रविवार, 26 दिसंबर 2010

भारतीय काव्यशास्त्र-50 :: भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद

भारतीय काव्यशास्त्र-50

भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य भट्टलोल्लट और आचार्य शंकुक के रस संबंधी सिद्धांत क्रमशः उत्पत्तिवाद और अनुमितिवाद पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में आचार्य भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित भुक्तिवाद और आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद पर चर्चा की जाएगी।

भुक्तिवाद

आचार्य भट्टनायक ने सांख्य-दर्शन के आधार पर रसानुभूति के जिस मार्ग को प्रतिपादित किया उसे भारतीय कावय्शास्त्र में भुक्तिवाद कहा गया। सांख्य दर्शन के अनुसार सुख और दुख अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) के विषय हैं, आत्मा के नहीं। व्यक्ति का चित्त अपने अन्तःकरण से संबंध होने के कारण उसे सुख, दुख आदि की अनुभूति उपाधिगत रूप से होती। उसी प्रकार दर्शक में न रहने वाले रस का वह स्वयं को उसका भोक्ता मानता है। इसीलिए इनके मत को भुक्तिवाद कहा गया है। उनका मत है कि रस की निष्पति न तो अनुकार्य (अनुकरणीय) राम आदि में होती है और न ही अनुकर्त्ता नट (अभिनेता) आदि में। क्योंकि ये दोनों ही तटस्थ और उदासीन होते हैं। अतएव रस की अनुभूति उन्हें नहीं होती है, बल्कि रस की अनुभूति केवल दर्शक को ही होती है। जबकि आचार्य भट्टलोल्ल के मतानुसार से रस की अनुभूति मुख्यरूप से तटस्थ राम आदि में और गौण रूप से तटस्थ नट आदि में होती है। इनके अनुसार दर्शक (सामाजिक) रसानुभूति से अछूता रह जाता है। आचार्य भट्टलोल्लट के उत्पत्तिवाद पर इस प्रकार की आपत्ति या उसमें विसंगति देखने को मिलती है। वहीं आचार्य शंकुक “तटस्थ” नट आदि में रस की अनुमान द्वारा प्रतीति और संस्कारवश (वासना के कारण) सामाजिक अर्थात् दर्शकों द्वारा उसका आस्वादन मानते हैं।

आचार्य भट्टनायक ने अपने सिद्धान्त भुक्तिवाद की स्थापना हेतु शब्दों के अभिधा और लक्षणा शक्ति व्यापारों के अतिरिक्त भावकत्व” और भोजकत्व’ दो और व्यापार मानते हैं। उनका मत है कि नायक-नायिका की प्रेम-कथा का व्यक्ति-विशेष से संबंध होता है। अतएव अभिधा और लक्षणा से निकलने वाला अर्थ शब्द के ‘भावकत्व' शक्ति से परिष्कृत होकर सामाजिक दर्शक या पाठक के लिए “भोजकत्व” शक्ति या व्यापार से उपभोग्य होता है। दूसरे शब्दों में आचार्य भट्टनायक के अनुसार भावकत्व’ शक्ति से काव्यार्थ या रस का साधारणीकरण हो जाता है और भोजकत्व” व्यापार से उसका आस्वादन दर्शकों या पाठकों को होता है।

काव्यप्रकाश में आचार्यभट्टनायक के मत का उल्लेख करते हुए आचार्य मम्मट लिखते हैं-

न ताटस्थ्येन नात्मगतत्वेन रसः प्रतीयते, नोत्पदयते, नाभिव्यज्यते अपितु काव्ये नाट्य चाभिधातो द्वितीयेन विभावादिसाधारणीकरणात्मना भावकत्वव्यापारेण भाव्यमानः स्थायी, सत्त्वोद्रेक-प्रकाशानन्दमयसंविद्विश्रान्तिसतत्त्वेन भोगेन भुज्यते” इति भट्टनायकः।

