बुधवार, 9 मार्च 2011

देसिल बयना - 71 : हाथ कंगन को आरसी क्या….

-- करण समस्तीपुरी

चढ़ते फगुनवा सगुणवा मनावे गोरी...... पिया के आने का सगुण। इधर सरोसती माता को अबीर चढ़ा और उधर फगुआ की तैय्यारी शुरू। 'आईलै फगुआ बहार.... हो पिया काहे न अइला... !’ हमरे टोला में तो सबसे परसिद्ध है बड़की काकी के अंगना की होली। हम लोग तो हफ्ता भर पहिलही से अगोरे रहते हैं। दुन्नु भौजी थी और सभे पाहून लोग भी होरी मनाने आते थे।

उ बार का प्लान भी बड़ी जबरदस्त था। रगेदन भाई कलकत्ता कमाते थे तो चहेटन भाई बनारस। फ़ागुन दोसरा पक्ष चढ़ते चहेटन भाई आ गये थे रेवाखण्ड। एंह.... बक्सा भर के समान लाये थे। साड़ी-झुल्ला रंग अबीर और काशी का ठंढई। हर-हर महादेव।

फ़ागुन चढ़ते ही पुरी प्रकृति ही शृंगार सरोवर हो जाती है। जोरु-जनानी को तो वैसे भी सिंगार-पटार खूब भाता है। चहेटन भाई की लुगाई मतलब कि छोटकी भौजी नंबर एक नौटंकीबाज थी रे बाबा। सगरो समान को कोना में पटक के लगी एगो नये खेल शुरु करे। फ़गुनहट में भी जियरा उदास कर के बैठ गयीं। उधर दोनो परानी अपना गिट-पिट कर रहे थे कि इधर हमको चिढ़ाने का मौका मिल गया। चौबनिया के साथे छेड़ दिये राग बसंती, “जियरा उदास गोरी रूठन लागी, बलमा झुमका ना लाय हो.... जियरा.... !”

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आहि रे तोरी के हमलोग तो वैसे ही भौजी को चिढ़ाने के लिये गा रहे थे। मगर कुछे देर में चहेटन भाई कोठरी से बहराये और काकी को बुला कर कुछ कहे। फिर दुआरिये पर से सगर्व घोषणा कर दिये, “ए लालपुर वाली ! अरे फ़ागुन में फ़ूल जैसा मुंह को बसिया जिलेबी जैसे लटकाओ नहीं। हम अबहि महतारी के साथ जा रहे हैं जुगन सोनार कने। आंख के सामने तोहरे लिये झुमका बनवायेंगे।“

एक दुपहर के गये चहेटन भाई सांझ ढले घर लौटे। मुस्की से होंठ एकदम हवरा के पूल जैसा फ़ैला हुआ था। बेचारे तीने डेग में दरवाजा से दुआरी लांघ दिये। भौजी को अवाज लगाये। फिर उके हाथ में भरगर झुमका रख दिये। अब जो भौजी छ्म-छम-छम-छम करती हुई गयी अपनी कोठरी में। झट से कान में झुमका लटकाई और लगी आइना में पोज दिये। खने दायां कान निहारे तो खने बांया। कबहुं

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झुमका को हिला के देखें तो कबहुं हाथ से पकड़ के। घंटा भर आइना निहारे के बाद भौजी बाहर आके चहेटन भाई से बोली, “एजी जरा एन्ने भी नजर फेरिये... ! कैसा लगता है ई झुमका...? हमरे कान में शोभता है न...?”

चहेटन भाई भौजी को चिढ़ाने की गरज से बोले, “अब हमैं का पुछती हो...? घंटा भर से तो आइने के आगे डोल रही थी। उ कछु ना बताया का... ?”

भौजी बोली, “हां...हां... ! जैसे तोहरे घर का आइना नही है। ई बित्ता भर का आइना... उपर से ललटेन की रोशनी...! एक कान देखो तो दूसरा न दीखे...! पहिले बताओ और फिर एगो आदमकद आइना लाय के रख दो ताकि हम तोहरे दिये हुए झुमके को अपने दोनो कान में देख सकें।“ बाप रे बाप भौजी तो एकदम मोगलिया फ़रमान सुना गयी थी।

बिहान भये रगेदन भाई भी पहुंचे मिथिला एक्सप्रेस से। उ तो भर अंगने में भानुमति का पिटारा खोल दिये। ई उके लिये, ई उके लिये, ई अम्मा के लिये, ई बाबा के लिये, ई दुल्हिन के लिये, ई चौबनिया के लिये, ई बड़का पाहुन के लिये, ई चुरमुनिया के लिये............. मतलब कि सबके लिये कुछ-न-कुछ था।

