-- करण समस्तीपुरी
रेवाखंड, चैती, समतपुर और झिल्लिबाद में सबा सौ बीघा की जमींदारी। गाँव में सबसे ऊंचा 22 कोठरी वाला ड्योढी। दो जोड़ा हल, सिम्पनी गाड़ी, अरबी घोड़ा। दर्जन भर हलवाह, डलवाह, खवास, कामत, मुंशी, महाजन, नौकर चाकर। ऊपर से गोबिन दास दीवानजी.... ! तब ढोलन बाबू का एक हल आसमान में भी चलता था.... !
उतरवारी दुआर पर बना छोटका ठाकुरवारी में बारहों मास चमचु पुरहित हवन झोंके रहते थे। ढोलन बाबू का अखंड विश्वास था कि चमचु पुरहित के मंतर में देवी शक्ति है। वरना कलयुग में इतना बड़ा राज-पाट संभालना कौन आदमी के अख्तियार में है। पुरहित भी पारंगत। नहीं कौनो वेद तो नैवेद। मंदिर के दिया का घी पुरहित के कराही में बहता था। गोबिन दास को यही बात बहुत अखरता था। इसीलिये दोनों में छत्तीस का आंकड़ा रहने लगा। दासजी पुरहित को पोंगा पंडित कहते थे और पंडीजी गोबिन दास को नास्तिक डपोरशंख।
ढोलन बाबू का मुश्किल ई कि दुन्नु में से किसी को छोड़ नहीं सकते थे। गोबिन दास वफादार तो पंडीजी कुलपूज्य। सच्छात ब्रह्म। उन्होंने कई बार गोबिन दास को समझाया, "हाउ दीवानजी ! राम कहो-राम कहो ! पूजा-पाठ करम-काण्ड का महिमा का अपमान नहीं करो। इहाँ तुम्हारा खाता-खतियान सब कच्चा है। ऊपर मालिक के खाते में सब करम-धरम मिनटेन हो रहा है। सियाराम के शरण गहौ। बाभन का आत्मा जुराऊ। चरण पूजौ।"
मालिक की बात थी इसीलिए दीवान जी गुम रह जाते थे नहीं तो तरक तो उनके पास भी एका पर एक था।
एक दिन दीवानजी के आग्रह पर गए ढोलन बाबू गुलबिया पोखर मछली मरवाने। "ऊंह.... रोहू तो एकदम छह-छह करता है.... !" बड़ी हुलस के बोले थे। खर-खवास सब को बंटाया। पसेरी भर ताजा रोहू-कतला दीवानजी के घर में भी गया था। ड्योढ़ी पर भी हुआ माछ भात की जय। खाली पंडीजी बेचारे रह गए दूध केला में ठन-ठन गोपाल। बाबू साहब तो भेज ही रहे थे। मगर दीवानजी बोले, "मालिक... ! अरे पंडी जी तो अभी अनुष्ठान कर रहे हैं। माछ-मछली.... राम-राम.... सीता-राम...!"
ढोलन बाबू बोले, "अरे हाँ ! कोई बात नहीं। पंडी जी के घर घौंद भर केला और डोल भर दूध भिजवा दो।"
सांझ की बैठक में दीवानजी रोहू-कतला गुण कीर्तन करते हुए बड़े अकड़ कर डकार ले रहे थे, "एंह.... ! गुलबिया पोखर के रोहू कि सब को नसीब होता है.... ! सब भगवान की माया.... किसी के भाग में घास-फूस किसी के भाग में रोहू... कोई बेचारा कांटे को भी तरसे.... हें...हें...हें...हें.... !"
केला छिलते हुए पंडीजी जल-भुन कर जवाब दिए थे, "भगवान की माया क्या है वो भी जल्द ही पता चल जाएगा।" असल में पंडीजी तभिये से यक बुद्धि लगाने लगे कि किसी तरह मालिक से ऐसा माल पाया जाए जिस पर दिवानवा भी वैसे ही ललचाये जैसे आज उन्हें ललचा रहा था।"
ब्रह्मन की इच्छा ब्रह्म की इच्छा। हफ्ता भर बाद चमचु झा आये थे बैठकी में। उदास। मुँह लटकाए। ढोलन बाबू पूछे, "का बात है पंडी जी ? आपका मुख मलीन काहे है ?"
पंडीजी कुछ बोलें उस से पहिले गोबिन दास टपक पड़े, "लगता है आज पंडिताइन ने मुस्की और पनबट्टा छीन लिया है... !"
