तो निर्गमे द्वादशाङ्गुलः।।221।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – भगवान शिव माँ पार्वती को बताते हैं- इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है। श्वास के रूप में शरीर में प्रवेश करते समय इसकी लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है।

English Translation – Lord Shiva said to her, “In the city of this body  breath stands like a soldier to protect it. When the breath enters the body, its length is equal to ten fingers (about seven and half inches) and twelve fingers (about nine inches) at the time of going out.”

गमने तु चतुर्विशन्नेत्रवेदास्तु धावने।

मैथुने पञ्चषष्ठिश्च शयने च शताङ्गुलम्।।222।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है।

English Translation – “At the time of walking its length is twenty four fingers (around eighteen inches), while running forty two fingers (ten and half inches), during intercourse sixty five fingers (about 16.25 inches) and during sleep it goes up to hundred fingers (about 75 inches).”

प्राणस्य तु गतिर्देविस्वभावाद्द्वादशाङ्गुलम्।

भोजने वमने चैव गतिरष्टादशाङ्गुलम्।।223।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – हे देवि, साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है।

English Translation – “O Goddess, natural length of breath is equal to twelve fingers (about nine inches), but while eating and vomiting it becomes eighteen fingers (about sixteen and half inches).”

एकाङ्गुले कृते न्यूने प्राणे निष्कामता।

आनन्दस्तु द्वितीये स्यात्कविशक्तिस्तृतीयके।।224।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – भगवान शिव अब इन श्लोकों में यह बताते हैं कि यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है।

English Translation – In few verses hereinafter, Lord Shiva describes the benefits of reduced breath length. In this verse it has been indicated that if the length of breath is reduced by one finger, one becomes a man of actions without any desire of gain. When it is reduced by two fingers, he becomes the man of pleasure and its reduction by three fingers makes a man a poet and writer.

वाचासिद्धिश्चतुर्थे च दूरदृष्टिस्तु पञ्चमे।

षष्ठे त्वाकाशगमनं चण्डवेगश्च सप्तमे।।225।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि, पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं।

English Translation – In case of reduction of breath by four fingers, one gets Vak-siddhi, i.e. what he says comes to true. By reducing five finger length of the breath, one becomes far-sighted, six fingers reduction blesses with the capacity of flying in the sky and when it is reduced by seven fingers, one gets power to move with fastest speed from one place to the other.

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गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

आँच-66 - प्रायोजित है

आँच-66 प्रायोजित है

आचार्य परशुराम राय

मेरा फोटोपिछले दिनों विचार ब्लाग पर श्री मनोज कुमार जी की एक कहानी सब प्रायोजित है प्रकाशित हुई थी। वैसे इस कहानी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो स्पष्ट न हो। फिर भी लगा कि इसकी समीक्षा की जाय। इसकी अनुमति भी मिल गयी है। अतएव यही कहानी आज की समीक्षा की विषय-वस्तु है।

कहानी के पात्र, संवाद, कथा-वस्तु आदि को स्पष्ट करने के लिए एक बात पर चर्चा करना चाहूँगा। हमलोगों ने पढ़ा था कि विद्या प्राप्त करने के तीन तरीके हैं। पहला धनेन विद्या, दूसरा सेवया विद्या और तीसरा विद्यया विद्या, अर्थात् धन देकर या सेवा करके अथवा अपनी विद्या देकर दूसरे की विद्या सीखना। इसी प्रकार आजकल लगभग सभी कार्यालयों में हमें अपना काम करवाने के लिए या तो धन देना पड़ता है अथवा किसी अन्य प्रकार से सेवा करनी पड़ती है या उनका कोई काम करना पड़ता है। और यह पूर्णरूपेण स्थापित मान्यता बन चुकी है। चाहे आपका काम नियमानुसार हो या नियम के प्रतिकूल हो, यह कोई अर्थ नहीं रखता। कुछ ऐसी ही व्यस्था पर व्यंग्य करती और संदेश देती यह कहानी है।

images (29)कथा-वस्तु कुछ इस प्रकार है- एक सरकारी अधिकारी कविताएँ लिखने का शौकीन है। हालाँकि कवि पूरी तरह अपनी कविता की गुणवत्ता के बारे में निश्चित नहीं है। पर इसे नियत करने के लिए या तो कोई काव्यमर्मज्ञ हो अथवा कोई श्रोता, जो कविता सुनकर कह सके कि आखिर कविता है कैसी? जो कवि हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि अपनी कविता दूसरों को सुनाना और उसपर उनकी वाहवाही सुनना कितना सुखद क्षण होता है। यह अधिकारी कवि भी इस प्रवृत्ति का शिकार है। वही क्यों, आर्षकवि संत तुलसीदास जी जब कहते हैं- निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होहिं अथवा अति फीका, तो हम जैसे कवि की मानसिकता का क्या कहना। कुल मिलाकर इस कहानी का अधिकारी कवि, जिसे कहानी में मैं से संबोधित किया गया है, इसी मानसिकता में जीता है और प्रसिद्ध कवि के रूप में यश पाने का स्वप्न देखता है। यही उसकी कमजोरी है। सरकारी अधिकारी और कर्मचारी एक-दूसरे की कमजोरियों का लाभ उठाने से नहीं चूकते। शिवकुमार भी बेचारा क्यों चूकता। वह आकर अपने अधिकारी कवि की कविता सुनता है और इतनी प्रशंसा करता है कि राष्ट्र कवि की उपाधि को छोड़कर लगभग सभी उपाधियाँ दे देता है। अधिकारी कवि भी शिवकुमार को समीक्षकों की सारी उपाधियाँ देने में नहीं चूकता। वह उनकी कविता को आकाशवाणी पर प्रसारित कराने का पूरा उद्योग करता है और एक दिन वह संदेश लेकर आता है कि आकाशवाणी के किसी प्रफुल्ल बाबू से बात हो गयी है और रविवार को उनकी कविताओं की रिकार्डिंग होनी है। कविताओं को आकाशवाणी पर प्रसारित करने के लिए नियत समय पर रिकार्डिंग होती है और उनका प्रसारण भी। अधिकारी ने, जैसा कि सभी रचनाकारों के साथ होता है, अपने सभी परिचितों को प्रसारण सुनने का आग्रह कर देता है। प्रसारण के तुरन्त बाद प्रफुल्ल बाबू का फोन आता है यह जानने के लिए कि प्रसारण कैसा लगा। अधिकारी प्रसारण की प्रशंसा करता है। पर प्रफुल्ल बाबू यह जानना चाहते हैं कि प्रस्तुत करनेवाली लड़की संगीता शर्मा की प्रस्तुति कैसी लगी। अधिकारी उसकी भी प्रशंसा करता है। अधिकारी के कार्यालय में चार कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक के पदों की भरती होनी है और वह लड़की संगीता शर्मा भी उसके लिए एक अभ्यर्थी है। प्रफुल्ल बाबू उसकी नियुक्ति के लिए अनरोध करते हैं। जैसा सभी अधिकारी कहते हैं- देखता हूँ मैं क्या कर सकता हूँ, इस बेचारे अधिकारी के पास भी ऐसा कहने के अलावा कोई चारा नहीं था। कुछ सप्ताह बाद शिवकुमार अधिकारी के कार्यालय में आकर कहता है- सर, काफी दिनों से कुछ सुनाया नहीं, क्या कुछ नया लिखा नहीं क्या, चलते हैं प्रफुल्ल बाबू से बात भी हो जाएगी, रिकार्डिंग का प्रोग्राम भी तय हो जाएगा आदि-आदि। कहानी का यहीं से विकास होता है। फिर शिवकुमार द्वारा आयोजित एवं नियत रेस्तराँ में समय पर अधिकारी पहुँचता है, जहाँ दोनों अर्थात् शिवकुमार और प्रफुल्ल बाबू पहले से ही पहुँचे रहते हैं। चर्चा को सुखद बनाने के लिए जूस और पकौड़े मँगाए जाते हैं। कविता पर चर्चा करने के पहले ही प्रफुल्ल बाबू अपने प्वाइंट पर आ जाते हैं और कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक की नियुक्ति के परिणाम की बात पूछ बैठते हैं। अधिकारी उन्हें बताता है कि मेरिट लिस्ट बन गयी है और उनकी कैंडिडेट मेरिट में नहीं आ पायी है। प्रफुल्ल बाबू बताते हैं कि उसकी कविता भी मेरिट पर प्रसारित नही हुई थी। यही बिन्दु कहानी का चरमोत्कर्ष और अन्त दोनों है। कहानी कहीं भी स्वाभाविकता और सरसता से विचलित नहीं हुई है।

पात्रों की बात करें तो अधिकारी कवि, शिवकुमार और प्रफुल्ल बाबू कहानी के कुल तीन प्रत्यक्ष और संगीता शर्मा अप्रत्यक्ष पात्र हैं। सभी पात्र बड़े ही स्वाभाविक रूप से आए हैं। न ही कोई पात्र अनावश्यक लगता है और न ही किसी पात्र की कमी खलती है। सभी पात्रों की भूमिका अत्यन्त कुशलता से निश्चित की गयी है और वे उसमें पूरी तरह खरे उतरते हैं।

संवाद की दृष्टि से भी कहानी काफी सशक्त है। इसके संवाद जितने सरल, चुस्त और स्वाभाविक हैं उतने ही पैने। दूसरे शब्दों में संवाद की सरलता, स्वाभाविकता और चुस्ती ही उसका पैनापन है। यह एक विरल संयोग है। शब्द-संयम की चुस्ती भी संवाद और कथानक दोनों में आद्यन्त बनी हुई है।

