नमस्कार मित्रों !
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामीजी ने कहा है, “भाय-कुभाय, अनख-आलसहुँ ! नाम लेत मंगल दिशि दसहुँ !!” किसी भी प्रकार से हो राम-नाम मंगलकारी ही होता है। मिथिला-वासी खट्टर काका अवध के रामजी की चर्चा की रसधारा बहा रहे हैं। – करण समस्तीपुरी
खट्टर काका रामनवनी के लिए फलाहार का प्रबंध कर रहे थे ! मैं ने पूछा, खट्टर काका, आज रात में पुराने तालाब पर रामलीला है. देखने चलिएगा ना ?
खट्टर काका बोले, "अभी तुम लोग जवान हो. जाओ तमाशा देखो ! हम बूढों को भला खेल तमाशे से क्या मतलब ?
मैं- ऐसा क्या…. खट्टर काका? रामलीला में तो सब को जन चाहिए. मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी की लीला है. रामचंद्र जी एक से बढ़ कर एक आदर्श दिखा गए हैं.
खट्टर काका- हूँ ! सो तो दिखा ही गए हैं ! किस तरह अबला पर पराक्रम दिखाना चाहिए. कैसे किसी औरत पर तीर चलाना चाहिए. कैसे किसी औरत का नाक-कान काटना चाहिए. कैसे किसी गर्भिणी स्त्री को जंगल में छोड़ना चाहिए. समझ लो कि स्त्री की हत्या से ही राम की वीरता शुरू होती है और स्त्री की हत्या से ही ख़त्म ! अपनी पूरी जिंदगी में यही तो राम की उपलब्धि है.
मैं- परन्तु.....
खट्टर काका- परन्तु क्या ? दरअसल शुरू से ही उन्हें अच्छी शिक्षा नही मिली. गुरु मिले विश्वामित्र जैसे, जिन्होंने तारका-बध से श्री गणेश ही करवाया. अन्यथा अवला पर कही क्षत्रीय का अस्त्र चला है ? इसमे तो सीधा विश्वामित्र का दोष है. लेकिन क्या कहा जाए ! विश्वामित्र की तो सारी बातें ही उल्टी है. ब्रह्मा की श्रृष्टि को उल्टा कर दिया. फिर पाणिनि के व्याकरण को उल्टा कर दिया. वर्णाश्रम धर्म को उल्टा कर दिया. फिर निति-मर्यादा को उल्टा कर दिया…. तो इसमे (एक क्षत्रीय का औरत पर अस्त्र चलाना) क्या आश्चर्य !!
मैं- खट्टर काका, रामचंद्र जी के न्याय की मर्यादा तो देखिये. इसी न्यायप्रियता के कारण सीता जैसी पत्नी को भी वनवास तक देने में उन्हें कोई संकोच नही किया !
खट्टर काका- अरे ! न्याय नहीं अन्याय. न्याय क्या यही है कि किसी के कहने पर किसी को फांसी चढ़ा दें ? अगर न्याय ही करना था तो वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों को राजसभा में बुलाते, दोनों के वक्तव्य सुनते और जो न्याय-सभा का निर्णय होता सो सुना देते . लेकिन राम भला इतना क्यों करने लगे. सीता को चुप चाप जंगल भेज दिया. वो भी क्या तो छल से. ये कैसा आदर्श है? एक साधारण प्रजा को जो अधिकार मिलना चाहिए महारानी सीता को वो भी नही मिला !
मैं- लेकिन राम तो प्रजारंजन का आदर्श दिखाना चाह रहे थे.
खट्टर काका- झूठ ! अयोध्या की प्रजा सीता का वनवास कभी नही चाहती थी. तभी तो चुप-चाप रातो-रात रथ हांक दिया गया. और लक्ष्मण, तो सब में हाज़िर ! शूर्पनखा का नाक काटना है, तो चाकू लेकर तैयार. सीता को वन भेजना है, तो रथ ले कर तैयार. सुबह में जब प्रजा को सीता के वनगमन की ख़बर लगी तो हाहाकार मच गया. सम्पूर्ण अयोध्या में करुण क्रंदन होने लगा. किंतु राम जी भला जिद के आगे प्रजा की विनती कब सुनने लगे ? अपने वनवास के समय जब उन्होंने प्रजा की एक नही सुनी तो अब क्या सुनेंगे ?