पंडीजी और मसुआ कर बोले, "हाँ ! पंडिताइन का भगवती माय ने ही छीन लिया है..... ! का बोलें ? ऐसा सपना दिहिन हैं कि केहू के सामने बोल भी नहीं सकते। अपने मने-मन घुट रहे हैं। एक हमारी बात होय तो जान भी ले लें माई। विपत तो रेवाखंड पर है।"
गोबिन दास समझ गए चमचु झा कौनो जबर्दश्त पाशा फेंकने वाला है। मगर पंडीजी भी होशियार थे। ई बार दिवानवा को काट का कौनो मौका नहीं देंगे। जमींदार साहब को इशारा किये, "ढोलन बाबू ! जरा एकांत में चलिए। जरूरी बात है। हंसी-मश्खारी मत बुझियेगा.... !"
भीतरी दोनों में का खुसुर-फुसुर हुआ ई तो कोई नहीं बूझा मगर निकले तो पंडी जी लाल भंगियाये आँखों को मीच रहे थे और उदासी ढोलन बाबू के चेहरा पर ट्रान्सफर हो गया था। दीवानजी पूछे भी कि का हुआ मालिक। मगर ढोलन बाबू एक्के बात कहिन, "अबही आप लोग जाइए। माँ भगवती मनाइए। माई का दया होगा तो फिर मिलेंगे।" सब सकपका गया मगर गोबिन दास बूझ गया कि जरूर ई पोंगा पंडित कौनो मंतर मार दिहिस है।
पूरे गाँव में डिगडिगिया पिटवाया गया, "डिग... डिग्गा... डिग....डिगा.... डिग.... कल ढोलन बाबू के ठाकुरवारी में 'दुष्टनिवारण सत्यानासी जग' होगा। सकल समाज आवे और भगवती माई का असीस ले.... डिग... डिग्गा... डिग....डिगा.... डिग.... !" पूरा गाँव जवार रात भर सोया नहीं। दीवानजी भी नहीं सोये इस सोच में कि आखिर ई कौन सा जग है और ई के बारे में ढोलन बाबू उन्हें काहे नहीं बताये... ?"
भोरे से औरत-मरद-लड़का बच्चा सब हांज के हांज चले ड्योढी दिश। दीवानजी भी पहुंचे। पूजा भोरे से शुरू था। बीच में घूरा फुंकाया था। एक तरफ चमचु झा कम्बल पर बैठे 'ॐ इरिंग-भिरिन-तिरिंग-टांग...." कर रहे थे और दूसरे तरफ से ढोलन बाबू करछुल से आग में घी डाले जा रहे थे। एक साइड में पंडीजी का बेटा बिगाडुआ समान पाती जुगता रहा था। हरखुआ हजाम बाहर-भीतर करने में व्यस्त।
दीवानजी आगे बढे। अरे ई तो सत में सत्यानाशी जग है। हवन कुंड के सामने जोड़ा तलवार काहे रखा है ? तभिये नजर पर घुनघुनिया और झखना पर। ओह तोरी के दुन्नु खुला देह डाँर में सिरिफ काला गमछी बांधे मूछ पर ताव दे रहा था... रे तोरी के साच्छात जल्लाद।"
पंडीजी की नजर गोबिन दास पर पड़ गयी थी। फटा फट मंतर पढ़वा कर गर्दन घुमाए और गोबिन दास के तरफ देख कर शंखनाद किये। फिर एकदम अलाप के बोले, "हौ यजमान ! भगवती का भोग मंगवाइये.... !"
ढोलन बाबू बयां हाथ उठा कर इशारा किये। तुरते में हरखू हजाम के पाछे-पाछे ग्यारह जवान माथा पर लाल कपड़ा से ढका डाला लिए हाजिर हो गया। सब उहापोह में कि भाई का भोग लगेगा भगवती को.... ! तभिये एगो डाला से में...एँ...एँ...एँ...... मिमियाने का आवाज़ आया। सकल समाज तो कर जोरे खड़ा था मगर दीवानजी की आँखें चौरी हो गयी, "ओह.... तो ये है चमचु झा का दुष्टनिवारण सत्यानाशी जग.... ससुर सबसे बड़ा दुष्ट। मछली नहीं मिला भगवती के नाम पर ग्यारह खस्सी खायेगा.... ! हम भी देखते हैं...... !"