लेखक अपने सभी पात्रों की मानसिकता के प्रति पूरी तरह सजग है। कहानी का मनोवैज्ञानिक पक्ष बहुत ही सशक्त और आकर्षक है, जिससे कथानक आद्यन्त रोचक लगता है, कहीं भी शिथिलता नहीं है। कथानक का मनोवैज्ञानिक पक्ष ही इसके पूरे सन्देश की भाव-भूमि है, मसलन अधिकारी और कर्मचारी किस प्रकार एक-दूसरे की कमजोरियों का लाभ लेने का प्रयास करते हैं या उसके कारण कैसे वे बेवकूफी और गलतफहमियों आदि के शिकार बनते हैं। उनकी दिखायी जाने वाली उदारता या दरियादिली स्वाभाविक नहीं, बल्कि फँसाने के लिए चारा होती है।

थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि डालने पर इस कहानी में कुछ कमियाँ ऐसी हैं कि पढ़ने में सहसा सामने नहीं पड़तीं। सर्वप्रथम जो प्रत्यक्ष होता है, वह है शिवकुमार, प्रफुल्ल बाबू और संगीता शर्मा का आपसी सम्बन्ध। कहानी के पात्रों का परिचय पूरी तरह नहीं हो पाया है। वैसे इसके कारण कहानी या उसके संदेश को समझने में पाठकों को कोई कठिनाई नहीँ आती। इसी प्रकार कहानी के प्रारम्भ दी गयी भूमिका इस ढंग से आयी है जैसे किसी निबंध का भाग हो। इसमें आए तथ्यों को कुछ नाटकीय ढंग से लाया जाता तो अच्छा रहता। कमियों के प्रति मेरी अपनी दृष्टि है। कथाकार या पाठकों का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

यदि उक्त बातों को छोड़ दिया जाय, तो यह कहानी लघुकथा के लगभग सभी मानकों पर पूरी तरह खरी उतरती है और एक उत्तम लघुकथा है।

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बुधवार, 27 अप्रैल 2011

देसिल बयना–78 : जोरू-जमीन जोर के….

-- करण समस्तीपुरी

 

’कान-कनैठी… उट्ठा-बैठी…. पीपल तर पंचायती…. बबुआ पीपल तर पंचायती!’…. आह…! रेवाखंड के पछियारी छोड़ पर जो ब्रह्म बाबा का तीनगछा पीपल है, उका भी बड़ा महात्तम है। गाँव-जवार का सारा पंचायती उहें होता है। लोग कहते हैं कि रेवाखंड के ब्रह्म बाबा एकदम जाग्रत हैं। उकी पीरी छूके कोई झूठ नहीं बोल सकता है। हलांकि ई परीक्षा तो आज तक नहीं हो सका कि ई बात-सच है कि झूठ…. काहे कि आज तक वहाँ कौनो नेता की पंचायती नहीं हुई। होती तब पता चल जाता कि ब्रह्म बाबा का पीरी छूकर झूठ बोले वाला का क्या हाल होता है। इहाँ तो सब दिन भोले-भाले गँवई लोगों की ही पँचायत होती रही। उ लोग तो बेचारे ब्रहामन-वैष्नव के सामने भी झूठ बोलने से डरते हैं तो साक्षात ब्रह्म बाबा के पीरी छूकर क्या झूठ बोलेंगे। इसीलिये ब्रह्म थान रेवाखंड में पंचायती केलिये फ़िक्स हो गया था। वैसे गाँव के सरपंच भी खानदानी ही थे। पछिला तीन पुश्त से सरपंची उन्ही के घर में था। पहिले भंगेरन चौधरी, फिर उनके सपूत लखेरन चौधरी और फिर गंजेरन चौधरी।

 

और जो भी हो मगर रेवाखंडी पंचायती के आगे बिहुला के नाच और सुल्ताना के डिरेमा भी फेल था। क्या रहेगा बम्बईया फ़िलिम…! स्वांग, संवाद, जिरह, रोना-धोना, सजा सब-कुछ। बुझिये कि तीन घंटा के पूरा पैकेज। गये शनिचर बेड़िया में बूटन सिंघ और लूटन सिंघ का पंचायती था। दोनो फ़रीक ही थे। पटीदारी झगरा बारहो बरिस से चला आ रहा था। दोनों यजमान हाय कोट पटना तक से लौट के पहुँचे थे पीपल तर। बिलैतिया हजाम दोपहरे से दरी-जाजिम बिछा के ओगरवाही (रखवाली) कर रहा था। हम, चौबनिया, पकौरी लाल, कटोरिया, झोंटैला, अजगैबी और पछियारी टोल के कुछ बच्चा-बुतरु सब वही दरी पर बानर जैसे गुलाटी भर रहे थे। कबहुँ उल्टा तो कबहुँ सीधा…!

 

कुछ देर में दोनो पाटी अपने-अपने गवाह-पहचान के साथ दरी पर आमने-सामने जगह छेक लिये। दोनो सिंघ भाई तो चुपे-चाप थे मगर और आदमी में खैनी-तम्बाकू होने लगा। दुपहरी गये सरपंच बाबू भी पहुँच गये। साथ में महँगी मिसिर, चुल्हामन लाल, रकटु मियाँ और गोंगा लठैत भी थे। मोहन सरपंच बाबू को देखते ही अपने गमछे से दरी झारने लगा। पहिले सबका कुशल-समाचार हुआ। फिर शुरु हुई कार्र्वाई।

 

बड़ी बेढब मामला था रे भाई। बूटन सिंघ पाँच भाई थे। सबसे बड़े  घूटन सिंघ, फिर बूटन सिंघ, उठन सिंघ, बैठन सिंघ और जूठन सिंघ। घूटन सिंघ ब्रह्म्चारी रह गये थे मगर राज में आन-जान था। पूरा जवार उनका धाख मानता था। बूटन सिंघ अपने गिरहस्थ। उठन-बैठन दोनो पहलवान और जूठन सिंघ बहेलवा के तरह इधर-उधर घुमते रहता था।

बेचारा लूटन सिंघ एक अकेले और एक विधवा माय। पिता के अकाल मौत के बाद बूटन सिंघ सब भाई मिलके लगा उपद्रव करे। बूटन सिंघ ललकारे नहीं कि उठन-बैठन लूटन सिंघ को सोंट देता था। उपर से घूटन सिंघ का रोआब… कौन कहचरी-पंचायती बुलाए। बरकुर्वा और खिलहा का खेत तो जबरदस्ती जोत ही  लिया था फिर भी आये दिन सोंटियल बजरता था। बेचारे लूटन सिंघ हारकर डीह छोड़ घरारी पर जा बसे। इधर डीह पर बूटन सिंघ कब्जा जमा लिये थे।

 

मगर कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान। घूटन सिंघ का देहांत का हुआ पुरा घरे ढनमना गया। उसी साल काली पूजा के कुश्ती में बनरसिया पहलवान सो धोबिया-पछाड़ मारा कि उठन सिंघ की कमर सदा के लिये बैठ गयी। बैठन सिंघ की लुगाई की बूटन सिंघ की बूढ़ी घरैतिन से कभी नहीं पटती थी। रोज-रोज के कांय-कट-कट से तंग आकर बैठन सिंघ भी रेवाखंड से उठकर ससुराली दोखदरी पर जा बैठे। जूठना कलकत्ता गया था कमाने मगर उहाँ कौनो बंगालिन के जादू में ऐसन गिरिफ़्तार हुआ कि तीन बरिस से न कौनो चिट्ठी-पत्री ना आन-जान। खेलावन साह का बेटा फ़गुआ में गाँव आया तो कह रहा था कि जूठन सिंघ को बराबर धरमतल्ला में देखते हैं।

 

इधर बूटन सिंघ का दिन लदता गया और उधर लूटन सिंघ के दिन फिरते गये। येह… कड़क्का जुआन हो गया था। खुरचन पहलवान और ढकरु लठैत से पक्की दोस्ती गांठ ली थी। दोनो लूटन का द्वार ही अगोरे रहते थे। चौमास चल रहा था। एक दिन लूटन सिंघ भोरे उठे और बरकुर्वा में हल चला दिये। बूटन सिंघ रोकने तो जरूर आये मगर बैल वाला सोंटा ऐसा लगा कि बेचारे गलियाते हुए भागे। अगले हफ़्ते लूटन सिंघ खिलहा भी जोत लिये थे। इस बार बूटन सिंघ खेत पर तो नहीं गये मगर सुना था कि घरे से धमकी दिये थे। और तो और परवत्ता वाला डेढ़ बीघा गैर-मोजरुआ जमीन जो अब तक बूटन सिंघ के परिवार के जिम्मे था उस पर भी लूटन सिंघ का झंडी गड़ा गया।

 

पुत्र-शोक बर्दाश्त हो जाता है मगर धन-शोक नहीं। बूटन सिंघ की घरैतिन (पत्नी) उसी दिन के बाद से बिछावन पकड़ ली। एक दुपहरिया में लूटन सिंघ खुरचन और ढकरु के साथ पुरनका डीह पर आया और बूटन सिंघ की बंगली उजार कर अपना बांस-बल्ली लगा दिये। बूटन सिंघ थे तो घरे में, लेकिन निकले नहीं। ठीके किये। रात भर लूटन सिंघ की मंडली ढोल पीट-पीट के चौमासा गाया था। भोर भये बूटन सिंघ दूसरे पड़ोसियों को सुबक-सुबक कर पुकार रहे थे। ओह… बेचारी सिंघाइन ई मौगत बर्दाश्त नहीं कर सकी। उनके प्राण-पखेरु उड़ गये थे।

