फ़ुरसत में ….
मोहि कपट छल छिद्र न भावा....
करण समस्तीपुरी
‘'ज़िंदगी की राहों में रंज-ओ-ग़म के मेले हैं.... !" लेकिन इतने रंज-ओ-ग़म के बावजूद जिन्दगी ही एक ऐसी बला है, जिससे कोई उबता नहीं। यहाँ तक कि मेरे जैसा उबाऊ आदमी भी नहीं। अब परेशानी का आलम देखिये कि सोते ही आँखें बंद हो जाती हैं। खाते वक़्त नीचे का जबरा तो ठीक रहता है मगर ऊपर वाला जबरिया हिलने लगता है। चलता हूँ तो बिन कहे पैर आगे-पीछे होने लगते हैं। गाड़ी/बस पकड़ने के लिए अगर स-समय स्टॉप पर आऊं तो गाड़ी लेट। और अगर बंदा लेट तो गाड़ी स-समय। निजी गाड़ी रखूं तो तनख्वाह साल में एक बार बढ़ती है और पेट्रोल की कीमत छः बार। जब मंहगाई 112 प्रतिशत बढ़ जाती है तो मंहगाई भत्ता 12 प्रतिशत। अजब बेवशी है भाई।
मुझे तो लगता है कि चौरासी लाख योनियों में सबसे ज्यादा लाचार प्रजाति का नाम ही इंसान है। भूख से मर जाओ कोई ग़म नहीं.... खाना खाओ तो उस पर टैक्स... काहे का टैक्स... तो सर्विस टैक्स। इलाज के बिना मर जाओ तो शायद हमदर्दी या कभी कभी गालियाँ भी... लेकिन जीवन रक्षक दवाओं पर भी टैक्स... वी ए टी..... मूल्य-वर्धित कर। रहने को घर चाहिए.... दो पहले प्रोपर्टी टैक्स। इतना कुछ करने के बाद भी आपके पसीने की कमाई आपके घर आयेगी बाद में पहले टी डी एस..... टैक्स डिडक्टड एट सोर्स। और नहीं कुछ तो रंगदारी टैक्स। और ... ऐसे अनेक लोकोपकारी कार्य आखिर इन्ही टैक्स के पैसों की बदौलत तो होते हैं।
लेकिन हद तो तब हो जाती है जब टैक्स की अंधी लाठी मेरे पड़ोस में रहने वाला दरजी सुखीराम इमानदार के ऊपर पड़ती है। जिन्दगी भर की कमाई में बेचारे पाई-पाई जोड़ कर दो मशीन और एक कोयले वाली मोटी इस्तरी ख़रीद पाए... (बिना टैक्स दिये)। हाँ एक गलती कर दी.... रिटर्न नहीं भरा। वैसे 32-36-38 करने वाले सुखीरामजी फॉर्म 16 क्या जाने...?पहले डाक से नोटिस आया। फिर इनकम टैक्स वाले चस्पा कर गए घर पर -कुल बकाया आय कर - मोबलिक छियानवे हज़ार रूपये। *अदा नहीं करने की सूरत में कुर्की/नीलामी.....! बेचारे सुखीराम पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा। दर्जीगिरी भी चौपट। कचहरी-दफ्तर बाबू, दलाल वकील, हाकिम के चक्कर में नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे भटक रहे हैं।
मुसीबत के वक़्त फ़रिश्ता.... देवदूत ही मदद के लिए आते हैं। 'नारद देखा विकल जयंता..... !' आह... सुखीराम की विकलता देख कर युगों उपरान्त देवर्षि का हृदय एक बार फिर भर आया। प्रकटे। बोले, "कित इत-उत भटकि रह्यो हो दीन... ? दीन-बन्धु को शरण जाव। आपनि व्यथा सुनाय प्रभु को लेयो रिझाय। जौं रीझै गरीबनेबाज... सब कारज बनि जाय। का सोचत हो सुखीराम... ? अरे सबसे बड़े हाकिम के दरबार में हाज़री लगाव।" कह कर हो गए देवर्षि अंतर्ध्यान।
अब बेचारे सुखीराम 'सियाबर राम' की खोज में। देख प्रभु के खेल... जल गए नौ मन तेल.... मगर खुला नहीं दरबार ऊंचे हाकिम का। मुझ से पूछ बैठे, "तुम्ही बताओ करण ! अब मालिक तक पहुंचू कैसे ?"
