गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

आंच-४८ (समीक्षा) पर इक नज़र जिंदगी...

आंच-४८ (समीक्षा)

इक नज़र जिंदगी... 

088मनोज कुमार
इक नज़र जिंदगी... एक लबादा सा ऊपर से नीचे तक न जाने क्या क्या . खुद में समाये हुए कुछ सुन्दर सा या असुंदर भी शायद कुछ भी नजर नहीं आता लगाते रहो अटकलें बस जाने क्या है उस पार. दिखने में सीधा सरल अन्दर वक्र ढेरों लिए ये जिन्दगी एक बुर्का ही तो है . पेट भर गया है उसका फिर भी लगाये है मुँह में तृप्ति नहीं हुई उसकी या भ्रम में है शायद हटाया पल भर को तो अशांत हो गया फिर लगा दिया खाली ही शांति मिल गई उसे. ये जिन्दगी भी तो जीते रहते हैं हम यूँ ही बालक के मुँह में पड़ी खाली चूसनी की तरह. आज नहीं मिली जगह उसे बैठने की खडी है जाना तो है ही लडखडाती है झटको से थामती है हथ्था एक हाथ से सम्भल जाती है. फिर डगमगाती है गति पकड़ने पर तो थाम लेती है दोनों हाथों से. थोडा स्थिर होते ही फिर छोड़ देती है पकड़न जिन्दगी में हम भी बस उतना ही प्रयास करते हैं जितनी जरुरत है उस मौजूदा वक़्त की.
shiशिखा वार्षणेय किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। उनके ब्लॉग स्पंदन का टैग लाइन है ... आपका स्वागत है! स्पंदन = अंतर मन में उठती हुई भावनाओं की तरंगें। जिन्हें मैं शब्द रूप देकर यहाँ उतारती हूँ। अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और शिखा जी कहती हैं, ‘मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन!’ स्वभाव से विनम्र शिखा एक journalist हैं और moscow state university से गोल्ड मैडल के साथ T V Journalism में मास्टर्स ! आज की आंच पर हम ले रहे हैं इनकी रचना इक नज़र जिंदगी...

जीवन जगत के बारे में, समाज के बारे में, एक रचनाकार की जो दृष्टि और विचार होते हैं, मोटे तौर पर हम उन्हें ही उसकी जीवन-दृष्टि कहते हैं। और यह दृष्टि जीवनानुभवों, जीवनानुभूतियों के घात-प्रतिघात से विकसित होती है।

जीवन एक नाटक है। यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्‍न रह सकते हैं। मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। नदी प्रारंभ में बहुत पतली होती है। पत्थरों, चट्टानों, झरनों को पार करके मैदान में आती है, एक क्रम से उसका विस्तार होता है, फिर भी बड़ी मन्थर गति से बहती है और बिना क्रम भंग किये अंत में समुद्र में विलीन हो जाती है।

शिखा की कविता में अदाएं नहीं हैं। वे आसान सी बात को बहुत जटिल बनाकर परोसना भी नहीं चाहतीं। वे किसी बात को कहने के वक़्त इस दिखावे के फेर में नहीं रहतीं कि देखिए मैंने कैसे कही यह बात! बयानबाज़ी या शगूफ़ेबाज़ी में न पड़कर वो सीधे अपनी बात पर आती हैं और इसमें विश्वास रखती हैं कि जो बोलना है कविता बोले, रचनाकार नहीं। शायद उन्हें पसंद भी नहीं .. तभी तो कहती हैं

कुछ भी नजर नहीं आता

लगाते रहो अटकलें बस

इस रचना को पढते हुए लगता है कि शिखा जी ने ज़िन्दगी को केवल कलम की आंखों से नहीं देखा है, कई रास्तों से गुज़र कर देखा है। अब देखिए न उनके परिचय से भी तो लगता है कि भारत में पली बढी, रूस में शिक्षा ग्रहण की, अब इंगलैंड में हैं। कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी, और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है। कुछ समय पत्रकारिता भी की। गृहस्थ जीवन में रमी हैं आजकल और स्वतंत्र पत्रकारिता भी करती हैं, ब्लॉग पर लिखने के अलावा। ऐसे में अनुभवों के कितने सोते उनसे आकर मिले हैं। यह अनुभव सम्पन्नता उन्हें देश-विदेश घूमने से भी मिले है जिसके संस्मरण भी वो हमसे बांटती रहती हैं। अब ये उनका कवि हृदय ही है जो एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप  में नजर आ गई जिन्दगी उन्हें। जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी, या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम, शिखा जी की तरह।

फिर अपने इस अनुभव को उन्होंने सामाजिक सरोकारों के आत्मछंद में पिरोकर प्रस्तुत कर दिया। इस कविता में उन्होंने ज़िन्दगी को अलग-अलग कोणों से देखने का प्रयास किया है।
यह कविता जीवन के यथार्थ-चित्रण के कारण महत्‍वपूर्ण है। शिखा इस कविता में भारी-भारीकम कथ्य को नहीं उठाते हुए भी अपने काव्‍यलोक की यात्रा कराते हुए कुछ ऐसा अवश्‍य कह गई हैं, जिसे नया न कहते हुए भी हल्‍का नहीं कहा जा सकता।

दिखने में सीधा सरल

अन्दर वक्र ढेरों लिए

ये जिन्दगी एक बुर्का ही तो है .