खट्टर काका मखाना का छिलका छुड़ाते हुए बोले- मान लो कि पूरा अयोध्या का एकमत निर्णय अगर सीता का वनवास होता फिर भी इनका अपना कर्तव्य क्या होता था? जब इन्हे मालूम था कि सीता निर्दोष हैं, अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुकी हैं, फिर दुनिया के कहने से क्या हो जता है? ये अपने न्याय पर अटल रहते. अगर इसमे प्रजा विद्रोह की आशंका थी तो पुनः भरत को गद्दी सौंप पत्नी के साथ स्वयं भी वनवास को चले जाते. तब आदर्शपालक समझे जाते. लेकिन राजा राम तो केवल राज गद्दी ही समझे, प्रेम नही. सीता तो अपने पातिव्रत्य के आगे पूरी दुनिया के साम्राज्य को धूल के समान ठुकदा देती लेकिन राम तो पति धर्म के आगे अयोध्या का मुकुट भी नही छोड़ सके.
मैं- खट्टर काका, लगता है सीता के वनवास से आपको बहुत दुःख है !
खट्टर काका- दुःख कैसे नही होगा…! बेचारी सीता का जन्म दुःख में ही बीत गया! जब से ससुराल आयी, कभी सुख का मुंह तक नही देखा! जिस स्वामी के साथ फूल सी कोमल सीता ने जंगल का ख़ाक छाना, सुख का समय आते ही उन्होंने ही दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका. वन में तो हाय सीता हाय सीता कर रहे थे. उनके लिए आकाश पताल एक किया गया. समुद्र पर पूल बांधा गया. और सीता जब आयी तो घर कहाँ नसीब. इसीलिए कहा जाता है कि पश्चिम में बेटी नही व्याहना चाहिए.
मैं ने देखा की खट्टर काका की आँखे भर आयी थीं. कुछ देर तक स्तब्ध रहे. फिर कहने लगे, सीता जैसी देवी का ऐसा करुण अंत!!! वो आजीवन राम की सेवा में संलअग्न रहीं. उनकी संतुष्टि के लिए आग तक में कूद गयी, लेकिन इस सर्वश्रेष्ठ सती के प्रति इन लोगों का कैसा निर्दयी व्यवहार रहा! आठ माह की गर्भिणी स्त्री को घर से बाहर कर दिया. ऐसे अपमान से तो गला दबा कर मार देते. बेचारी मिथिला की बेटी थी सहनशील, सुशील, कुछ बोलने वाली नही! अगर दूसरे जगह की रहती तो उन्हें भी पता चलता. मैं पूछता हूँ, अगर उन्हें सम्बन्ध ही तोड़ना था तो वापस मायके भेज देते. एक असहाय गर्भिणी स्त्री को जंगल में कैसे भेजा गया? ऐसी निष्ठुरता पश्चिम के लोगों में ही हो सकती है. बेचारी को इस पृथ्वी पर न्याय की उम्मीद नही थी, तभी तो वे पाताल की शरण में चली गयीं. जिस धरती की कोख से उत्पन्न हुई आख़िर उसी में समा गयी. विश्व के इतिहास में ऐसा अन्याय और किसी के साथ नही हुआ! तभी तो धरती तक का कलेजा फट गया !!
मैं ने सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा- खट्टर काका, दरअसल वो धोबी और धोबिन सारे फसाद की जड़ थे.
