शनिवार, 31 जुलाई 2010

सामाजिक मनोविज्ञान के कुशल चितेरे - प्रेमचन्द -हरीश प्रकाश गुप्त

सामाजिक मनोविज्ञान के कुशल चितेरे प्रेमचन्द

मेरा फोटो

 

 

 

हरीश प्रकाश गुप्त

'कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।' इस कथन से उनकी कहानियों में आए विकास को समझा जा सकता है। 'कफन' कहानी उनके इस वैचारिक विकास का उत्कर्ष है।

प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। वे युगदृष्टा हैं। वे अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अस्थिरता से भलीभाँति परिचित थे। उनके समय स्वतंत्रता संग्राम के कारण देश की राजनीति में सत्ता व जनता के मध्य टकराव जारी था तो समाज में सामंती-महाजनी सभ्यता अपने चरम पर थी। शोषण और शोषित के बीच खाई बढ़ती जा रही थी। गरीब त्रासदपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश था। प्रेमचन्द ने मध्य और निर्बल वर्ग की नब्ज पर हाथ रखा और उनकी समस्याओं, जैसे विधवा विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, आर्थिक विषमता, पूँजीवादी शोषण, महाजनी, किसानों की समस्या तथा मद्यपान आदि को अपनी कहानी का कथानक बनाया। तत्कालीन परिस्थितियों में शायद ही कोई ऐसा विषय छूटा हो जिसे प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में जीवंत न किया हो।

उनकी कहानियाँ मनोरंजन के उद्देश्य से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के यथार्थ को उजागर करती हुई सामने आईं। उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का अन्तर्द्वन्द्व है।

प्रेमचन्द पहले रचनाकार हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न चरित्रों को मनोवैज्ञानिक तरीके से चित्रित किया और उनके पात्र मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति लगने लगे। उनकी कहानियाँ मनोरंजन के उद्देश्य से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के यथार्थ को उजागर करती हुई सामने आईं। उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का अन्तर्द्वन्द्व है। अपनी प्रारम्भिक कहानियों में वे आदर्शों से नियंत्रित होने वाले रचनाकार लगते हैं। लेकिन बाद की कहानियों में उन्होंने यथार्थ का चित्रण करते हुए, हालांकि ये कहानियाँ समस्यामूलक रही हैं, आदर्श समाधान प्रस्तुत करना बन्द कर दिया। यह उनकी रचनाओं में रिक्ति नहीं बनी बल्कि ये वैचारिक मंथन के रूप में पाठकों को झकझोरने लगीं और ये रचनाएं अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती अधिक प्रभावशाली साबित हुईं। ‘पूस की रात’ और 'कफन' जैसी कहानियों में उनकी बदली हुई वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी बाद की कहानियाँ घटना प्रधान न होकर चरित्र प्रधान हैं जिनमें पात्रों की मनोवृत्तियों का वास्तविक चित्रण नितांत सहज रूप में देखने को मिलता है। उनका स्वयं कथन है - 'कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।' इस कथन से उनकी कहानियों में आए विकास को समझा जा सकता है। 'कफन' कहानी उनके इस वैचारिक विकास का उत्कर्ष है। इसमें ग्रामीण कृषक की दुरावस्था का चित्रण है। किसानों की आर्थिक विपन्नता जमीदारों - साहूकारों के शोषण का नतीजा नहीं है बल्कि यह आर्थिक विषमता मूलक समाज की संरचना है। यह कहानी उस सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती है जो मनुष्य के जिन्दा रहने पर उसका शोषण होने देती है और मर जाने पर खोखली नैतिकता का जामा पहन उसके अंतिम संस्कार के लिए उपाय करती है, सहयोग करती है।

मुख्य पात्र जो कि निकम्मे हैं, कोई काम-धाम नहीं करते। उनकी सोच है कि जो निकम्मे नहीं है उनकी भी स्थिति कमोवेश यही है, बेहतर नहीं। वे इस फलसफे पर जीवन यापन करते हैं कि जी-तोड़ मेहनत करके मरना कहाँ की बुद्धिमानी है। यह कहानी कर्मफल के सिध्दांतों पर प्रश्न उठाती है। भौतिकतावादी जीवन के चरम पर आज मानवीय संवेदना आत्मकेन्द्रित होकर शून्य होती जा रही है। प्रेमचन्द ने इसे आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व ही चित्रित कर दिया था। यह प्रेमचन्द की सर्वाधिक त्रासदपूर्ण कहानी है जो जीवन की व्यर्थता और निस्सारता को व्यंजित करती है। एक व्यक्ति जिसका जीवन पशु से भी बदतर है उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा सच भूख है। और भूख का मनोविज्ञान उसे कितना संवेदना शून्य बना सकता है, वह इस कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त है। राजेन्द्र यादव इसे बुधिया के कफन की कहानी नहीं बल्कि मृत नैतिकबोध के कफन की कहानी मानते हैं।

प्रेमचन्द का मनोविज्ञान अन्य मनोविश्लेषणात्मक विचाराधारा के लेखकों से कदाचित भिन्न है। उनका मनोविश्लेषण समाधान मूलक नहीं है, बल्कि वे जीवन के सत्य को उद्धाटित करते हुए मानसिक परिस्थितियों का चित्रण करने में मनोवैज्ञानिक स्पर्श देते हैं। उनकी इस शैली से कहानी की मूल संवेदना प्रखर होती जाती है।

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प्रेमचंद का पद्य-कौशल

प्रेमचंद का पद्य-कौशल


मेरा फोटोकरण समस्तीपुरी

भारतेंदु ने ब्रज-भाषा में पद्य के साथ खड़ी बोली में गद्य का प्रणयन किया लेकिन हिंदी साहित्य में गद्य को प्रतिष्ठा किसने दिलाई ? मुझे नहीं लगता इसका उत्तर गूगल पर या इनसाय्क्लोपिडिया में खोजना पड़ेगा।

संस्कृत वांग्मय का आरम्भ ही पद्य में हुआ है। वेद और उपनिषद पद्य में है। श्रुति और स्मृतियाँ पद्य में हैं। रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथ पद्य मेंहैं। साहित्य ही नहीं नीति, दर्शन, आयुर्वेद, अर्थ-शास्त्र सभी पद्य में थे। संस्कृत से आसूत हिंदी साहित्य मध्यकाल तक पद्य में ही था। आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ पद्य के आवरण से उन्मुक्त होने को कसमसा रही थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का युग हिंदी साहित्य में वयः संधि का युग था। भारतेंदु ने ब्रज-भाषा में पद्य के साथ खड़ी बोली में गद्य का प्रणयन किया लेकिन हिंदी साहित्य में गद्य को प्रतिष्ठा किसने दिलाई ? मुझे नहीं लगता इसका उत्तर गूगल पर या इनसाय्क्लोपिडिया में खोजना पड़ेगा।

मैं बात कर रहा हूँ कलम के सिपाही की।  कलम के मज़दूर की। मुंशी प्रेमचंद की। वाराणसी के समीप लमही के कायस्थ कुलोत्पन्न धनपत राय उर्दू में नवाब राय के नाम से अफ़साना-निगारी करते थे। वतन-परस्ती के ज़ज़्बे से लबरेज़ उनकी किताब 'सोज़े-वतन' बरतानि हुकूमत को हज़म नहीं हुई। 'सोज़े-वतन' की हज़ारों प्रतियां क्या जली वतन को प्रेमचन्द मिल गया। नवाब की कलम पर हुकूमत की पाबन्दी हो गयी थी। नवाब भूमिगत हो गए किन्तु कलम चलती रही।  लिपि बदल गयी, जुबान कमोबेश वही रहा। तेवर वही रहे और जज्बे में कोई तबदीली मुमकिन थी क्या ?

साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है। पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

हिंदी कथा साहित्य के पर्याय हो गए प्रेमचंद। बेशक कलम में जादू था। कफ़न, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, ईदगाह, सद्गति, नशा जैसे ३०० से अधिक कथाओं और सेवा-सदन, गबन, गोदान, निर्मला जैसी दर्ज़न भर उपन्यास के लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कुल तीन नाटक भी लिखे -- कर्बला,संग्राम और प्रेम की वेदी। बल्कि यूँ कहें कि साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है। पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

सेवासदन की कुलीन नायिका सुमन अभाव और कुरूतियों के दंश से तबायफ हो जाती है किन्तु देह का सौदा नहीं करती। यही था प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। प्रेमचंद की रचना-यात्रा वैविध्य से भरी हुई है। सेवासदन के गांधीवादी प्रेमचंद गबन में मार्क्सवादी विचारधारा में ढलते दीखते हैं लेकिन गोदान तक आते-आते वामपंथ से भी उनका मोहभंग हो चुका है। मंगलसूत्र पूरा नहीं हुआ... वरना क्या पाता इसमें समाजवाद की भी पोल खुल जाती।

प्रेमचंद के लिए एक बार अल्लामा इकबाल ने कहा था, “मैं शायर नहीं होता गर नवाब की तरह लिख पाता।" लेकिन प्रेमचंद काव्य प्रतिभा के भी धनी थे। उनका कथा-साहित्य इतना प्रभावशाली और लोकप्रिय था कि इतर विधाओं पर न कभी उनका ध्यान गया न ही उनके प्रशंसकों का। कथा-क्रम में ही उन्होंने कई फुटकर ग़ज़ल और छंद लिखे हैं। आईये ज़रा प्रेमचंद के पद्य-कौशल से भी साक्षात्कार कर लेँ।

दफ़न करने ले चले थे, जब तेरे डर से मुझे !

काश तुम भी झाँक लेते, रोज़-ए-दर से मुझे !!

सांस पूरी हो चुकी दुनिया से रुखसत हो चुका,

तुम अब आये हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे !

क्यूँ उठता है मुझे, मेरी तमन्ना को निकाल,

तेरे दर तक खींच लाई थी, वही घर से मुझे !!

हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था मेरा, ऐ क़ज़ा,

रुक जरा रो लेने दे, मिल-मिल के बिस्तर से मुझे !!

(संग्राम से आकलित)

किसी को दे के दिल कोई, नवा संजे फुगाँ क्यों हो ?

न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में जबां क्यों हो?

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क, जब सिर फोरना ठहरा,

तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संगे-ए-आस्तां क्यों हो ?

कफस में मुझसे रुदादे चमन कहते न डर हमदम,

गिरी है जिस पे कल बिजली, वह मेरा आशियाँ क्यों हो ??

यह फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम है,

हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों हो ?

कहा तुमने कि क्यों हो गैर से मिलने में रुसवाई,

बाजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहिये कि हाँ क्यों हो ??

(संग्राम से आकलित)

क्या सो रहा मुसाफिर, बीती है रात सारी !

अब जाग के चलन की कर ले सभी तय्यारी !!

तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना,

आगे नहीं ठिकाना, होवे बड़ी खुवारी !

पूंजी सभी गंवाई, कुछ ना करी कमाई,

क्या लेके घर को जाई, करजा किया है भारी !!

अब जाग के चलन की कर ले सभी तय्यारी !!

(संग्राम से आकलित)

जय जगदीश्वरी, मात सरस्वती,

शरणागत प्रतिपालनहारी !

चन्द्र-ज्योत सा बदन विराजे,

शीश मुकुट माला गलधारी !

वीणा वाम-अंग में सोहे,

संगीत धुन मधुर पियारी !

श्वेत वसन कमलासन सुन्दर,

संग सखी और हंस सवारी !!

(संग्राम से आकलित)

अगला आलेख रात बारह बजे

सामाजिक मनोविज्ञान के कुशल चितेरे - प्रेमचन्द

-हरीश प्रकाश गुप्त

प्रेमचन्द - एक युग-प्रणेता

प्रेमचन्द - एक युग-प्रणेता


आचार्य परशुराम राय

प्रेमचन्द भारतीय समाज के कुशल चितेरे और मनोवैज्ञानिक हैं। इनकी रचनाओं के पात्र स्वतंत्रता के तिरसठ वर्ष बाद भी उसी संख्या में मिलते हैं। जब हम उनको पढ़ते हैं तो लगता है कि ग्रामीण भारत को समग्रता में देख रहे हैं।

आज प्रेमचन्द की एक सौ तीसवीं वर्षगाँठ है। मनोज कुमार जी की इच्छा थी कि उनके जन्म दिवस पर प्रेमचन्द के विषय में ब्लाग पर लिखा जाये। वैसे मेरी हिन्दी की शिक्षा मात्र बारहवीं कक्षा तक ही रही। किन्तु मेरे मित्र मेरे ऊपर जरूरत से कहीं ज्यादा विश्वास करते हैं। अतएव उनके विश्वास को ठेस पहुँचाना मेरे बस की बात नहीं। पर यह भी उतना ही सत्य है कि हिन्दी उपन्यास और कहानी के एक युग प्रणेता के विषय में एक अनाड़ी का विचार व्यक्त करना हास्यास्पद होने के अलावा कुछ नहीं है।

प्रेमचन्द को बहुत पढ़ा तो नहीं, किन्तु जितना पढ़ा और गुना है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इतना सजग समाज चेता उपन्यासकार और कहानीकार हिन्दी में खोज पाना कठिन ही नहीं असम्भव सा है। यही कारण है कि हिन्दी उपन्यास और कहानी साहित्य के इतिहास में इनके काल को 'प्रेमचन्द युग' की संज्ञा दी गयी है। उपन्यास और कहानियों के अलावा पत्रकारिता के क्षेत्र में भी इन्होंने कार्य किया।