आचार्य भट्टनायक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों अर्थात् भट्टलोल्लट तथा शंकुक और समसामयिक आचार्य अभिनवगुप्त तीनों के मतों का ‘न प्रतीति होती है, न उत्पत्ति होती है और न ही अभिव्यक्ति होती है’ कहकर खण्डन एक ही वाक्य में कर डाला है। यहाँ ध्यातव्य है कि आचार्य भट्टनायक ने अपने सिद्धान्त की स्थापना करने के लिए अन्य सिद्धान्तों का खण्डन किया है। इनके मतानुसार रस केवल अनुभूति-स्वरूप है। काव्य अथवा नाटक में अभिधा तथा लक्षणा से भिन्न विभावादि के साधारणीकरण-स्वरूप भावकत्व नामक व्यापार से साधारणीकृत स्थायिभाव सत्त्वोद्रेक से प्रकाश और आनन्दमय अनुभूति की स्थिति के समान संविदविश्रान्तियुक्त(अपना बोध होश की विश्रांति) होने से भोग द्वारा आस्वाद्य होता है, ऐसा मत आचार्य भट्टनायक का है।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आचार्य भट्टनायक के अनुसार शब्द के अभिधा व्यापार से दर्शक अर्थ समझता है और अपने सम्मुख प्रस्तुत प्रसंगों की विशेष स्थिति का ज्ञान करता है, भावकत्व व्यापार से विभावादि का साधारणीकरण होता है जिससे भावों का पात्रगत-बोध समाप्त हो जाता है तथा दर्शक की मनोवृत्ति या वासना प्रस्तुत विभावादि के कारण निर्वैयक्तिक हो जाती है, अर्थात आलम्बन और उद्दीपन का दर्शक या पाठक की व्यक्तिगत अनुभूति से तादात्म्य होने से उसकी वैयक्तिक भावना समाप्त हो जाती है। इस प्रकार विभावादि का साधारणीकरण होने के कारण दर्शकों या पाठकों में तमस् और रजस् शान्त हो जाता है तथा उनमें सत्त्व का उद्रेक होता है, जिसके कारण वे प्रकाश और आनन्द से युक्त होकर रस की अनुभूति करते हैं। यही भोजकत्व की स्थिति है।

आचार्य भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित रसानुभूति का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। ये रस को परब्रह्मानन्द स्वाद के तुल्य मानते हैं-

-अभिधातो द्वितीयेनांशेन भावकत्वव्यापारेण भाव्यमानो रसोSनुभवस्मृत्यादिविलक्षणेन रजस्तमोनुवेध वैचित्र्यबलाद्धृदिविस्तारविकासलक्षणेन सत्त्वोद्रेकः स्वप्रकाशानन्दमयनिज- संविद्विश्रांतिलक्षणेन परब्रह्मास्वादसविधेन भोगेन परं भुज्यते इति। (भट्टनायककृत हृदयदर्पण से)

अभिव्यक्तिवाद

अभिव्यक्तिवाद आचार्य अभिनवगुप्त का मत है। यद्यपि कि इस मत का आगमन आचार्य भट्टनायक के मत ‘भुक्तिवाद’ के साथ हुआ। क्योंकि दोनों ने एक दूसरे के मतों का खण्डन किया है। इससे लगता है कि दोनों समसामयिक थे। लेकिन ‘भुक्तिवाद’ अनुभव-सिद्ध न होने के कारण साहित्य जगत में स्थान नहीं बना पाये। आचार्य अभिनवगुप्त एक दार्शनिक और साहित्य-प्रेमी दोनों ही थे। भारतीय श्रृंखला के अन्तर्गत ऐतिहासिक भाग के अन्तर्गत इनके कृतित्व और व्यक्तित्व की चर्चा की गई है। वहाँ से इनके व्यक्तित्व का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इन्होंने ‘अभिव्यक्तिवाद’ आचार्य आनन्दवर्धन के सिद्धान्त ध्वनि को आधार मानकर प्रतिस्थापित की है। वैसे निष्पत्ति के लिए अभिव्यक्ति शब्द इन्होंने आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र से ही लिया है- एवमेते काव्यरसाभिव्यक्तिहेतवः एकोनपञ्चाशद्भावाः प्रत्यवगन्तव्याः एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसाः निष्पद्यन्ते।

काव्यशास्त्र की दृष्टि से यह मत अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इसीलिए काव्यशास्त्र में इसे अधिक महत्त्व दिया गया। यही कारण है कि इस परिचर्चा में इसे अन्त में लिया गया है।

आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार दर्शक या पाठक के अन्तःकरण में स्थित स्थायिभाव ही रसानुभूति का साधन है। क्योंकि मन के संवेग या वासना रति आदि स्थायीभाव संस्कार रूप मे दर्शक या पाठक के अन्दर रहते है। वे ही विभावादि की उपस्थिति में साधारणीकृत होकर सक्रिय होते हैं, जिसके कारण सामजिक या पाठक रस का आस्वादन या अनुभव करता है। नाट्यसूत्र पर ‘अभिनवभारती’ नामक अपनी टीका में रसोत्पत्ति के विवेचन के केन्द्र में सामाजिक या पाठक की रसानुभूति ही है। आचार्य भट्टनायक के शब्द-निहित दो व्यापारों- भावकत्व औपर भोजकत्व को केवल काल्पनिक मानते हुए उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है।