खट्टर काका लाल- लाल आंखों से मुझे देखते हुए बोले - मैं तुम से पूछता हूँ कि किसी धोबी को अपने घर में झगरा हो और वो गुस्सा कर के गधा पर से गिर जाए तो क्या मैं तेरी चाची को घर से निकाल दूंगा ? अगर मैं राजा होता तो उसे पकड़वा कर मंगवाता और दो चार डंडे देकर पूछता क्यूँ बे बदमाश ! छोटी मुंह बड़ी बात !! अपनी बीवी की तुलना सीता से करने चला है ! ज़रा उसे भी तो आग में खडा कर के देखो. कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली. लेकिन रामचंद्र तो छोटे लोगों की संगत में ही रहे. निषाद-मल्लाह, शबरी-भीलनी, जटायु-गिद्ध, भालू-बन्दर इन्ही के बीच रहे. अच्छे लोगों का संगत मिला कहाँ ? फिर धोबी की बात कैसे टाल सकते थे ? पिता ने नौकरानी की बात पर इन्हे वनवास दिया तो इन्होने धोबी की बात पर अपनी पत्नी को जंगल भेज दिया. उनके वंश में शूद्रों की युक्ति ही चलती थी. घर में मंथरा और बाहर में दुर्मुख !
मैं- खट्टर काका, ये तो उन्होंने नीति के रक्षा के लिए...
खट्टर काका मुझे डांटते हुए बोले- नीति नही अनीति. जब क्षत्रिय धर्म का आदर्श दिखाना था तो बाली को पेड़ की ओंट से छुप कर क्यों मारा ? आमने सामने लड़ कर मारना चाहिए था. तभी "कालहु डरय न रण रघुवंशी" वाला बचन कहाँ गया था ? यदि मर्यादा की रक्षा करनी थी तो उसी अनीति के लिए सुग्रीव को क्यों नही दण्डित किए ? प्राणदंड किसे दिया तो बेचारे शम्बूक को जो चुप-चाप सात्विक प्रवृति से तपस्या कर रहा था.
मैं- लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम ........
खट्टर काका- तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहो, लेकिन मुझे तो उनके जैसा झट-पट काम सैतान वाला आदमी दूसरा मिलता ही नही है! वन में हिरन के पीछे क्या दौर लगाई थी? सीता के वियोग में कैसे पेड़ पौधों को पकड़-पकड़ कर रो रहे थे ? तुरत सुग्रीव से दांत कटी रोटी और सीता के खोज में दो चार दिन विलंब क्या हुआ कि तीर धनुष ले कर तैयार. न समुद्र को पूजते देर न उस पर प्रत्यंचा कसते. लक्ष्मण को शक्तिवान क्या लगा, लगे रणभूमि में ही विलाप करने. ऐसी अधीरता भी कहीं आदमी को शोभा देती है, वो भी क्षत्रिय को !
मैं- उन्होंने मनुष्य का अवतार लेकर ये सारी लीलाएं दिखाईं है. इसीलिए ....
खट्टर काका किशमिश की काठी चुनते हुए बोले- असल में यह दोष राम का नही है, बल्कि उनके पिता ही बहुत जल्दबाज थे. उनके सारे कार्य भी देख लो. शिकार खेलने गए. सरयू किनारे कुछ आवाज़ हुई. तुरत तीर चला दिया. ये भी नही सोचा कि कोई आदमी भी पानी भर सकता है. आख़िर श्रवण कुमार को बेधकर अंधे माता-पिता को पुत्र वियोग में मरने पर मजबूर कर दिया. उसका परिणाम यह हुआ कि ख़ुद भी पुत्र वियोग में हा हा करते हुए मरे ! मैं पूछता हूँ, जब दो-दो पटरानियाँ मौजूद ही थी तो बुढापे में तीसरी शादी की क्या जरुरत आन पडी? और "वृद्धस्य तरुणी भार्या प्रानेभ्योपि गरीयसी !" कैकेयी में ऐसा लिप्त हुए कि युद्धक्षेत्र में भी उनको रथ पर ले कर ही जाते थे. और रथ भी कैसा, मौके पर धोखा दे गया. नाम के दशरथ और काम का एक रथ भी नही. नही तो कैकेयी को रथ की धुरी में अपनी उंगली क्यों लगानी पड़ती? और बलिहारी उस उंगली की !! जब उंगली इतनी मजबूत थी तभी तो कलेजा भी इतना कठोर था. खैर किसी तरह से पत्नी के प्रताप से वृद्ध रजा के प्राण बचे. और उन्होंने आँख मूँद कर वचन दे दिया कि," जो मांगोगे वही मिलेगा" ! ज़रा सोचा भी नही कि कहीं आकाश का तारा मांग बैठे तो क्या करते ? वो तो रानी ने बहुत धर्म बचाया. अन्यथा कहीं राम के प्राण मांग लेते तो सत्यपाल रजा दशरथ की क्या स्थिति होती? और राजपूती शान में एक बार बचन दे ही दिया तो फिर इतना विलाप क्यूँ? आख़िर चौदह वर्ष के बाद राम को वापस तो आना ही था. धैर्य से प्रतीक्षा करते. नही अगर बहुत अधिक पुत्र स्नेह था तो स्वयं भी साथ हो लेते. ऐसा तो किया नही. हा… राम हा….राम कहते हुए छाती पीट-पीट कर मर गए. क्षत्रीय का हृदय कहीं इतना कमजोर हुआ है.