काकी को सबकुछ दिखाने के बाद रगेदन भैय्या सबको बुला-बुला कर उसका समान हाथ में थमाने लगे। सबको बांटने के बाद आया नंबर भौजी का। रगेदन भैय्या हाथ में जोड़ा साड़ी लिये इंतिजार करते रहे मगर भौजी काहे अपनी कोठरी से बहरायेगी। देखते-देखते काकी आंख-मुंह नचा के बोली, एहको भी लगा परोसिआ रोग... ! जाओ बबुआ गिरिहलछमी को मनाओ...! देखो का फ़रमाईश है।

रगेदन भैय्या दुन्नु हाथ से बड़की भौजी का सारा उपहार समेटे गये उतरवरिया कोठरी में। उधर उन दोनो का वर्तालाप हो रहा था और इधर हमलोग फिर शुरु होय गये, “बलमा हो नादान.... झुमको न लाये फ़गुआ में.... !” अरे बाप रे... बड़की भौजी तो छोटकी का सारा नाटक लगता है यादे कर के बैठी थी। एकदम से हु-ब-हु दोहरा दी। उपर से तनी अपना इमोशनल तड़का भी मार दी, “देखो अपने भाई को... ! साल में दू बार तो आता ही है। केतना नेग देता है। हमरे तो मुंहदिखाई का कंगन भी अभी तक बांकिये है। चहेटन गए साल भी टीका दिया था...! दिवाली में नकलेस और अबकी झुमका दिलवाया है। एक हमरहिं भाग फूटी थी। साल भर पर मरद घर आये उ भी हाथ डुलाते।“

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रगेदन भैय्या तो वैसे शांत-चित्त थे मगर तुलना से उनका भी सोया हुआ पुरुषार्थ जाग गया। बोले, “अरे... अब तुम ई सब सम्भालो और हम आजहि सांझ में तोहरा कंगन दिलवाये देंगे।“ रगेदन भाई अंगना में आकर काकी से कुछ मंत्रना किये फिर वही गप्प। जाके जुगन साह का दलान अगोर दिये। किरिण ढले ललका कागज में लपेट लाये थे जोड़ा कंगन।

आंगन में घुसते ही भौजी को अवाज लगाए। भौजी तो जैसे दिन भर यही घड़ी का इंतिजार कर रही थी। रात के लिये आंटा गूंथ रही थी। भागी-भागी आयी। बिना एक पल गंवाये झटाक से पूछ बैठी, “दिखाओ कैसा है...?” भैय्या भी कनिक रोमांटिक होय गये थे। अरे गुलाबो देखना बाद में। पहिले अपनी नाजुक कलैय्या तो बढ़ाओ... ! भौजी साड़ी के अंचरा से अपनी दोनो कलाई बहरा कर जैसे ही रगेदन भैय्या के सामने करी कि भैय्या चीख पड़े, “धत तेरे की.... अरे ई अंटवा तो साफ़ करो... !” फिर बगैर इंतिजार किये अपने गमछे से भौजी का हाथ पोछ कर खुदहि कंगन पहना दिये।

चलो भाई ई रसम तो पूरा हुआ मगर भौजी को अगला विध भी यादे था। झट से अपनी कोठरी में चली गयी और लगी दोनो हाथ उठा-उठा कर आइना में देखे। कबहु दांया तो कबहुं बांया... कबहु दोनो कलाईयों को टकड़ा कर कंगना बजाते हुए आइना में देखने की कोशिश करती थी।

घंटा भर निहारे के बाद उ भी मुंह बना कर निकली। रगेदन भाई बोले, “अब का हुआ?” भौजी पके हुए आम की तरह अपना मुंह लटकाए बोली, “तोहार घर का आइना है इत्ती से चुकरी भर का। कुछ सूझे ही ना। एक हाथ उठाओ तो दूसरा ना दिखे... ! हमरे लिये आवदार आरसी लाय दो। हम दोनों कंगन को बजाय-बजाय के देखेंगे।

रगेदन भैय्या की हंसी नही रुकी तो भौजी उलाहना देते हुए बोली, “ठिठियाय का रहे हो... देखो देवरजी केतना बड़ा आइना ला दिये हैं, इत्ता छोटा-छोटा झुमका देखने के लिये। एगो आप हैं कंगन तो ले आये इत्ता बड़ा... उ इत्ती चुकरी सा आइना में कैसे दिखेगा... ! हमें आवदार आरसी ला दीजिये नहीं तो फ़ाग में राग विरह गाते रहियेगा।“

भौजी तमक कर उठने लगी तो भैय्या बड़े परेम से उन्हे बैठाते हुए बोले, तुम एकदम सूधो हो... ! अरे भागवान... ! झुमका रहता है कान में और कान आंख के पीछे... तो उको देखने के लिये न आइना की जरूरत है। मगर कंगना तो तेरे हाथों में है और हाथ आंख के सामने होता है। अब तुमहीं बताओ हाथ कंगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फ़ारसी क्या...?

