आँच-47
मवाद..
हरीश प्रकाश गुप्त
यह जीवन है तो संबंध हैं, रिश्ते हैं, नाते हैं और इनसे जुड़े अनुभव हैं, स्मृतियाँ हैं। ये अनुभव अच्छे व सुखद भी हैं और पीड़ादायी भी हैं। सामान्यतया जीवन में खुशियाँ देने वाली स्मृतियाँ क्षणिक होती हैं जो झोंके की तरह आती हैं और चली जाती हैं। परन्तु जिन अनुभवों ने कष्ट दिया है, पीड़ा दी है वे हमारे मानस में गहरे अंकित हो जाते हैं और समय-असमय अनुकूल परिस्थिति मिलने पर स्मृति पटल पर पुनुरुज्जीवित हो उठते हैं। इनकी वेदना भुलाए नहीं भूलती तथा दुख देती रहती है। अनामिका की कविता ‘मवाद’ कुछ-कुछ ऐसी ही भाव भूमि पर रचित कविता है। यह उनके ब्लाग ‘अनामिका की सदाएं’ पर पहली दिसम्बर को ही आई थी। यही कविता आँच के आज के अंक की समीक्षा की विषय वस्तु है।
प्रस्तुत कविता ‘मवाद’ एक छोटी सी कविता है परन्तु यह मन की व्यथा को बहुत सशक्त रूप से व्यक्त कर जाती है। जब संबंध किन्हीं वजहों से टूटते हैं या फिर रिश्तों में दरार पड़ती है तब उससे उपजी वेदना हृदय को भीतर तक तोड़ देती है। सम्बन्ध जब बिखरते हैं तो कही-अनकही बहुत सी स्मृतियों के रूप में दंश छोड़ जाते हैं। ये अन्दर ही अन्दर बढ़ते हुए विशालकाय रूप लेकर आक्रांत कर लेते हैं। जब भी इन यादों से होकर गुजरना होता है, इनकी टीस और चुभन घुटन पैदा करती हैं। इन्हीं पीड़ादायी स्मृतियों को कवयित्री ‘कंटीली झाड़ियाँ’ और इनके विस्तार को ‘घना जंगल’ कहकर अभिव्यक्त करती है जिसके भीतर घुसना अर्थात इन स्मृतियों का सायास स्मरण भयग्रस्त करता है। इस घनीभूत पीड़ा को कवयित्री ने ‘मवाद’ के रूप में एक ऐसे बिम्ब के माध्यम से व्यंजित किया है जो घाव के सड़ने से उपजता है। यह भयानक दुर्गन्ध से युक्त है और जिसके उपचार की कोई सम्भावना नहीं है। ‘मवाद’ के माध्यम से कवयित्री शायद उसी मर्मांतक पीड़ा को अभिव्यक्त करती है जिसे भरा नहीं जा सकता है। उसे इस घनीभूत पीड़ा और उसकी विकरालता का भी अनुमान है कि यह जब भी मुखर होगी आत्मघाती स्तर तक विस्फोटक हो सकती है। इसीलिए वह इनसे हर सम्भव ध्यान हटाने व इनके प्रभाव से असम्पृक्त होने के लिए अपने ही खोल में सिमटने और आँखें मूँदकर विस्मरण की बात कह जाती है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ऐसी ही घनीभूत पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं –
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति सी छाई
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।
प्रसाद जी जिस पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं वह तो आँसू बन बहकर हृदय को हल्का कर जाती है लेकिन अनामिका की पीड़ा आँसू वन बहती नहीं है बल्कि वह अन्दर ही अन्दर गहराती है। कवयित्री इसे खामोशी के नीचे दबे बवण्डर के रूप में देखती है और इसके परिणाम से भयग्रस्त भी है।
अनामिका की यह कविता बहुत ही मार्मिक है और उन्होंने गहन अनुभूति के स्तर पर इसे जीया है, इसका सृजन किया है। हाँलाकि कविता में प्रयुक्त बिम्ब बहुत साधारण और सामान्य प्रयोग वाले हैं तथापि यह रचना आकर्षक है और भावविधान के दृष्टिकोण से यह पाठकों की संवेदना से सहज रुप से जुड़ जाती है। शिल्प की दृष्टि से प्रथम पैरा नितांत सटीक और उपयुक्त शब्दक्रम में व्यवस्थित है। जबकि द्वितीय पैरा में पंक्तियाँ –
‘इस जंगल के
भीतर के जहरीले
अहसासों की नागफणीं’
अनुपयुक्त पृथक्करण तथा विशेषण के अतिक्रमण के कारण बिखर गई हैं। वहीं आगे की पंक्तियाँ –
‘और भर देंगी
मवाद से’
में ‘भर देंगी’ की अन्विति ‘और’ से न होकर ‘मवाद से’ से अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है। अतः इस पद को ‘और’ से पृथक ही होना चाहिए। इसी पैरा में -