बुर्क़ा जिस तरह चेहरे को ढंके रहता है उसी तरह ज़िंदगी के कई रहस्य ढंके-छुपे होते हैं। बिम्ब तो ऐसे हैं जिसे देखकर पढकर ऐसा लगता है कि कह तो ठीक ही रही है, पहले मुझे क्यों नहीं सूझा। ज़िन्दगी की जो कशमकश है, आवाजाही है, उसके अनेक मार्मिक शब्‍दचित्र इस कविता में है । इस कविता में भाषा की सादगी, सफाई, प्रसंगानुकूल शब्‍दों का खूबसूरत चयन, जिनमें सटीक शब्दो का प्राचुर्य है। कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं।

ये जिन्दगी भी तो

जीते रहते हैं हम

यूँ ही

बालक के मुँह में पड़ी

खाली चूसनी की तरह.

खाली बोतल या अभाव और संतोष की चूसनी मुँह में डाले इंसान ज़िंदगी की तमाम मुश्किलें झेल जाता है। इस कविता के केंद्र में ज़िन्दगी अपने विभिन्न रूपों में है और उसके चारो ओर कविता घूमती है। पूरी कविता एक सधी हुई गति में चलती है। अनेक खण्‍ड चित्रों की सहायता से कवयित्री ने एक ऐसा चलचित्रात्‍मक प्रभाव उत्‍पन्न किया है जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखता है।

इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जीवन को उसकी विस्‍तृति में बूझने का यत्‍न करने वाले कवयित्री हैं । ज़िन्दगी चॉकलेट के बक्से की तरह है। चॉकलेट के बक्से का प्रत्येक चॉकलेट ज़िन्दगी के एक हिस्से के समान होता है। कुछ क्रंचि (करड़-मरड़ की आवाज़) है, तो कुछ नट्टी (काष्ठफल के स्वाद वाला), वहीं कुछ हिस्सा सॉफ्ट (मुलायम) है। पर सारे के सारे स्वादिष्ट! जीवन एक पाठशाला है जिसमें व्यक्ति अनुभवों से शिक्षा ग्रहण करता है।

कविता महज ज़िन्दगी के दर्शन का बयान भर नहीं है । इसमें ऐसा कुछ है जो इसे संश्लिष्‍ट और अर्थसघन बनाता है। जीवन की आपाधापी से त्रस्‍त, व्‍यवस्‍था की विसंगतियों से आहत और आंतकित करते परिवेश से आक्रांत मनःस्थितियों का कवयित्री ने प्रभावी चित्रण किया है । वह अन्‍योक्ति से एक गहरा संकेत करती है, वक़्त का हत्था पकड़े अपने-अपने हिस्से का लम्हा जीते लोग को दर्शाते हुए कहती हैं,

जाना तो है ही

लडखडाती है झटको से

थामती है हथ्था एक हाथ से

सम्भल जाती है.

फिर डगमगाती है

गति पकड़ने पर

तो थाम लेती है दोनों हाथों से.

यह कविता मध्‍यमवर्गीय और निम्‍न मध्‍यमवर्गीय जीवन के जीवन संघर्ष से हमारा सीधा और सच्‍चा साक्षात्‍कार करवाती है। वही जीवन- स्थितियां, जिनसे हम रोज़ गुज़रते हैं। शिखा की रचना इसी के चलते हमें अपनी जैसी लगती है। इसमें निहित यथार्थ जैसे हमारे आसपास के जीवन को दोबारा रचता है। काव्‍यभाषा सहज है । समकालीन जीवन और समाज पर कवयित्री की दृष्टि पैनी है....तभी तो कहती है कि ....

जिन्दगी में हम भी बस

उतना ही प्रयास करते हैं

जितनी जरुरत है

उस मौजूदा वक़्त की.

काव्य-भाषा अनावश्यक जटिलता से मुक्त है। वे सीधे ढंग से अपनी बात कहती हैं। यही उनकी कविता का आकर्षण हैं। उनके पास भाषा और शिल्प ऐसा है कि सीधी-सादी बातों में भी आकर्षण, असर और चमत्कार पैदा कर देती हैं।

सपाट जिंदगी घिसी-पिटी लीक पर चलती है। किंतु जिस नदी में धार होती है, उसकी अपनी राह होती है। अवरोधों से टकरायेगा नहीं, पत्थरों को तोड़ेगा नहीं, तो अपनी जमीन नहीं बन पायेगी।

लडखडाती है झटको से

थामती है हथ्था एक हाथ से

सम्भल जाती है.

