भारतीय काव्यशास्त्र
रस-सिद्धांत
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों या संचारी भावों की चर्चा की गयी थी। रस के सम्बंध में प्रतिपादित सिद्धांतों की संक्षेप में चर्चा इस अंक का अभीष्ट है।
रस-सिद्धांत के आदि प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि प्रणीत नाट्यसूत्र के परवर्ती व्याख्याता आचार्यों ने चार रस-सिद्धांतों को विकसित किया - उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद। आचार्य भरतमुनि के सूत्र- विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः में प्रयुक्त निष्पत्ति शब्द के चार अर्थ – उत्पत्ति, अनुमिति, भुक्ति और अभिव्यक्ति परवर्ती व्याख्याताओं ने किए। वे आचार्य क्रमशः भट्टलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक और अभिनवगुप्त हैं।
आचार्य भट्टलोल्लट ने आचार्य भरत के उपर्युक्त सूत्र में आए संयोग शब्द के तीन अर्थ किए हैं- विभावों के संयोग से उत्पाद्य-उत्पादक सम्बन्ध, अनुभावों के संयोग से गम्य-गमक भाव सम्बंध और व्यभिचारी भावों के संयोग से पोष्य-पोषक भाव सम्बन्ध। इन तीनों अर्थों के संदर्भ में निष्पत्ति शब्द के भी तीन अर्थ किए गए हैं- स्थायिभावों के साथ विभावों के संयोग में उत्पाद्य-उत्पादक भाव सम्बन्ध से रस की निष्पत्ति अर्थात उत्पत्ति होती है, अनुभावों के संयोग में गम्य-गमक भाव का सम्बन्ध होने पर रस की निष्पत्ति अर्थात प्रतीति होती है और व्यभिचारी भावों के संयोग में पोष्य-पोषक भाव के सम्बन्ध से रस-निष्पत्ति अर्थात रस की पुष्टि होती है। इसे नीचे की सारिणी में स्पष्ट किया जा रहा है-
संयोग | भाव-सम्बन्ध | रस-निष्पत्ति का अर्थ |
स्थायिभाव और विभाव | उत्पाद्य-उत्पादक | रस की उत्पत्ति |
स्थायिभाव और अनुभाव | गम्य-गमक | रस की प्रतीति |
स्थायिभाव और व्यभिचारिभाव | पोष्य-पोषक | रस की पुष्टि |
आचार्य मम्मट ने आचार्य भट्टलोल्लट का मत संक्षेप में इस प्रकार दिया है –
“विभावैर्ललनोद्यानादिभिरालम्बनोद्दीपनकारणैः रत्यादिको भावो जनितः, अनुभावैः कटाक्षभुजाक्षेपप्रभृतिभिः कार्यैः प्रतीतियोग्यः कृतः, व्यभिचारिभिर्निर्वेदादिभिः सहकारिभिरुपचितो मुख्यया वृत्त्या रामादावनुकार्ये तद्रूपतानुसन्धानान्नर्त्तकेSपि प्रतीयमानो रस इति भट्टलोल्लटप्रभृतयः।“
अर्थात भट्टलोल्लट आदि आचार्यों के अनुसार ललना (स्त्री-यहाँ नायिका) आलम्बन विभाव एवं उद्यान आदि उद्दीपन विभावों के कारण रति आदि उत्पन्न हुआ भाव, कटाक्ष, भुजाक्षेप आदि कार्यभूत अनुभावों से प्रतीति योग्य और सहकारी-रूप निर्वेद आदि व्यभिचारि-भावों से पुष्ट किया गया मुख्यरूप से अनुकार्यरूप राम आदि में और उनके रूप का अनुकरण करने से नट में प्रतीयमान (रति आदि स्थायिभाव) रस कहलाता है।
उपर्युक्त विवरण से आचार्य भट्टलोल्लट के मत के विषय में निम्नलिखित बातें निकलकर आती है:-
1. विभावों को रति आदि स्थायी भावों के सक्रिय होने का कारण माना गया है।
2. अनुभावों को कार्यभूत माना गया है।
3. व्यभिचारी-भावों को स्थायी भावों की सक्रियता में सहायक (सहकारी) बताया गया है।
4. स्थायी भावों का विभावों के साथ उत्पाद्य-उत्पादक सम्बन्ध, अनुभावों के साथ गम्य-गमक सम्बन्ध और व्यभिचारी भावों के साथ पोष्य-पोषक सम्बन्ध से रस की उत्पत्ति, प्रतीति और पुष्टि होती है।
5. उक्त रस की उत्पति, प्रतीति और पुष्टि अनुकार्यरूप राम आदि में होती है और राम आदि का अनुकरण करने के कारण नटों (अभिनेताओं) में रस प्रतीयमान (आरोपित) होता है।
आचार्य भट्टलोल्लट एक मीमासंक हैं अतएव यहाँ यदि उत्तर-मीमांसा (वेदान्त) की दृष्टि से देखें तो रस्सी में सर्प का भ्रम होने से सर्प के अभाव में भी सर्प की प्रतीति से भय स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार राम आदि का अभिनय करने वाले नटों (अभिनेताओं) के अभिनय को देखकर उनमें राम आदि के भावों का आरोपण होने से दर्शक (सामाजिक) में रस की उत्पत्ति, प्रतीति और पुष्टि होती है।
अनुमितिवाद