मैं ठहरा देसिल बयना लिखने वाला। कुछ नहीं मिला तो एक कहावत कह दिया, "राजा, योगी, पेखना ! खाली हाथ न देखना... !!" भैय्या राजा, योगी और पेखना अर्थात मेला खाली हाथ नहीं देखा जाता। उन्हें देखने के लिए हाथ में कुछ (पैसे) हो तभी जाओ। (देखा नहीं एस्पेक्त्रम राजा से टेलिकॉम कंपनीज कैसे मिले... कोई खाली हाथ मिला था क्या... और जो खाली हाथ था वो हाथ ही मलता रह गया....) नारद योगी से तुम खाली हाथ मिल कर देख ही चुके हो। राजा का नाम बता दिया... पता दिया ही नहीं। मेला तो रोज देख ही रहे हो।
सुखीराम बोले, "तो क्या करें जो इस यम का चक्कर छूटे ?"
मैं ने कहा, "अरे कुछ मन्नत-वन्नत मांगो। कलियुग में भगवान बिन चढ़ावा के द्रवित नहीं होते। चौखट पर जाओ हाथ उठा के सबा मन लड्डू चढाने का संकल्प करो। देखो प्रभु मिलेंगे। तुम्हारा मंगल अवश्य होगा।"
लेकिन सुखीरामजी प्रभु की व्यवस्था से खासे निराश हो गए थे। बोले, "लेकिन क्या भरोसा है कि सबा मन लड्डू चढाने के संकल्प के बाद प्रभु टैक्सासूर से मेरी रक्षा करेंगे।"
मैं ने कहा, "अरे ! आपने सुना नहीं भगवान का संकल्प.... " मैं ने एक बार कमिटमेंट कर दिया तो मैं खुद की भी नहीं सुनता...... प्राण जाहि पर वचन न जाई...... !" सुखीराम को भरोसा हुआ।
अहले सुबह ही फाटक पर जाकर कबूल आया। आकाशवाणी हुई, "मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर... ! हे भक्तराज... ! तुम अपना वचन पूरा करो। मैं अपना... ! 'निर्बल के बलराम।' मेरे रहते गरीबों पर कोई अत्याचार नहीं कर सकता। मैं दिलाऊंगा तुम्हे टैक्सासूर से मुक्ति।"
सुखीराम जी प्रसन्न हृदय घर आये। महीने भर दिन-रात सिलाई मशीन खरखराते रहे। बाधा मुक्ति की चमक उनके चेहरे पर विद्यमान थी। बटुआ के सारे पैसे गिन कर संतोष की मुस्कान तैर गयी थी, "वाह... अब तो आ जायेंगे सबा मन लड्डू।"
सारी व्यवस्था कर के सुखीरामजी चले बड़े हाकिम के दरबार। अक्षत-फूल-नैवेद्य.... ! आह आज तो प्रथमपूज्य गणेश जी स्वयं आशीष दे रहे हैं। वक्रतुंड से लड्डू उठा-उठा लम्बोदर भरे। सुखीराम ने कार्य सफल जाना। करबद्ध प्रार्थना, "हे बुद्धिनिधान ! मेरे कल्याण की युक्ति बताएं। प्रभु तक हमें पहुंचाएं।"
एकदन्त मुस्काये। बोले, "प्रभु मिलेंगे अन्तःपुर में। प्रभु के मार्ग में रुकावट हैं अनेक। किन्तु तुम घबराओ मत। मैं हूँ विघ्नहर्ता। कुछ लड्डू और दो तो मैं तुम्हारा काम करता। "सिद्धिदाता लड्डू खाता फिर आवाज लगाता, "तुलसीदास ! ले जाओ इसे प्रभु के पास।" फिर हौले से सुखीराम को समझाए, "ये तुलसी है प्रभु का आदमी पक्का... जो कहे वही करना वरना खाते रहोगे धक्का.... !"
गजानन को सर नवाए। तुलसी के पीछे कदम बढाए। अन्तःपुर का प्रथम द्वार। साधु वेश में बैठे एक राजकुमार। तुलसी ने कहा, "इन्हें जानते हो.... ?" सुखीराम ने पूछा, "ये कौनहैं ?" ये वही हैं, जिनका नाम प्रभु भी जपते रहते हैं.... अपने भरत जी... 'जग जप राम, राम जप जेहि'। तो चलो 'प्रनवऊँ प्रथम भरत के चरणा....!' पहले भरतजी के चरण में तो प्रणाम करो। तब तो प्रभु प्रणाम स्वीकार करेंगे....!'