सरल और सहज मुहावरे में इन्होंने ज़िन्दगी के दर्शन को कविता में साधा है। शिखा की यह कविता कोई जादुगरी नहीं वास्‍तविक जीवन की सक्षम पुनर्रचना है सर्जनात्‍मक ऊर्जा की सक्रियता है। मकसद है - सबकी जिंदगी बेहतर बने। शिखा एक समर्थ सर्जक हैं। इस कविता को देखने के बाद ऐसा लगा कि इनके प्रतीक और बिम्ब चयन की क्षमता से इनकी रचनाधर्मिता ओत-प्रोत है।

शब्द सामर्थ्य, भाव-सम्प्रेषण, चित्रात्मकता, लयात्मकता की दृष्टि से कविता अत्युत्तम है। कवयित्री में नए आयाम स्पर्श करने की क्षमता है।

50 टिप्‍पणियां:

  1. प्रचलित और पारंपरिक अर्थो से समीक्षा दो प्रकार की होती है। एक प्रयोजनमूलक और दूसरा सैद्धांतिक।
    सुझाव है-भविष्य में समीक्षा करते समय समीक्षा के बगल में उल्लेख करें कि आपकी समीक्षा प्रयोजनमूलक है या सैद्धांतिक। समीक्षा अच्छी लगी।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रेम जी, हम यहां बस इतना ही चाहते हैं कि समीक्षा का प्रयोजन भर पूरा हो जाए। आपका सुझाव अच्छा है, आगे से इसे ध्यान में रखा जाएगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. कविता पहले ही बहुत आकर्षक लगी थी। सुन्दर, श्लिष्ट और परिपक्व। जिन्दगी की सच्चाई को सहजता से परिभाषित करती हुई। मनोज जी की समीक्षा ने न केवल कविता के अर्थ को विस्तार प्रदान किया है बल्कि जिन्दगी को भी आम जन की भाषा में परिभाषित किया है। यह उनकी लेखनी की सामर्थ्य है। यह समीक्षा भाषा व शैली के उत्कर्ष के साथ प्रस्तुत हुई है।

    सुन्दर कविता और उत्तम समीक्षा के लिए मनोज जी और शिखा जी, दोनो के प्रति आभार,

    जवाब देंहटाएं
  4. शिखा जी की कविता पर मनोज जी की समीक्षा बहुत उत्कृष्ट बन पड़ी है। जिसमें भाषा के संस्कार अपनी गरिमा के साथ उपस्थित हैं।
    साधुवाद,

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह ! क्या बात है।
    जिन्दगी तो हम सभी जीते ही रहते हैं लेकिन उसकी वास्तविकता से बहुत अनजान रहते हैं। वास्तव में हम उतना ही करते हैं जितना जरूरी होता है। जिन्दगी जब लडखडाती है तब हम उसे सँभाल लेते हैं. और जब स्थिर हो जाती है तब बेफिक्र हो जाते हैं। यह जिन्दगी के करीब नहीं है बल्कि यह जिन्दगी का सच है। आप दोनो को आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. मनोज जी,
    शिखा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपकी विवेचना सटीक है !
    उन्हें पढ़ते हुए मैंने भी कई बार महसूस किया है कि उनके पास भाषा और शिल्प ऐसा है कि सीधी सादी बातों में भी आकर्षण पैदा कर देती हैं और भाव सम्प्रेषण तो कमाल का है !
    साभार ,
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह!बहुत ही सुन्दर और सटीक विश्लेषण किया है यही तो सार्थक समीक्षा है।

    जवाब देंहटाएं
  8. ओह ...मेरी टिप्पणी कहाँ गयी ? कितना सब लिखा था ....

    जवाब देंहटाएं
  9. शिखा कि कविताएँ सरल भाषा में होते हुए भी नए बिम्ब से युक्त होती हैं ...और एक नज़र ज़िंदगी में ज़िंदगी को अलग अलग ढंग से सोचा और समझाया गया है ...
    आपके द्वारा कि गयी समीक्षा ने इन रचनाओं की गहनता को उजागर किया है ...

    सुन्दर समीक्षा के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  10. शिखा जी की कविता बहुत सुन्दर है और उसकी समीक्षा भी खूबसूरत ढंग से की गई है ...

    जवाब देंहटाएं
  11. जितना कविता ने मन मोहा उतना ही आपकी इस संतुलित सारगर्भित समीक्षा ने भी...

    आपका रसबोध, समालोचनात्मक क्षमता और विद्वता सहज ही नतमस्तक कर देती है..