‘दर्द से भरी
ऊपर चढ़ती बेलें’
में बेलों के साथ ‘दर्द’ असंगत सा प्रयोग है जो ‘भरी’ या ‘भर’ की पुनरुक्ति प्रतीति के साथ कविता की आभा को क्षीण करता है। तीसरे पैरा की पाँचवीं और ग्यारहवीं पंक्तियों में अव्यय ‘कि’ का निरर्थक प्रयोग हुआ है जो प्रवाह को अवरुद्ध करता है। हालाकि पाँचवीं पंक्ति में ‘कि’ को यदि ‘क्योंकि’ कर दिया जाता तो अर्थ ग्रहण करना आसान हो सकता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि
अनामिका की यह कविता बहुत ही मार्मिक है जिसमें भावों की गहराई और गरिमा अपनी श्रेष्ठता के साथ तो विद्यमान है लेकिन शिल्पगत मामूली दोष इसकी आभा को तनिक मलिन कर जाते हैं।
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जितनी अच्छी कविता उतना ही सशक्त समीक्षा. समीक्षक की पकड़ अपने कथ्य और शैली पर बेजोड़ है साथ ही अभिव्यक्ति का ढंग भी अनोय्हा जो आवाश्यक्तानुसाए कही सरल और कहीं गहन-गूढ़ है....बहुत सुन्दर युग्म, कथ्य और समीक्षा दोनों ही दृष्टिकोण से........
जवाब देंहटाएंकविता के मूल भाव पर अच्छा प्रकाश डाला है ......समीक्षा मानदंडों पर खरी उतरती है ...आभार
जवाब देंहटाएंसमीक्षक की पैनी दृष्टिकोण सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन समीक्षा की कसौटी पर खरी उतरी है। मवाद की भाव-भूमि स्वत:घनीभूत होकर मन के विचारों को एक नया अयाम दिया है। मन में उठते हुए भाव ही संवेदना के संवाहक होते हैं। मेरे विचार से यदि भावगत सौंदर्य सुन्दर है तब शिल्पगत सौदर्य अभिव्यक्ति को प्रभावित नही करता है। सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंसमीक्षक ने न केवल कविता के भाव की गहराई को अच्छी तरह स्पर्श किया है बल्कि कविता के अर्थ को भी विस्तार प्रदान किया है। समीक्षक की दृष्टि कविता के शिल्प के प्रति भी उतनी ही सजग है और कविता में छोटी सी लगने वाली त्रुटियों को बहुत ही सकारात्मक ढंग से पाठकों और रचनाकार के समक्ष प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंआभार,
कविता की बेहतरीन समीक्षा प्रस्तुत की गई है। ब्लाग का यह स्तम्भ बहुत रोचक और आकर्षक हो चला है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति के लिए समीक्षक, कवयित्री और मनोज जी को बहुत बहुत धन्यवाद।
@ जे0पी0 तिवारी जी,
जवाब देंहटाएंआपकी भावना का मैं सम्मान करता हूँ। आप भी विषय पर बहुत सशक्त अधिकार रखते हैं।
उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार,
@ केवल राम जी,
जवाब देंहटाएंकविता के भाव ही सुन्दर हैं।
उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार,
@ प्रेम सरोवर जी,
जवाब देंहटाएंआपकी भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। तथापि कहना चाहूँगा कि रचनाकार की शिल्प के प्रति सजगता उतनी ही आवश्यक है जितनी भावपक्ष के प्रति। तभी रचना श्रेष्ठतम की श्रेणी में स्थान बना सकती है।
उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार,
@ आचार्य परशुराम राय जी,
जवाब देंहटाएंआपके शब्द प्रेरणा स्वरूप होते हैं।
उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार,
@ good done जी,
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए सभी की ओर से आपका आभारी हूँ।
बहुत अच्छी लगी कविता और समीक्षा ने तो इसे और सुन्दर तथा सरल बना दिया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
ओह ! बहुत पीड़ादायक कविता है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा से कविता अधिक आसान हो गई है।
आभार,
बहुत अच्छी समीक्षा .