इस महान कथाकार के पूर्व साहित्य की ये विधाएँ मात्र मनोरंजन के लिए थीं। प्रेमचन्द ने इन्हें सामाजिक जीवन धारा से सम्पृक्त किया और 'सेवासदन' इनकी वह प्रौढ़ कृति है जहाँ कथा साहित्य में एक नए युग का श्रीगणेश देखा जाता है। इनके उपन्यास और कहानियों में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व है, चाहे अभिजात वर्ग हो या उच्च वर्ग हो, चाहे मध्यम वर्ग और दलित वर्ग हो। रूढ़ियों की छाया में उनके मानसिक विकारों और धार्मिक भावनाओं के शरणागत शोषण के विकृत व्यवहारों आदि का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। एक ओर उन्हें होरी आदि के शोषण की चिन्ता है, तो दूसरी ओर रायसाहब के शोषण की भी। हर वर्ग अपने ऊपर वाले वर्ग से शोषण का शिकार है। यदि एक वर्ग अपने को दुखी और शोषित समझता है, तो शोषक वर्ग उससे परे नहीं है। हर वर्ग के अपने-अपने आदर्श के बहाने हैं। उनकी अलग-अलग कुण्ठाएँ हैं। प्रेमचन्द उन सबके प्रति सजग हैं। समग्र भारतीय समाज उनका पात्र है। उनके मनोवैज्ञानिक चित्रण पाठक को झकझोरते हैं।

अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं, यथा - आर्यसमाज, गाँधीवाद, वामपंथी विचारधारा आदि। लेकिन समाज की यथार्थगत भूमि पर उसकी सहज प्रवृत्ति में ये प्रवृत्तियाँ जितनी समा सकती है, उतनी ही मिलाते हैं, ठूस कर नहीं भरते। इसीलिए चित्रण में जितनी स्वाभाविकता प्रेमचन्द में देखने को मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ है। 'गोदान' में तो यह अपनी पराकष्ठा पर पहुँच गई है। यदि प्रेमचन्द युग का आरम्भ 'सेवासदन' में है, तो उसका उत्कर्ष 'गोदान' में। आदर्शों और विचारधाराओं को वे अपने पात्रों पर थोपते नहीं हैं, बल्कि अन्तर्मन या अन्तरात्मा की आवाज की तरह स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने देते हैं। 'सेवासदन' और 'कायाकल्प' में जहाँ साम्प्रदायिक समस्या उठाई गई है, वहीं 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' और 'गोदान' में अन्तर्जातीय विवाह की। समाज में नारी की स्थिति और अपने अधिकारों के प्रति उनकी जागरूकता इनके लगभग सभी उपन्यासों में देखने को मिलती है। 'गबन' और 'निर्मला' में मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण किया गया है। हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को 'कर्मभूमि' में सर्वोत्तम रूप से उजागर किया गया है।

अपनी कहानियों में प्रेमचन्द ने अपनी स्वाभाविक भूमि की विरासत को वैसे ही सुरक्षित रखा जैसे अपने उपन्यासों में। उनके सजग द्रष्टापन की उपस्थिति वहाँ भी है। वे 'कफन' के घीसू और माधव हों या 'ईदगाह' का हामिद हो या 'बूढ़ी काकी', उनकी यथार्थ मानसिकता के प्रति प्रेमचन्द जी पूरी तरह सजग हैं। चाहे हामिद ने भले ही अपनी तार्किक प्रतिभा से अपने चिमटे को अन्य बच्चों के खिलौनों से श्रेष्ठ सिद्ध् कर दिया हो, लेकिन उन खिलौनों के प्रति उसकी ललक प्रेमचन्द से छुपी नहीं है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता का कोई जवाब नहीं।

अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं, यथा - आर्यसमाज, गाँधीवाद, वामपंथी विचारधारा आदि। लेकिन समाज की यथार्थगत भूमि पर उसकी सहज प्रवृत्ति में ये प्रवृत्तियाँ जितनी समा सकती है, उतनी ही मिलाते हैं, ठूस कर नहीं भरते।

अपनी कुण्ठाओं को सुरक्षित रखने के लिए तर्क और आदर्श के बहाने ढूंढ लेने में वे उसी तरह समर्थ हैं, जैसे भ्रष्टाचारी अपने आचरण के लिए 'सेवा' शब्द का प्रयोग करते हैं। घीसू और माधव के पास अपने निठल्लेपन को सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक सुदृढ़ तर्क है कि दिन-रात मेहनत करने वाले किसानों की दशा भी उनसे अच्छी नहीं है। उसके लिए वे मारे जाएँ या गाली खाएँ, उनको कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसे वे अपने पुराने जन्मों के कर्मों के खाते में डालकर अपनी सुरक्षा कवच में निरापद सन्तोष की आभा से दीप्त रहते हैं।

प्रेमचन्द की भाषा पात्रों के अनुकूल सहज और सरल है। या यों कहना चाहिए कि कथा साहित्य के लिए इन्होंने हिन्दी भाषा को तराशा है। हाँ, अरबी, फारसी और देशज शब्द कहीं-कहीं पाठकों को उलझन में जरूर डाल देते हैं।

प्रेमचन्द भारतीय समाज के कुशल चितेरे और मनोवैज्ञानिक हैं। इनकी रचनाओं के पात्र स्वतंत्रता के तिरसठ वर्ष बाद भी उसी संख्या में मिलते हैं। जब हम उनको पढ़ते हैं तो लगता है कि ग्रामीण भारत को समग्रता में देख रहे हैं। हाँ, एक बात है कि नागरिक जीवनचर्या के चित्रण का इनकी रचनाओं में अभाव सा है। कहीं-कहीं यह स्वाभाविक रूप से आ भी गया है, तो वह नही के बराबर है।

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अगली प्रस्तुति रात आठ बजे करण समस्तीपुरी द्वारा

 

ग्रमीण जीवन के चितेरे प्रेमचंद – डॉ. रमेश मोहन झा

ग्रमीण जीवन के चितेरे प्रेमचंद

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डॉ. रमेश मोहन झा

प्रेमचंद एक ऐसे चित्रकार हैं, जो बहुत ही कम रंगों और हल्की रेखाओं से अपना काम चलाते थे। उनके उकेरे गए चित्र आंखों को मोहित करने के बाद हमारी बुद्धि की शिथिलता दूर करते हैं।

उच्छ्वासित राष्ट्रीयता के युग में प्रेमचंद की यथार्थवादी लेखनी उन्हें आकर्षक बनने नहीं देती। वे सुजला, सुफला, शस्य-श्‍यामला भारतभूमि के चित्रकार नहीं हैं। वे किसी से कम प्रेम नहीं करते, किन्तु अपनी ग्रामवासिनी भारत-माता का धूलि-भरा मैला आंचल उनके लिए कभी इंद्रधनुषी नहीं बन सकता था।

प्रेमचंद भारतीय ग्रामीण जीवन के जो चित्र अंकित करते हैं, उनके लिए वे या तो सीधे-सादे फ्रेम तैयार करते हैं या कभी-कभी उन्हें फ्रेम में जड़ते ही नहीं।

जिसका ध्यान चित्र पर केंद्रित रहता है, वे फ्रेम की चिंता करते भी नहीं।

प्रेमचंद के चित्रण में एक संतुलन है।

प्रेमचंद ग्रामीण-जीवन को आवेष्टित करने वाले, प्राकृतिक परिवेश का चित्रण वहां करते हैं, जहां वह आलंबन के लिए उद्दीपन होने के बदले उनका अनिवार्य-अंग रहता है।