    नमन !!!

    जवाब देंहटाएं
  12. शिखा जी कमाल की दृष्टि रखती है और उतना ही काव्यमय ह्रदय . जीवन की हर छोटी बातो में काव्य व्यंजना ढूंढ़ लेती है . कई बार तो वो कमाल के बिम्ब प्रयोग में लाती है . अच्छी लगी आपकी ये समीक्षा.

    जवाब देंहटाएं
  13. sach kahun mujhe shikha ki kavita se jayda uske saafgoi se kahe gye sansmaran ek se badk kar ek lage....:)

    aur haan ...kavita me ek mujhe abhi bhi yaad hai, jisne mere dil ko chhua tha....." aao arundhati roy ban jayen"
    sach shikha aapne desh se bhut dur rah kar jis tarah se iss kavita k madhyam se apne ko desh se joda tha....ek sihran aa gyee thi......

    god bless you dost.....:)
    abhi aur unchai chhuna hai aapko...!

    जवाब देंहटाएं
  14. shikha ki lekhni, usse alag uske bahya vyavahaar , uska ghar (jahan tak maine dekha hai uske shabdon me)...wah ek suljhi hui kavyitri , maa, patni aur dost hai... aapki samiksha bahut hi achhi hai

    जवाब देंहटाएं
  15. आपके द्वारा की गई समीक्षा बहुत पसंद आई.

    जवाब देंहटाएं
  16. आप सभी पाठकों का तहे दिल से आभार..आप सबका स्नेह ही मेरी लेखनी की प्रेरणा है.

    मनोज जी ! आपने "इक नजर जिंदगी" पर अपनी एक नजर डाल कर इसे कृतार्थ कर दिया.आपकी समीक्षा ने नए अर्थ और आयाम दिए हैं इसे .बहुत बहुत आभार आपका.

    जवाब देंहटाएं
  17. मनोज जी
    काफ़ी अरसे से शिखा जी को पढ़ते आए हैं... वह वाक़ई बहुत अच्छा लिखती हैं...

    इक नज़र जिंदगी...
    में उनके बारे में पढ़कर ख़ुशी हुई...

    आपने सही कहा है-
    शब्द सामर्थ्य, भाव-सम्प्रेषण, चित्रात्मकता, लयात्मकता की दृष्टि से कविता अत्युत्तम है। कवयित्री में नए आयाम स्पर्श करने की क्षमता है।

    एक अच्छी पोस्ट के लिए आपका आभार...और शिखा जी को मुबारकबाद...

    जवाब देंहटाएं
  18. मनोज सर जी ने बहुत ही बढिया समीक्षा की है.

    जवाब देंहटाएं
  19. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  20. कविता के विषय में तो उनकी पोस्ट पर पहले ही कहा जा चुका है.. यहाँ समीक्षा की चर्चा यदि की जाए, तो कह सकते हैं उत्तम समीक्षा!!

    जवाब देंहटाएं
  21. '' आंच-४८ (समीक्षा) पर इक नज़र जिंदगी '' - ऐसा आप लिखकर ''समीक्षा'' कार्य में उतरे हैं इसलिए आपको कहने के लिए क्षमा चाहता हूँ , तथापि , समीक्षा-कार्य 'गुण-दोष-कथन' है , सिर्फ गुण-कथन नहीं !

    निश्चय ही , मुझे शिखा जी का गद्य - लेखन रुचता है , विशेषतः स्मृति की स्याही से चलने वाली उनकी कलम से रचता हुआ !

    एक बात ब्लॉग-जगत के लिए जरूर कहूंगा कि यहाँ लोग 'आल-राउंडर' होने को क्यों इतना बड़ा मूल्य समझते हैं ? किसी को ईश्वर ने कमाल का गला दिया है - जिससे जाने कितने उपयोगी कार्य हो सकते हैं - तो वह कसम खा बैठा है कि वह लेखन की हर विधा में कलम तोड़ के ही दम लेगा , भले कलम बाप-बाप चिल्लाने लगे ! किसी को सहज गद्य लिखना आता है वह कविता में शौकियाते हुए कृष्ण द्वैपायन की होड़ में महा-व्यास बनने लगेगा ! कोई 'विकीपीडिया' से अनुवाद छाप-छाप कर 'सेल्फ क्लेम्ड' फर्जी 'डॉक्टर' ( ज्ञाता अर्थ में ) बना हुआ है , बिना स्रोत को बताये हुए . और सबसे बड़ी बिडम्बना है कि अब कोई 'पाठक' नहीं रहा , सब 'लेखक' हो गए हैं , और इसके लिए 'कौन बनेगा करोड़पति' के अंदाज में जूझे हुए हैं ! { बात मैंने किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके नहीं कही है , प्रवृत्ति पर कही है , इसलिए कोई व्यक्ति-विशेष मुझपर न उखड़े }