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंरचना के हर पहलू पर प्रकाश डालती अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंअनामिका जी की यह कविता पहले भी पढ़ी है ! इस मार्मिक कविता में जीवन की संवेदना टीस बनकर उभरती है ! आपकी समीक्षा ने कविता की भाव भूमि को बड़ी ही गहराई से पाठकों के समक्ष रखा है ! हरीश जी,आपकी समीक्षा की आंच में तप कर कविता नई दृष्टि प्राप्त करती है !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत साधुवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत सूक्ष्म एवं धारदार समीक्षा ! अनामिकाजी की यह कविता बेहद भावपूर्ण है तथा इसमें मनोव्यथा के सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है ! इस रचना की इतनी सुन्दर समीक्षा के लिये बधाई एवं आभार !
जवाब देंहटाएंआलोचना या समालोचना का अर्थ है देखना, समग्र रूप में परखना। किसी रचना की सम्यक व्याख्या या मूल्यांकन। यह रचनाकार और पाठक के गीच की कड़ी है। इसका उद्देश्य है रचना कर्म का प्रत्येक दृष्टिकोण से मूल्यांकन कर उसे पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना, पाठक की रूचि परिष्कार करना और साहित्यिक गतिविधि की समझ को विकसित और निर्धारित करना। इस दृष्टि से यह समीक्षा उत्कृष्ट है।
जवाब देंहटाएंभाई हरिप्रकाश जी, आपकी समीक्षा भी पढी और कविता भी पूर्व में पढ़ ली गयी थी। कोई टिप्पणी करना तो उचित नहीं लगता लेकिन समीक्षा इसलिए की जाती है जिससे विधा विशेष का तकनीकी और वैचारिक पक्ष लेखक और पाठक को स्पष्ट हो सके।काव्य शास्त्र में ऐसे शब्दों को उचित नहीं कहा जाता जो अरूचिकर हों। इसलिए ऐसे शब्दों को कवि प्रयोग नहीं करता। मैं अपनी टिप्पणी में भी लिखना चाह रही थी लेकिन यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि आपने समीक्षा की है। कविता का शीर्षक "मवाद" है। यह मुझे उचित नहीं लगता, क्योंकि यह शब्द ही अरूचिकर है। इसलिए आपकी समीक्षा में इस शब्द के लिए भी कुछ लिखा जाता तो लगता कि वास्तव में समीक्षा हुई है और लेखक को कुछ सीखने का अवसर मिला है। मैं अपनी टिप्पणी से ना तो लेखक को और ना ही आपको हतोत्साहित कर रही हूँ लेकिन जब हम सार्वजनिक रूप से अपनी रचना को प्रस्तुत करते हैं तब कुछ बातों को जानना आवश्यक होता है। आशा है आप दोनों ही मेरे भाव को समझेंगे और इसे एक स्वस्थ परम्परा के रूप में लेंगे।
जवाब देंहटाएंपुलकोट का प्रयोग अच्छा लगा। आप निश्चय ही प्रस्तुति के हिसाब से प्रयोगधर्मी व्यक्ति हैं। सामान्यत: लोग नहीं होते।
जवाब देंहटाएंसुझाव - बांई तरफ लगाये जाने वाले चित्र के लिये लगभग 10px की पैडिंग दें तो लेखन चित्र से सटा नहीं लगेगा।
अच्छी पोस्ट।
समीक्षा हो तो ऐसी……………हर छोटी से छोटी बात पर ध्यान दिया है और इससे कविता की खूबसूरती मे चार चाँद लग जाते हैं……………बेहद उम्दा समीक्षा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा की है ...आभार
जवाब देंहटाएं... saarthak abhivyakti !!!