ऐसी पृष्ठभूमि-स्वरूप अंकनों के बारे में भी यह उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद सदा अनुपात का ध्यान रखते हैं – पृष्ठभूमि, मूल चित्र, मानव जीवन की तुलना में गौण ही बनी रहती है।

प्रेमचंद के ग्रामीण जीवन के चित्रण की सबसे महत्वपूर्ण कलात्मक विशेषता यह है कि उनकी सार्थकता और उपयोगिता प्रायः वैषम्य का प्रभाव उत्पन्न करने के निमित्त है।

एक ओर नागरिक सभ्यता है, तो दूसरी ओर है ग्रामीण संस्कृति। इसी आरोहावरोह-युक्त पृष्ठभूमि के सहारे प्रेमचंद के उपन्यास मनुष्य की दुर्बलता और असफलता के महाकाव्य बन जाते हैं।

प्रेमचंद के ऐसे महाकाव्यात्मक उपन्यासों मे “गोदान” का विशेष महत्व है – न केवल प्रेमचंद के उपन्यासों में, बल्कि श्रेष्ठ उपन्यास-मात्र में। “गोदान” में चित्रित ग्रामीण जीवन उसी में चित्रित नागरिक जीवन का शेष पूरक है। वह नहीं होता तो भारतीय जीवन का जो विराट चित्र प्रेमचंद प्रस्तुत करना चाहते थे, वह अधूरा रह जाता।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि

IMG_0077 प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से भारत की दलित मानवता और उपनिवेशवाद के अभिशापों से दबी जनता की मूक-मौन वेदना को सशक्त वाणी दी, साथ ही उन्हें यथार्थ के खुरदरे धरातल पर संघर्ष हेतु ला खड़ा किया।

अगली प्रस्तुति शाम चार बजे आचार्य परशुराम राय द्वारा

मुंशी प्रेमचंद जयंती पर …

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मुंशी प्रेमचंद जयंती पर …

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मनोज कुमार

आज का सारा दिन हम मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती पर समर्पित कई पोस्ट इस ब्लॉग पर प्रस्तुत करेंगे! इसी श्रृंखला की पहली कड़ी पेश है।

इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों, अंधविश्‍वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है।

मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारास के पास लमही नामक गाँव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उनका असली नाम श्री धनपतराय। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा।  दुःख ने यहा ही उनका पीछा नहीं छोड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में मुंशी थे।

घर में यों ही बहुत गरीबी थी। ऊपर से सिर से पिता का साया हट जाने के कारण उनके सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। ऐसी परिस्थिति में पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा रोटी कमाने की चिन्ता उनके सिर पर आ पड़ी।

१५ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया, जो दांपत्य जीवन में आ गए क्लेश के कारण सफल नहीं रहा। प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा उनके साथ सुखी दांपत्य जीवन जिए।

इन कहानियों में उन्होंने मनुष्य के जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है।

विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ़ अपनी रोज़ी-रोटी चलाई बल्कि मैट्रिक भी पास किया। उसके उपरान्त उन्होंने स्कूल में मास्टरी शुरु की। यह नौकरी करते हुए उन्होंने एफ. ए. और बी.ए. पास किया। एम.ए. भी करना चाहते थे, पर कर नहीं सके। शायद ऐसा सुयोग नहीं हुआ।

पूर्ण आकार की छवि देखेंस्कूल मास्टरी के रास्ते पर चलते–चलते सन 1921 में वे गोरखपुर में डिप्टी इंस्पेक्टर स्कूल थे। जब गांधी जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफे का नारा दिया, तो प्रेमचंद ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित हो, सरकारी नौकरी छोड़ दी। रोज़ी-रोटी चलाने के लिए उन्होंने कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में काम किया। पर वह भी ज़्यादा दिनों तक चल नहीं सका।

प्रेमचंद ने 1901 मे उपन्यास लिखना शुरू किया। कहानी 1907 से लिखने लगे। उर्दू में नवाबराय नाम से लिखते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों लिखी गई उनकी कहानी सोज़ेवतन 1910 में ज़ब्त की गई , उसके बाद अंग्रेज़ों के उत्पीड़न के कारण वे प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। 1923 में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की। 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। इन्होने 'मर्यादा', 'हंस', जागरण' तथा 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया।

जीवन के अन्तिम दिनों के एक वर्ष छोड़कर, सन् (33-34) जो बम्बई की फिल्मी दुनिया में बीता, उनका पूरा समय बनारस और लखनऊ में गुजरा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया और अपना साहित्य सृजन करते रहे ।

8 अक्टूबर 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ’

भारत के हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द का नम अमर है। उन्होंने हिन्दी कहानी को एक नयी पहचान व नया जीवन दिया। आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। उन्हें कथा सम्राट की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में उन्होंने मनुष्य के जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है। इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों, अंधविश्‍वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, नमक का दारोगा, दो बैलों की आत्म कथा जैसी कहानियां कालजयी हैं। तभी तो उन्हें क़लम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है।

प्रेमचंद का रचना संसार - उनका कृतित्व संक्षेप में निम्नवत है-
उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन(१९१६), प्रेमाश्रम(१९२२), निर्मला(१९२३), रंगभूमि(१९२४), कायाकल्प(१९२६), गबन(१९३१), कर्मभूमि(१९३२), गोदान(१९३२), मनोरमा, मंगल-सूत्र(१९३६-अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह- प्रेमचंद ने कई कहानियाँ लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे ३०० के लगभग कहानियाँ है। ये शोजे वतन, सप्त सरोज, नमक का दारोगा, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिमा, प्रेम तिथि, पञ्च फूल, प्रेम चतुर्थी, प्रेम प्रतिज्ञा, सप्त सुमन, प्रेम पंचमी, प्रेरणा, समर यात्रा, पञ्च प्रसून, नवजीवन इत्यादि नामों से प्रकाशित हुई थी।
प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियोन का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।
नाटक- संग्राम(१९२३), कर्बला(१९२४) एवं प्रेम की वेदी(१९३३)
जीवनियाँ- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कहानी)
बाल रचनाएँ- मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियाँ, राम चर्चा।
इनके अलावे प्रेमचंद ने अनेक विख्यात लेखकों यथा- जार्ज इलियट, टालस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियो के अनुवाद भी किया।

आज 31 जुलाई को उनकी जयंती है। हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं।

अगली प्रस्तुति १२ बजे “ग्रामीण जीवन के चितेरे प्रेमचंद” डॉ. रमेश मोहन झा द्वारा।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

अंक-2 -- स्वरोदय विज्ञान -- आचार्य परशुराम राय

अंक-2

स्वरोदय विज्ञान

मेरा फोटोआचार्य परशुराम राय

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जीवनी शक्ति श्वास में अपने को अभिव्यक्त करती है। श्वास के द्वारा ही प्राणशक्ति (जीवनीशक्ति) को प्रभावित किया जा सकता है। इसलिए प्राण शब्द प्राय: श्वास के लिए प्रयुक्त होता है और इसे कभी प्राण वायु भी कहा जाता हैं। हमारे शरीर में 49 वायु की स्थितियाँ बतायी जाती है। इनमें से दस हमारी मानसिक और शारीरिक गतिविधियों को संचालित करती हैं। यौगिक दृष्टि से इनमें पाँच सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं:- प्राण, अपान, समान, व्यान ओर उदान।