काव्यप्रकाश में आचार्य अभिनवगुप्त के मत को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है-

लोके प्रमदादिभिः स्थाय्यनुमानेSभ्यासपाटववतां काव्ये नाट्ये च तैरेव कारणत्वादिपरिहारेण विभावनादिव्यापारत्त्वादलौकिकविभादिशब्दव्यावहार्य्यै-र्ममैवैते, शत्रोरेवैते, तटस्थस्यैवैते, न ममैवैते, न शत्रोरेवैते, न तटस्थस्यैवैते, इति सम्बन्धविशेषस्वीकारपरिहारनियमानध्यवसायात् सादारण्येन प्रतीतैरभि- व्यक्तः सामाजिकानां वासनात्मकतया स्थितः स्थायी रत्यादिको नियतप्रमातृगतत्वेन स्थितोSपि साधारणोपायबलात् तत्कालविगलितपरिमित-प्रमातृभाववशोन्मिषितवेद्यान्तरसम्पर्कशून्यापरिमितभावेन प्रमात्रा सकलसहृदय-संवादभाजा साधारण्येन स्वाकार इवाभिन्नोSपि गोचरीकृतश्चर्व्यमाणतैकप्राणः, विभावादिजीवितावधिः, पानकरसन्यायेन चर्व्यमाणः पुर इव परिस्फुरन्, हृदयमिवप्रविशन्, सर्वाङ्गीणमिवालिङ्गन्, अन्त्यसर्वमिव तिरोदधद्, ब्रह्मास्वादमिवानुभावयन्,

अर्थात लोक में प्रमदा आदि से स्थायी भावों के अनुमान में निपुण सहृदयों का, काव्य तथा नाटक में कारणत्व आदि छोड़कर विभावन आदि व्यापार से युक्त होने से विभावादि शब्दों से व्यवहार्य उन्हीं (प्रमदा आदि रूप कारण, कार्य, सहकारियों) से जो ‘ये मेरे ही हैं’ या ‘शत्रु के ही हैं’ या ‘तटस्त के ही हैं’ अथवा ‘ये न मेरे ही हैं’, ‘न शत्रु के ही हैं’ और ‘न तटस्थ के ही हैं’ इस प्रकार के सम्बन्ध-विशेष का स्वीकार या परिहार करने के नियम निश्चित होने के कारण साधारण रूप से प्रतीत होनेवाले विभादि से ही अभिव्यक्त होनेवाला और सामाजिकों में वासना रूप में वर्तमान रति आदि स्थायीभाव नियत प्रमाता में स्थित होने पर भी साधारणोपाय के बल से उसी काल में परिमित प्रमातृभाव के नष्ट हो जाने से वेद्यान्तर के सम्पर्क से शून्य और अपरिमित प्रमातृभाव जिसमें उदित हो गया है, इस प्रकार के सामाजिक के द्वारा समस्त हृदयों के साथ समान रूप से अपनी आत्मा के समान अभिन्न होनेपर भी, आस्वाद का विषय होकर, आस्वादमात्र-स्वरूप, विभावादि की स्थिति पर्यन्त रहनेवाला, पने के रस की तरह आस्वाद्यमान, साक्षात प्रतीत होता हुआ सा, हृदय में प्रतीत होता हुआ सा, समस्त अंगों का आलिंगन करता सा, अन्य सबको तिरोभूत करता हुआ सा, ब्रह्म-साक्षात्कार का अनुभव कराता हुआ सा अलौकिक चमत्कार करनेवाला शृंगार आदि रस होता है।

आचार्य मम्मट ने आचार्य अभिनवगुप्त के उक्त मत के नाट्यसूत्र की टीका अभिनवभारती से यथावत उद्धृत किया है। आचार्य अभिनवगुप्त के उद्धृत उपर्युक्त विचार काफी संश्लिष्ट हैं। ये भोजकत्व को रस का स्वभाव मानते हैं और भावकत्व को भावों की विशेषता। क्योंकि आचार्य भरत के अनुसार काव्यार्थान् भावयन्ति इति भावाः अर्थात काव्य के अर्थों को प्रकट करनेवाले भाव कहलाते हैं। इस आधार पर भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों की कल्पना को वे संगत नहीं मानते।

आचार्य अभिनवगुप्त के मत के उद्धरण से निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैँ-

1. ये शब्द के अर्थ-प्रकाशन और साधारणीकरण का कारण व्यंजना का विभावना व्यापार मानते हैं और रस को व्यंग्य।

2. स्थायिभाव व्यंग्य हैं और विभावादि व्यंजक रूप तथा व्यंजक-व्यंग्य सम्बन्ध ही संयोग है।