श्रद्धालु सुखीराम 'धूप-दीप-गंध-पुष्प-'नैवेद्यादी' के साथ भरतजी के चरणों में प्रणाम कर के आगे बढे। अन्तःपुर का दूसरा द्वार। एक सूर वीर सजग-सचेष्ट तीर-कमान संभाले खड़े हैं। सुखीराम कुछ घबराए। तुलसी बाबा ने बताया, "अरे घबराओ मत ! 'बंदऊँ लछिमन पद जलजाता ! शीतल सुभग भगत सुख दाता।' इनकी पूजा के बिना आगे नहीं बढ़ सकते।"वहाँ भी पूजा हुई। लड्डुओं का बोझ कुछ हल्का हुआ। फिर तुलसीजी के साथ सुखीराम बढे आगे।
अन्तःपुर का तीसरा द्वार। एक शूर-सुशील युवक कार्यकर्ता। सुखीराम तुलसी बाबा की ओर देखे। बाबा ने झट से कहा, "ये सबसे छोटे भाई हैं। 'रिपुसूदन पद कमल नमामी ! सूरसुसील भरत अनुगामी !!' ये भरत के अनुगामी हैं। जैसे भरत जी की पूजा की थी वैसी ही इनकी भी करो। " चलो लड्डू का भार कुछ और हल्का हो गया। फिर दोनों आगे बढे।
अन्तःपुर का अंतिमद्वार। पवनसुत का पहरा। 'राम दुआरे तुम रखवारे ! होत न आज्ञा 'बिनु पैसा' रे !' भीमरूप को देखते ही सुखीराम प्रसन्न हो गए कि अब तो प्रभु का द्वार आ गया। लेकिन बिना द्वारपूजा के कैसे आगे बढ़ेंगे ? तुलसी बाबा ने बुझाया, "महावीर विनवौं हनुमाना ! राम जासु जस आप बखाना !' तुमने सुना नहीं प्रभु इनके बारे में क्या कहतेहैं... ? 'तुम मम प्रिय भरत सम भाई ! तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा ! राम मिलाय राजपद दीन्हा !! तुम्हरो मंत्र विभीषण माना ! लंकेश्वर भये सब जग जाना !!' इन्होने ही सुग्रीव को प्रभु से मिलवा कर राजा बनवाया था। विभीषण ने इनकी बात मानी तो उसे लंका का राजा बनवा दिया। और रावण ने नहीं माना तो सोने की लंका को उलट-पुलट कर जला दिया.... ! इन्हें मनाओ तभी अन्तःपुर में प्रवेश मिलेगा।"
सुखीरामजी ने विधिपूर्वक द्वारसेवक हनुमान की पूजा की। सच में अन्तःपुर का द्वार खुल गया। नख-शिख आभूषण से सजी एक अति-सौम्य सुकुमारी कर्मचारियों को निर्देश दे रही है। सुखीराम ने फिर तुलसी बाबा का मुख देखा। बाबा बोले, "अरे दोनों पैर पकड़ लो। 'जनकसुता जग जननि जानकी ! अतिसय प्रिय करुनानिधान की !! ताके 'युग पद' कमल मनावऊँ ! जासु कृपा निर्मल मति पावऊँ !!' ध्यान रहे अभी तक तो सब का एक ही पैर पूज रहे थे। इनके दोनों पैर पूजो ! ये करुनानिधान की 'पीए' सॉरी प्रिय हैं अतिशय प्रिय। इनकी कृपा से तुम्हारी मति निर्मल हो जायेगी। तभी तुम्हे प्रभु के दर्शन होंगे। क्यूंकि प्रभु ने घोषणा कर रखी है, 'निर्मल मन जन सोई मोहि पावा... !''
सुखीराम जी धराक से उनके चरणों में गिर पड़े। दोनों चरणों की विधिवत पूजा की। आशीष लिया। आगे बढे। हाह... अब लड्डुओं का बोझ काफी हल्का हो चुका था और सफलता को नजदीक जान सुखीराम का मन प्रसन्न। आह... क्या दृश्य था.... 'तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिये तुला एक अंग....' रत्नजड़ित सिंघासन पर साक्षात कमलापति कमलानन विराजमान हैं।
सुखी राम ने आब देखा न ताब... साष्टांग दंडवत ! शास्त्र सम्मत पूजा की। अब बारी है नैवेद्य की। सबा मन लड्डू में से एक मन तो चढ़ चुके थे... बांकी श्रद्धा के साथ प्रभु के चरणों मे समर्पित। प्रसन्न मुख सुखीराम की दृष्टि प्रभुपद से श्रीमुख पर गयी। किन्तु यह क्या... कमल-नयन में करुना की जगह रोष.... "धोखेबाज ! सबा मन लड्डू कबूल के दो पसेरी (दसकिलो) लाया है.... !"