प्राण वायु का कार्यक्षेत्र कण्ठ से हृदय-मूल तक माना गया है और इसका निवास हृदय में। इसकी ऊर्जा की गति ऊपर की ओर है। श्वास अन्दर लेना, निगलना, यहाँ तक कि मुँह का खुलना प्राण वायु की शक्ति से ही होता है। इसके अतिरिक्त, ऑंख, कान, नाक और जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा तन्मात्राओं को ग्रहण करने की प्रक्रिया में भी इसी वायु का हाथ होता हैं। साथ ही यह हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित करती है तथा मानसिक क्रिया जैसे सूचना लेना, उसे आत्मसात करना और उसमें तारतम्य स्थापित करने का कार्य भी सम्पादित करती है।

अपान वायु का प्रवाह नाभि से नीचे की ओर होता है और वस्ति इसका निवास स्थल है। शरीर की उत्सर्जन क्रियाएँ इसी शक्ति से संचालित होती हैं। इस प्रकार यह वृक्क, ऑंतें, वस्ति (गुदा), मूत्राशय एवं जननेन्द्रियों की क्रियाओं को संचालित करती है। अपान वायु में व्यतिक्रम होने से मनुष्य में प्रेरणा का अभाव होता है और वह आलस्य, सुस्ती, भारीपन एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता से ग्रस्त हो जाता है।

समान वायु हृदय और नाभि के मध्य सक्रिय रहती है और चयापचय गतिविधियों (Metabolic Activities) का नियमन करती है। कहा जाता है कि मुक्ति का कारक भी यही प्राण है। इसका निवास स्थान नाभि और ऑंतें हैं। यह अग्न्याशय, यकृत और अमाशय के कार्य को प्रभावित करती है। इसके अतिरिक्त यह हमारे भोजन का पाचन करती है और पोषक तत्वों को अपशिष्ट पदार्थों से विलग भी करती है। इसकी अनियमितता से अच्छी भूख लगने और पर्याप्त खाना खाने के बाद भी खाए हुए भोजन का परिपाक समुचित रूप से नहीं होता है और चयापचय गतिविधियों के कारण उत्पन्न विष शरीर में ही घर करने लगता है, जिससे व्यक्ति अम्ल दोष का शिकार हो जाता है। जब यह प्राण संतुलित होता है तो हमारी विवेक बुध्दि सक्रिय रहती है और इसके असंतुलन से मानसिक भ्रांति और संशय उत्पन्न होते हैं।

उदान वायु प्राण वायु को फेफड़ों से बाहर निकालने का कार्य करती है। इसका निवास स्थान कंठ है और यह कंठ से ऊपर वाले भाग में गतिशील रहती है। यह नियमित होने पर हमारी वाक्क्षमता को सशक्त बनाती है और इसकी अनियमितता स्वर-तंत्र और श्वसन तंत्र की बीमारियों को जन्म देती है। साथ ही इसमें दोष उत्पन्न होने से मिचली भी आती है। सामान्य अवस्था में उदान वायु प्राण वायु को समान वायु से पृथक कर व्यान वायु से संगम कराने का कार्य करती है।

व्यान वायु का जन्म प्राण, अपान, समान और उदान के संयोग से होता है। किन्तु व्यान के अभाव में अन्य चार वायु का अस्तित्व असंभव है, अर्थात् सभी प्राण एक दूसरे पर आश्रित हैं। व्यान वायु हमारे शरीर का संयोजक है। प्राण वायु को पूरे शरीर में व्याप्त करना, पोषक तत्वों का आवश्यकतानुसार वितरण, जीवन ऊर्जा का नियमन, शरीर के विभिन्न अंगों को स्वस्थ रखना, उनके विघटन पर अंकुश लगाना आदि इसके कार्य हैं। यह पूरे शरीर में समान रूप से सक्रिय रहती है। पूरे शरीर में इसका निवास है। ज्ञानेन्द्रियों की ग्राहक क्षमता का नियामक व्यान वायु ही है। सभी ऐच्छिक एवं अनैच्छिक शारीरिक कार्यों का संचालन व्यान वायु ही करती हैं। हमारे शरीर का पर्यावरण के साथ संवाद या पर्यावरण के प्रति हमारी शारीरिक प्रतिक्रियाएं इसी वायु (प्राण) के कारण होती है।

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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

आँच-28 :: पर 'मेरा आकाश'

आँच-28 :: पर 'मेरा आकाश'


मेरा फोटोहरीश प्रकाश गुप्त

किसी ने कहा जीवन एक संघर्ष है, किसी ने कहा संघर्ष ही जीवन है। दृष्टि अपनी-अपनी है। जीवन में संघर्ष नही तो यह नीरस है। संघर्षों का सामना करना, उन पर विजय पाना उपलब्धि है और यही जीवन को सरस बनाता है। जिन्दगी की इन जटिलताओं को सरल और सपाट शैली में व्यक्त करना आसान नहीं होता। ऐसी अभिव्यक्तियाँ जब गर्भ में होतीं है, अर्थात् रचनाकार के मानस में होती है तब रचनाकार स्वयं अनेक अन्तर्द्वन्द्वों से जूझ रहा होता है। वह अपनी संवेदना से दूसरों की अनुभूति जीता है, उसे वाणी प्रदान करता है। उसके पास जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन वह अपने शब्द कौशल से चमत्कार पैदा करते हुए नवीन अर्थ का सृजन करता है, उसे आकर्षक बनाता है। जब पाठक का रचना से तादाम्य स्थापित हो जाता है तब रचना सफलता के शिखर पर होती है। मनोज कुमार जी की कविता 'मेरा आकाश'(लिंक यहां है) जिन्दगी की ऐसी ही जटिलताओं की अभिव्यक्ति है और मनोज जी ने इसे सफलतापूर्वक शब्दों में ढाला है। पाठकों से तादाम्य स्थापन के कारण इस कविता को पाठकों की भरपूर सराहना भी मिली है।

कविता का विस्तार तीन प्रस्तरों का है। पहला प्रस्तर संघर्ष की अभिव्यक्ति हैं। कविता के प्रारम्भ के स्वर में आंशिक निराशा है। 'मेरा आकाश पीछे छूट गया, बहुत दूर क हाथ बढ़ाया था छूने का।' लेकिन अपने लक्ष्य को पाने की असीम उत्कण्ठा बार-बार उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करती है। वहीं झंझाएं ऐसी हैं कि वे आगे बढ़ने नहीं देतीं। 'बादलों की हुंकार' प्रतिकूलतम परिस्थितियों को अभिव्यंजित करती है लेकिन साहस की पराकाष्ठा उन्हीं झन्झाओं में ही अवलम्ब तलाश लेती है। 'कौधंती बिजलियों की डोर थामें।' बारम्बार प्रयासों में बहा रक्त-स्वेद निस्सार होने के बावजूद भी संघर्ष की जिजीविषा असफलताबोध पर भारी हो जाती है। रक्त का रिसना संघर्ष की पराकाष्ठा है तो रक्त का सागर के जल की भाँति खारा बनना उस असीम श्रम के निष्फल होने की पराकाष्ठा।