    जवाब देंहटाएं
  22. बेहतरीन समीक्षा। आपका एवं शिखा जी का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  23. @ अमरेन्द्र जी,
    आप, जहां तक मुझे मालूम है, साहित्य के विद्यार्थी हैं। तो आपका तो फ़र्ज़ यह होना चाहिए कि आप अन्य लोगों को इससे जोड़े न कि इससे बिदका दें।

    माफ़ करे हम थोड़ा अलग ढंग से देखते हैं, किसी समीक्षा को।
    ज़रूरी यह भी नहीं कि दोष ढूंढ कर निकाल ही दें।
    मतलब सचिन की पारी शतकीय तो थी पर शॉट तो उन्होंने ग़लत खेला इसलिए आउट हो गए।
    राम तो बड़े अच्छे थे, पर सीता को जंगल तो भेज ही दिया।

    जवाब देंहटाएं
  24. @ आदरणीय मनोज जी ,
    कदापि किसी को विद्काने की इच्छा नहीं है , अपितु कोई भी लेखक ( जिसमें लेखन की जिजीविषा होगी ) मेरी बात को बुरा नहीं मानेगा , किसी का बुरा सोचना मेरा मकसद नहीं है , अपनी तरफ से मैं भी आपके ही जैसा सबके लिए मंगलकामी हूँ , हाँ , मेरे 'मंगल' शब्द के अर्थ को आप दरकिनार कर दें , यह अलग की बात है .

    समीक्षा को लेकर आपकी अपनी और अलग सी गुणानुवादी दृष्टि है , इससे मैं अपरिचित था . समीक्षा को लेकर जो अर्थ मुझे पता था , उसी के अनुसार मैंने आपके समक्ष बात रखी जिस अर्थ के तहत कालिदास-तुलसी-कबीर जैसे महान कवियों तक में दोष समीक्षकों ने दिखाया . समीक्षक के उसी धर्म को रेखांकित करते हुए मैंने अपनी बात कही थी . आप अलग किस्म के समीक्षक हैं , इसका आगे से ध्यान रखूंगा ! आभार !

    जवाब देंहटाएं
  25. @ अमरेन्द्र जी,
    जब आपका पहला विचार आया था, तो मैं थोड़ा विचलित हुआ था। विचलित इसलिए कि समझ ही नहीं आया कि वो बातें मेरे लिए थीं, या शिखा जी के लिए, या हम जैसे सभी ब्लोगर्स के लिए। स्वभाव ऐसा है कि सब दोष खुद में ही दिखने लगता है इसलिए लगा कि मेरे लिए ही है। और स्वभाव ऐसा भी है कि हम दूसरों की ग़लतियां ढूंढ भी नहीं पाते।
    मुझे मालूम है कि आप मंगल ही चाहते होंगे, तभी ऐसा लिखा है। ... और सच मानिए मैंने बिल्कुल ही बुरा नहीं माना। बल्कि एक पोस्ट पर मैंने लिखा भी है कि आपके विचार हमारे लिए टॉनिक का काम करता है।
    वैसे भी इस काविता की रचनाकार को मैंने कहा भी था कि यह हमारी अंतिम ही समीक्षा होगी। बहुत कर लिया मज़ाक़, जो हमारा फ़िल्ड नहीं है, उसमें घुसे पड़े हैं।
    सच ही है कि हम विज्ञान के लोग जबरन घुसे पड़े हैं, साहित्य के क्षेत्र में। साहित्य के क्षेत्र वालों के अपने गुण-दोष हैं, उसे हम ब्लोग तक क्यों खींच लाएं।
    और न मैं कोई शुक्ल या नामवर हूं और न यहां किसी अज्ञेय या निराला की समालोचना की जा रही है।

    जवाब देंहटाएं
  26. @ और न मैं कोई शुक्ल या नामवर हूं और न यहां किसी अज्ञेय या निराला की समालोचना की जा रही है।.................
    ---- बेशक हम भले शुक्ल या नामवर नहीं हैं और यहाँ अज्ञेय या निराला की समालोचना नहीं हुई , पर हमारी प्रवृत्ति किस ओर हो ? - सवाल इसी का है . हम शुक्ल या नामवर - जिन्हें अगर हम श्रेष्ठ मानते हैं - से सीखने की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं और अज्ञेय या निराला संबंधी वैकल्पिक खोज की विकलता को स्वयं में स्थान दे सकते हैं . आप विज्ञान वाले हैं , तब तो आपके समीक्षा-कर्म में और वैज्ञानिकता की अपेक्षा सहज ही की जायेगी ! आप अकारण ही बुरा मानने से बचे रहे , इसे जानकार खुशी हुई ! आभार !

