बुधवार, 28 सितंबर 2011

देसिल बयना – 99 : अब सतवंती होकर बैठी...

-- करण समस्तीपुरी

खादी भंडार पर मेला का चहल-पहल शुरु होय गया था। देसुआ गांव का लुल्हैया कुम्हार चौठीचंदा का खीर-पूरी खाकर मूर्ती बनाने में लग गया था। बिलैतिया तो कह रहा था कि मूर्ती पूरा कमपलीट है। सिरिफ़ आँखिये पड़ना बांकी है। उ तो षष्ठी के राते पड़ेगा। madurai

सारा अंगना-घर गाय के गोबर से लिपा-पुता गया था। दुर्गा मैय्या के आगमनी का गीत-नाद शुरु था। भोरे से लौडिसपीकर पर “जय-जय भैरवी” बज रहा था। दुपहरिया से पहिले लगभग सब जगह कलशथापन भी हो गया। पंडीजी गोसाईं-घर में “नमस्तस्यै... नमस्तस्यै... नमस्तस्यै.... नमो-नमः” करके जा चुके थे। मैय्या छोटे-छोटे काले कपड़े में लहसुन-हींग भरकर सुई-धागा से सीने में मशगूल थी। दादी का हुकुम था। सबही बाल-गोपाल के कमर में बांधा जाएगा। काल-रात्री में नजर-गुजर, डायन-जोगिन हर बुरी बला से रच्छा करेगा।

कबरी गाय नाद खालीकर जुगाली कर रही थी। उजरी बछिया माय के सटे बैठी ज्वार की पत्तियां चबा रही थी। बाबा दलान पर बैठे गीता प्रेस गोरखपुर वाला ’कल्याण’ पढ़ रहे थे। दादी अभी-अभी कलेउ कर के आयी थी और हमेशा की तरह दांतों में फस गई अन्नपुर्णा देवी को आंवला के सींक से निकालने का जतन कर रही थी। पूजा-पाठ के अलावे सब-कुछ और दिनों की तरह ही चल रहा था मगर कुछ मिसिंग लग रहा था। ओ.... अच्छा...! महजिदनी नहीं आई थी अभी तक। आन दिन तो दादी के कलेउ खतम होते-होते धमक जाती थी।

रोज घर-आंगन आए वाली महजिदनी से हमें बड़ी आत्मियता हो गयी थी। गाँव-जेवार में महजिदनी का चरित्र अच्छा नहीं समझा जाता था। अब तो बुढ़ा गयी थी। नहीं तो सुनते थे कि पटनिया पुलिस को भी छका देती थी। सुल्ताना डाकू से भी अव्वल थी। मगर हमरी दादी के साथ उका खूब जमता था। खूब हंसी-मजाक। शायद एहि सब से

महजिदनी हमें भी दादी जैसी ही लगने लगी थी। जब-तब वो हमैं गोद में लेना चाहती थी मगर महजिदनी जब तक रहती थी बाबा की चौकस नजर हम से हटती नहीं थी। बहुत सशंकित रहते थे। पहिल पोता है कहीं महजिदनिया एहि को चुरा न ले जाए।

वैसे उ हमरे घर में भी कई बार हाथ साफ़ कर चुकी थी। मगर दादी थी कि महजिदनी के बिना उका खाना पचता नहीं था। बाबा भी होली-दिवाली में महजिदनी को भी खादी-भंडार से साड़ी दिलवा देते थे। खाना-पीना तो रोजे चलता था। जौन दिन नहीं आई उ दिन बीमार है या गई होगी मिशन पे। पता तब चलता था जब भकोलिया माय के उके लिये कलेउ लेके जाती थी। महजिदनी जब भी बाहर से आती थी हमरे लिये पांवरोटी का पैकेट लाना नहीं भूलती थी। बाबा से नजर बचा के देती थी, “ओन्ने जाके खाय लो.... महटर (मास्टर) देख लेगा तो हजार गत करेगा।