विवशता का जो अर्थवत्व 'धरती की रेत मुट्ठियों से फिसल-फिसल' में फिसल शब्द की पुनरावृत्ति से अभिव्यक्त है वह शायद अन्य प्रयोगों से उतना गहरा अर्थ नहीं दे पाता। यह कवि का अपना कौशल है।

कविता का द्वितीय प्रस्तर कवि का आत्मालाप है जो पूर्व पद से सम्पृक्त भी है और एक पृथक दिशा की ओर भी मुखरित है।

सुनता हूँ अपनी ही आत्मा का शांतिपाठ' विचारों का उत्कर्ष है तथापि चेष्टाओं और प्रयत्नों के निरहेतु हो जाने का अन्तर्द्वन्द्व लावा बनकर चारो ओर घेर लेता है और आत्मा के स्वर का यह स्पंदन भी विलीन-सा हो जाता है।

यदि कविता के प्रथम दो पद चेष्टाओं और असफलता के संघर्ष की परिभाषा हैं तो अंतिम पद आशोन्मुख है और नितांत प्रेरक है। यह कविता का सबसे मधुर और कोमल पद है।

संघर्ष की पराकाष्ठा के बाद 'कोयल की कूक' आशा है। कोयल स्वत: मधुर और कर्णप्रिय स्वर से सम्पन्न है, उसकी कूक 'भोर के उजाले' - आशा की एक और किरण - 'से लिपट लिपट', अर्थात् साथ न छोड़ने को उद्यत है और यही वह असीम शक्ति है जो तमाम झंझाओं के बावजूद 'मेरा आकाश' अर्थात् सफलता हासिल करने के लिए प्रेरित कर जाती है।

मनोज जी की यह कविता काव्यत्व से सराबोर है। एक-एक शब्द गहरा अर्थ लिए हुए है। उन्होंने अपने अन्वेषित बिम्बों से कविता को समृद्ध किया है जो न केवल अर्थ को चमक देते हैं बल्कि अर्थ की गहराई का भी अहसास कराते हैं।

यदि कहीं अपवाद हैं तो अत्यल्प हैं। 'बादलों के कुछ टुकड़ों ने ऐसी हुंकार भरी' में हुंकार रूपी गर्जन अर्थ को लांघता है तो 'कौधंती बिजलियों की डोर थामें' में व्यतिरेक से अर्थ भरने का सार्थक प्रयास भी किया गया है।

कविता में दो स्थानों पर - 'लिपट-लिपट' और 'फिसल-फिसल' में पुनरुक्त प्रयोगों के माध्यम से अर्थ को जो विस्तार मिला है वह अत्यन्त आकर्षक है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुनरुक्त प्रयोगों से अर्थ गौरव में वृद्धि करने में मनोज जी सिद्धहस्त हैं।

'पुरखों के पिण्डों संग समर्पित हैं' में एक अलग तरह की शब्द योजना है जो शेष कविता से मेल नहीं खाती। अतः इस स्थान पर ऐसे शब्दविधान से बचा जा सकता था। शब्दाकर्षण कविता का इष्ट नहीं है। जबकि भावविधान, अर्थ का गांभीर्य, सम्प्रेषणीयता और शब्दगरिमा ही कविता के प्रमुख तत्व हैं, रस निष्पत्ति उसका धर्म है।

इस कविता के भाव और कला (शिल्प) दोनों ही पक्ष सबल हैं। कविता के शीर्ष में प्रयुक्त बिम्ब ‘मेरा आकाश’ अपना अर्थ स्पष्ट करने में कुछ भ्रमित करता है कि यह सफलता है या आशाएं-अपेक्षाएं हैं अथवा स्वतंत्रता या फिर इनका समुच्चय। हाँ, एक बात और जिससे शायद सभी लोग सहमत न हों, लेकिन जब कवि को स्वयं कविता की भूमिका में प्रस्तावना देने या अर्थ के लिए अवलम्ब लेने की आवश्यकता पड़े तो यह कविता की सफलता नहीं कही जाती। हालाँकि यह कविता अर्थ के स्तर पर और भाव के स्तर पर स्वयं सम्प्रेषण में पूर्णतया समर्थ है। इसे किसी भूमिका की आवश्यकता न थी।

कविता अर्थ का विस्तार नहीं बल्कि गागर में अर्थ का सागर भरना है - और यह इस कविता में निहित है।

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बुधवार, 28 जुलाई 2010

देसिल बयना - 40 : राजा राज को बेहाल रानी काज को बेहाल

देसिल बयना – 40

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राजा राज को बेहाल रानी काज को बेहाल

मेरा फोटोकरण समस्तीपुरी

पछिला हफ्ता तो हम एगो अजगुते (आश्चर्य) देखे। एक इडिअट बॉक्स में तीन इडिअट आ रहा था। अरे अमीर खान वाला फिलिम थ्री इडिअट्स। फिलिम जब ख़तम होए को आया तो उ का नाम रहा.... हाँ याद आया, रस्तोगी जी और फरहान मियाँ कुक्कुर लेखा सूंघते-सूंघते रैंचो के पास पहुँच गए।  उके साथ हिरोईनी भी थी।

खैर सब मिले मगर खैर-मकदम का होगा... लात बाजिये शुरू हो गया। सब मिल के लगा रैंचो को लोंघरा-लोंघरा के मारे। ससुर कामो वैसने किया था। कौनो यार-दोस्त को बताये बिना चुपे-चाप तड़ीपार हो गया था। उ सब ई को खोजे में रात दिन तड़पता रहा। इत्ते दिन पर मिला था सो सब प्यार-दुलार निकाल दिया।

बाद में पता चला कि उ रणछोड़ दास चांचर उर्फ़ रैंचो नहीं है। अब हिरोइनिया का आँख चमक गया। कहिस बहुत बढ़िया। अब हमरे नाम केआगे चांचर-पांचर तो नहीं लगेगा... ! फेर उ को पता लगा कि उ का नाम तो फुलसुक वांगडू है। अब ले बलैय्या के उ लगी फिर से कपार-माथा धूने। हाय नारायण ! हमरा नाम वांगडू हो जाएगा.... ! इहे बात पर हमरे मुँह से निकल गया, "ये लो... राजा राज को बेहाल रानी काज को बेहाल !"