    जवाब देंहटाएं
  27. बहुत अच्छी समीक्षा की आप ने , धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  28. @ हमारी प्रवृत्ति किस ओर हो ? - सवाल इसी का है
    नामवर जी की ही कुछ पंक्तियां रखता हूं,
    "वेदान्त के इस देश में गम्भीरता के कीटाणु कम नहीं हैं, उस पर इन नए दार्शनिकों की गम्भीरता! कविता की खैर नहीं है! कौन जाने आज जिस कविता को महत्व-बोध के क्षय अथवा गम्भीरता के अभाव के कारण ‘काव्याभास’ कहा जा रहा है, वह सचमुच आज की कविता हो! यदि यह सच न भी हो तो कम-से-कम इसे समीपी विश्लेषण का अवसर मिलना ही चाहिए! जो ..... वे किसी कविता को अकविता साबित करने के लिए भी एक सिद्धान्त गढने से बाज न आएंगे - इसका क्या भरोसा? ठोस उदाहरणों को न देख यह शंका स्वाभावतः उठती है।"
    कोई ठोस उदाहरण देकर इस कविता के दोष से अवगत कराकर कृतार्थ करें। सीखने को उत्सुक हूं।

    जवाब देंहटाएं
  29. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  30. मनोज जी ,
    आउंगा , आपकी इस बात पर भी , अभी तो परिकल्पना पर रवीन्द्र जी की पोस्ट देखा , वहाँ मुझे अपनी भूमिका मुझे तय करनी है , उसके बाद आ सकूंगा . सादर ..

    जवाब देंहटाएं
  31. वाह . इतनी सुन्दर कविता की समीक्षा के साथ साथ मूर्धन्य विद्वानों की राय से भी परिचय हो रहा है . अमरेन्द्र जी तो साहित्य के जानकार है और उनकी कसौटी होगी आचार्य रामचंद्र शुक्ल , महावीर प्रसाद दिवेदी और नामवर सिंह के स्टाइल में . यहाँ पर मनोज जी द्वारा की गयी समीक्षा अच्छी लगी , अमरेन्द्र जी द्वारा की गयी समीक्षा भी पढने को मिलेगी तो अहो भाग्य होगा हमारे जैसे मूढ़ मतियों का .. एक दो जगह ,अमरेन्द्र जी को मैंने कविता पर सलाह देते देखा भी है ख़ुशी हुई की एक समीक्षक इस ब्लॉग जगत को मिलने वाला है .

    जवाब देंहटाएं
  32. यहाँ आई एक टिप्पणी को पढ़ कर लग रहा है कि इस टिप्पणी का कोई विशेष प्रयोजन है ..

    अमरेन्द्र जी ,

    आप हिंदी साहित्य के ज्ञानी हैं , यह बात किसी से छिपी नहीं है .... लेकिन आपकी यह बात कुछ उचित सी प्रतीत नहीं हो रही

    "निश्चय ही , मुझे शिखा जी का गद्य - लेखन रुचता है , विशेषतः स्मृति की स्याही से चलने वाली उनकी कलम से रचता हुआ !

    एक बात ब्लॉग-जगत के लिए जरूर कहूंगा कि यहाँ लोग 'आल-राउंडर' होने को क्यों इतना बड़ा मूल्य समझते हैं ? किसी को ईश्वर ने कमाल का गला दिया है - जिससे जाने कितने उपयोगी कार्य हो सकते हैं - तो वह कसम खा बैठा है कि वह लेखन की हर विधा में कलम तोड़ के ही दम लेगा , भले कलम बाप-बाप चिल्लाने लगे ! किसी को सहज गद्य लिखना आता है वह कविता में शौकियाते हुए कृष्ण द्वैपायन की होड़ में महा-व्यास बनने लगेगा !"

    शिखा को गद्य लेखन में या कहूँ कि संस्मरण लिखने में महारत हासिल है तो गलत नहीं है ..लेकिन उसकी लिखी कविताएँ भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं ...
    हर रचनाकार जो महसूस करता है वो अपनी पसंद कि विधा में लिखता है पर यह कहना कि आल राउंडर बनने को बड़ा मूल्य समझते हैं यह आपकी ही सोच है ...महान साहित्यकारों का नाम यहाँ लूंगी तो बात बढ़ जायेगी ...फिर भी जिन लोगों ने गद्य लिखा है क्या उन्होंने पद्य में रचनाएँ नहीं लिखीं हैं ?
    यह प्रश्न है आपकी ऊपर कही हुई बात के लिए ...

