रविवार, 14 मार्च 2010

काव्यशास्त्र - ६ : भारतीय काव्यशास्त्र पर चर्चा

कालविभाजन

-परशुराम राय

(काव्यशास्त्र के इस धारावाहिक लेखन का यह दूसरा भाग परशुराम राय जी ने तो यथा समय ही भेज दिया था पर हम उसे पोस्ट नहीं कर पाये। इसे हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं, पुनः अगले रविवार से निश्‍चित क्रम में आ जाएंगे।)

कालविभाजनः- भारतीय काव्यशास्त्र के विकास का इतिहास 500 वर्ष ईसा पूर्व से अठारहवी शताब्दी तक, लगभग दो हजार वर्षों तक फैला हुआ है। विद्वानों ने इस काल का विभाजन विभिन्न तर्कों के आधार पर कई तरह से किया है। लेकिन अधिकांश विद्वानों के अनुसार इसे निम्नलिखित चार भागों में बाँटा गया हैः-

१. आदिकाल या प्रारंभिक काल- (अज्ञातकाल से छठवीं शताब्दी अर्थात् आचार्य भामह तक।)

2. रचना काल- छठवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक (आचार्य भामह से आचार्य आनन्दवर्धन तक)

3. निर्णयात्मक काल- आठवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक (आचार्य आनन्दवर्धन से आचार्य मम्मट तक)

४. व्याख्या काल- दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक (आचार्य मम्मट से आचार्य विश्वेश्वर पण्डित तक)

आदिकाल या प्रारंभिक कालः- इस काल में मुख्य रूप से दो ही आचार्य दिखते हैं-

आचार्य भरत और आचार्य भामह, यदि निरुक्तकार महर्षि यास्क या वैय्याकरण महर्षि पाणिनी आदि को छोड़ दिया जाय। क्योंकि इनकी विवेचना केवल उपमा अलंकार तक ही सीमित है। आचार्य भरत का एकमात्र ग्रन्थ नाट्यशास्त्र मिलता है, जिसमें नाटक के विभिन्न अंगों और रसों पर ही विस्तार से विचार किया गया है। काव्यशास्त्र के दृष्टिकोण से नाट्यशास्त्र के केवल 16वें अध्याय में काव्य के गुण-दोषों और अलंकारों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें केवल चार अलंकारों, दस गुणों और दस ही दोषों का उल्लेख मिलता है। अतएव इस ग्रंथ में काव्यशास्त्र के बीज मात्र ही दिखायी पड़ते हैं।

आचार्य भरत के बाद इस परम्परा में रुद्र आदि आचार्यों के नाम आते है, जिन्होंने नाट्यशास्त्र पर टीकाएँ लिखीं हैं, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि उनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं।

यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो आचार्य भामह काव्यशास्त्र के प्रथम आचार्य हैं, और उनका काव्यालंकार इस विद्या का प्रथम मुख्य ग्रंथ है। इसमें नाट्यशास्त्र में वर्णित चार अलंकारों के सथान पर 38 अलंकारों का निरूपण किया गया है।

2. रचनात्मक काल- आचार्य भामह से आचार्य आनन्दवर्धन तक 200 वर्षों का यह काल है। इस काल में काव्यशास्त्र मुख्य चार वाद या सम्प्रदाय- अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, रस सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय के मूल ग्रंथों का प्रणयन हुआ। सम्प्रदाय सहित उनके आचार्यों का विवरण नीचे दिया जा रहा है-

१. अलंकार सम्प्रदाय- आचार्य भामह, उद्भट और रूद्रट।

२. रीति सम्प्रदाय- आचार्य दण्डी और वामन।

३. रस सम्प्रदाय- आचार्य लोल्लट, शंकुक और भट्टनायक आदि।

४. ध्वनि सम्प्रदाय- आचार्य आनन्दवर्धन।

इस काल को काव्यशास्त्र के विकास का काल कहा जा सकता है। इस काल में काव्य के अलंकारों, रीतियों गुणों आदि का निरूपण किया गया । आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में प्रतिपादितरससूत्रपर टीकाएं लिखकर आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि ने रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की। आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा ध्वनि-सम्प्रदाय की स्थापना की गयी।

३.निर्णयात्मक कालः- इस काल के प्रमुख आचार्य अभिनव गुप्त, कुंतक, महिमभट्ट आदि हैं। आचार्य अभिनव गुप्त ने ध्वन्यालोक पर प्रसिद्ध लोचन टीका लिखी। अन्यथा ध्वनि के आलोक को अर्थात् ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिपादित ध्वनि-सिद्धांत को बिना लोचन (टीका) द्वारा समझना कठिन होता।