मैं ने देखा कि खट्टर काका जिस पर शुरू होते हैं उसका उद्धार ही कर देते हैं. अभी दशरथ जी पर लगे हैं. फिर भी मैंने कहा कि लोग रामायण के चरित्रों से शिक्षा ग्रहण करते हैं....
खट्टर काका- शिक्षा तो मैं भी ग्रहण करता हूँ. बिना देखे निशाना नही लगना चाहिए. बिना सोचे बचन नही देना चाहिए. और अगर बचन दे दिया तो छाती नही पीटनी चाहिए.
मैं- खट्टर काका, आप केवल दोष ही देखते हैं.
खट्टर काका- तो गुण तुम ही दिखा दो.
मैं- महाराज दशरथ कैसे सत्यनिष्ठ थे ....
खट्टर काका- जो श्रवण कुमार बन कर अंधे माता पिता को धोखा देने गए.
मैं- राम चंद्र जी कैसे पितृभक्त थे...
खट्टर काका- जो पिता की मृत्यु का समाचार सुन कर भी सीधा आगे बढ़ते गए. लौट कर श्राद्ध कर्म करना भी उचित नही समझा.
मैं- लक्ष्मण कैसे भ्रातृभक्त थे…
खट्टर काका- जो एक भाई के तरफ़ से दूसरे भाई पर धनुष तान कर खड़े हो गये !
मैं- भरत कैसे त्यागी थे ...
खट्टर काका- जो चौदह वर्ष तक भाई की कोई खोज ख़बर भी मुनासिब नही समझा. राजधानी के राज काज से फुर्सत होती तब तो जंगल की सुधि लेते. अगर भरत अयोध्या से सेना लेकर पहुँच जाते तो राम को रावण से लड़ने के लिए बन्दर भालुओं का अहसान तो नही लेना पड़ता.
मैं- हनुमान जी कैसे स्वामिभक्त थे....
खट्टर काका- जो अपने स्वामी सुग्रीव को छोड़ कर दूसरे के साथ हो लिए.
मैं- विभीषण जैसा आदर्श.....
खट्टर काका- जो घर का भेदी लंका दाह करा दिया ! भगवान् ऐसे विभीषणों से देश की रक्षा करें.
मैं- तो आपके अनुसार रामायण में एक भी आदर्श पात्र नही है ?
खट्टर काका- है न ! रावण !
मैं- हा.. हा.. हा.. हा ! आप भी खट्टर काका हर बात में मजाक ही करने लगते हैं.
खट्टर काका- मैं मजाक नही कर रहा ! जरा तुम्ही रावण में कोई दोष तो दिखाओ !
मैं- धन्य हैं खट्टर काका ! सभी लोगों को रावण में दोष ही दोष नजर आते हैं और आपको एक अदद दोष नही मिलता ...
खट्टर काका- तो तुम्ही दिखा दो ना !
मैं- सीता-हरण...
