बुधवार, 7 सितंबर 2011

देसिल बयना – 97 : आप न जाए सासुरे औरों को सिख देय...


--- करण समस्तीपुरी

खरीफ़ की बुआई हो गयी थी। रवी की तैय्यारी चल रही थी। गरमा धान घोघा गया था। किसानों के सीने भी गर्व से फूल रहे थे। तुलसीफूल की तो गमक भी उठने लगी थी। यह गमक उन्नत भविष्य की थी।

रेवाखंड की परिश्रमी पीढ़ी थोड़ा राहत की सांस ले रही थी। डेढ़ महीने तक आबालवृद्ध अविरल श्रम के बाद बड़े-बुजुर्ग तो निकौनी-कमौनी में लगे हुए थे लेकिन किशोर-जगत को फिर से खेलने का मौका मिल गया। खेतों की तरह उनके क्रीड़ा-संसार में भी हरियाली पसर गयी थी।

हमलोग शाम को बुढ़िया कबड्डी खेल कर लौट रहे थे। गुरुजी के इनार पर ये करामा भीड़। उधर से निकल रही बिशनपुरवाली हमलोगों की जिग्यासु नजरों को भांपकर बोली थी, “आ दुर्रर..... का देखे जाते हो...? फेर-फेर उहे नटखेल.... चुरमुनिया फेर भाग आई है सासुरे से।” लेकिन बचपन सिर्फ़ आँखों देखा हाल सुनकर संतुष्ट नहीं होता बल्कि अपनी आँखों से देखना भी चाहता है। और हमको तो वैसे भी ई रास-रहस में सनीमा से भी जादा मजा आता था। औने-पौने, दोगा-दागी, दबते-सिकुड़ते आखिर बीच में घुसकर ही दम लिये।

चुरमुनिया दीदी बीच में बैठी रो-पीट रही थी। सबलोग तोष-भरोस दे रहे थे। छबीली मामी बार-बार अपना अंचरा से उसका मुँह पोछ देती थी। बुलंती बुआ भी वहीं खटिया पर बैठी बीड़ी सुलगा रही थी। गुरुआइन एक कोना में अलगे गंगा-जमुना बहा रही थी।

चुरमुनिया पाँच साल की रही होगी जब गुरुजी चल बसे थे। चैतुआ तो दुइये साल का था। गुरुजी के साथ ही बांकी तीन जनों की रोटी भी चली गयी थी। उतो भला कहिये बुलंती बुआ का... बेचारी अपना करतब से दस कदम आगे तक निबाही। दोनों को अपने बच्चा के तरह पोसा था। बुआ के पति पलटन में थे। जब भी आयें बुलंती बुआ के साथ-साथ गुरुआइन के लिये भी जोड़ा साड़ी लाते थे। चुरमुन्नी और चैतू के लिये तो कपड़ों के साथ-साथ खिलौने भी आते थे। चैतुआ के टीनही बंदूक से हमलोगों को खासी ईर्ष्या होती थी। जब तक बुलंती बुआ के पति गांव में रहते थे, तब तक दोनों घरों में परब-त्योहार।

लगता था कि बुलंती बुआ भौजाई और बच्चों की चिंता से ही कभी सासुरे नहीं बसी। मगर लोग-बाग कहते थे कि उका सुभाव बड़ा कड़क है। लड़ाकिन है...। सासुरे में पटती नहीं है। लोगों की तो भविसबानी थी कि चुरमुनिया भी अपनी बुआ पर ही गयी है। सुभाव-बात का तो पता नहीं मगर नैन-नक्स तो सच्चे में गुरुआइन से जादा बुलंती बुआ से ही मिलता था। पता नहीं भगवान बुलंती बुआ से खफ़ा थे कि गुरुजी के परिवार पर मेहरवान...! अभी तक बुलंती बुआ की कोई संतान नहीं थी।