    अब रही समीक्षा की बात ...कोई सीधे शब्दों में लिख देता है कि भाषा सामन्य है ...शब्दों का चुनाव आम है ....तो आपको लगता कि दोष निकाला गया ...यही बात अच्छे शब्दों के साथ दोष न निकालते हुए कही गयी तो आपको केवल तारीफ़ ही नज़र आ रही है ...खैर समीक्षा के बारे में मैं ज्यादा नहीं जानती ..इस लिए कुछ कहना मेरे लिए उचित नहीं है ...यदि कोई समीक्षा आप प्रस्तुत करें तो हमें भी सीखने को बहुत कुछ मिलेगा ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  33. अमरेन्द्र-मनोज संवाद रोचक है।

    जवाब देंहटाएं
  34. @ मनोज जी ,
    नामवर जी की बात के मूल में किसी साहित्यिक आन्दोलन के प्रति प्रतिमानों के अनावश्यक शुद्धतावाद को लेकर है ... यहाँ जहां तक आपके सन्दर्भ को देख रहा हूँ .. ( वैसे अकादमिक की रीति है की हमें वह सन्दर्भ देना चाहिए , जहां से हम बात उठा रहे हैं ..पर चलिए ...) .... यह एक बात है पर इसका अर्थ यह नहीं कि चलता है तो सबकुछ चलता है . और समीक्षा का कार्य तो आपने सम्हाला है , पूर्णाहुति हमसे क्यों कराना चाहते हैं :) . हम इतने विद्वान् नहीं , बस आपसे संवाद हो रहा है यही बहुत :)

    @ संगीता जी ,
    मुझकों क्यों आप अनिवार्य रूप से विरोधी जैसा समझ रही हैं ..
    मैंने जो भी कहा है इस चेष्टा के साथ कि कोई भी लेखक अपने स्वाभाविक - पथ को मजबूत करे तो हम सबके लिए कुछ कालजयी और उपयोगी मिल सकता है , बाकी मैं बस बात ही कह रहा हूँ , किसी की लेखनी नहीं छीन रहा , जितना स्पेस मुझे अपनी बात कहने का है , उतना ही स्पेस किसी को कुछ भी लिख मारने का भी है . जहां तक आपने बड़े साहित्यकारों की बहु विधात्मक लेखन की बात कही , कुछ को छोड़ दीजिये , बाकी लोगों की 'स्पेसल' विधा थी . उनकी पहचान उस विधा से हुई . प्रेमचंद कथाकार हुए - शुक्ल जी आलोचक - नीरज कवि !

    आपको शिखा जी की कवितायें पसंद आती हैं तो इसमें कुछ बुरा नहीं - ठीक वैसे ही जैसे मुझे उनका संस्मरणात्मक लेखन - ठीक वैसे ही जैसे किसी को महादेवी का गद्य अच्छा लगता है और किसी को पद्य ! पर समीक्षा-कर्म में हमारे औजार हमारी आत्मनिष्ठ रुचियों से आगे बढ़ वस्तुनिष्ठता की मांग करते हैं , बस मैंने यही बात कहनी चाही है ........ और यही बात समझी नहीं जा रही है बाकी कीबोर्ड तो खटखटा रहा ही है :) हे राम !

    रात बहुत जागते हुए बीत गयी , टाइपिंग की त्रुटी के लिए आप सब क्षमा कीजिएगा ! सादर ......

    जवाब देंहटाएं
  35. @ पूर्णाहुति हमसे क्यों कराना चाहते हैं :) . हम इतने विद्वान् नहीं , बस आपसे संवाद हो रहा है यही बहुत :)
    किस किस की बोलें बतियाएँ, सब अच्छे हैं,
    आगे पीछे, दाएँ बाएँ सब अच्छे हैं।
    सबको खुश रखने की धुन में सबके हो लें,
    मिल बैठें सब, पियें पिलायें सब अच्छे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  36. Bhaii mai to bs sabko padh raha hun....apni tpanni baad me dungaa abhi to waapas lautana hai..mujhe Sorry samay bhi kaise rokta hai ab pata chal raha hai ..

    जवाब देंहटाएं
  37. मनोज जी,

    आपकी और अमरेन्द्र जी के संवाद में शिखा के लेखन का अच्छा समाकलन हुआ और उसके लेखन की कुछ बारीकियों को जो हम देख नहीं पाते हैं वे खुद बा खुद सामने आ गयी. इसके लिए सबकी अपनी अपनी नजर है उसके लिए किसी को रोका नहीं जा सकता है.

    जवाब देंहटाएं
  38. bahut sundar aur saarthak vishleshan. rachna aur rachnakaar ke sabhi pahloo ko ujaagar karti sameeksha, jismein sameekshak kee apni pratibhaa bhi paribhaashit ho rahi. badhai shikha ji aur manoj ji.

    जवाब देंहटाएं
  39. शिखा जी की रचना और समीक्षा ... दोनों ही बहुत अच्छी लगीं ..