खट्टर काका- वो तो मर्यादा पुरुषोत्तम को मर्यादा सिखाने के लिए, जो किसी कि बहन का नाक- कान नही काटना चाहिए. जल में रह कर मगर से बैर नही करना चाहिए. मृगमरीचिका के पीछे नही भागना चाहिए. किसी स्त्री का अपमान नही करना चाहिए. देखो, रावण ने सीता को लंका ले जाकर भी नाक कान नही काटा ! रनिवास में नही ले गया, अशोक वाटिका में रखा. लोग उसे भले ही राक्षस कहें पर उसके मर्यादापूर्ण व्यवहार से हर किसी को शिक्षा लेनी चाहिए.
मैं- खट्टर काका, आप तो उलटी गंगा बहा देते हैं. रावन जैसे अन्यायी का पक्ष लेते हैं और सीतापति सुंदर श्याम को....
खट्टर काका- " सीतापति निष्ठुर श्याम" कहो ! मिथिला की बेटी अयोध्या गयी और उसका नतीजा यह हुआ कि ससुराल का सुख तो दूर की बात कभी लौट के मायके भी नही आ पायी. इसी वजह से हमलोग पश्चिमी लोगों से रिश्ता करने में हिचकते हैं. पता नही किस लग्न में सीता की शादी हुई थी! लग्न तो मुनि वशिष्ठ ने ही बताया था, "अग्रहण शुक्ल पंचमी ! लेकिन क्या फायदा हुआ ! इसीलिए मिथिला में लोग अग्रहण मास में कन्यादान के लिए सहस तैयार नही होते.
मैं- आपको सीता वनवास का बड़ा हार्दिक क्षोभ है. लगता है अगर रामचंद्र जी आपको मिल जाते तो बिना लड़ाई किए नही छोड़ते ! आख़िर प्रणाम भी करते या नही ?
खट्टर काका- प्रणाम कैसे करता ? मैं ब्रहमन, वो क्षत्री्य! मैं तो उन्हें आशीर्वाद देता, कि सद्बुद्धि हो ! दूसरे अवतार में ऐसा न कीजियेगा ! मेरे जैसे ही किसी ब्रह्मन को मंत्री बनाइएगा. ऐसा काम मत कीजियेगा जिस से लोग "ए राम" कहे !!
मैं- खट्टर काका, फिर आप रामनवमी व्रत क्यों करते हैं ? मन में तो उन्हें देवता मानते ही होंगे ?
खट्टर काका- मानते हैं सो कोई उनके गुण के कारण क्या? वो तो सीता जैसी भगवती के पति थे इसीलिए भगवान्! यदि महारानी सीता नही मिलती तो भगवन कहाँ से होते ? बस दशरथ के पुत्र या अयोध्या के राजा भर रह जाते. जितने भी कार्य उन्होंने किया वो तो हर क्षत्रीय राजा करता ही है. बस एक ही कार्य उन्होंने विशेष किया. जानकी की प्रतिमा बना कर शेष जीवन बिता दिया लेकिन दूसरी शादी नही की ! इसी बात पर मैं उनका सारा कसूर माफ़ कर देता हूँ ! सीता के कारण राम का महत्व है ! इसीलिए "सीताराम" कहते हैं ! पहले सीता फिर राम !
मैं- खट्टर काका, आपको सीताजी से इतना स्नेह है फिर रामचंद्र जी पर ऐसे क्यूँ बरसते हैं ?उनके पुरखों तक को नही बख्शते हैं !
खट्टर काका प्रसाद के थाल में तुलसी-दल रखते हुए बोले- "अरे बुद्धू ! इतना भी नही समझते हो? मैं उनके ससुराल का आदमी हूँ ! ससुराल के हजाम की गाली भी प्यारी लगती है मैं तो खैर ब्रह्मन हूँ ! दूसरा ऐसे कहेगा सो किसी की मजाल है ! मैथिल का मुंह बंद करने का सामर्थ्य भगवान् में भी नही है!"
(इतिश्री भारतखण्डे जम्बूद्वीपे खट्टरपुराणान्तर्गते सपितररामोद्धार नामः द्वितीयो अध्यायः सम्पूर्णं)
*पं हरिमोहन झा की मैथिली पुस्तक “खट्टर ककाक तरंग” से साभार.*