बड़े किस्सेhousewives थे महजिदनी के। गब्बर सिंघ वाला किस्सा तो नहीं पता मगर गाँव-घर में सच्चे नई बहुरिया, पाहुन-कुटुम को डराते थे, “हे....! जगले रहियो...! सोइयो तो हलकी नींद में। महजिदनी गाँवे में है... इधर आँख बंद हुई उधर डिब्बा गायब।” गए माघ की बात है। धीरू कका के ससुर आए थे, घटकैती (वर खोजने) में। देर रात खान-पान हुआ। वहीं दलान पर सेजौट का बिसतर लगा। सब जने सो गए मोटका कंबल ओढ़के। बेचारे अधरतिया में ठंड से ठिठुरे। कबहु इधर वाला का कंबल खींचे, कबहु उधर वाला के। दोनों साइड वाले अजिया के बोले, “हौ मरदे....! अपना कंबल ओढिये न...।” तब जाकर बेचारे देखते हैं कि जा...! कंबले गायब है। सोचे कि घरबैय्या को कम पड़ गया होगा एहि खातिर उन्हीं के देह पर से ले गए। बेचारे रात भर ठिठुरते रहे।

दिन में निरधन महतो बिछावन समेटे लगा तो एक कंबल कम...! घरबैय्या सोचे कि धीरू कका के ससुरे रख लिये होंगे अपने मोटरी में। खोज-परताल के बाद पता चला कि कंबल तो राते से गायब है। “ओह.... तो ई महजिदनी का ही करामात है...!” कई लोगों के मुँह से एक साथ निकला था।

लोक कहते हैं कि उ रात में मर्दाना वेश बनाकर घोड़ा पर चढ़ कई गाँव से गांजा-तमाकू लूट आती थी। नेपलिया गांजा का बेपारी महजिदनी से साठ-गांठ कर लिया था। सेर भर माल पहुँचाना था पटनिया नवाब को। मरजन्सी (इमर्जेन्सी) का टेम था। महजिदनी साड़ी-वस्तर में सेर-भर गांजा छुपाकर चल पड़ी। शायद कौनो भेदिया भी लगा था। पहलेजा घाट से पुलिस उके पाछे पड़ गई सादे लिवास में। दुई कोस तक महजिदनी का पीछा किया...। रंगे हाथ पकड़ने का पिलान था। मगर महजिदनी अपने खेलल-खेसारी। पुलिस का अंदेसा भांप गयी। चट से एगो होटल में घुस गयी। दो सेर दही चीनी औडर किया। और वही में गांजा लपेट के सुरुक गयी। पुलिस बाहिर हाथ मलते रह गयी। बाद में चेक किया तो मिला घड़ीघंट... हा... हा... हा... ह.... ! ऐसन करतब से भरी थी महजिदनी की जीवनी। मगर लाख नेकी-बदी एक तरफ़ हमरी दादी से उका सिनेह एक तरफ़ था। मुझे भी उसका आना बहुत अच्छा लगता था। बल्कि दोपहर को इंतिजार ही रहने लगा था।

महजिदनी आयी। आँखों में सुरमा और दाँतो में मिसी लगा के मुस्कराती आयी थी। दादी का हंसी मजाक शुरु हो गया। दादी बोली, “का बात है री छम्मकछल्लो....! कहाँ से हाथ मार कर आ रही है... मुल्ला फ़ँसाई कि माल...?” “आ... दुर्र....! महटर साहेब....।” बाबा की तरफ़ आँख नचाती हुई बोली थी महजिदनी और बढ़ती चली गयी आंगन की ओर। उसके पीछे दादी के साथ मैं भी आ गया था।