हवनकुंड के सामने ग्यारहो डाला रखा। आहाहा.... सब डाला में से एगो-एगो मासूम खस्सी बेचारा सब तरफ देख कर मिमिया रहा था। पंडीजी इरिंग-भिरिंग कर के एगो खस्सी को माथा में तिलक लगवाए और बली-वेदी पर ले जाने का आदेश दिए। कि तभिये गोबिन दास चिल्लाये, "ठहरिये.... ! ई मंदिर में जीव हत्या... राम-राम... ! पंडीजी.... आप नरक में जात हैं और संग लिए यजमान....! पूजा के नाम पर खस्सी मारिएगा और धोलानो बाबू को समेट लिए...!"
चमचु झा वक्र दृष्टि कर के ढोलन बाबू से बोले, "आपही समझाइये.... !"
ढोलन बाबू बोले, "दीवानजी साधु-अवज्ञा नहीं करना चाहिए। पंडीजी तो इ सब हमरे जान बचाने के लिए कर रहे हैं। भगवती माई ने सपने में उन्हें आगाह किया, 'एकादशी के दिन मछली खाया है..... ग्यारह अज का बली दो नहीं तो ढोलन सिंघ ग्यारह दिन से ज्यादा नहीं चलेगा.... !"
"हा..हा... हा... हा.... !" गोबिन दास ठाठ कर हँसे फिर बोले, "हाँ ! हम को पता था... मगर भगवती माई खस्सी काहे मांगेगी.... ?"
पंडीजी बीचे में चिग्घार पड़े, "अरे बली... बलीदान... त्याग..... ! इहाँ हम आपके तरह पेटपूजा नहीं कर रहे हैं। आप बीच में भगवती का भोग रोक कर पाप का भागी मत बनिए..... !"
दीवानजी पर पता नहीं कौन भूत सवार हो गया था। बोले, "अरे काहे का पाप ? पाप तो आप कर रहे हैं। अरे आपही न कहते हैं 'या देवी सर्व-भूतेषु..... !' तभी कहाँ कहते हैं 'खस्सी को छोड़ के.... ?' तो जौन देवी को परसाद चढायेगा वही देवी तो सब में हैं खस्सी में भी। अब देवी को देवी के सामने काटेंगे तो ई पाप नहीं हुआ तो का हुआ.... ?" गोबिन दास भीड़ के तरफ मुँह कर के सवाल दाग दिए थे।
कुछ लोग गुम रहा। कुछ लोग बुद्बुद्य। कुछ कहा, "महापाप.... राम रच्छा करें... शिव-शिव... जय भगवती....!"
गोबिन दास कर जोड़ कर बोले, "पंडी जी हम सच कह रहे हैं.... ई महापाप है। बताइये भगवती के नाम पर ई ग्यारह मासूम बच्चा को काट दीजियेगा.... ! महापाप ! और आप ई पाप में अपने तो गए ही ढोलन बाबू को भी घसीट लिए.... ! मतलब आप नरक को जात हैं संग लिए यजमान.... ! कहिये तो ग्यारह जीव की जिन्दगी छीन रहे हैं.... ढोलन बाबू की जिन्दगी का बचाइएगा.... ?"
सकल सभा सकदम। ढोलन बाबू एकाएक आसनी पर से उठ गए। बोले, "सब खस्सी को छोड़ दो.... ! फल-फलहारी का भोग लगाव.... ! सच कहते हैं दीवानजी। जीव हत्या महापाप है। और उ भी भगवती के नाम पर.... ! नहीं... आज से हम कौनो जीव हत्या नहीं करेंगे.... ! पंडी जी हमारी आँखे खुल गयी.... आप भी चेतिए.... ! आज तो हमें दासजी बचा लिहिन... नहीं तो आप तो सचे में वही कर दिए थे.... "आप नरक को जात हैं संग लिए यजमान।"
भीड़ में हा...हा... मच गया। सब के जुबाँ पर एक्कहि बात, "दीवानजी जैसा धर्मात्मा... सच कहे.... आप नरक को जात हैं संग लिए यजमान.... ! ई ई चमचु झा तो आप नरक को जा ही रहे थे और जीव हत्या के पाप में मालिक को भी जोड़ लिए... !"
हाँ भाई ! ई तरह से दीवानजी अपना पाशा भी ऊपर कर लिए और खस्सीयों की जान भी बचा दी। का बात कहिन्ह, "आप नरक को जात हैं संग लिए यजमान!"
"मतलब अपना तो बुरा कर ही रहे हैं साथ में अपने साथियों को भी डुबा रहे हैं।"
आपका देशिल बयना का जवाब नही है। सुवह में ही मन खुश हो जाता है। अउर मन झंडु बाम हो जाता है। रउआ से विनती बा ठंढा के दिन में कुछ गरम-गरम पोस्ट मार की शरीर में कुछ गर्मी आ जाए -भाई करन जी। खुश रह वचवा राम जी तहरा के वनवले रहस।
जवाब देंहटाएंमनोज जी आपकी सुबह सुबह की पोस्ट का अखबार की तरह इंतज़ार रहता है. हर बार कुछ नया सा. बहुत सुंदर दिन भर सोचने के लिए.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग का पता बदल जाने से इसकी फीड नहीं आ रहीं थी इसलिए पुनः अनुसरण कर रहा हूँ!
