मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

तमसो मा ज्योतिर्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

करण समस्तीपुरी

सारा बाज़ार ऐश्वर्यदात्री लक्ष्मी और सिद्धिदाता गणेश की मूर्तियों से पटा पड़ा था। पूजा के प्रसाधनों की धूम मची थी। स्थाई दूकानों के अलावे सड़क के किनारे और फूट-पाथों पर सामयिक दुकानदार अपने सामानों की बोली लगा रहे थे। एक हाथ से सामन का थैला और दूसरे से अपने अस्त-व्यस्त वस्त्रों को संभाले भीड़ की नज़रों को चीरती हुई वह रेडीमेड कपड़ों की दूकान में जा कर रुकी। भीड़ तो यहाँ भी थी  किन्तु बिजली पंखे की ठंडी हवा में उसे कुछ राहत महसूस हुई।

सेल्स-गर्ल द्वारा दिखाए गए कपड़ों में से बड़े मनोयोग से वह अपनी पसंद की चुन रही थी। तभी, "अरे श्रुति ! तुम?" भीड़ में से उठी एक आवाज़ पर वह चौंक गयी। उसकी अंगुली सामने गुलाबी सूट में खड़ी सांवली सी युवती की ओर उठी थी, "गरिमा ?"

"अच्छा... चलो शुक्र है पहचान तो गयी। लेकिन तुम इस शहर में कैसे ? दीपावाली की खरीदारी कर रही हो... ? कहाँ रहती हो..... ?" गरिमा के प्रश्नों की श्रृंखला जारी ही रहती अगर उसने बीच में टोका नहीं होता, "अरे बाबा ! सब यहीं पूछ लोगी क्या ?"

"अरे नहीं, चल पहले हम कॉफ़ी-शॉप में बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे... फिर शौपिंग। ओके।" कह कर गरिमा ने साधिकार उसे हाथ पकड़ कर उठा ही लिया था।

"वेटर को कॉफ़ी का आर्डर दे कर फिर दोनों सहेलियां मशगूल हो गयी। "सच में, तुम तो बिलकुल नहीं बदली", पहली बार श्रुति बोल पायी थी।

"हाँ ! लेकिन तुम तो एकदम बदल गयी हो। आंटी हो गयी हो आंटी।" श्रुति की बांह पर प्यार से चपत लगा कर गरिमा कहे जा रही थी, "चुप-चाप घर भी बसा लिया... और एक कॉल तक नहीं की?"

बड़ी मुश्किल से गरिमा के सवालों के बीच में श्रुति बोल पायी थी, "अरे ऐसी बात नहीं है। तुम रोहित को जानती थी न.... ?"

गरिमा की भौंहे नाच गयी थी, "हाँ ! लेकिन तू अभी रोहित को क्यूँ याद कर रही है ?"

"रोहित मेरे पति हैं।" श्रुति ने कहा था। सहसा हथेलियों पर टिका गरिमा का चेहरा आगे की ओर सरक गया था।

कब की बिछड़ी हुई दो सहेलियों की बात-चीत का सिलसिला शुरू जो हुआ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। कॉफ़ी कब आयी और ख़त्म हुई पता भी नहीं चला। अचानक सामने टंगी घड़ी पर श्रुति की नजर गयी तो वह हड़बड़ा कर बोली, "अरे ! चार बजने वाले हैं....अब चलना चाहिए। घर पर बच्चे इंतज़ार करते होंगे।" "घबरा मत मैं छोड़ दूंगी।" गरिमा ने कहा था।

बची-खुची शौपिंग निपटा कर गरिमा श्रुति को छोड़ने अपनी कार में उसके घर तक आयी थी। रोहित उस समय घर पर नहीं थे। उसने थोड़ा इंतिजार भी किया था मगर देर होने पर दीपावाली में अपने घर उन्हें सपरिवार आने का निमंत्रण दे कर वापस चली गयी। पते के लिए अपना विसिटिंग कार्ड छोड़ गयी थी, "डॉ गरिमा प्रधान, एम बी बी एस, १० बी, कस्तूरी लेन, रानीगंज।" श्रुति के सास-ससुर को भी गरिमा से छोटी सी मुलाक़ात बहुत भाई थी। वह थी ऐसी ही। गरिमा के जाने के बाद श्रुति ने अनमने ढंग से गृह-कार्य निपटाया। फिर सास-ससुर और बच्चे को खिला कर हाथ में टीवी का रिमोट लेकर बैठी। उफ़... आज टीवी देखने का भी मन नहीं कर रहा। वह उठ कर अपने कमरे में चली गयी। रोहित अभी तक नहीं आये थे। आज गरिमा के साथ बिताये चन्द घंटे उसे अतीत की गहराइयों में खींचे लिए जा रहे थे।