 

सिंघाइन के जाने के बाद बूटन सिंघ अलख-निरंजन हो गये थे। चलित्तर साह के चूरा-दालमोट और रामदयाल के चाय पर ही हफ़्ता के हफ़्ता काट देते थे। कहीं भोज-भात हो तभी सिद्ध दाना नसीब होता था। जे न मित्र दु:ख होहि दुखारी….!  मिसरी पाठक की हमदर्दी कुछ बढ़ गयी थी। इधर यजमानी के नैवेद में से बूटन सिंघ का हिस्सा भी लगा देते थे। पाठकजी सच्चे हितैषी थे। खरमास खतम होते ही बूटन सिंघ को लेकर शहर पुरैनिया निकले थे। हफ़्ता भर बाद बूटन सिंघ रिक्शा पर गाँव लौटे थे… ! मगर आहि रे बाप….! गये थे मिसरी पाठक के साथ मगर रिक्शा पर ई जनानी कौन बैठी है…? कहीं पाठकजी पर कमरु-कमख्या का जादू-वादू तो नहीं करवा दिये….! सब लोग दौड़ा अचरज देखे। बूटन सिंघ का रिक्शा बढता गया डीह के तरफ़। अरे तोरी के…पाछे से पाठकजी भी तेजकदम झटकते आ रहे हैं….! भीड़ उन्हे ही घेर लिया। पाठकजी संक्षेप में सब कथा बता्ये। भीड़ की आँखें चौरी हो गयी, “आहि रे दैय्या… ई बुटना की नयी लुगाई है!”

 

बूटन सिंघ अपनी गिरहस्ती फिर से बसाने में लगे थे। उधर लूटन सिंघ धीरे-धीरे कीमती जमीन सब हथियाये जा रहा था। लचार बूटन सिंघ नयी जोरू के सामने बेजार होने से बच रहे थे। और कोई चारा भी नहीं था। लूटन सिंघ फिर से अपना बोरिया-बिस्तर डीह पर ही ले आये थे। दरवाजे पर जोरा बैल और सिम्पनी गाड़ी भी बांध लिया था। इधर जितना ही रमन-चमन था उधर उतनी ही लाचारी। अभावग्रस्त अधवयस बूटन सिंघ और शहर पुरैनिया की नयी लुगाई… रोज अट्ठा-बज्जर होने लगा। एक दिन सांझ को बूटन सिंघ मंगल पेठिया से लौटे तो घर सूना मिला। बड़ी देर तक बाहर बैठ के इंतिजार किये थे। हर आने-जाने वाली से पूछे मगर कौनो सुराग नहीं मिला। बेचारे सिंघजी रात भर सो नहीं सके। भरे रात दलान में बैठे अंगोछे से मच्छर भगाते रहे। अगले दिन पूरे गाँव में गुल-गुल हो रहा था। बूटन सिंघ सांझ में कंजरी कहारिन से बात कर रहे थे। वो लूटन सिंघ के दलान के तरह इशारा करके कुछ फुसफुसा रही थी। कंजरी की आँख-मुँह, भौंह सबकुछ चमक रहा था। बेचारे बूटन सिंघ डबडबाई आँखों को गमछी के कोर से पोछ रहे थे।

 

सारी बातें सुनने के बाद सरपंच बाबू लूटन सिंघ की ओर मुखातिब हुए। लूटन सिंघ बोले, “सरपंच बाबू, जमीन हमने सिरिफ़ वही जोता है जो हमरे हिस्से का था। बरकुर्वा और खिलहा इन्होने जबर्दश्ती हथिया लिया था। परवत्ता और कोठा वला गैर-मोजरुआ पर इत्ता दिन से यही कब्जा जमाए थे। आखिर हम भी तो उसी खानदान से हैं। हमें भी तो हिस्सा मिलना चाहिये। जब इनकी बांह में जोर था तो ये जोते। अब हमारा जोर है हम जोत रहे हैं। है हिम्मत तो लेके दिखायें। रही बात इनके जोरू की… तो हम उको डोली फ़ना के नहीं लाये हैं। वो खुदहि हमरे द्वार पर आ गयी। अब कुछो है… मगर है तो हमरे खानदान की औरत। हम धक्का देके तो नहीं निकाल सकते हैं न। और न ही इनका जोर-अजमाईश चलने देंगे। हाँ, अगर उको इच्छा हो तो कहीं जाए। हम नहीं रोकेंगे।”

 

फिर पंचायत ने पुरैनिया वाली को तलब किया। उंहु…. ई शहर पुरैनिया की औरत है। टकाटक जवाब दे रही है, “कुछो हो जाये, हम लूटन सिंघ को छोड़कर नहीं जाएंगे। ई बेइमान पठकवा हमें किसी और का फोटु दिखाया था। कहिस कि ई बुढौ लड़के का काका है। और इहाँ आके…. हाय राम…..!” अहि तोरी के… इ का पुरैनिया वाली तो एं-एं कर के रोने भी लगी। उधर लूटन सिंघ की आंखों में रोष था। यही सब वजह से तो हमें पंचायती में बिहुला के नाच से भी ज्यादे मजा आता है।

 

आखिर पंचो ने आपस में सलाह मशवरे के बाद फ़ैसला सुनाया, “चूकि जो जमीन लूटन सिंघ जोत रहे हैं उसपर बूटन सिंघ के परिवार का कानूनन अधिकार कभी भी  नहीं रहा है। जिसका जोर चला उ जमीन जोत लिया। इसमें पंचायत कुछ नहीं कर सकती। रही बात बूटन सिंघ की जोरू की। तो उसके शादी-बियाह का भी कौनो परमाण है नहीं….! मूल-मोकाम भी पता नहीं। चार महीना बूटन सिंघ के घर में रही। वो भी बालिग है। अपनी मर्जी से गयी है। इसीलिये पंचायत ई में लूटन सिंघ का कौनो दोष नहीं देखती है। साथ ही बूटन सिंघ को यह सलाह देती है कि जौन हुआ उको होनी समझ कर कबूल कर लें। आखिर ईसब के पीछे शुरुआत तो उन्हीं का है।”

 

लूटन सिंघ मूँछ पर ताव देने लगे तो बूटन सिंघ महँगी मिसिर के आगे गिरगिरा पड़े, “पंडीजी ! आप तो शास्त्र-पुराण बांचते हैं। आपही कहिये ई कहाँ का न्याय हुआ?” पंडीजी तम्बाकू पर चाटी देते हुए बोले, “अब का कीजियेगा बूटन  बाबू! ई तो सब दिने से चला आ रहा है। ’जोरू-जमीन जोर के ! जोर घटे किसी और के !!’ रमैण में भी परमाण है। किष्किन्हा के राजा सुगरीब था। मगर उससे ज्यादे बलबान बाली लौटा तो राज भी छीन लिया और लुगाई भी। ई तो तभिये से चला आ रहा है। आपके पास अपनी संपत्ति याकि जिम्मेदारियों को संभालने की कूवत है तो ठीक है नहीं तो जिसमें कूवत होगी वह ले जायेगा।” पंडीजी एक चुटकी खैनी बूटन मिसिर की हथेली पर रखकर आगे बढ़ गये। उधर लूटन सिंघ पुरैनिया वाली के साथ आगे चल रहे थे और पीछे से खुरचन पहलवान और ढकरु लठैत।

 

बेचारे बूटन सिंघ डबडबाती आंखों से एक बार पुरैनिया वाली को और एक बार हथेली पर पड़ी चुटकी भर खैनी को देखते रहे। बहुत रोकने पड़ भी आंसू ढलक ही पड़े। होंठ बुदबुदा कर रह गये, “जोरू जमीन जोर के ! जोर घटे किसी और के !!”

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

डायवोर्स

-- सत्येन्द्र झा

 

“बड़े दु:ख की बात है। मेरे पड़ोसी ने अपनी पतनी को डायवोर्स दे दिया।”

“डायवोर्स…. मतलब?”

“डायवोर्स मतलब तलाक…. पति-पत्नी के मध्य किसी प्रकार का संबंध नहीं। न शारीरिक ना ही वैचारिक। डायवोर्स में पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।”

“यह तो अच्छी बात है….!”

“दूर्र…. तुम पगली हो क्या?”

“हाँ, मैं पगली हूँ… क्योंकि मैं वर्षों से देखती आ रही हूँ कि मेरा बाप सवेरे उठ कर कहीं चला जाता है। आधी रात को दारू के नशे में टुन्न होके आता है। माँ को गाली देता है। आये दिन मारता-पीटता भी है। माँ भीख-दुख से हम पाँचो भाई-बहनों का पेट भरती है लेकिन कभी अपनी माँग में सिन्दूर लगाना नहीं भूलती।

“…………………..”