अब ई सुन के भौजी जो ताली पीट के हँसे लगी कि भैय्यो को रहा नहीं गया।  एक तो फिलिम हंसाते-हंसाते हाल खराब करा था... ई फकरा पर तो जो हंसी बाजरा कि भौजी का भाई गोपीचन बेचारा गिरते-पड़ते भगा बाथरूम। उ के बाद सनीमा तो दुइये मिनिट में ख़तम हो गया मगर भौजी और गोपीचन हमरे पीछे पड़ गए। ई फकरा कहाँ से सीखे आप ? हम कहे, 'भकोल दास से।'

भकोल दास बेकल राजा के इस्टेट का मनेजरी करता था। इंदिरा गांधी के राज में जमींदारी गया... फिर बाँट-बखरा... ! एक तो भाई-देयाद उकपाती (शैतान) ऊपर से रैय्यत-बटाईदार भी क़ानून बूकने लगा था।  बेकल राजा पर महीना के दिन सेजादे मोकदमे लदा गया।  बेचारे दिन रात कनूनिये दाव-पेंच सोझराने में लगे रहते थे।  परबत्ता वाला बाइस बीघा के पलौट पर कुजरा-कवारी सब कब्ज़ा कर लिया था। सरकार का हुकुम था कि  जौन को बसे का जमीन नहीं हो उ जहां पड़ती जमीन पाए घर बना ले।

J0387591 अब बेकल राजा बेचारे जमीं छोडाए कैसे ? अब यही पलौट पर बेकल राजा का राज था। ई गया हाथ से तो हो गया ठन-ठन गोपाल। राजा जीएड़ी-चोटी का पसीना एक किये हुए थे। भकोल दास भी वकील-मोहरीर के पाछे ई कोट से उ कोट चक्कर घिरनी की तरह नाचते रहता था।

हाई कोट कलकत्ता का मुखर्जी वकील आया। उ सब कागज़-पत्तर दुरुस्त कर के नेट दस बजे बोलाया था। कहा था एक्के जिरह में केस को हवा-हवाई कर देंगे। मुखर्जी वकील का बात था कौनो खेल मियाँ के टोपी नहीं। भकोल दास और बेकल राजा रात भर लालटेन जला के कागज-पत्तर जोगाते रहे। एक झपकी मारे और फिर उठ कर तैयार। भोरे सत बजिया पसिंजर भी पकड़ना था।

भकोल दास को कहचरिया बस्ता थमा के गए बेचारे गोसाईं घर में गोर लगने। आखिर पुश्तैनी ज़मीन का मामला था।  कुल देवता का आशीर्वाद तो जरुरिये था न।  इधर उनकी लुगाई भी कम परेशान नहीं थी। बेचारी हरबरा के दू गो बाल्टी ले के निकली, "एजी ! आप दरभंगा चले जाइएगा तो हम दिन भर बिना पानीये के रह जायेंगे। पहिले कुआं पर से पानी भर के तो ला दीजिये।" बेचारे राजा जी कुलदेवता से पहिले गिरिह लछमी को सिर नवाए और बाल्टी ले के धर-फार भागे कुआं पर। भकोल दास द्वार पर खड़ा सब तमाशा देख रहा था।

बूंद-बूंद जल की क़ीमत राजा जी पानी रख के गोसाईं घर में जाने लगे कि गिरिह लछमी का फिर आदेश हुआ, "सुनिए ! पानी लाइए दिए हैं तो बर्तनों साफ़ कर दीजिये न... ! हम राते हाथ में मेहदी लगाए हैं !" बेकल राजा बोले, "अरे सिरीमती जी ! गाडी छूट जायेगी तो परबत्ता वाला राज गया हाथ से... !" मगर रानी जी कौनो मुरुख-चपाठ नहीं थी। झट से अपना दाहिना कलाई उल्टा कर बेकल जी के सामने कर दी, "देखिये ! अभी तो पांचो नहीं बजा है। पसिंजर तो सात बजे है।" बेचारे राजा जी गमछा और कुरता उतार कर अलना पर रक्खे और धोती समेट कर बर्तन रगड़े लगे।

झट-पट में बर्तन धोये और जैसे ही हाथ में गमछा लेते हैं कि सिरीमतीजी फिर से बोली, "सब पानी तो बरतने में लगा दिए अब दिन भर कैसे काम चलेगा ? दू बाल्टी और हमरे नहाए खातिर भी ला दीजिये न... !" अब तो प्राण जाहि पर बचन न जाहि.... ! बेचारे बाल्टी उठा के फिर चले कुआं पर। भकोल दास आँख  नाचा कर पूछा, "का ?" बेचारे का जवाब दें ? बोले, "बस हो गया। दू बाल्टी पानी दे देते हैं फिर चलते हैं।

अन्दर पानी रख के बेचारे जैसे ही कुरता उठाए कि महारानी जी कठौती में आंटा ला के सामने रख दी, "आप दरभंगा जा रहे हैं और आज जिबछी-माय भी नहीं आयेगी। फिर बाल-बच्चा खायेगा का ? ई आंटा तो कम से कम गूँथ के जाइए।" दूसरा का बात होता तो काटियो देते...राज रहे कि नहीं रहे... लौट के तो यही घर में आना है। बेचारे मन-मसोस कर आंटा में पानी उड़ेले लगे। इधर भकोल दास बाहर से आवाज लगाया, "मालिक ! जल्दी चलिए। गाड़ी का टेम हो जाएगा।" बेचारे अन्दर से बोले, "बस! यह अन्तिमे काम है।   चलते हैं।"

बेकल राजा जब तक आंटा गूंथे गिरिह लछमी जी नहा-सोना के रेडी हो गयी थी। मुँह में मगही पान का गिलौरी रखी और टेप-रेकट पर गाना चालु कर दिया, "एगो चुम्मा ले ला राजा जी बन जाई जतरा.... !" राजा जी एगो लम्बा सांस ले के उठे और हाथ धो कर गमछा में पोछ के कुरता पहिने। फिर गोसाईं घर में जा के सिर नवाये। फिर सिरीमती जी के कमरे में झाँक कर बोले, "चूल्हा भी पोछ दिए और तरकारी भी काट दिए। अब हम चलते हैं।" और जैसे खुट्टा तोड़ के बछरा भागता है वैसे ही बेचारे बेकल राजा भागे आँगन से। राजा जी को देख कर भकोल दासको भी जी में जी आया। दोनों आदमी जय गणेश-जय गणेश कर के कदम बढाए।

दरवाजे से उतर कर सड़क पर आये ही थे कि बहरिया कोठरी के खिड़की से मूरी निकाल कर सिरीमती जी चीलाई, "एजी ! सुनिए ! सुनिए !! एगो काम तो बचिए गया। जल्दी आईये। वरना लेट हो जाएगा।" बेकल राजा एक बेर घर के तरफ देखें एक बेर भकोल दास को। भकोल दास भी समझ गया। बोला, "जाइए का कीजियेगा... ? 'राजा राज को बेहाल रानी काज को बेहाल' आप को परबत्ता का इस्टेट बचाए का पड़ा हुआ है और मलकिनी को दीन भर काम कौन करेगा ई का चिंता लगा है।" जाइए, देखिये झट-पट कौन काम पड़ा हुआ है !