दादी भी छोड़ने वाली नहीं है, “का री...... बोलती काहे नहीं है....? ई कजरा-गजरा से किसे लूट आयी हो....?” “आ दुर्र जाओ भौजी.... का बुढारी में जुआनी वाला मज़ाक छेड़ती हो...! हम का ई सब करते हैं.....? “ना ना ना.......तू तो एकदम सतवंती है....!” दादी इठलाकर बोली थी। “और नहीं तो का.... काजर तो नवमी-दसमी में नजर-गुजर से बचे खातिर लगा लिये.... और आप दुरगा माई के दिन में भी ऐसन बात करती हैं। ई पुण्ण के दिन में दुई नमरी धंधा का नाम... राम-राम.... या अल्लाह...! भौजी की मति भली करो....!” महजिदनी के डायलोग में और थी इतराहट थी। हमरी दादी भी कम नहीं थी। नहला पर दहला फ़ेंकी, “हाँ-हाँ... काहे नहीं....! ’अब सतवंती होकर बैठी.... लूट लिया सारा संसार।’ सारी दुनिया को लूटकर अब चली है सती बनने। क्या जो कहता है, वही वाली बात, “सौ-सौ चूहे खाकर, बिल्ली चली हज़ को!” मिथिला लूटा, भोजपुर लूटा, बंगाल को किया कमाल.... दानापुर का थाना लूटा, पटना के नवाव लूटा, गाँव को लूटा, शहर को लूटा... अब आई है भगतिनी बनने.... दुरगा माई... राम-राम... या अल्ला...!”

दादी की बात खतम होते-होते आंगन में दबी सी हंसी छिटक पड़ी थी। मैय्या और लालकाकी तो मुँह दबाकर हंस रही थी मगर डढ़िया वाली और भकोलिया माय खिखिया पड़ी.... खी...खी....खी... खी..... ही... ही.... ही... ही.....। “अब सतवंती होकर बैठी... लूट लिया सारा संसार.... का री महजिदनी?” सबकी हंसी का निशाना महजिदनी ही थी। महजिदनी भी दबे होंठ मुस्कुरा पड़ी थी।

हमें कुछ समझ में नहीं आया तो आ गये बाहर बाबा पास। सारा किस्सा बताए तब बाबा समझाए, “जिंदगी भर बुरे कर्म करके आखिर में जब कोई साधु बनने का स्वांग करता है तो क्या कहोगे....? अरे बुरबक वही बात... अब सतवंती होकर बैठी लूट लिया सारा संसार।”

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया करन जी... आजकल कन्टेम्पोरेरी बयना लिख रहे हैं आप.... बहुत सुन्दर...

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  2. इस बार देसिल बयना का स्वाद थोड़ा अलग लागा। बहुत अच्छा।

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  3. बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|

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  4. यह तो सचमुच लूट लिया आपने.

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  5. महजिदनी भी एक ही चरित्र है - होते हैं ऐसे भी .

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  6. दू हफ्ता आप गोल किये त ई हफ्ता हमको डेरी हो गया.. दू बार से भोरे भोरे उठाकर आपका देसिल बयाना पर लाइन लगाने गए थे देखे कि टिकते खतम.. घूर के चले आये.. मगर अबकी ओही फॉर्म में लौटे हैं जो इन्डियन किरकिट खेलाडी को हार कर अएला के बाद आई पी एल में लौट आता है!!महजिदनीसे हम भी मिले हुए हैं..अपना मोहल्ला में! एकदम बचपन में ले गए हमको!! करण बाबू, आशीष!!

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  7. आज के इस देसिल बयना में खांटी करण छाप है। पूरा कथा समेटे रहा आंख में पूरा गांव-जवार!
    और जो बयना दिए हैं, सच्चो में हमहुं कभियो नहीं सुने हैं।

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  8. आज के इस देसिल बयना में खांटी करण छाप है। पूरा कथा समेटे रहा आंख में पूरा गांव-जवार!
    और जो बयना दिए हैं, सच्चो में हमहुं कभियो नहीं सुने हैं।

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