जवाब देंहटाएंमैने निष्कर्ष को इस रूप में पढ़ाः
जवाब देंहटाएं"यद्यपि शिल्पगत मामूली दोष इसकी आभा को तनिक मलिन कर जाते हैं,अनामिका की यह कविता बहुत ही मार्मिक है जिसमें भावों की गहराई और गरिमा अपनी श्रेष्ठता के साथ तो विद्यमान है।"
छी-छी!
जवाब देंहटाएंमवाद का नाम सुनते ही घृणा होती है!
लेकिन रचना सशक्त है और समीक्षा बहुत बढ़िया की है आपने!
साधु-साधु....... !
जवाब देंहटाएंकविता में सम्प्रेषनीयता है. पाठकों तक कवयित्री के भावों का साधारणीकरण हो रहा है. शिल्प औसत है. समीक्षा न्यायपूर्ण है मगर शीर्षक को बख्श दिया गया है. समीक्षक द्वारा चिन्हित,
"तीसरे पैरा की पाँचवीं और ग्यारहवीं पंक्तियों में अव्यय ‘कि’ का निरर्थक प्रयोग हुआ है जो प्रवाह को अवरुद्ध करता है।"
यह उनके निजी विचार हो सकते हैं किन्तु यह कविता में नाटकीय व्यंग्यार्थ दे रहा है.
"कि... मैं डर रही हूँ .... इन खामोशियों के नीचे दबे बाहर आने को व्याकुल उस तूफ़ान से "
प्रस्तुत अंश से 'कि' निकाल देने पर 'मैं दर रही हूँ....' कवयित्री की स्वीकारोक्ति बन जाती है जबकि 'कि' के साथ यह वाक्य नाटकीय बन पड़ा है जिस से यह आभाषित होता है कि 'डर वास्तव में नहीं है.... किन्तु डरने का अभिनय/आशंका की जा रही है. यहाँ यह भी मेरे निजी विचार हैं.... प्रस्तुत समीक्षा की गरिमा इस से कहीं से कम नहीं होती है. हरीश जी ने अपनी पैनी साहित्यिक दृष्टि से एक बार फिर हमें आप्लावित किया है. कवयित्री एवं समीक्षक दोनों को अनंत शुभ-कामनाएं. आपकी लेखनी इसी तरह यशस्वी हो........ ! धन्यवाद !!!
रचना पर अच्छा प्रकाश डाला है ..आभार.
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुप्त जी आज मेरी रचना पर आपकी समीक्षा देख सच कहूँ तो लिखने का मनोबल बहुत ही बढ़ गया है. आपकी समीक्षा को पढ़ कर ऐसा लगता है की समीक्षक स्वयं पूर्णतः कविता की पीड़ा से होकर गुज़रा हो. आपकी विषय पर समझ, प्रसंगानुकूल शब्दों का चयन और आपकी पारखी नज़र हतप्रभ करने के लिए काफी हैं. आपकी समीक्षा महज एक समीक्षा नहीं अपितु रचना पर एक विस्तृत दृष्टिकोण देती है. कई बार हम कुछ शब्दों का चयन गहराई से विचार किये बिना उथलेपन से कर जाते है लेकिन आज आप की समीक्षा ने एक और बात के लिए प्रेरित किया है कि हमें अपने लेखन को और मांजना चाहिए...हम कल के इतिहास और आज के साहित्य का सृजन करने में अगर योगदान कर रहे हैं तो हमें इन बातों की तरफ गंभीरता से मनन करना चाहिए, उथलेपन से काम नहीं चलेगा.
जवाब देंहटाएंकविता में छिपी पीड़ा, घुटन और पीढा से मुखर होती आत्मघाती विकरालता के भय को आप ने सशक्त शब्दों से अभिव्यक्त किया है. और जहां आपने ‘भर’ की पुनरुक्ति और तीसरे पैरा की पाँचवीं और ग्यारहवीं पंक्तियों में अव्यय ‘कि’ का निरर्थक प्रयोग के बारे में लिखा है मैं उस से कुछ हद तक सहमत हूँ. आपकी बात ठीक है कि पाँचवीं पंक्ति में ‘कि’ को यदि‘क्योंकि’ प्रयोग किया जाता तो अधिक प्रभावी होता.