आंसुओं की कई बूंदे जमीन को गीली कर देती हैं। किसके आँसू पता नहीं।

 

(मूल कथा मैथिली में ’अहींकेँ कहै छी’ में संकलित डायवोर्स से हिन्दी में केशव कर्ण द्वरा अनुदित।)

 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

नवगीत : तुम्हारी याद

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images (14)सारे दिन की

दौड़-धूप के बाद,

           तुम्हारी याद

मन के इस जलते जंगल में

          जैसे नदी बहे।

 

हारा-थका

बिछौने पर हूं

       ऐसे बिछा हुआ।

जैसे

निर्जन घाट किनारे

    किसी युवा लड़की का

आधा आंचल फिंचा हुआ।

यादों की

सीढ़ी पर उतरे

रानी अनबोलन का डोला,

कोई प्राणों में रहस्य के

        मोहन-मंत्र कहे।

 

अपनी छुअन

तुम्हारे कंपन

विजन मुलाक़ातें।

कैसे लिखूं

तुम्हारे आंचल

वह कौतूहल-प्रियता

कच्चे अनुभव की बातें।

एक-एक कर

फेंक रहा है

        विरह नदी में

मन धीरज के

        टुकड़े रहे-सहे।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-63

भारतीय काव्यशास्त्र-63

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में स्वतःसम्भवी अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि, कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि और कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के विवेचन के साथ-साथ स्वतःसम्भवी अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के चार भेदों पर विचार किया गया था। इस अंक में कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के भेदों पर सोदाहरण चर्चा की जाएगी। पिछले अंक में यह भी चर्चा की गयी थी कि कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के भी चार भेद- वस्तु से वस्तु व्यंग्य, वस्तु से अलंकार व्यंग्य, अलंकार से वस्तु व्यंग्य और अलंकार से अलंकार व्यंग्य होते हैं।

यहाँ सर्वप्रथम कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के प्रथम भेद वस्तु से वस्तु व्यंग्य के लिए निम्नलिखित उदाहरण दिया जा रहा है-

कैलासस्य प्रथमशिखरे वेणुसम्मूर्च्छनाभि:

श्रुत्वा कीर्ति विबुधरमणीगीयमानां यदीयाम्।

स्रस्तापाङ्गाः सरसबिसिनीकाण्डसञ्जातशङ्का

दिङ्मातङ्गा: श्रवणपुलिने हस्तमावर्त्तयन्ति।।

अर्थात् कैलास पर्वत की पहली चोटी पर वंशी की मूर्च्छनाओं पर अलौकिक अप्सराओं द्वार गाई जानेवाली जिस राजा की कीर्ति को (अत्यन्त उज्ज्वल के कारण) सुनकर दिग्गज (दिक्पाल हाथी) अपनी आँखें तिरछी करके सरस मृणाल-खंड की समझकर (कानों की ओर देखने का प्रयास करते हुए से) मृणाल-खंड को पकड़ने के लिए अपने कानों की ओर अपने सूँड़ों को घुमा रहे हैं।

यहाँ श्लोक में कवि द्वारा कल्पित वस्तु से जिन हाथियों को गीत के अर्थ का ज्ञान लोक में सम्भव नहीं है उनमें भी इस प्रकार की बुद्धि (कीर्ति के अतिशय धवल होने के कारण मृणाल समझना) उत्पन्न करके राजा का यश चमत्कारपूर्ण है, यह वस्तु ध्वनित होती है। अतएव इसमें कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से वस्तु व्यंग्य है।

अब वस्तु से अलंकार व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। यहाँ मूल श्लोक प्राकृत भाषा में है। अतएव यहाँ मूल के साथ-साथ उसकी संस्कृत छाया भी दी जा रही है-

केसेसु बलामोडिअ तेण अ समरम्मि जअसिरी गहिआ।

जह कन्दराहिं बिहुरा तस्स दढं कंठअम्मि संठविआ॥

(केशेषु वलात्कारेण तेन च समरे जयश्रीर्गृहीता।

यथा कन्दराभिर्विधुरास्तस्य दृढं कण्ठे संस्थापिता:॥ इति संस्कृतम्)

अर्थात् उसने (राजा ने) युद्धक्षेत्र में (सुरत-भूमि में) जबरदस्ती बालों को पकड़कर जयश्री का ऐसा आलिंगन किया कि उसे देखकर (रतिक्रीड़ा को देखकर) मदनोन्मत्त कन्दराओं ने उसके शत्रुओं को जोर से गले से लिपटकर रोक लिया।

यहाँ राजा के द्वारा विजयश्री का केश-ग्रहण को देखने (वस्तु-रूप) से मदनोन्मत्त सी हुई कन्दराएँ (मानो) उसके शत्रुओं के गले से लिपट रही हैं। इसमें उपमान की उपमेय में सम्भावना के कारण उत्प्रेक्षालंकार व्यंग्य है। पुनः एक स्थान पर युद्ध में उस राजा की विजय (रूप वस्तु) देखकर उसके शत्रु भागकर कन्दराओं में रहने लगे (वस्तु से) काव्यलिंग अलंकार व्यंग्य है (जहाँ विशेष युक्ति द्वारा कारण देकर पद या वाक्य के अर्थ का समर्थन किया जाता है, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है)। यदि थोड़ा और आगे बढ़ें तो पाएँगे कि यहाँ अपह्नुति अलंकार भी व्यंग्य है- क्योंकि शत्रु भागकर गुफाओं में नहीं गये, बल्कि उस राजा से हार जाने के डर से पहले से ही गुफाओं में रह रहे शत्रुओं को गुफाएँ जाने नहीं देती, यह व्यंग्य है (जहाँ प्रस्तुत अर्थात् उपमेय का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत अर्थात् उपमान की स्थापना की जाय, वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है)।

अब कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीसरे भेद- अलंकार से वस्तु व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। मूल श्लोक प्राकृत भाषा में है, अतएव संस्कृत छाया के साथ यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-

गाढालिंगणरहसुज्जुअम्मि दइए लहुं समोसरइ।

मणंसिणीण माणो पीलणभीअ व्व हिअआहि॥

(गाढालिङ्गनरभसोद्यते दयिते लघु समपसरति।

मानस्विन्या मान: पीडनभीत इव हृदयात् ॥इति संस्कृतम्)

अर्थात् इसका (नायिका का) गाढालिंगन करने के लिए प्रियतम के उद्यत होते ही दोनों के बीच में दब जाने के डर से मानो मानिनी का मान उसके हृदय से तुरन्त दूर हो गया।

यहाँ उत्प्रेक्षालंकार से प्रत्यालिंगन आदि वस्तु ध्वनित हो रही है, अतएव इसे अलंकार से वस्तु व्यंग्य माना जाएगा।

अब कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के चौथे और अंतिम भेद- अलंकार से अलंकार व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। यहाँ भी मूल श्लोक प्राकृत भाषा में है, अतएव संस्कृत छाया के साथ यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-

जा ठेरं व हसन्ती कइवअणंबुरुहबद्धविणिवेसा।

दावेइ भुअणमंडलमण्णं विअ जअइ सा वाणी॥

(या स्थविरमिव हसन्ती कविवदनाम्बुरुहबद्धविनिवेशा।

दर्शयति भुवनमण्डलमन्यदिव जयति सा वाणी॥ इति संस्कृतम्)

अर्थात् वृद्ध (बह्मा) का उपहास करती हुई सी कवि के मुख-कमल पर बैठी हुई वह वाणी समस्त भुवन-मंडल को अन्य प्रकार सा अर्थात् अलौकिक रूप दिखलाती है, अतएव वह ब्रह्मा की अपेक्षा सब तरह से उत्कृष्ट है।

यहाँ कमल के आसन पर बैठकर जगत की सृष्टि करनेवाले स्थविर (वृद्ध अर्थात् ब्रह्मा) पर कवि के मुख-कमल पर बैठी वाणी हँसती हुई सी में उत्प्रेक्षालंकार है और ब्रहमा द्वारा सृष्ट जगत छः रसों से युक्त है, जबकि कवि की वाणी नौ रसों से युक्त है। अर्थात् कवि की वाणी (सृष्टि) ब्रह्मा की सृष्टि से उत्कृष्ट है, यह यहाँ व्यंग्य है। कवि की वाणी (उपमेय) की ब्रह्मा की सृष्टि (उपमान) से उत्कृष्टता व्यंजित होने के कारण व्यतिरेक अलंकार होगा। अतएव यहाँ उत्प्रेक्षालंकार से व्यतिरेकालंकार की व्यंजना है।

अगले अंक में कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के भेदों पर चर्चा की जाएगी।

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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

सेवा में, श्री कपिल सिबल : प्रेषक - करण समस्तीपुरी

बैंगलोर


२३-०४-२०११


आदरणीय कपिल चचा,


सादर प्रणाम !


कुशलपूर्वक रहते हुए आशा करता हूँ कि आप भी सकुशल, स्वस्थ एवं सुबुद्ध होंगे। आपका पत्र मिला। यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ Portrait of Kapil Sibalकि आपने बिहार के अधिकारियों के प्रतिनिधिमंडल को दिल्ली आमंत्रित किया है, प्रदेश के शिक्षा-ढांचे में विकास पर चर्चा के लिये। सुना है कि आपने कुछ परियोजनाओं को मंजूरी भी दे दी है। बहुत अच्छा लगा। आपकी दरियादिली देख कर एक प्राचीन दोहा याद आ गया। वैसे आपभी तो साहित्य-प्रेमी हैं। आपको भी अच्छा लगेगा। जरा ध्यान से पढियेगा। हिन्दी का बहुत ही प्राचीन दोहा है,


“दोना पात बबूल का, वा में तनिक पिसान! राजा जी करने लगे छ्ठे-छमासे दान!!”