बहुत सुन्दर कथानक। बधाई करण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति.....भाई करण जी को बधाई ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कथानक। साधुवाद,
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना के माध्यम से आंचलिक जीवन का सजीव चित्रण हुआ है। आभार
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना आज कुछ आसान शब्द लगे और पूरा पढ कर ही साँस लिया। जवाब नही इस कहानी का। बधाई करण जी।
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ. नमस्कार और धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंऔ जी... करण बाबू.... आपका लिखा त एक-एक बात सच है... है ककरो में हिम्मत जो इसको झुठला दे...
जवाब देंहटाएंआई काल्हि नहीं देख रहे हैं राजा बाबू कितने को अपने साथ ले जा रहे हैं... हमको त लगता है की आज का देसिल बयना त अखिल भारतीय भ गया है..
ओह..भगवान् जी दुनियां के सारे मनुष्य को दीवान जी वाला दिल और सोच दीजियेगा....
जवाब देंहटाएंएकदम कलेजा हुलास गया खिस्सा पढके...
जियो..
हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे।
जवाब देंहटाएंआज की कहानी का तेवर बिल्कुल रेणु जी वाला लगा। अनुभूति की सूक्ष्मता और वर्णन की सटीकता से कई दृष्य आंखो के सामने साकार हो गए।
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जवाब देंहटाएंकरण जी ,
बहुत रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किये गए इस लेख के लिए बधाई।
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करन बाबू,
जवाब देंहटाएंपढ़ कर आनंद आ गया !
वही पुराना तेवर ...एकदम बढ़िया !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
करन भाई देसिल बयना पढ़ कर लग रहा है कि बाबा के दालान पर बैठे हैं या फिर किसी चौक पर चाह पर चाह देते हुए खिस्सा बघार रहे हैं... अच्छा लगा पढ़ कर...
जवाब देंहटाएंe kahani to humko suna sunaya laga...pahli b aisan katha sun rakhe the..fir b apka jo andaz hai na karan ji desil bayna k dwara kahawat ka arth samjhana bada he nirala hai..ka kahe jo b likhte a bahute acha likhte hai...dhanyawad..
जवाब देंहटाएं"आप नरक को जात हैं संग लिए यजमान!"
जवाब देंहटाएंकरण जी,
आपकी काफी रचनाएँ मैंने पढ़ी है.सभी एक पर एक. एक और बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद.क्या कुछ नहीं पाया इसमें--पाखण्ड से भरे समाज पर चासनी सा व्यंग्य, ग्रामीण जीवन का सरस चित्रण. स्वार्थ के लिए नीरीह जीवों की हत्या का मुद्दा अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है.
करण जी,
जवाब देंहटाएंआपके देसिल बयना के क्या कहने । हम तो सप्ताह भर इसी का इंतजार करते है । इसे यूं ही जारी रखिएगा । इसी बहाने अपनी मिट्टी की सुगंध तो हमें मिल ही जाती है ।
ई देसिल बयाना में सस्पेन बनाए रखे हैं आप कारन बाबू..जबले बेदी पर खस्सी नहीं आ गया तबले हमको बुझएबे नहीं किया की का जुगत भिडाया गया है...
जवाब देंहटाएंमजा आ गया..ई देसिल बयना के साथ साथ एगो संदेस भी देता हुआ आलेख है!! बेजोड!!
'desil baina'bahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ...मजेदार कहनी के साथ समझाई है कहावत ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कथा.हालाँकि इसमे धार्मिक पाखंड को ग्रामीण परिवेश मे दिखाया गया है पर यह पाखंड बड़े शहरो और आधुनिक लोगों के बीच भी विद्यमान है.आज भी दिल्ली मे टोटके किये जाते हैं और प्रेत बाधा दूर की जाती है. इन सब के मूल मे हमारे धर्मगुरुओं द्वारा प्रचारित पाप और पुण्य के सिद्धंत और यह भ्रम है कि दुष्कर्मो को जारी रखते हुए भी पाप का भागी बनने से बचा जा सकता है इन चीजो को बेनकाब करना साहित्य सेवा भ्व्व है और देश्सेवा भी.
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