कविता में मौजूद शिल्पगत दोषों को आपने इमानदारी से बताया है. अंत में एक बार फिर से धन्यवाद देते हुए यही कहना चाहूंगी कि आपकी समीक्षा इतनी सटीक है कि इसे बार-बार पढने, पढते रहने, का मन करता है।
@ तिवारी जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया तिवारी जी आपके विचारों से अभिभूत हूँ.
@केवल राम जी,
शुक्रिया केवल जी समीक्षा को पढ़ने के लिए.
@प्रेम सरोवर जी,
आपके विचारों ने अभिभूत किया. शुक्रिया कि कविता कि भाव भूमि को आपने प्रधानता प्रदान की.
@परशुराम राय जी,
आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ. ये गुप्त जी की गहन दृष्टि का ही प्रतिफल है. आभारी हूँ.
@ गुड वन जी.
बहुत बहुत आभारी हूँ आपकी.
@नौटी ब्वॉय जी,
साधुवाद.
@छुटकी जी
उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ.
@ जमीर जी एवं शमीम जी.
बहुत बहुत धन्यवाद समीक्षा तक पहुचने के लिए.
@ संगीता जी.
समीक्षा पर अपने विचार देने के लिए धन्यवाद.
@ साधना जी
कविता की भाव भूमि की और समीक्षा पर आपकी सराहना के लिए आभारी हूँ.
वाह वाह ...बहुत सीधी-सच्ची सादी सुन्दर आत्मस्वीकृति....शायद कटीली राहों के बीच से ही निकल जाने वाली चीज़ को जिंदगी कहते हैं....खूबसूरत रचना.
जवाब देंहटाएंपंकज झा.
आदरणीय डा.अजित जी, डा.शास्त्री जी एवं करण जी
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आप सब को धन्यवाद देना चाहूंगी जो आपने मेरी रचना की खामियां बताई. वाह वाह मिलनी जितनी आसान होती है उतना ही उसके कमजोर पक्ष को उकेरना और बताना मुश्किल. कविता की कमजोरियां बता कर और समीक्षा करके ही लेखक अपनी कमजोरियों को जान पाता है, वर्ना तो उसे अपनी कमियां पता ही नहीं चल पाएंगी.
डा.अजित जी ने कविता की तकनीकी और वैचारिक पक्ष को कमजोर बताया.....इसके लिए मैं कहना चाहूंगी की भाव प्रमुख रचनाओं में वैचारिक पक्ष का कमजोर होना लाज़मी है. और बात तकनीकी की है तो इसके लिए मैं अज्ञानी हूँ जिसे आप जैसे गुणीजनो के पथ-प्रदर्शन की आकाक्षा है. आगे आपने लिखा " काव्य शास्त्र में ऐसे शब्दों को उचित नहीं कहा जाता जो अरूचिकर हों। इसलिए ऐसे शब्दों को कवि प्रयोग नहीं करता" इसके लिए मैं आपको, शास्त्री जी और करण जी को ये कहना चाहूंगी कि मैं मानती हूँ कि हमारे संस्कृत के विद्वान इस तरह के शीर्षक से परहेज करते रहे हैं लेकिन आज जब हर चीज़ में बदलाव आ रहा है तो इन प्रयोगों से क्या बचना और जब क्रूर सत्य को बताना हो तो क्रूर शीर्षक से क्या परहेज. नागार्जुन ने भी अपनी रचनाओं में ऐसे शीर्षक प्रयोग किये हैं जैसे ...."खुरदरे पैर", "घिन तो नहीं आती है", "बाकी बच गया अण्डा" इत्यादि. और जिस तरह मवाद रिसता रहता है, दर्द की टीसों से बेहाल करता है उस तरह की महसूस की गयी पीड़ा को दर्शाने के लिए मुझे इससे बेहतर कोई शीर्षक सूझा ही नहीं.
और हाँ मैं अजित जी, शास्त्री जी, करण जी की टिपण्णी से बिलकुल भी हतोत्साहित नहीं हुई हूँ. मुझे आपकी टिप्पणियों से कैसा अनुभव हुआ ये मैं ऊपर लिख चुकी हूँ. वास्तव में ही मुझे कुछ सीखने का अवसर मिल रहा है और वो भी मुफ्त में. (हा.हा.हा.)