साथ ही साथ एक कहावत भी याद आ गयी, “हाथी चले बजार……..!” अब देखिये न आप कितनी बारीकी और समरसता के साथ पूरे भारत में शिक्षा-ढांचे के विस्तार एवं आधुनिकीकरण का प्रयास कर रहे हैं और मीडिया का एक तबका कुछ से कुछ बक रहा है। आप कितनी संजिदगी से विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं भारत में खुलवाने के लिये तत्पर हैं, भले देशी संस्थाएं जायें भांड़ में। वैसे भी घर की दाल बराबर मुर्गी को कौन पूछता है? लेकिन सुना है कि उन संस्थाओं में धन-कुबेर की संताने ही जा सकेंगी। खैर क्या होगा? जो जाने लायक होंगे वही जायेंगे न… जो नहीं होंगे वो ऐसे ही देश-प्रदेश में गालियां सुनते रहेंगे। वैसे अखबार-पत्रिका वगैरह में पढ़्ते रहते हैं कि कैंब्रिज और ओक्स्फ़ोर्ड में एडमिशन से मुश्किल यहाँ के आई.आई.एम में एडमिशन मिलना है। आपको तो पता ही होगा, एक कोई पत्रिका है ’फ़ोर्ब्स’, बराबर कोई-कोई सर्वे और आंकड़े दिया करती है। उसी को उद्धृत करते हुए किसी अखबार में पढ़े थे कि ओक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज के स्नातकों की तुलना में आई.आई.एम स्नातकों की औसत पैकेज भी ज्यादा है।


एक बार कहीं सुने थे कि धनबाद के ’इंडियन स्कूल आफ़ माइंस’ जैसी संस्था पश्चिमी देशों में भी नहीं है। लेकिन क्या होगा… ये लोग कूप-मंडूक हैं। इन्हे बाहरी दुनिया की आबोहवा क्या मालूम? आखिर ’इम्पार्टेड माल’ की बात हीं कुछ और है। मंगाइये… सभी विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं खुलवाइये और जिनकी शाखायें नहीं हों तो भी चूकियेगा मत। नये विश्वविद्यालय ही खुलवा दीजिये। देशी संस्थाओं की अनदेखी का आरोप लगे तो लगे। आरोपों का क्या है, समझ लीजियेगा कि हवन करते हाथ जल गया। वैसे भी आप नेता हैं और नेताओं पर तो आये दिन पता ही है, कैसे-कैसे आरोप लगते रहते हैं।


नेता तो नेता आप तो सुप्रसिद्ध वकील भी हैं। कैसे-कैसे आरोपों का चुटकियों में खंडन कर देते हैं। अभी हाल ही में तो अरबों रुपये का टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला करने वाले पूर्व दूर-संचार मंत्री पर भी लग रहे संगीन आरोपों को आपने प्रेस-कांफ़्रेंस में निराधार बताते हुए राजाजी को क्लीन चीट दे दिया था। लेकिन हमको लगता है, चचाजी, कि आप उस दिन कुछ हरबरी में थे। बढ़िया से रिपोर्ट वगैरह नहीं पढ़े होंगे। वरना आपके जैसे चतुर वकील से ऐसी भूल कैसे होती? सुना है कि न्यायालय ने राजा और उनके सहयो्गियों को जेल भेज दिया है। आप आरोपों को मानिये या ना मानिये मगर हमको तो लगता है कि ये राजा-मंत्री सब जरूर कुछ न कुछ गलत किये होंगे नहीं तो अदालत ऐसे ही किसी को जेल में थोड़े ठूंस देती है। आखिर अदालत में आपका भी यकीन तो है न।



वैसे तो कहने वाले आप पर भी आरोप लगाते हैं कि सिबल साहब उच्च शिक्षा का महानगरीकरण कर रहे हैं। लेकिन हम नहीं मानते हैं। अब बताइये आजादी के इतने सालों बाद आखिर बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश को भी आई.आई.टी किसने दी…? कपिल सिबल ने। यहां तक कि उसके नये भवन की आधारशिला रखने के लिये पटना भी आये। यह पहला मौका था जब वर्तमान मंत्रीजी १९९८ में प्रदेश से पहली बार राज्यसभा के लिये चुने जाने के बाद बिहार आये थे। फिर भी कहने वालों के पास भी तर्कों की कमी नहीं है। कहते हैं, आई.आई.टी दे दिया तो क्या उन्होंने तो आई.आई.टी. में प्रवेश के लिये बारहवीं में इतने ऊंचे प्रतिशत अंक की सिफ़ारिश की थी कि बिहार जैसे प्रदेश के छात्रों को उनमें नामांकन ही नहीं मिलता। हम कहते हैं सब बकवास है। मेधा और प्रतिभा क्षेत्र विशेष पर कैसे निर्भर करेगी? मानक बदलने से हौसला थोड़े न बदल जाता है। अब हंडरेड परसेंट मार्क्स ही कर दें तो क्या…? फिर से कोई “एग्ज़ामिनी बेटर दैन एग्ज़ामिनर” निकल आयेगा। गीता में भगवान ने कहा है, “तेजस्विना वधितमस्तु”। यह वाक्यांश आपही के विभाग के अन्तर्गत आने वाला “भारतीय प्रबंधन संस्थान, बंगलुरु” का टैग-लाइन भी है। बिहार में पैदा हो या बंगाल में तुलसी तथागत जैसे तेजस्वियों को कौन रोक सकता है…? ये मीडिया वाले भी समझते-बूझते हैं नहीं, बात का बतंगर बना देते हैं। असली बात तो हम जानते हैं न…। आप जुवान के तेज जरूर हैं मगर दिल से बहुत ही भोले हैं।


लेकिन आप इतने बड़े मंत्री हैं। कानूनविद हैं। आपको थोड़ा संयत रहना चाहिये। आपको तो पत्रकार लोग वैसे ही उकसा रहे थे। आप खा-म-खा बोल दिये कि “बिहार के छात्र दिल्ली आते ही क्यों हैं पढ़ने के लिये।” हमको तो नहीं लगता है कि आपको कारण पता नहीं होगा कि बिहारी छात्र पढ़ने के लिये दिल्ली या अन्य प्रदेशों में क्यों जाते हैं। और अगर पता नहीं ही था तो हमसे पूछ लेते। घर की बात घर में ही हो जाती। इन पत्रकारों को क्या मालूम…? वैसे भी उत्तर आधुनिकतावाद की तेज हवा में पत्रकार रह कहाँ गये…? जिनके हाथ पत्र है उनके हाथ कार नहीं और कार हाथ लगा तो पत्र को तो भूल ही जाइये। वैसे हम हैं तो आपके बच्चे ही मगर जब आप पूछ ही लिये हैं तो कारण बता देते हैं।


चचा जी, वैसे तो आजादी के बाद से केंद्र (और अधिकांश राज्यों में भी) में आपके दल की ही सरकार रही मगर हमको लगता है कि आपके पूर्ववर्ती मानव-संसाधन-विकास एवं शिक्षा मंत्री आपकी तरह कार्य-कुशल नहीं रहे जो हर प्रदेश में हर स्तर की उत्कृष्ट शिक्षा की व्यवस्था कर देते। अब बताइये मद्रास में आई.आई.टी बना दिया और बंगलोर में आई.आई.एम। है तो दोनो उत्कृष्ट संस्थाएं मगर एक अभियंत्रण के लिये और दूसरी प्रबंधन के लिये। अब दोनो व्यवस्था करवा दीजिये तो एक प्रदेश के छात्र दूसरे प्रदेश में नहीं जायेंगे। लेकिन बंगाल में तो दोनो हैं… तो कया बंगालियों को शिक्षा के लिये बंगाल से बाहर नहीं जाना चाहिये? रही बात बिहार की तो आई.आई.टी., आई.आई. एम. तो दूर, इतने वर्षों में आपलोगों ने एक अदद केन्द्रीय विश्वविद्यालय तक नहीं दिया। तमाम विषमताओं के बावजूद प्रदेश के मेधावी छात्र उच्च तकनीकी शिक्षा के लिये प्रदेश से बाहर नहीं जायेंगे तो क्या करेंगे…?


पटना में युवा गणितग्य श्री आनंद कुमार एक कोचिंग संस्था चलाते हैं, “सुपर थर्टी”। वे प्रदेश के गरीब छात्रों को निःशुल्क आई.आई.टी.-ज़ी की तैय्यारी करवाते हैं। पिछले कई वर्षों से इस संस्था से प्रति वर्ष कम से कम तीस छात्र आपही के विभाग द्वारा संचालित आई.आई.टी-ज़ी की प्रवेश परीक्षा में टाप हंडरेड में जगह बनाते रहे हैं और आपके विभाग के मातहत हीं उनकी काउंसिलिंग के बाद उन्हें देश भर के विभिन्न आई.आई.टी’ज में स्थान आवंटित किया जाता रहा है। इसमें बिहारी छात्रों का क्या दोष है ? वे तो नामंकन के लिये निर्धारित प्रतिशत अंक और अन्य माणदंडों को पूरा करते हैं। फिर भी यह अगर आपको नागवार गुजरती है तो अभी तो सरकार भी आपही की है। ले आइये संसद में “बिहारी छात्र शिक्षा निषेध विधेयक”। शिक्षा ही क्यों संविधान बना दीजिये कि बिहार के लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार अथवा किसी भी उद्देश्य से भारत के किसी अन्य प्रदेश में प्रवेश की अनुमति नहीं है।