    जवाब देंहटाएं
  40. जितनी अच्छी लाईनें उतनी ही अच्छी समीक्षा । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"

    जवाब देंहटाएं
  41. मनोज जी आपकी सर्वतोभद्र दृष्टि ने मन मोह लिया अरे हम भी विज्ञान वाले ही है !

    जवाब देंहटाएं
  42. अमरेंद्र अभी आपके ब्लॉग की पोस्ट को पूरा नही पढ़ा है सोचा सीढ़ी दर सीढ़ी चलूँ और पहली सीढ़ी ये पोस्ट थी।

    मनोज जी ने जो लिखा, वो उनका अपना विचार था। शिखा जी का लिखा उन्हे अच्छा लगता है, उन्होने लिख दिया।

    इसमे आपका मतैक्य नही था, तो या तो शांत रह जाना था या फिर मनोज जी को एक मेल कर देना था।

    मुझे ऐसा लग रहा है कि आप बात सिर्फ शिखा जी की नही, समीक्षा विधा की कर रहे हैं, जिसमे गुण दोष दोनो सामने आने चाहिये। मगर अगर हम जो कह रहे हैं, वो लोगो को समझा नही पा रहे हैं, तो कलम को को अपनाना व्यर्थ हो जाता है।

    आप सच बोलने के चक्कर में मीठा बोलना भूल जाते हैं। बातों को इतनी सपाट तरीके से कह देना अगर लेखनी वालो ने भी शुरू कर दिया तो सड़क चलते फिकरे कसने वालों और सरस्वती पूजकों में क्या अंतर रह जायेगा।

    "समीक्षा विधा में सिर्फ प्रशंसा ही नही अवगुणों का भी उल्लेख होना चाहिये" ये बात अगर शिखा जी के लिये लिखी गई पोस्ट पर लिखी गई है तो ऐसा ही समझ में आता है कि उन्ही को लक्ष्य माना गया है। यूँ शिखा जी को बहुत ज्यादा नही पढ़ा... उनके पक्ष या विपक्ष में बोलना मेरा उद्देश्य नही था।

    उद्देश्य ये था कि चूँकि आप सच बोलने का अखाड़ा खोले हुए हैं, तो हाथ हम भी साफ कर लें। :) :)

    मेरी बातों को कम से कम आप तो अन्यथा नही ही लेंगे, इस विश्वास और अधिकार के साथ

    जवाब देंहटाएं
  43. @ कंचन जी , आपका विश्वास और अधिकार के साथ खरा खरा बोलना अच्छा लगा !

    शिखा जी को बुरा लगा हो तो क्षमाप्रार्थी अवश्य हूँ !

    पर एक विश्वास शायद यह था कहने में कि शिखा जी या मनोज जी के ब्लॉग पर पहली बार नहीं आया था , बहुत बार पहले भी आया था इसलिए एक सहज सी उम्मीद थी - जो कि नहीं करनी चाहिए - कि 'इतना तो चलेगा ही' !

    सौ में सीधी एक बात आपने कही कि ' मगर अगर हम जो कह रहे हैं, वो लोगो को समझा नही पा रहे हैं, तो कलम को को अपनाना व्यर्थ हो जाता है। ' - पूर्णतया सहमत हूँ ! दूसरी बात यह समझ में आयी कि अपनी इच्छा से सकारात्मक वाक्य तो लिख देना चाहिए पर नकारात्मक वाक्य सामने वाला मांगे या ग्राह्यता हो उसमें तभी लिखना चाहिए !

    अंततः आपके प्रत्येक वाक्य से सहमत ! आभार !

    जवाब देंहटाएं
  44. आप महारथियों के बीच लिखने का साहस कर रही हूँ , कुछ अनुचित कह जाऊँ तो क्षमा प्रार्थी हूँ । नये ब्लोगर्स लिखने की कोशिश करते है , कभी अच्छा लिखते है और कभी बहुत अच्छा नही भी होता । ब्लाग जगत की गुणवत्ता बनाने के लिये आप लोगो (महान ब्लोगर्स , जिन्हे हिन्दी साहित्य का गहरा ज्ञान हो ) को यह दायित्व लेना चाहिये कि जहाँ पर लेखक का विधा ज्ञान कम जान पडे , टिप्पणी के माध्यम से सुधार भी बताना चाहिये ।
    हाँ यहाँ मै एक ब्लोगर का नाम लेना चाहूँगी "अमरेन्द्र त्रिपाठी" जिन्होने मुझे एक दो बार सुधार बताये
    अनुरोध करती हूँ कि यदि हमे कोई किसी सुधार का सुझाव देता है तो उसे विस्तृत हदय से लेना चाहिये ।
    क्योकि किसी भी विधा के साथ कुछ अनुचित करना शायद हिन्दी विधा का भी अपमान होगा ।
    और यह ब्लागिग का उद्देश्य कभी भी नही हो सकता

    जवाब देंहटाएं
  45. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।