3. व्यंजना के विभावन व्यापार से विभावों और स्थायिभावों का साधारणीकरण होता है, साधारणीकरण और सामाजिक के अन्तःकरण स्थित वासना का संवाद होता है, अर्थात नायक आदि अनुकार्य के भाव सहृदय या सामाजिक के अन्तःकरण में निहित वासनारूप भावों को जाग्रत करते हैं।

4. उक्त स्थिति में सामाजिक के सुप्त स्थायिभाव निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति पाकर ब्रह्म के आस्वाद के तुल्य आनन्द का आस्वादन कराते हैं।

5. वे ही अलौकिक चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शृंगार आदि रस हैं।

अगले अंक में रस सम्बन्धी आचार्य धनंजय के मत और रस के मनोवैज्ञानिक रूप की चर्चा की जाएगी।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. यहाँ भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद के साथ-साथ रस निष्पत्ति के विविध आयामों की थोड़ी सी चर्चा हुई होती तो यह पोस्ट पाठकों के लिए अत्यधिक बोधगम्य हो जाता। फिर भी यह पोस्ट अपनी समग्रता में सार्थक सिद्ध हुआ है। धन्यवाद।

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  2. भारतीय काव्यशास्त्र में रस निष्पति की व्याख्या करते हुए भट्टनायक ने भुक्तिवाद के रूप में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की थी ....और आगे चलकर यही व्याख्या साधारणीकरण और सह्रदय की अवधारणा का आधार बनती है ....बहुत - बहुत आभार इस व्याख्या के लिए

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  3. प्रेम सरोवर जी, रस-निष्पत्ति के विभिन्न आयामों की चर्चा पिछले अंकों में की गई है, यथा- स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव आदि। कृपया उन्हें देखें।

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  4. परशुराम जी.
    नमस्कार,
    मेरे कहने का तात्पर्य है कि यदि रस निष्पत्ति की संक्षिप्त चर्चा यहाँ हुई होती तो अच्छा होता। य़ह केवल सुझावमात्र है। इसे अन्यथा न लें।
    सादर।

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  5. आचार्य भट्टनायक और आचार्य अभिनवगुप्त के के वादों पर सुंदर व्याख्या.....
    फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी

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  6. आचार्य जी के लेखों को पढ़कर,मुझे व्यक्तिगत तौर पर अपनी कमी का एह्सास होता है कि एक अद्भुत ज्ञान से अनजान रह गया मैं.

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  7. काव्यशास्त्र पर सार्गर्भितजानकारी देने के लिये आभार..

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  8. सभी काव्य इन्ही आधारों पर रचित होते हैं.. काव्य को समझने के लिए इनका ज्ञान होना आवश्यक है.. अच्छी श्रंखला चल रही है.. सार्थक प्रस्तुति..

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  9. प्रेम सरोवर जी,
    उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद रस-निष्पत्ति की ही व्याख्या करते हैं। लगता है कि मैं आपकी बात समझ नहीं पा रहा हूँ। वैसे इसके विभिन्न पहलुओं पर अगले दो अंकों में चर्चा होनी है, यथा- कुछ अन्य आचार्यों के रस- निष्पत्ति सम्बन्धी चर्चा, रस का अलौकिकत्व, रसों का सोदाहरण विवेचन आदि। आभार।

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  10. वर्ग-कक्षाओं जैसा अनुभव. बहुत सुन्दर. मेरे स्मरण से इस स्तम्भ का आरम्भ ही रस-निष्पत्ति से हुआ था. पिछले कुछ अंकों से भी यह यथाक्रम चलता आ रहा है.... विषय दिनानुदीन रोचक होता जा रहा है. आचार्यवर धन्यवाद.

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  11. नमस्कार !
    हमेशा की तरह उपयोगी काव्य श्रृंखला.. सभी के लिय उपयोगी ..यदि कोई सभी अंकों का केवल अध्ययनभर कर ले तो.. मर्मज्ञ भले न बन पाए ...रसज्ञ अवश्य बन जाएगा ,. इतनी स्पष्टता और सम्प्रेषण शक्ति है इनमे.....आभार ..गूढ़ ज्ञान बांटने के लिए.. ..नववर्ष की अग्रिम शुभ कामनाएं...

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  12. डॉ.तिवारी, उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।

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  13. पिछले अंक हम कैसे देखें।

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  14. Please click on KAVYA SHASTRA below blogger the last item and you will get all episodes there, including previous, i.e. 49. Thanks.

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  15. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद सर्वाधिक तर्कसंगत मालूम पड़ता है।
    लेख के लिए धन्यवाद।

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