बुआ के पति पलटन से रिटैल करके रेवाखंड ही आ गये थे। वही इनार के उ तरफ़ कच्चा-पक्का घर बनाके दोनों परानी रहते थे। इ पार गुरुजी का परिवार। कहने को दो मगर व्यवस्था एक ही थी। गये लगन में चुरमुनिया के हाथ भी पीले करवा दिये। लड़का पता नहीं क्या करता था मगर शादी दान-दहेज देकर हुई थी। बुआ ने अपने भर कोई कसर उठा नहीं रखी थी। कन्यादान भी फूफ़ा ने ही किया था।

साल भर में यह चुरमुनिया की छ्ठी वापसी थी। गुरुआइन तो साल भर से इसी अंदेसे में और सूखी जा रही थी। इधर टोला-टप्पर में भी खुस-खुस-फुस-फुस होते रहता था। मैं ने भी काम करने वाली बाई को कई बार आँख-मुँह मटकाकर मैय्या से फुसफुसाते हुए सुना था, “कि दुल्हिन... हमरी बात सांच निकली ना... चुरमुनिया सोलहन्नी बुलंतिये पर गयी है... उ भी वहां नहीं बसेगी... लेकिन पलटनिया कमाई कहां जे इहां गुजारा हो...!”

अभी भी दस तरह की बातें हो रही थी। सभी लोग समझा बुझा रहे थे। ई बार ममला कुछ जादे ही गंभीर था। सांझ ढ़ले पाहुने भी आ गये थे साइकिल खरखरा के। भीड़ और बढ़ गयी थी। मान के साथ-साथ चुरमुनिया की ज़िद भी बढ़ी जा रही थी। वैसे छबीली मामी और बुलंती बुआ में छत्तीस का अंकड़ा था मगर चुरमुनिया को समझाने-बुझाने में दोनो साथ थी। मामी तो पाहुने का भी किलास लगा दी, “एं... खाली ब्याहने का ही शौक था... जो मनुस जोरू तक खियाल ना करे... उ बरदा की जात। हम कहते हैं.... का कसूर है हमरी चुरमुनिया में... सिरिफ़ जुवान के तेज है.... वही न... एं...? बाबा भरोसे ब्याह किये थे का... एं...?” हें... हें... हें... हें...!

छबीली मामी के डायलोग पर ई भारी महौल भी गुदगुदा गया था। उपर से चासनी लगा दी बिजुरिया भौजी, “हाँ.. नहीं तो का... जौन खूंटा मजबूत रहे तो बछरिया काहे को भागेगी... खीं...खीं...खीं...खीं....?” बात खतम करते-करते भौजी दोनो हाथ पाहुने के पीठ पर पटक के खिखिया पड़ी थी। बड़ी-बूढ़ी महिलाओं के मुँह पे पल्लू आ गया था मगर हमलोग की हिहिऐनी नहीं रूकी। ठी... ठी... ठी... ठी....!

काफ़ी देर से भरियाया महौल धीरे-धीरे हलका होने लगा था। गुरुआइन पहुना के लिये गिलास भर चाह ले आई थी। बुलंती बुआ और छबीली मामी भी चाह सुरकने लगी। चुरमुनिया भी। फिर सब औरतें उसे समझाने बुझाने लगी। छबीली मामी और बिजुरिया भौजी तो हंसी मजाक के साथ बुझाय रही थी। मगर चुरमुनिया ई बार टस से मस नहीं हो रही थी। बीच-बाच में एकाध बात बोल के लगे टिटन्ना लोर बहाए। एक बार तो भौजी पर खिसिया भी गयी थी।

सांझ के धुंधलके के साथ भीड़ भी छंटने लगी थी। मगर हमलोग डटे हुए थे। समर्पित दर्शक हैं। बिना पटाक्षेप के कैसे चले जायेंगे? जब सब मना-सुना के थक गया तो आखिर में बुलंती बुआ पर ही छोड़ दिया। पाहुने भी बुआ से काफ़ी बात किये थे। चाह के बाद बुआ बीड़ी सुलगाई फिर चुरमुनिया के पास आके बैठ गई।