क्या यह मुमकिन है? नहीं न…? तो आप खा-म-खा कुछ-से-कुछ बोल कर अपना छिछा-लेदर करवाते रहते हैं। अरे माना कि आप वकील हैं। बोलने की आदत रही है। लेकिन सम्प्रति आप एक जिम्मेदार केंद्रीय मंत्री हैं। सवाल सिर्फ़ जुवान फिसलने की नहीं है। इससे आप अपने मुखालिफ़ों को रूम दे देते हैं बखिया उधेरने की। अब बताइये आप स्वयं पंजाब के हैं लेकिन आपभी तो ग्रेजुएशन-पोस्ट ग्रेजुएशन और कानून की शिक्षा के लिये दिल्ली आये। दिल्ली ही क्या… आपने तो कानून में परास्नातक की उपाधि हार्वर्ड ला स्कूल से प्राप्त की है। आपके दोनो सुपुत्र अखिल एवं अमित भी विदेशों में पढ़े-लिखे हैं। स्टैनफ़ोर्ड, कैम्ब्रिज और हार्वर्ड… आपको तो याद ही होगा। राष्ट्रपिता महत्मा गांधी एवं प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरु भी पढ़ने के लिये इंगलैंड गये थे। यही नहीं आपके दल के प्रथम परिवार का हर सदस्य तो विलायत में ही पढ़ा-लिखा है। कभी बिहार के नालंदा और तक्षशिला में देश-विदेश से लोग आते थे शिक्षा ग्रहण करने। आखिर आप उन सब से ही क्यों नहीं पूछ लेते हैं कि वे क्यों गये थे अपने गृह-प्रदेश के बाहर।



इस तरह तो आप आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर जो जुल्म होते हैं उसका विरोध करने का नैतिक अधिकार भी खो देंगे। कनाडा में पंजाबियों (ये तो आपके भाई-बंधु ही हैं) के साथ हो रहे भेद-भाव के लिये आप क्या कहेंगे? “पंजाबी कनाडा जाते ही क्यों हैं?” खैर यह पत्र अब बहुत बड़ा हो रहा है। ज्यादा क्या लिखें, आपतो खुदही इतने समझदार हैं। कम लिखना ज्यादा समझना। अन्त में एकही गुहार करते हैं, “चचाजी ! आप इतने बड़े हैं, सुशिक्षित हैं, संविधानवेत्ता हैं, एक जिम्मेदार मंत्री हैं। आप जब ऐसी बातें करेंगे तो हम बच्चे क्या सीखेंगे ? फिर तो राष्ट्रीय एकता-अखंडता-समरसता के बदले क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और पता नहीं कौन-कौन-सी दुर्वाद की चिंगारी भड़कने लगेगी। फिर भारत की अखंडता और संप्रभुता का क्या होगा, चचा ?



PC300160शेष अगले पत्र में। प्रोमिला आंटी को मेरी तरफ़ से नमस्ते कहियेगा। पत्र लिखने में कुछ भूल-चूक हो गयी हो तो माफ़ करेंगे। पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में,


आपका,


करण समस्तीपुरी


(नोट : जिन किसी पाठक/पाठिकाओं को यह पत्र मिले कृपया इमानदारीपूर्वक श्री कपिल सिबल तक पहुंचा देंगे। इसमें गोपनीय पारिवारिक बाते हैं।)

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

शिवस्वरोदय – 40

शिवस्वरोदय – 40

आचार्य परशुराम राय

स्वरज्ञानं धनं गुप्तं धनं नास्ति ततः परम्।

गम्यते तु स्वरज्ञानं ह्यनायासं फलं भवेत्।।214।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव इसके अन्वय की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ- भगवान शिव कहते हैं कि हे देवि, स्वरज्ञान से बड़ा कोई भी गुप्त ज्ञान नहीं है। क्योंकि स्वर-ज्ञान के अनुसार कार्य करनेवाले व्यक्ति सभी वांछित फल अनायास ही मिल जाते हैं।

English Translation – Lord Shiva said, “O Goddess, there is no most secret knowledge in the world other than the science of breath (Swarodaya). Because one can get desired result by performing his work in his life according to the instructions given in it.”

श्री देव्युवाच

देव देव महादेव महाज्ञानं स्वरोदयम्।

त्रिकालविषयं चैव कथं भवति शंकर।।215।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – देवी भगवान शिव से कहती हैं- हे देवाधिदेव महादेव, आपने मुझे स्वरोदय का सर्वोच्च ज्ञान प्रदान किया। मुझे अब यह बताने की कृपा करें कि स्वरोदय ज्ञान के द्वारा कोई कैसे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता हो सकता है।

English Translation – The Goddess said to Lord Shiva, “O God of gods, you initiated me in the highest knowledge of breath (Swarodaya). Now you are requested to tell me how one can have knowledge of present, past and future.”

ईश्वर उवाच

अर्थकालजयप्रश्नशुभाशुभमिति त्रिधा।

एतत्त्रिकालविज्ञानं नान्यद्भवति सुन्दरि।।216।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ - माँ पार्वती के इस प्रकार पूछने पर भगवान शिव ने कहा- हे सुन्दरि, काल के अनुसार सभी प्रश्नों के उत्तर तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- विजय, सफलता और असफलता। स्वरोदय के ज्ञान के अभाव में इन तीनों को समझ पाना कठिन है।

English Translation – In reply to the question put forth by The Goddess, Lord Shiva said to her, “O Beautiful Goddess, all the time we need to know about victory, success and failure. We cannot know about these three aspects of our life without the knowledge of Swarodaya.”

तत्त्वे शुभाशुभं कार्यं तत्त्वे जयपराजयौ।

तत्त्वे सुभिक्षदुर्भिक्षे तत्त्वं त्रिपादमुच्यते।।217।।

अन्वय - तत्त्वं त्रिपादमुच्यते, तत्त्वे शुभाशुभं कार्यं तत्त्वे जयपराजयौ तत्त्वे सुभिक्षदुर्भिक्षे (च)।

भावार्थ – तत्त्व को त्रिपाद कहा गया है, अर्थात् तत्त्व के द्वारा ही शुभ और अशुभ, जय और पराजय तथा सुभिक्ष और दुर्भिक्ष को जाना जा सकता है।

English Translation – Further Lord Shiva Said, “Tattvas have three aspects- auspicious and inauspicious, victory and defeat & profit and loss. Desired result can be achieved by proper use the knowledge of Tattvas active in the breath as stated earlier.”

श्री देव्युवाच

देव देव महादेव सर्वसंसारसागरे।

किं नराणां परं मित्रं सर्वकार्यार्थसाधकम्।।218।।

अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – भगवान शिव का ऐसा उत्तर पाकर माँ पार्वती ने पुनः उनसे पूछा- हे देवाधिदेव महादेव, सम्पूर्ण भवसिन्धु में मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र कौन है और यहाँ वह कौन सी वस्तु है जो उसके सभी कार्यों को सिद्ध करता है?

English Translation – Thereafter the Goddess again said to Lord Shiva, “O Lord, who is the best friend in the world and by which one can get full success in the life?”

ईश्वर उवाच

प्राण एव परं मित्रं प्राण एव परः सखा।

प्राणतुल्यो परो बंधुर्नास्ति नास्ति वरानने।।219।।

अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – माँ पार्वती को उत्तर देते हुए भगवान शिव ने कहा- हे वरानने, इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है।

English Translation – In reply, Lord Shiva said to her, “ O Beautiful Goddess, vital energy (breath) is the best friend of human being in the world and one can get full success in the life by using its knowledge as described in the science of breath (Swaroday Vijnian). There is nothing the most useful in the universe other than this knowledge.”

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गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