बेचारे राजा जी से तभी तो ई कहावत पर भी हंसा नहीं जा सका। अपना जैसे मुँह लटका के पिछले पैर पलट गए। मगर एक दिन भकोल दास मिसरी लाल कक्का के अंगना में ई किस्सा कह रहा था तो हम भी वही थे। उ जैसे ही अंतिम मे खिखिया के कहा, "राजा राज को बेहाल ! रानी काज को बेहाल !!" की हम तो हँसते-हँसते दोबर हो गए। काकी तो लोटा-लोटा के हंसी। मिसरी कक्का भी हँसते-हँसते काकी को ताना मारे, "आज से आप भी काज कम करवाइए हम से नहीं तो..... !"

जब सब हंस ठठा के शांत हुआ तब हम भकोल दास से पूछे, "दास जी ! आपको ई अलबत्त बात कहाँ से सूझा ?" दास जी बोले, "धुर महाराज ! अरे और का कहते ? जानते हैं, बेकल राजा कितना परेशान थे परबत्ता पलौट के लिए... और महारानी जी को अपना गिरिह-कारज ही सबसे जरुरी लगता था।  तो ठीके न कहे न ?

मिस्री कक्का भी भकोल दास के हाँ में हाँ मिला के बोले, "हाँ ठीक नहीं तो क्या ? एक किसी जरूरी बात के लिए परेशान है और दूसरा किसी बेकार बात के लिए तो का कहेंगे ? सहीये तो कहे हैं, "राजा राजको बेहाल ! रानी काज को बेहाल !!" कहावत का मतलब बुझा के मिसरी कक्का भी जो लय में ई दुहराए कि हंसी का बाँध फिर से टूट गया।

PH03425I तो वही हाल उ हिरोइनिया कर रही थी। सब को सब बात का चिंता लगा है.... कि भई रैंचो कौन था... ई वांगडू को रैंचो काहे बनना पड़ा... उको अमीरका के कंपनी से डील करना था... अब आगे का होगा... सबई में लगा था और हिरोईनी को इहे का चिंता खाए जा रहा था कि उ का सरनेम का होगा... ?

हूँ ! पूरा किस्सा सुन के भौजियो के मुँह से निकल पड़ा, "मार बढ़नी .... सच्चे तो, राजा राज को बेहाल ! रानी काज को बेहाल !!" भौजी कहावत का अर्थ समझ कर भैय्या के तरफ घूम के बोली, "आप कुच्छो समझे कि नहीं ? हम भी काज से बहुते तबाह रहते हैं ?" भौजी का बात ख़तम होए से पहिलही हम टपक पड़े, "लेकिन भौजी ! ई कहावत को कौनो-कौनो जगह ऐसे भी बोलते हैं, "राजा राज को बेहाल ! रानीचुम्मा को बेहाल !!" हा... हा... हा... हा... ! एक बार फिर से सब ठहक्का मर के हंसने लगा। खाली गोपिचंमा बेचारा मूरी झुकाए मुस्का रहा था।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

याद तेरी आई … ! मनोज कुमार

 

सावन शुरु हो गया है। इस मौसम में बादल, बिजली, फुहार-बौछार, धूप-छांव की आंख मिचौनी, इन सब को देख कर मुझे कुछ खास दिन, कुछ खास लोग बरबस याद आ जाते हैं। सावन में  नदी, तालाब, पोखर, हरियाली, सब, बहुत-बहुत भरा-पूरा होता है, और जब सब कुछ बहुत-बहुत और भरा-पूरा होता है, तब अगर किसी चीज़ की कमी हो जाती है, तो वह कमी काफ़ी सालती है, काफ़ी खलती है। सब कुछ भींगा-भींगा-सा होता है, … मन भी। नयन भी! यानी वियोग, बिछोह, विरह, अन्य मौसम की तुलना में सावन में, काफी बढ़ा-बढ़ा-सा लगता है।

समय हर चीज़ का अंतिम पैमाना है। समय के तीनों खण्डों में, वर्तमान सदा परिवर्तनशील होता है। अतीत तो परिवर्तनहीन है, स्थाई है। और भविष्य अज्ञात! चूंकि सुख-शांति एक परिवर्तनरहित अवस्था से संबंधित है, इसलिए सदा परिवर्तित होते रहने वाला वर्तमान कष्टमय होता है। परिवर्तनहीन अतीत की यादें क्या हमेशा मधुर होती हैं? आइए इस पर थोड़ा विचार कर लें।

जिसे हम वर्तमान के रूप में जानते हैं, वह वास्तविक रूप से एक निरंतर गतिशील वर्तमान है। इस तरह वर्तमान न केवल अतीत के एक खण्ड को ही समाहित किए होता है बल्कि इसमें अज्ञात भविष्य के कुछ अंशों का भी समावेश होते रहता है, जो परवर्ती चरण में स्वयं को अतीत में परिवर्तित कर लेता है। परिणामस्वरूप यह (वर्तमान) अनिश्चितता, सुख-शांति और कष्टों का मिश्रण है। कई बार, या यह कहूं कि अधिकांशतः, हमारा सृजन, हमारी रचनाएं, खास कर कविताएं, जो हमारा तात्कालिक वर्तमान है, उन भावानाओं (अनिश्चितता, सुख-शांति और कष्ट) को प्रतिबिंबित करते हैं। कुछ संबंध तत्कालिक वर्तमान की तरह अनिश्चितता, सुख-शांति और कष्टों से भरा होता है। इसके बावज़ूद भी, अन्य सभी संबंधों को छोड़कर, जिन्होंने हमें प्रसन्न या हमारी भावनाओं को चोट पहूंचाया हो, ये अनिश्चितता, सुख-शांति और कष्टों वाले संबंध की स्मृति, यादें अधिक मधुर होती हैं। ऐसी स्मृति को संजो कर रखने का अलग आनंद है।

सावन के इस मौसम में इसी तरह की स्मृति बार-बार मन में छा रही है, आ रही है। पेश है एक कविता ……

J0341554 याद तेरी आई

 

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मनोज कुमार

PH03205I फिर फिर धूप खिली आंगन में

बगिया लहराई,

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

देख देख हरियाली

अंखियां तुझ पे भरमाई,

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

कंपन हैं होठों पर लेकिन,

गीतों के अब बोल नहीं,

शून्य व्योम में करे मौन मन

किससे वह बतकही।

बिजली में मुस्कान तुम्हारी

बादल में परछाई।

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

मौसम में फिर रूप तुम्हारा

सिमट-सिमट कर आया।

बूंद-बूंद भारी होता मन

दर्द बहुत गहराया।

सुरभि तुम्हारी तिरे चतुर्दिक्

परसे पुरवाई।

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

 द्वारे सजी रंगोली

रह-रह मुझसे करे ठिठोली,

बूंदे डोल रही हैं

बैठी पत्तों की डोली।

मधुर मिलन की मनोकामना,

मन में फिर इठलाई।

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

सूरज को फिर गहन लगा

फिर दिल में बढा अंधेरा,

दोपहरी में मध्य निशा ने

डाल रखा है डेरा।

तेरी रूप रोशनी मांगे,

मन का सौदाई।

सावन के इस मौसम में

फिर याद तेरी आई।

*** ***