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“कंगन देखना है... ऐसे हाथ उठाओ देख लो... हिला के देख लो... डुला के देख लो... जी चाहे तो बजा के देख लो... !” भैय्या भौजी के हाथों को हिला-हिला कर कह रहे थे। भौजी के चेहरा पर भी संतोष की रेखायें उभरी थी। फिर भैय्या भी अपनी सफ़लता पर खुदहि रीझ के बोले, हाथ में कंगन देखने के लिये आरसी (आइना) नहीं चाहिये। अरे भाई जो प्रत्यक्ष है... आंखो के सामने है, उसके लिये प्रमाण की क्या जरूरत है? हां अगर सरकारी काम हो तो सब कुछ प्रत्यक्ष होते हुए भी सी.बी. आई. का जांच बिठा दे.... तो समझी ना... ?? भौजी भी मुस्कुरा कर बोली थी, हांजी समझ गये। 'हाथ कंगन को आरसी क्या...?' ई तो हम ऐसेही देख लेंगे।" भौजी एकबार दोनो कलाइयों को टकड़ा कर कंगन बजाई और फिर चली गयी अन्दर रसोई-घर में।

24 टिप्‍पणियां:

  1. good local story with local shades.Maza agaya bandhu,aapka hardik abhar/sader,
    dr.bhoopendra singh
    rewa mp

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  2. बिलकुल समयानुकूल प्रसंग में पिरोया है देसिल बयना के कथानक को। प्रस्तुति हमेशा की ही भाँति लाजवाब रही। आभार,

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  3. अच्छी प्रस्तुति। देसिल बयना के इस स्तम्भ के माध्यम से लोक कहावतों का न केवल अभीष्ट प्रयोग पता चलता है बल्कि उसका अर्थ भी पता चलता है। आभार,

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  4. मुझे तो भाषा बहुत ही अच्छी लगी भाई.

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  5. दिलचस्प आलेख...रोचक प्रस्तुति..

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  6. बहुत बढ़िया ....देसिल बयना का आनंद ही कुछ और है ..

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  7. दिलचस्प।
    सम सामयिक कहानी के ताने बाने में इस देसिल बयना का परिचय बहुत ही अच्छा लगा। शैली जबरदस्त है।

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  8. मन हमरा भी फगुआ गया है आपका पोस्ट पढके... बस अंतिम पंक्ति में भौजी जो रोसोई घर की बजाय यदि ''भनसा घर'' जाती तो अच्छा रहता...

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  9. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  10. Bahut badhiya laga. Joint family mein bahuyein aksar ye baatein karti hai..wo aisa hai, wo ye laaya hai..AUR AAP KYA LAAYE HO??

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  11. "भाषा शरबत की तरह,बोली मिश्री-भात !
    बार बार पढ़ते रहो,मन नहीं जात अघात !"

    करन जी,
    आज के देसिल बयना में बहुत मिठास है !
    झुमके और कंगन से निकला हुआ व्यंग्य तो कमाल का है , जितना पैना है उतना ही अच्छा भी !
    सामयिक,रोचक और संतुलित !

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  12. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  13. Dunu bhoji to kamale kar gai ekdum man khus ho gaya sesil bayna padhkar.

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  14. अब ई त देसिल बयना है,इसलिये इसके खिलाफ त कुच्छो कहले नहीं जा सकता है... मगर जानते हैं,जब नारी को सजने का मौका मिलता है त जबले ऊ खुद को आपादमस्तक नहीं निहार ले चैन नहीं मिलता है... चाहे हाथ कंगन हो चाहे पैर पायल... मगर आपका त चौपाल वाला खिस्सा धर के बईठाइये लेता है... कमाल है!! जय हो!!

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  15. aapki kahani ko padhne me bada maja aata hai ,mujhe apne nanihaal me bitaye din yaad aa jaate hai .desil bayna laazwaab hai .

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  16. अरे करन बाबू,
    आप तो भाई आजकल रोज होली मना रहे हो। आज का देसिल बयना भी होली के रंग में मस्त लग रहा है। बहुत सुन्दर।

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  17. आजकल जो सोना-चांदी का हाल है,आईने में देखकर ही संतोष करना पड़ेगा। मगर महिलाएं? उफ्फ! इनके कारण देश का खरबों रूपया डम्प पड़ा है।

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  18. सभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ। आपका स्नेह मुझे हमेशा अभिभूत कर जाता है। यह आपका प्रोत्साहन ही है कि यह स्तंभ 71 सप्ताह से नियमित चलता आ रहा है। भविष्य में भी इसी स्नेह का आकांक्षी हूँ। धन्यवाद !

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  19. आज तक नहियों त एक आध लाख बार इस मुहावरे का प्रयोग कर लिया होगा,पर ध्यान में कभी नहीं आया कि इसमें "आरसी" क्या है...जबकि ऐसा भी नहीं कि आरसी का मतलब नहीं जानते थे..
    मुहावरे को जितने सार्थक और रसमय ढंग से बताया गया कि अब तो यह मन में उतर गया...
    आनंद आ गया...आनंद...

    बहुत बहुत आभार..

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