आंच पर - सफ़े ज़िन्दगी के

समीक्षा
आँच-65
सफ़े ज़िन्दगी के
हरीश प्रकाश गुप्त
आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है।
मेरा फोटोशिखा वार्ष्णेय के ब्लाग स्पंदन पर इसी माह 11 अप्रैल को खयाली मटरगश्ती शीर्षक से सम्मिलित क्षणिकाओं के रूप में एक रचना प्रकाशित हुई थी। जब मैंने इसे पढ़ा तो यह मुझे बहुत आकर्षक लगी। मैंने इसके अलग-अलग पदों को स्वतंत्र रूप में देखने के बजाए समेकित रूप में देखा तो वे सब एक सूत्र में पिरोए लगे। तब मुझे लगा कि इसका क्षणिकाएं शीर्षक कुछ दुविधामय है। मुख्य शीर्षक खयाली मटरगश्ती तो इसे कवयित्री द्वारा हल्के-पुलके अंदाज में लिखा जाना ही दर्शाता है परंतु इसकी भावभूमि की गंभीरता इस रचना की गुरुता को व्यक्त करती है। इसलिए सोचा कि क्यों न इसे ही आज की आँच का प्रतिपाद्य बनाया जाए।
भावनात्मक दृष्टि से शिखा की यह कविता बहुत ही संजीदा है जो अलगाव के पश्चात भी रिश्तों की नरमी और गरमी के अहसास से सराबोर है। ऐसा प्रायः ही घटित होता है कि दूरियां रिश्तों के आस-पास कभी बुने गए सघन ताने-बाने को बहुत नजदीक से और स्पष्ट रूप से दिखाती हैं। जिससे अन्यतम संबन्ध रहे होते हैं, उससे कुछ भी छिपा नहीं होता और एक की जिन्दगी के निजी पहलू दूसरे से इतना असम्पृक्त होते हैं कि उनका पृथक अस्तित्व देखना आसान नहीं होता। परंतु दूरियां बढ़ने पर वे होते तो वहीं आसपास ही हैं, लेकिन आत्मीयता का बंधन न होने के कारण वहीं बिखरे, अर्थात महत्वहीन ढंग से अस्त-व्यस्त पड़े होते हैं। कवयित्री ने इसे बहुत ही सुन्दर तरीके से व्यक्त किया है –
अपनी जिंदगी की
सड़क के
किनारों पर देखो
मेरी जिंदगी के
सफ़े बिखरे हुए पड़े हैं।
इस प्रेममय रिश्ते के अहर्निश साक्षी रहने वाले चाँद और सूरज के रूप में सम्पूर्ण प्रकृति इस बिखराव से उद्विग्न होती है और दोनों के मध्य संवाद रुकने से निराश होती है। ये दूरियां विपरीत चुम्बकीय ध्रुवों की भांति आकर्षण पैदा करते हुए सुख की तलाश कराती हैं। अपने साथी की सहानुभूति और संवेदना के दो शब्दों का स्मरण व उसके प्रति लगाव ठण्डे पड़ चुके रिश्तों में भी ऊष्मा का संचार करता है।
शब्दों के लिहाफ को
ओढ़े हुए पड़ी हूँ
इस ठिठुरती रूह को
कुछ तो सुकून आये।
खुशी के पलों का सुखद स्मरण विषाद को न्यून करता है। यह विषाद का इस प्रकार शमन करता है जैसे अश्रु रूपी खारे जल को बारिश का पानी बहा ले जाता है।
बारिश की बूंदों को
पलकों पे ले लिया है
आँखों के खारे पानी में
कुछ तो मिठास आये।
विप्रलम्भ जनित नीरसता के निविड़ अंधकार में कवयित्री आशान्वित है कि प्रीत का प्रकाश इस गहन तम को विलीन करके उसमें हर्ष भर सकता है।
आ चल
निशा के परदे पे
कुछ प्रीत के
तारे जड़ दें
इस घुप अँधेरे कमरे में
कुछ तो चमक आये।
जिसे हम सबसे अधिक प्रेम करते हैं, स्नेह करते हैं, उसे ही आँख की पुतलियों में बसाते हैं, क्योंकि आँख की पुतली के सदृश नाजुक, कोमल और अमूल्य अन्य दूसरा नहीं होता। वह ही गंडोला की भांति, गंडोला वेनिस शहर के जल से आप्लावित मार्गों में एक स्थान से दूसरे स्थान के पारगमन के लिए अपरिहार्य साधन के रूप में प्रचलित छोटी नौका को कहते हैं, दो सुदूर किनारों को जोड़ने वाले उपक्रम का कार्य करता है।
दो पलकों के बीच
झील में तेरा अक्स
यूँ चलता है
वेनिस की
जल गलियों में
गंडोला ज्यूँ चला हो।
यह दूरियों के बावजूद चाहत की पराकाष्ठा है। इसीलिए उसके प्रति अनिष्ट की आशंका स्वप्न में भी भयभीत करती है। प्रीत के कारण वह उसकी सुरक्षा और उसकी तकलीफ के प्रति इतनी सजग है कि अपनी पलक तक नहीं बंद करती ताकि पलक बंद करने से होने वाले अंधेरे से कहीं कहीं वह तनिक भयभीत न हो जाए।
हम
इस खौफ से
पलके नहीं बंद करते
उनमें बसा तू
कहीं अँधेरे से
डर ना जाये।
वास्तव में यह कविता विप्रलम्भ की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है जो स्मृति पृष्ठ पलटते हुए नायक के प्रति अपने प्रेम को आवेग और संवेगों के माध्यम से व्यक्त करती है। इस अभिव्यक्ति में उपालम्भ भी है और पीड़ा भी है। उम्मीदें भी हैं और मिलन के प्रयास भी शामिल हैं। आशाएं और अपेक्षाएं भी हैं तो संबन्धों के प्रति पूर्ण निष्ठा भी है। यही तो समर्पित प्रेम के मूलभूत अवयव हैं। इस कविता का सबसे आकर्षक पहलू शायराना अंदाज में कविता को गढ़ना है। शृंगार की अभिव्यक्ति में शायरी का कोई सानी नहीं और इस कविता की शब्द योजना शेर-ओ-शायरी के बहुत करीब प्रतीत होती है लेकिन नाद में खरी नहीं उतरती। इसीलिए यह कविता पहले-पहल शायरी का भ्रम उत्पन्न करती है।
हालाकि जिस प्रकार कोई भी व्यक्ति कभी पूर्णतया निर्दोष नहीं हुआ करता उसी प्रकार कोई काव्य भी पूर्णतया निर्दोष नहीं होता। यह कविता इतनी सुगठित है तथा भावों के स्तर पर इतनी सघन है कि इसमें दोष देखना बेमानी सा लगता है। फिर भी, उत्कृष्ट काव्य की दृष्टि से बिम्ब और और प्रतीकों की पुनरावृत्ति काव्य की श्रेष्ठता में बाधक होती है और इस कविता में भी यह दोष देखने आता है। कविता में पलकें/पलकों पद का प्रयोग एकाधिक बार हुआ है। यदि इससे बचा जा सकता तो इस कविता के सौन्दर्य में और निखार आ सकता था। कविता की पंक्ति – आ / निशा के परदे पे / कुछ प्रीत के / तारे जड़ दें में कुछ प्रीत के / सितारे जड़ दें होता तो प्रवाह अधिक अच्छा हो जाता। इसी के साथ ऊपर की पंक्तियों को नीचे की पंक्तियों - इस घुप अँधेरे कमरे में - से मिला कर होना चाहिए था। क्योंकि उक्त दोनों भाग आपस में अन्विति बनाते हैं। पहले पद में प्रयुक्त शब्द सफहा अथवा सफा है जिसका अर्थ पृष्ठ होता है जबकि फ में नुक्ता लगने पर यह सफ़ा अर्थात सफ़ाई के अर्थुक्त बिम्ब, में प्रयुक्त होता है। यहाँ पर यह पृष्ठ के ही अर्थ में आया है, अतः टंकण त्रुटि प्रतीत होती है। पंक्तियां - हैं परेशान / महताब औ आफताब ये / शब्बे सहर भी / मेरे तेरे बोलो पे / टिके हैं – में “टिके हैं क्रिया प्रयोग से पद में प्रयुक्त बिम्ब अस्पष्ट और दुरूह बन गए हैं। कहीं-कहीं पर पंक्तियों को अगली पंक्ति से सम्बद्ध करते शिल्प पक्ष पर एक बार पुनः दृष्टिपात करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। उपयुक्त शीर्षक कविता की गरिमा में वृद्धि कर सकता है। फिर भी, इस कविता में भाव सौन्दर्य बहुत ही सशक्त है और यह कविता शिखा वार्ष्णेय की काव्यगत गहन पैठ को स्पष्ट दर्शाती है।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

देसिल बयना - 77 : मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फ़रमाईश

 

-- करण समस्तीपुरी

जय हो ब्रह्म बाबा की। रेवाखंड के पछिमवारी छोड़ पर ही ब्रह्म बाबा का भीत वाला गह्वर है। वर्षों पुराना। झुरुखनclip_image001 बाबा बता कहते हैं कि उ जब होश संभाले तब से ब्रह्म बाबा क गह्वर वैसहि है। और तो और एकहि जड़ से निकला हुआ उ पीपल, वर और गुलर का तीनगच्छा भी वैसे के वैसे ही है।

बूढ़े-पुराने लोग कहते हैं कि ब्रह्म बाबा ही रेवाखंड के डिहवार हैं। एकदम सहाच्छत (साक्षात) हैं। वही पूरा गाँव के रच्छा करते हैं। इसीलिये गाँव के हर परिवार में इस गह्वर के लिये परम श्रद्धा है। क्या हिन्दू क्या मुसलमान ब्रह्म बाबा का गह्वर तो रेवाखंड में सामाजिक समरसता का जीता-जागता सबूत है। अलीजान मियाँ रोज उ गह्वर की देहरी बुहारते थे और लोटकन मिसिर सांझ बत्ती दिखाते थे।

मिसिरजी और अलीजान में जमती भी खूब थी। दोनो एकउमरिये थे। मिसिर जी अलीजान को सिरिफ़ मियाँ बुलाते थे और अलीजान मिसिरजी को लोटुआ कहते थे। अलीजान मियाँ का परिवार भी एक जमाने में नवाबी था। गह्वर से दो लग्गा हटकर अलीजान का बड़का दलान पड़ता था। सुनते हैं कि पटनिया नवाब जब जाने लगा तो पूरा परवत्ता कोठी और काली चौरी अलीजान मियाँ के वालिद मियाँजान के नाम कर गया था। मगर वही... बैठे-बैठे पेट पर हाथ और पेट मांगे दही भात। काम-न-धंधा और नौ-नौ रोटी बंधा...! जमीने बेचकर नवाबी चलता रहा। तीसरी पीढ़ी पहुंचते-पहुंचते सब बाकलम खास। इनरा गांधी क्या जमीनदारी उठायेगी, उससे पहिलहि अलीजान मियाँ सारा जमीने उठा दिये। बोलो ब्रह्म बाबा की जय।

युग बदल गया। समाज बदल गया। सरकार बदल गयी। जमींदारी-तहसीली सब बदल गया। लोग बदल गये लेकिन अलीजान मियाँ का अंदाज़ नहीं बदला। जमींदारी भले चली गयी मगर नवाबी नहीं गयी। काम के नाम पर बस सुबह-शाम ब्रह्म बाबा का गह्वर बुहार देते थे लेकिन तीन वखत नरम दाना, दो वखत चाय और सांझ में कम से कम चुक्का भर सोमरस होना ही चाहिये। हरि बोल।