इस मत के प्रतिष्ठापक आचार्य शंकुक हैं। ये न्याय दर्शन के आचार्य हैं। ये नट में राम आदि का चित्र-तुरग न्याय से रस को अनुमेय (अनुमान द्वारा बोध्य) मानते हैं। इन्होंने भरत नाट्यसूत्र की दूसरे ढंग से व्याख्या की है। इनके मत से रस के सम्बन्ध में निम्नलिख्रित तथ्य सामने आते हैं। चित्रतुरग न्याय का अर्थ है घोड़े के चित्र को देखकर घोड़े का अनुमान किया जाना। इन अनुमानगत प्रतीति को न सत्य कहा जा सकता है, न मिथ्या, न संशयग्रस्त और न ही सादृश्यरूप कहा जा सकता है। अतएव इस प्रतीति को उक्त चारों बुद्धिगत सम्यक, मिथ्या, संशय और सदृश्य प्रतीतियों से अलग और विलक्षण कहा गया है। इसी प्रकार नट (अभिनेता) में रामादि बुद्धि सम्यक, मिथ्या, संशय और सादृश्य से हटकर अलग होती है।
इसके अतिरिक्त अनुमितिवाद में राम-सीता आदि विभावों का अनुभावों और व्यभिचार भावों के साथ नटों द्वारा अभिनय से लिंग आदि का अनुमान होता है। क्योंकि न तो वे लिंग यथार्थ हैं और न ही स्मित, कटाक्ष आदि अनुभाव। अर्थात् चित्रतुरग न्याय से सीता-राम रूपी नट में यथार्थ स्मित कटाक्ष आदि नहीं है जैसे यथार्थरूप में साक्षात राम-सीता में रहे होंगे। यह सब कृत्रिम है। अतएव इस प्रकार एक अनुमानित रस की प्रतीति होती है।
ये नाटयशास्त्र के सूत्र में प्रयुक्त 'संयोग' शब्द का अर्थ गम्य गमक भाव-सम्बन्ध मानते हैं। उक्त अनुमानित रस की प्रतीति का आधार भी सामाजिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक (दर्शक) को केवल उसका अनुमान होता है। सामान्यतया अनुमान आदि प्रमाणों से होने वाला ज्ञान 'परोक्षज्ञान' कहलाता है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही अपरोक्ष की प्रतीति होती है। लेकिन रस का अनुमान अन्य अनुमानों से भिन्न और अपरोक्ष होता है। इसीलिए उस अनुमित रस का दर्शक आस्वादन करता है।
दर्शक के रसास्वादन कारण उसकी वासना और रस-प्रतीति में विलक्षण अपरोक्ष कल्पना है। क्योंकि अनुमानित रस न तो कृत्रिम रामादि नटों में होता है और न ही दर्शक में यह केवल वासना के कारण दर्शक को उसका अनुमान होता है।
अगले अंक में शेष दो सिद्धांतों -भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद पर चर्चा की जाएगी।
बहुत बढ़िया पोस्ट!
जवाब देंहटाएं--
हिन्दी के संवर्धन में अपका योगदान सराहनीय है!
बहुत वैज्ञानिक है सब !
जवाब देंहटाएं... shikshaaprad post !!!
जवाब देंहटाएंउपयोगी पोस्ट्। आभार्।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंत्रुटि सुधार करें :
परवर्ती व्याखातओं ................. व्याख्याताओं
रस की उत्यपत्ति ................... उत्पत्ति
अनुमेय (अनुमान द्वारा बोध्य) .... (अनुमान योग्य अथवा बोध्य)
आचार्य जी,
गलतियाँ बताना उद्देश्य नहीं इस बहाने यह बताना उद्देश्य है कि पूरा पढ़ लिया है.
.
@ प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंटंकण त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।हालाकि कोशिश रहती है कि त्रुठियाँ न हों लेकिन कभी कभी शीघारता के कारण कुछ कमियां छूट जाती हैं।
एक बार पुनः आभार,
परशुराम राय
आपके लेख पढ़ कर अच्छी हिंदी सीख रही हूँ।
जवाब देंहटाएंआभार
हिन्दी और संस्कृत साहित्य पर इस तरह की प्रामाणिक सामग्री का घोर अभाव है नेट पर.. आपका प्रयास अत्यंत सराहनीय है..
जवाब देंहटाएंदिल्ली से सियोल: इन फ्लैशबैक
बहुत सुंदर रचना धन्यवाद
जवाब देंहटाएंज्ञानपरक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंरस सिद्धांतों के बारे में सारगर्वित आलेख प्रस्तुति.....आभार
जवाब देंहटाएंइस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी.
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंश्री प्रतुल जी ने टंकण-जनित अशुद्धियों की ओर संकेत करने के लिए धन्यवाद। मैंने पुनः पूरा आलेख पढ़ा और अन्य अशुद्धियों को दूर कर दिया गया है। असुविधा के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
जवाब देंहटाएं....प्रणाम गुरू जी,
जवाब देंहटाएंमैँ M.A HINDI LITERATURE KA STUDENT HOO Aapke sabhe blog mujhe ache lagte hain,main aapke blogs ko subscribe karna chata hoon taki we mere email box m aa jayen plzz. help me.....
आप अपना e-mail ID भेज दें।
हटाएंगुरु जी सादर प्रणाम,MERA EMAIL ID-cg0038@gmail.com है।
जवाब देंहटाएंthak u sir,aap sabhi lekh gyanvardak hai.
जवाब देंहटाएं