श्रुति और गरिमा कक्षा में प्रथम-द्वितीय आते थे। अव्वल दर्जे की प्रतिद्वंदिता के बावजूद दोनों एक-दूसरे की सबसे अच्छी सहेली थी। गरिमा होस्टल में रहती थी। लेकिन वह हर हफ्ते श्रुति के रेलवे कोलोनी वाले घर जरूर आती थी। बारहवीं के बाद मेडिकल की पढाई के लिए वह वर्धा चली गयी थी और श्रुति ने पंचवर्षीय एलएलबी पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था।

images (14)सतरहवाँ सावन पार करते ही रोहित से उसकी आँखे चार हो गयी थी। वह भी उसी कालोनी में रहता था। सांवला रंग, औसत कद-काठी, इकहरा वदन, न आवाज़ में कोई जादू न चेहरे में कोई कशिश। फिर भी वह उसकी नज़रों के सम्मोहन से नहीं बच पायी। वह आते-जाते उसे अपने क्वार्टर के बाहर वाले कमरे की खिड़की से उसे देखा करता था। पता ही नहीं चला कब यह आँखों की भाषा दिल में उतर कर कागज़ के पन्नो पर दौड़ने लगी थी। कुछ तो हुआ था... उन दिनों उसे कुछ-कुछ होने लगा था। क्लासेस के बीच में दोनों की मुलाकातें भी होने लगी।

कहते हैं कि 'इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपता। छोटी सी रेलवे कालोनी में यह चर्चा आग की तरह फैल रही थी। अचानक एक दिन कालेज से लौटते वक़्त पड़ोस में रहने वाले अंकित भैय्या ने पूछ दिया, "प्यार करती हो ?" सौम्य और शालीन अंकित से श्रुति को ऐसे सवाल की उम्मीद तो कतई न थी। वह डर के मारे कांपने लगी। अंकित ने उसे समझाया था। वह संयत-असंयत के बीच में अपने क्वार्टर में चली गयी थी।

आज-कल माँ उसके हर घड़ी का हिसाब रखना चाहती है। शाम में अब वह बाहर नहीं जाती। कोलेज से आने के बाद घर के कामों में माँ का हाथ बंटाती है। उस दिन अंकित को अपने घर आया देख उसका कलेजा धक् से रह गया था.... ? तो क्या अंकित भैय्या ऐसे निकलेंगे ? उन्होंने तो बड़े प्यार से मुझे भरोसा दिलाया था ? माँ को शायद कुछ-कुछ पता है लेकिन कहीं अंकित ने पापा को....नहीं-नहीं ! अच्छा हुआ पापा अभी नहीं हैं।

वह अन्दर के कमरे से बैठक में चल रहे अंकित और माँ का वार्तालाप सुनने लगी। कुशल क्षेम के बाद अंकित ने कुछ कहा था। माँ घबराकर बोली थी, "नहीं... ! ये कभी नहीं हो सकता। श्रुति के पापा को उससे कितनी उम्मीदें हैं.... ? वह ऐसा नहीं कर सकती। हमें उस पर विश्वास है... !" माँ को बीच में ही रोक कर अंकित ने फिर कुछ कहा था। वाक चतुर अंकित के आगे भोली-भली गृहणी की कहाँ चलने वाली थी। माँ को समझा कर और पिता जी से मिलने की सहमति के बाद अंकित भैय्या चाय पी कर चले गए। अंकित तो चले गए लेकिन श्रुति के मन में छोड़ गए अनेक आशंकाएं एवं प्रश्न।

उस रात माँ ने शायद पिताजी से कुछ कहा था। बिफर पड़े थे पिताजी, "तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया....? नहीं ! अभी तो उसने कालेज जाना शुरू ही किया है। उसे एलएलबी करना है।" धीमी आवाज़ में माँ ने अंकित के सिखाये कुछ तर्क दिए जरूर थे। पता नहीं पिताजी पर उनका कितना असर हुआ मगर पिताजी ने कहा था, "ठीक है। मैं अंकित से मिल लूँगा.... ।" उस रात भी नींद नहीं आयी थी श्रुति को। यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा था।

अंकित की बातों में जादू था। उनके चरित्र में सम्मोहन था। उस रविवार को पिताजी को भी निरुत्तर होना पड़ा था। उस तरफ की जिम्मेदारी रोहित पर ही थी। परिवार अपने एकलौते पुत्र की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता था। श्रुति के सपनों को तो जैसे पंख लगे जा रहे थे।

बैंड बाजा बारात के साथ रोहित आये थे। पापा खुद उनके पैर धोकर मंडप में लाए थे। वैदिक मंत्र पढकर उत्सर्ग कर दिया था। अग्नि, वेद-वेदी, नक्षत्र भी साक्षी बने थे परिणय बन्धन का। अगले ही दिन उसकी डोली उतरी थी रोहित के आंगन।

उत्सवीय माहौल में नववधु का ज़ोरदार स्वागत किया गया था। ससुरजी ने ख़ुद आरती उतारी थी। ननदों ने भी द्वार छेकाई की नेग में ख़ूब छकाया था। कुछ दिन तो हास-खेल में ही बीते लेकिन वह स्वच्छंदता कहां? ओह ! … यह कैसी मरीचिका थी….? कहीं वह पिंजड़बद्ध तो नहीं हो गई …? हां वह भी सोने के पिंजड़े में बन्द ही तो है। एक मधुरभाषिनी पक्षी की तरह। जहां उसकी हर सुख सुविधा का ख़्याल है, नहीं है तो सिर्फ़ परिन्दे की आज़ादी।