समय के साथ सबकुछ बदलता गया। वैसे तो अलीजान मियाँ के सात बेटा और पांच बेटियाँ थी। बेटियाँ ससुराल बसती थी। बेटा सब गाँव में ही मजूरी-बेगारी कर के दीन काटता था। लेकिन बूझ लीजिये कि साते बेटा बस नाम का एक भी न काम का। सब बेचारे अलीजान मियाँ को निरस दिया था। साल भर पहिले नसीबन अज्जी भी अलीजान मियाँ को छोड़कर अल्लाह मियाँ के घर चली गयी थी। तब से अलीजान बूढ़ा थोड़े खवीस से होगये थे। बेटे-बहू की ओर से देख-भाल नहिये के बरोबर था। कभी चाय-पानी मिल जाये वही बहुत। हाँ, लोटकन मिसिर यजमानी से आते थे तो एक पत्तल में चिउरा-दही-लड्डु-मिठाई जरूर मिल जाता था।

रवी का फ़सल कट गया था। अरहर झरा गया था। आम में कोसा आ गया था और किशनभोग-बम्बैया तो लला भी गया था। खेतों बस गेहुं की खुटियाँ रह गयी थी। दोपहर में बैसाख का सन्नाटा पसरा रहता था मगर सांझ गुलजार हो जाती थी। खासकर पछियारी टोल में। होरिल महclip_image002तो पांचो भाई का मौज था। सब अपना अलग-अलग ताड़ीखाना खोल लिया था। बैसाख में अकाशी खूब निकलता था न। एक-एक पेड़ सांझ-विहान एकदम जरसी गाय के तरह लवनी भर-भर के लगता था। उ टाइम में तो जोगिया और झोंटैला जैसा बेगारी भी टल्ली रहता था। बेचारे अलीजान मियाँ तो खानदानिये रईस थे। जब तक नसीबन अज्जी थी, इधर-उधर से मांग-चांग कर भी अलीजान बूढ़ा का तोष रख लेती थी। ई बैसाख में तो बेचारे एकदम बेजार हो गये हैं। एकाध दिन पीरता अकाशी चखा दिया था। सांझ-भिनसार जीभ लपलपाकर उसी टेस्ट को याद करते रहते थे।

बैसाख महिना के चढती गरमी, उपर से नया दाना उ भी बासी-खुसी... पेट जले पर खा तो लिये मगर भोरे से अलीजान बूढ़ा के पेट में विकार शुरु हो गया। दुपहर तीनगच्छा तर ताश खेलने भी नहीं आये। हां बधना लेके बार-बार गाछी दिश जा रहे थे। नकछेदिया के मारफ़त समादो दिये थे मगर घर से कौनो बेटा-पुतोहु टोह लेने भी नहीं आये। बेचारे गाछी से आकर वहीं गह्वर के आगे पीपल की छाँव में बैठ जाते थे।

तीसरा पहर चढ़ गया था। अलीजान मियाँ वही गमछी बिछाकर पसर गये। लोटकन झा कहीं यजमानी से आ रहे थे। हमेशा की तरह अलीजान मियाँ को उनका हिस्सा देने के लिये जगाए। बेचारे पेट पकर के कराहते हुए उठे। मिसिरजी सबकुछ जान समझ के बोले, “अरे तो सुबह से किसी को बताया काहे नहीं...?” बहुत दरद के साथ अलीजान मियाँ जवाब दिये थे, “अब कौन बचा है रे मिसिर... एक बुढिया थी उ भी साथ छोड़ दिहिस... एक तू है अभी सांझ को आया है।” “अरे ऐसन का बात है... तोहरे भरा-पुरा सात बेटा का परिवार है... पतोहु, पोता-पोती। केहु को बोला काहे नहीं, कम से कम नीबू का शरवत तो पी लेते... पेट में ठंडक पहुंचती।” मिसिर जी बोले थे। अलीजान मियाँ का दरद अब आँखों में भी उतर आया था, “नकछेदिया के मारफ़त समाद भेजा था। छोटका का बेटा तरन्नुमा देखकर भी गया मगर फिर.... छोड़ो मिसिर। बोलो यजमानी में का सब मिला है?” दोनो हथों से आँखों का कोर पोछना पड़ा था अलीजान बूढ़ा को। मिसिरजी बोले, “यजमानी को गोली मार अभी हम तोहरे बेटा-पतोहु को बुला के पूछते हैं...।”

मिसिरजी धरफर कर के बढ़े। पांच कदम पर ही तो अलीजान मियाँ का घर है। बेटा सब तो बेगारी-मजूरी में गया हुआ था मगर पतोहिया सबको खूब खड़ी-खोंटी सुनाये। और तो सब बक-बक सुनके आंगन चली गयी मगर बड़की पतोहिया बोले, “मिसिर काका... नीबू केहु के बारी से ले भी लेते मगर शक्कर तो ई महँगी में देखे भी छमासा होजाता है। उ तो नयका गेहुं के कटनी किये हैं तो बाल-बच्चा का पेट पाल रहे हैं। अब्बा को कल दिये तो बोलते हैं पेटे गरम हो गया। हम का करें मिसिर का... पास में कछु औकात हो तो....!”

“अरे बूढ़ा आदमी है... एक कनमा चावल का माँर ही पसा के दे देती... बूढ़े के पेट में कुछ ठंडक पहुंचती... संतोष भी तो होता कि अपनी संतान है देखने के लिये।”

“मझली के घर में चावल बना था। रुकिये पूछते हैं। ए मझली....!” बड़की पतोहिया आवाज लगाई थी। मिसिरजी वहीं खड़े थे। दोनो में दो बातें हुई। बड़की मिसिरजी के पास आके बोली, “मिसिर काका ! भात तो नहीं बचा है, दिन वाला मांर है... आते हैं लेके।”

मिसिरजी आगे बढे। पीछे से अलीजान बूढा की दोनो पतोहिया लोटा भर मांर लिये आयी। मिसिरजी की आवाज पर अलीजान उठ कर बैठ गये। मझली पतोहिया लोटा आगे कर दी तो पूछे का है इसमें? बड़की बोली, “अब्बा ! ठंडा मांर है। पेट में शीतल करेगा।” बाप रे बाप ! अलीजान मियाँ की आंखे तो अलता जैसे लाल हो गया। हाथ से लोटा झपट के फेंक दिये। दोनो के माँ-बाप को दो-चार आशीर्वाद भी दिये। बोले, “हराम की जनी... कंगले की औलाद बासी माँर लेके आई है...। हमरे घर के घी से तोहरा सात खानदान पलाया.... और ई बेशरम हमरे मांर पिलाने आई है। बैसाख महीना है। सेर भर गेहुं में दो लवनी मिल जाता...! दो चुक्का में ही पेट ठंडा कर देता... ! चिंता है तो जाओ ताड़ी लेके आओ नहीं तो मांर अपने बाप को पिलाना।”

हमलोग भी ताश छोड़कर उन्हीं का तमाशा देखने चले गये थे। मिसिरजी बोले, “अरे अलीजान ! पी ले... पेट में ठंडक आयेगी।”clip_image003 अलीजान मियाँ का नवाबी फिर फूटा, “मार भरुवा मिसिर... तू ईका पैरवी करता है। अरे तोहे तो पता है हमरा रहन-सहन। अंगुरी और महुआ पर ई देह पोसाया है... आज ताड़ी भी इनलोगों को भारी हो गया...!”

मिसिरजी तो गुम रह गये मगर बहोरन दास का टिटकारी छूट गया, “हूँ... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फरमाईश।” बहोरन जो टिहुंक कर बोला था कि लोटकन मिसिर की भी हंसी फूट गयी। अलीजान मियाँ की दोनो पतोहिया भी अंचरा से मुँह ढाँप के उधर घूम गई थी। अलीजान मियाँ की आँखें तो लगती थी कि गुस्से से बाहर आ जायेंगी मगर हमलोगों की हंसी तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। “हा...हा...हा...हा.... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फ़रमाईश... ही...ही...ही...ही.... मिले मियाँ को मांर नही.... खी...खी...खी...खी... हें...हें...हें...हें...!”

टपकु चौधरी बोले, “और नहीं तो का... एकदम सही तो कहा बहोरना...! अरे देख नहीं रहे हो... बूढा दोपहरे से बधना लेके दौड़ रहा है। गमछी बिछा के पेटकुनिया लादे था... सौ बीघा चास साकिन बोल दिया और नवाबी बचा हुआ ही है। दू आना के शक्कर का शरवत का तो औकात नहीं है, बेचारी पतोहिया मांर लेके आयी है तो... नहीं मियाँजी को ताड़ी चाहिये... बैसक्खा...!”

image जिसको जो बोलना था बोला मगर अलीजान मियाँ टस-से-मस नहीं हुए। सांझ ढल गयी थी। हमलोग घर लौट रहे थे। अचानक हमरी हंसी फिर से फूट पड़ी। सब पूछा, “आहि रे बा... अपने मने काहे हंसे जा रहा है...?” हंसते हुए ही किसी तरह बोले, “ही...ही...ही...ही... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फ़रमाईश...!” पचकौड़िया बोला, “बहोरन दास भी फ़करा गढ़े में ओस्ताद है।” विरंची मास्टर बोले, “सो तो है। बहोरना भले मुरुख हो मगर आज से उसका फ़करा अमर हो जायेगा। अब जौन कोई औकात-सामर्थ्य से बाहर की बात करेगा तो बहोरन दास का फ़करा जुबान पर आ जायेगा, “मिले मियाँ को मांर नहीं ताड़ी की फ़रमाईश।”