इसके अतिरिक्त उन्होंने आचार्य भरत द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र पर भी अभिनव-भारती नामक प्रसिद्ध टीका लिखी। आचार्य कुंतक ने वक्रोक्तिजीवित नामक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखकर वक्रोक्ति-सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य महिमभट्ट नैय्यायिक हैं और इन्होंने व्यक्तिविवेक नामक ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथ में ध्वनि-सिद्धांत का बड़ी कट्टरता से विरोध करते हुए न्यायांतर्गत अनुमान द्धारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है।

. व्याख्या कालः- साहित्यशास्त्र के लिए यह काल बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह आचार्य मम्मट से लेकर आचार्य विश्वेश्वर पण्डित तक अर्थात् दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक विस्तृत है। इस काल में अनेक आचार्य हुए हैं। इनमें आचार्य हेमचन्द्र, विश्वनाथ, जयदेव, शारदातनय, शिङ्गभूपाल, भानुदन्त, गौडीय वैष्णव आचार्य रूपगोस्वामी आदि हैं। इसके अतिरिक्त कविशिक्षा के क्षेत्र में ग्रंथों का निर्माण करने वाले राजशेखर, क्षेमेन्द्र, अमरचन्द्र आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी काल में आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य विचार चर्चानामक ग्रंथ लिखकर औचित्यवादकी स्थापना की। इस काल के आचार्यों के योगदान को देखते हुए विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी के रूप में उन्हें निम्नवत् प्रदर्शित किया जा सकता हैः-

१.रस सम्प्रदाय- शारदातनय, शिङ्गभूपाल, भानुदन्त, रुपगोस्वामी आदि आचार्य।

२.अलंकार सम्प्रदाय- पण्डितराज जगन्नाथ, विश्वेश्वर पण्डित आदि आचार्य।

३.ध्वनि सम्प्रदाय- मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, हेमचन्द्र, विद्याधर, विद्यानाथ, जयदेव, अप्पयदीक्षित आदि आचार्य।

४.औचित्य सम्प्रदाय- आचार्य क्षेमेन्द्र।

५.कविशिक्षा- राजशेखर, क्षेमेन्द्र, अरिसिंह, अमरचन्द्र, देवेश्वर आदि आचार्य।

कुछ अन्य विद्धान साहित्यशास्त्र की दो हजार वर्ष की यात्रा के निम्नलिखित तीन पड़ाव मानते हैं-

1. पू्र्वध्वनिक कालः- अज्ञातकाल से आचार्य आनन्दवर्धन तक।

2. ध्वनिकाल- आचार्य आनन्दवर्धन से आचार्य मम्मट तक।

3. ध्वन्योत्तर काल- आचार्य मम्मट से पण्डितराज जगन्नाथ तक।

उक्त वर्गीकरण के पीछे विद्धानों द्वारा ध्वनि सिद्धांत को इस यात्रा का मील का पत्थर मानना है।

काल विभाजन पर विचारोपरान्त काव्यशास्त्र के विभिन्न आचार्यों के जीवन परिचय के साथ उनके योगदान की संक्षेप में चर्चा करना आवश्यक है। तदुपरान्त काव्यशास्त्र के विभिन्न सम्प्रदायों पर और अन्त में काव्यशास्त्र पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

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पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ग्यानवर्द्धक आलेख है। पिछली पोस्ट अभिव्यक्ति भी आज पढी। बहुत कुछ नया पढने को मिलता है आपके ब्लाग पर। धन्यवाद और शुभकामनायें

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  2. वाह बहुत सुंदर लगा आप का आज का यह लेख, बहुत ग्याण की बाते मालुम हुयी

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  3. काव्यशास्त्र पर ग्यान्वर्धक आलेख.

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  4. adarniya raiji, aapki kalam aise hi chalati rahe, hamara jnyanvardhan hota rhega. blog par nirantarata banaye rakhane ke liye aapka aabhar.

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  5. adarniya raiji, aapki kalam aise hi chalati rahe, hamara jnyanvardhan hota rhega. blog par nirantarata banaye rakhane ke liye aapka aabhar.

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  6. काफी शोधपूर्ण रचना...हमने तो इसकी हार्ड-कापी भी ले ली...बधाई.

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  7. राय जी ज्ञान के इस अनमोल खजाने को लुटा-लुटा कर आप बहुत ही नेक काम कर रहे हैं। अब तो साधुवाद भी छोटा पड़्ने लगा है।

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  8. ...बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति, आभार !!!

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  9. ज्ञानवर्धक ! आगे हिंदी साहित्य की प्रवृतियों को समझने में आसानी होगी !! धन्यवाद !!!

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