जब तक वह परिवर्तनों को समझे एक और बड़ा परिवर्तन … मातृत्व! बड़ी बहू की ज़िम्मेदारी। एक मां की ज़िम्मेदारी .. धीरे-धीरे श्रुति को भी यह तीस बाइ चालिस का संसार रास आने लगा था। पर आज अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी को उन्मुक्त गगन में अठखेलियां करते देख उसकी भी अभिलाषा बलवती हो गई थी। लेकिन वह बन्धन .. स्वामी का बन्धन … सात फेरों का बन्धन … यह तो ढीला नहीं हो सकता …! अचानक उसने पिंजड़े के अन्दर ही अपने पंखों को ज़ोर-ज़ोर से फरफराया …फर्र .. फर्र … फर…. !

अरे वाह …! इन पंखों में तो अभी भी ताक़त है। परिन्दे का हौसला भी जगा …! अब तो हवा से दो-दो हाथ ही हो जाए …!

श्रुति ने रोहित से अपने मन की बात कही थी। रोहित ने उसका भरपूर समर्थन किया था। फिर तो यह रात आंखों में ही कट गई। अगली शाम दोनों जा रहे थे गरिमा के घर। सहसा श्रुति के मुंह से निकल पड़ा ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय!’

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्‍दर एवं रोचक प्रस्‍तुति ।

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  2. करन जी के ये कहानी बहुत ही अच्छी है. यह एहसास भी दिलाती हुई की पहले बच्चों को अपने पंख फैला क़र अपना भविष्य बनाने देना ज्यादा जरूरी है न की क्षणिक प्यार के वशीभूत होकर अपना जीवन बर्बाद करने देना.

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  3. जब नींद खुले तब सवेरा ...अच्छी प्रस्तुति

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  4. देर आये दुरुस्त आये...
    चलिए आँख तो खुली....
    ईश्वर करें , प्रेम में स्वयं को खो देने को आतुर तत्पर किशोर बच्चों की भी आंख्ने खुले और इस सत्य को पहचानें...

    प्रेरणादायी सुन्दर कथा...

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  5. सीधी-सपाट भाषा में कहानी अच्छी लगी। आभार।

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  6. अरे वाह …! इन पंखों में तो अभी भी ताक़त है। परिन्दे का हौसला भी जगा …! अब तो हवा से दो-दो हाथ ही हो जाए …!
    कहानी को नया आकाश देने वाली इन पंक्तियों को पढ़ते ही तमसो मा ज्योतिर्गमय की किरणें स्वागत भाव में खड़ी दिखने लगती हैं !
    धन्यवाद करन जी,
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  7. यही सच्चे जीवनसाथी की पहचान है।

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  8. करन जिस तरह कहानी जा रही थी.. इतने सकारात्मक अंत का अंदाज़ा नहीं था.. कहानी अच्छी है.. भाषा पर आपकी पकड़ ठेठ हिंदी में भी दिखी है.. शुभकामना और बधाई..

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  9. बहुत ही सुन्‍दर एवं रोचक प्रस्‍तुति ।
    ...नव वर्ष की बहुत बहुत हार्दिक शुभ-कामनाएं

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  10. aadarniy sir
    bahut hi prerak avam har mata -pita avamsabhi ko seekh deti hui yah pot rochak avam prabhav-shali lagi.
    bahut hi hi badhiya prastuti.
    poonam

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  11. अनावश्यक खलनायकी या संघर्ष का अभाव इस कथा की विशेषता है। यह भी पता चलता है कि प्रेमविवाह दो समान वैचारिक धरातल को नया आकाश देता है,जहां न नायक वास्तविक मालिक है न नायिका कृत्रिम मलकिनी। सहचर शब्द का साकार।

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  12. हर काली अंधेरी सुरंग के अंत में प्रकाश कि रेखा होती है.. यह कहानी भी इसी को साबित करती है.. करण जी, आपकी लेखनी के चमत्कार की बात कहना अब बासी सा लगता है!!
    किंतु वर्तनी की अशुद्धियाँ अवश्य देख लिया करें. लगता है जल्दबाज़ी में लिखी गई पोस्ट है!!
    शुभकामनाएँ!!

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  13. बहुत सुंदर कहानी, ओर चित्र भी बहुत सुंदर,

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  14. गृहस्थी में डूबे हुए भी पंखों की उड़ान ...
    अच्छी लगी कहानी !

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  15. तमसो मा ज्योतिर्गमय से शुरूआत और इसी से संमापन आपकी सहज अभिव्यक्ति को अपनी पूर्ण समग्रता में रेखांकित करता है। सराहनीय पोस्ट।
    नववर्ष-2011 की मंगलमय एवं पुनीत भावनाओं के साथ। सादर।

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  16. सुंदर संवेदनशील कहानी. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  17. saral-sahaj dhang ki ...
    seedhi sapat bhasha me..
    sachche jeevansathi ki pahchan karati...
    sundar evam rochak kahani.
    achchhi lagi.

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  18. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

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