करण जी.....मैं आपकी बात से सहमत हूँ की शिल्प औसत है. 'कि' अव्यय का प्रयोग निरथर्क है यह समीक्षा पढ़ कर ज्ञात हुआ. हाँ एक जगह कि की जगह क्युकी का प्रयोग होता तो मायने कुछ और होते.आगे आपने लिखा कि
" 'कि' के साथ यह वाक्य नाटकीय बन पड़ा है जिस से यह आभाषित होता है कि 'डर वास्तव में नहीं है.... किन्तु डरने का अभिनय/आशंका की जा रही है" हाँ कुछ हद तक डर वास्तव में नहीं है वाली ही सोच है लेकिन आशंका है इसलिए इसका प्रयोग हुआ है. करण जी आपके विचारों से में अभिभूत हूँ. और आगे भी आपका साथ यूँ ही मिलता रहेगा यही आशा करती हूँ.
एक बार पुनः आप सब की बहुत बहुत आभारी हूँ जो आपने इतनी सूक्षमता से मेरी रचना पर प्रकाश डाला और मुझे नया कुछ सीखने की प्रेरणा मिली.
@ ज्ञान चंद मर्मग्य जी...बिलकुल सच कहा आपने की गुप्त जी की समीक्षा की आंच पर तप कर कविता ने नयी दृष्टि प्राप्त की है.
जवाब देंहटाएं@ मनोज जी --पाठक की रूचि परिष्कार करना और साहित्यिक गतिविधि की समझ को विकसित और निर्धारित करना ही समीक्षा का उद्देश्य है. आभार
@ ज्ञानदत्त जी आपने सच कहा की रचना प्रयोगवाद से प्रेरित है. आभार.
@ वन्दना जी आपकी हाजिरी ने भी चार चाँद लगा दिए हैं . आभार :)
@ महेंद्र जी एवं उदय जी. आभारी हूँ आपकी.
@ शिक्षामित्र जी शुक्रिया आपने भावों की गहराई को प्रधानता दी.
@ शिखा जी आभारी हू आपके हस्ताक्षर पाकर.
@ पंकज जी बहुत बहुत धन्यवाद यहाँ शिरकत करने के लिए.
सरल आंदज मे अति सुंदर कविता ओर सुंदर समीक्षा.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
अनामिका जी, मैंने समीक्षक की पोस्ट पर टिप्पणी की थी। कुछ ऐसे- समीक्षा इसलिए की जाती है जिससे विधा विशेष का तकनीकी और वैचारिक पक्ष लेखक और पाठक को स्पष्ट हो सके।काव्य शास्त्र में ऐसे शब्दों को उचित नहीं कहा जाता जो अरूचिकर हों। इसलिए ऐसे शब्दों को कवि प्रयोग नहीं करता।
जवाब देंहटाएंआप समझ सकती हैं कि मैंने समीक्षक को कहा है कि समीक्षा इसलिए की जाती है ना कि यह लिखा था कि उक्त कविता का तकनीकी और वैचारिक पक्ष कमजोर है।
दूसरी बात, लेखक को उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि लेखक तो जिस भावभूमि पर होता है, वह लिख चुका अब समीक्षक को बताना है कि उसके लेखन के क्या खामियां हैं या कितना अच्छा है। मैंने अपनी टिप्पणी इसलिए समीक्षक के लिए की थी कि जब समीक्षा के क्षेत्र में आए हो तो इन बातो पर भी ध्यान देना चाहिए। मुझे तो समीक्षक का उत्तर चाहिए कि क्या ऐसे शब्दों का प्रयोग काव्य में होना चाहिए या नहीं। मुझे भी कुछ सीखने का अवसर मिलेगा।
विलम्ब से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएंअपने सभी पाठकों को अपनी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से प्रोत्साहित करने के लिए आभार।
@ अजित गुप्ता जी,
जवाब देंहटाएंब्लाग पर आने और रचना पर अपनी विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया देने के लिए आभार।
शीर्षक की उपयुक्तता के संदर्भ में आपसे आंशिक रूप से सहमत क्योंकि मेरा कोई आग्रह नहीं कि शीर्षक इससे उपयुक्त दूसरा नहीं हो सकता था। यह कवयित्री का अपना चयन है।