सुखीराम गिरगिराए। अन्तःपुर आगमन की कथा सुनाये। व्यथा-कथा समुझाए। प्रभु को उन्ही के वचन याद दिलाये, "आये शरण ताजा नहि कोऊ... !' आप तो शरणागत वत्सल हैं। शरण आये को नहीं त्यागने का वचन दिया है.... ?"
सर्व-शक्तिमान क्रोध से लाल हो गए, "बेवक़ूफ़ ! हमें नीति सिखाने चला है। तुम्हे सिर्फ एक वचन याद है। तुम्हे यह याद नहीं कि आगे मैं ने क्या कहा है.... 'निर्मल मन जन सोई मोहि पावा ! मोहि कपट-छल-छिद्र न भावा !!' कपटी, झूठे, मक्कार.... तुम मुझ से ही छल-कपट करने लगे। सबा मन लड्डू का एग्रीमेंट किया और ले के आये हो दस किलो... ! दूर हो जाओ मेरी नज़रों से.... वरना पता है न...'राखि को सकहि राम कर द्रोही.... !'
बेचारा सुखीराम धन-धर्म सब लुटा कर बुद्धू की तरह लौट कर घर को आ गये। अंतर में भगवान के बचन गूंज रहे थे, "मोहि कपट-छल-छिद्र न भावा !' कपटी, झूठे, मक्कार.... तुम मुझ से ही छल-कपट करने लगे......" और दिमाग यह निष्कर्ष निकालने पर लगा हुआ था कि 'छल-कपट' किसके साथ हुआ.... !
आपकी पोस्ट की चर्चा (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.uchcharan.com/
अरे वाह! ये तो वही बात हो गई कि भगवान के दरार में एक बेचारा गुहार लगाने लगा कि मुझे १०० रुपये चाहिए न एक पैसा कम न ज्यादा.. कम ज़्यादा होने पर मैं नहीं रखूंगा... पुजारी ने थैली में लपेट कर धीरे से ९० रुपये गिरा दी उसके सामने. वो बेचारा पैसे गिनकर बोला," वाह रे भगवान!थैली के दस रुपये पहले ही कम दिए!!" और चलता बना!!
जवाब देंहटाएंकारन बाबू मज़ा आ गया.. इस्पीड धराए नहीं धराता है!
रोचक पोस्ट!
जवाब देंहटाएंदोष सुखीराम के पेरेण्ट्स का है। एक धरती पर लाने का। दूसरे नाम सुखीराम रखने का! :)
जवाब देंहटाएंक्या कहना है-आपका जबाब नही है। सुना है लिखते समय आप कलम तोड देते हो-क्या यह सही है।
जवाब देंहटाएंrochak aur accha vyng..........
जवाब देंहटाएंAabhar
bahut hi badhiyaa
जवाब देंहटाएंबहूत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना को विस्तार से परिभाषित किया है।
जवाब देंहटाएंबधाई
देसिल बयना बहुत रोचक पोस्ट लगती है। यह भी उनमें से एक है। आभार,
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक ...अच्छा व्यंग ... बेचारा सुखीराम
जवाब देंहटाएंआलेक में सूक्तियों का प्रयोग बहुत बढ़िया रहा!
जवाब देंहटाएंbahoot hi sunder prastuti ...........
जवाब देंहटाएंगज़ब की प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंbahut achi post...behad sundar....badhai ho
जवाब देंहटाएंbahut achi post...behad sundar....badhai ho
जवाब देंहटाएंsabhi paathkon ke prati main apni vinamra kritagyata nivedit karta hoon. Ummeed hai aapka sneh isi prakar bana rahega. Dhanyawaad !!
जवाब देंहटाएंapki post achi lagi mujhe...
जवाब देंहटाएंmere blog par bhi sawagat hai..
Lyrics Mantra
thankyou
बिलकुल नए अंदाज़ में प्रस्तुत किया आपने।
जवाब देंहटाएंआभार।
... rochak lekhan !!!
जवाब देंहटाएंदरअसल यही वह व्यवस्था है जहाँ से भ्रष्टाचार को बल मिलता है .सच्चाई बयां करने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंिस कटाक्ष के माध्यम से व्यवस्था पर करारी चोट की है। हंसते हुये लोट पोट हो गये हम तो। और कितने दोहे पडः लिये। हम भी चलते हैं अब कोई जुगाड फिट करने दीया बाती का समय हो रहा है।। बधाई शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंज़िंदगी की राहों में रंज-ओ-ग़म के मेले हैं....
जवाब देंहटाएंसे लेकर "मोहि कपट-छल-छिद्र न भावा !'
तक..........
करण प्रणाम.
बहुत खूब :) कुछ भी नहीं छोड़ा..
जवाब देंहटाएंविवशता पर सशक्त व्यंग।
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