दो कश तक दोनों सिरिफ़ एक-दूजे को देखते रहे थे। फिर बुआ बीड़ी को बाएं हाथ में दबाकर दहिने से चुरमुनिया का लोराया मुँह पोछ के लगी समझाए, “नाहिं... बेटिया....! अरे मरद-औरत में कहा-सूनी कहां नहीं होता... मगर कौनो अपना घर छोड़ देता है का...? देखो तोहरे फूफा से ही हमरा केतना धमगज्जर हो जाता है... मगर आज पचीसन बरिस से हैं तो साथहि। आखिर अपना घर अपना ही होता है...! जहाँ दस बर्तन रहता है वहां ढन-ढुन होते रहता है... लेकिन जौन मान-इज्जत तोहे उहां मिलेगा उ कहीं और नहीं...!”

पाहुने उठकर सड़क पर टहलने लगे थे। चुरमुनिया टुक-टुक बुआ का बात सुन रही थी। शायद छबीली मामी को अपना पलड़ा हल्का लगने लगा था। टिहुंक पड़ी, “एं... क्या जो कहता है वही वाली बात... ’आप न जाए सासुरे औरों को सिख देय...!’ खुद तो कभी ससुराल गयी नहीं... सारी जिनगी मेहमान को रस्सी बांध के रेवाखंड में रखी और चली है औरों को सिखाए..! हें... हें... हें... ! क्या जो कहता है... एं...!”

मामी की बात पर सभा दो फ़ांड़ में बंट गयी थी। एक तरफ़ हें...हें... हें... हें... और दूसरी तरफ़ तनी भौहें। फिर बुआ ने ही गरजते हुए सभा विसर्जन की घोषणा कर दी थी। तब हमलोग भी हंसते-ठिठियाते घर की ओर चल पड़े। हिहियाते हुए महतारी को छबीली मामी का फ़करा सुनाए, “एं... आप न जाए सासुरे, औरों को सिख देय... एं... ही...ही...ही..ही...!” मैया पुचकारते हुए बोली थी, “चुप करो... ई में गलत का कही छबीली...? जो काम खुद नहीं करोगे, उसी का उपदेश दूसरों को दोगे तो लोग तो कहेंगे ही कि आप न जाए सासुरे औरों को सिख देय। वैसे ई तो आज कल सबहि का मंत्र बन गया है। तरे-तर मुट्ठी गरम और बाहर आकर बंदे-मातरम!”

7 टिप्‍पणियां:

  1. कमाल है! आज त हमहीं पहिला आदमी है.. चलिए हमहीं सुरू करते हैं.. गाँव घर का एकदम सही फोटो खींचे हैं आप... पाहिले का टाइम में ई सब बहुत देखने में आता था.. आजकल तनी कम हुआ है चाहे स्वरुप बदल गया है..
    अब आपके लेखन के बारे में का बोलें.. हमको बहुत कुछ सीखने को मिलता है और बहुत सा बिसराया हुआ चीज़ फिर से सुनने को मिल जाता है!! जीते रहिये!!

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  2. आप न जाए सासुरे औरों को सीख देय ||

    वैसे ई तो आज कल सबहि का मंत्र बन गया है। तरे-तर मुट्ठी गरम और बाहर आकर बंदे-मातरम!”

    सुन्दर प्रस्तुति ||

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  3. करण भाई आपका देसिल पढने के बाद कई दिनों तक गाँव के परिवेश में ही रहता हूँ... सुन्दर बयना... आज कल समसामयिकता का पुट अच्छा लग रहा है..

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  4. जिसका दर्द होता है , वही समझता है | बाकी - किसी को "ही ही" सूझ जाती है, किसी की भौहे तन जाती हैं |

    पर जिस पर गुज़रती है वही जाने कि क्या गुज़रती है |
    दुखद तो यह है कि यह दर्द - इतने कॉमन हैं, कि कोई किसी के दर्द को दर्द समझता ही नहीं | वे एक जोक बन कर रह जाते हैं |

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  5. गाँव की मिटटी की सौंधी खुशबू सी है आपकी ये पोस्ट...अद्भुत...

    नीरज

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