समीक्षा के संदर्भ में आप द्वारा उठाए गए प्रश्न तथा काव्यशास्त्र के संदर्भ में अरुचिकर शब्दों के प्रयोग के विषय पर आपसे अनुरोध है कि कृपया इसके लिए आँच के अगले अंक का अवलोकन करें ।
पुनःश्च, आप एक सुधी व सुविज्ञ महिला हैं, आपसे कुछ जानने और सीखने को ही मिलेगा। वास्तव में हममें से कोई भी सर्वज्ञ नहीं है। हम लोग हर समय कुछ न कुछ सीखते रहते हैं और सीखने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
विश्वास मानिए आपकी प्रतिक्रिया से मुझे तनिक भी निराशा नहीं हुई, बल्कि इससे मेरी दृष्टि को कुछ विस्तार ही मिला। लेकिन आप द्वारा प्रयुक्त शब्द, विशेष रूप से दूसरी टिप्पणी के, विशिष्ट आग्रह से प्रेरित लगे। कृपया अपने शब्द पुनः देखें -
"...कि जब समीक्षा के क्षेत्र में आए हो तो इन बातो पर भी ध्यान देना चाहिए। मुझे तो समीक्षक का उत्तर चाहिए कि क्या ऐसे शब्दों का प्रयोग काव्य ......."
जो शायद बलात् शिक्षा देते और शिष्टाचार की मर्यादा का उल्लंघन करते प्रतीत होते है।
सादर,
हरीश
@ करण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर क्योंकि आपने भी खुलकर विचार प्रकट किए। आपकी दृष्टि से मैंने अनामिका जी की कविता को एक बार फिर पढ़ा। लेकिन विनम्रता के साथ खेद सहित कहना चाहूँगा कि उक्त स्थानों पर डर के लिए नाटकीयता अथवा अभिनय या फिर आशंका प्रकट की जाती है तो मुझे यह अर्थ कविता के मूल भावार्थ से भटकता हुआ ही मिला।
यह मेरे अपने निजी विचार हैं अतः कृपया इसे अन्यथा न लें।
आपसे सहमत होने के अवसर आगे अवश्य मिलेंगे।
आदर सहित,
- हरीश
हरीश जी,
जवाब देंहटाएंक्षमा चाहती हूँ। कोई किसी को बलात शिक्षा दे नहीं सकता। भविष्य में ध्यान रखूंगी। जहाँ तक शिष्टाचार की बात है, उसके लिए अब क्या कहने? किसी को अपना दृष्टिकोण बताना शिष्टाचार के अन्तर्गत नहीं आता है तो इसका भी ध्यान रहेगा। आप करिए समीक्षा मुझे कुछ आपत्ति नहीं है। उम्र में छोटे होने के लिहाज से कुछ बताने का प्रयास किया था लेकिन यदि कुछ लेना पसन्द ही नहीं है तो फिर बात ही समाप्त हो जाती है। धन्यवाद आपका जो मुझे मार्ग दिखाया।
@ अजित गुप्ता जी,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले, मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। मेरा आशय आपकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने का नहीं था और न ही आपको कुछ बताने, सिखाने या मार्ग दिखाने का। इसीलिए मैंने विनम्रता से सिर्फ अपने शब्द पुनः देखने के लिए कहा था जो शायद कठोर हो चले थे। लेकिन मैंने कोई आपत्ति न पहले प्रकट की थी और न अभी है। मैंने 'शायद'और 'प्रतीत होते हैं' पर बल भी दिया था। यदि आपको लगता है ठीक है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। और, सीखना पसन्द न करने जैसी कोई बात नहीं हैं। इस पर यही कहूँगा कि मेरा किसी संदर्भ में कोई आग्रह नहीं है। मुझे जो कुछ आपसे ग्रहण करना है, ग्रहण करता रहूँगा। आप मुझसे बड़ी हैं, बड़ी ही रहेंगी।
सादर,
हरीश
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जवाब देंहटाएंहरीश जी ,
नमस्कार,
एक बेहतरीन कविता का चयन और लाजवाब समीक्षा के लिए बधाई। मैं भी धीरे धीरे कविता लिखना सीख जाउंगी ऐसा लगता है। आपको एवं अनामिका जी को पुनः बधाई।
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