बुधवार, 14 सितंबर 2011

आज की हिन्दी

"जिसकी आँखों में लाचार सपने, जिसकी वाणी में अमृत-कलश है।
उसको देखा तो फिर याद आया, देश में आज हिन्दी-दिवस है॥" -- ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मित्रों,

सबसे पहले आपको और हिन्दी देवी को भी हिन्दी-दिवस की शुभ-कामनाएं। फिर आज "बुधवार" को आप तक देसिल बयना नहीं पहुँचा पाने के लिये सखेद क्षमा-याचना। यथाविदित हिन्दी-दिवस के अवसर पर हम कुछ बात कर लेते हैं आज की हिन्दी की। बाजार की हिन्दी। फ़ंक्शनल हिन्दी।

-: प्रयोजनमूलक हिन्दी :-

-- करण समस्तीपुरी


बांग्मय की आदि-भाषा संस्कृत से आसूत हिन्दी का भाषाई और साहित्यिक इतिहास सर्वथा एवं सर्वदा समृद्ध रहा है। संस्कृत, अपभ्रंश, अबहट, प्राकृत और पाली से होती हुई हिन्दी ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका जैसी उपभाषाओं के साथ आज खरी बोली की संज्ञा धारण कर चुकी है। समस्त साहित्यिक गुणों से लैस एवं सुव्यवस्थित वर्णमाला और सुगम्य सुदृढ़ व्याकरण के बावजूद इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल सास्त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिंह लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने प्रयोजनमूलक हिन्दी का कवच पहन न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार के तमाम प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। यही प्रयोजनमूलक अथवा फन्क्शनल हिन्दी आज हिन्दी पत्रकारिता की भाषा है जिसमें खरबों के देशी-विदेशी निवेश हो रहे हैं। किंतु ऐसा नही है कि प्रयोजनमूलक संज्ञा पाने के बाद हिन्दी पत्रकारिता का उदय हुआ है। हिन्दी तो पत्रकारिता की भाषा तब से है जब इसका प्रयोजन बिल्कुल असंदिग्ध था। स्पष्ट शब्दों में कहें तो हिन्दी पत्रक्रिता का संखनाद हिन्दी साहित्यकारों के द्वारा अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही किया जा चुका था। भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका अवर्णनीय है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के युगपुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र की कवि-वचन सुधा और हरिश्चंद्र मेग्जिन इसका प्रमाण है। उसके बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध से लेकर प्रेमचंद तक सभी नामचीन साहित्यकार हिन्दी पत्रकारिता के आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह उज्जवल रहे हैं। अतः यह कहना कि प्रयोजनमूलक हिन्दी आधुनिक युग की देन है मेरे ख्याल से तर्कसंगत नही है। आधुनिक युग ने हिन्दी को केवल प्रयोजनमूलक नाम दिया है कोई प्रयोजन नही। अगर यह कहें कि हिन्दी आज प्रयोजनमूलक है तो यह भी मालूम होना चाहिए कि हिन्दी निस्प्रयोजन कब थी ? अगर हिन्दी निस्प्रयोजन होती तो लगभग चार सौ साल पूर्व रचित तुलसीदास के रामचरित मानस की एक-एक चौपाई आज चरितार्थ नही होती। अगर व्यावसायिकता की बात करें तो भारत के साथ-साथ मलेसिया, फिजी, मोरिशस, करेबिआई द्वीप समूह के अतिरिक्त दुनिया भर में पढे जाने वाला रामचरित मानस भारत के प्रतिष्ठित गीता प्रेस, गोरखपुर से सर्वाधिक छपने वाली किताब का खिताब पा चुका है। तो जिस भाषा में ऐसे एक-दो नही बल्कि असंख्य कालजयी साहित्य के सृजन की क्षमता हो वह निस्प्रयोजन कैसे हो सकती है ? आख़िर किसी भी भाषा का प्रयोजन क्या है ? अभिव्यक्ति।! और यही अभिव्यक्ति लोकहित का उद्देश्य धारण कर देश और काल की सीमा से परे चिरंजीवी हो साहित्य कहलाने लगता है। इस प्रकार इस बात में कोई दो राय नही कि हिन्दी में अभिव्यक्ति और साहित्य-सृजन दोनों की अपार क्षमता है। अतः यह संस्कृत तनया अपने जन्म-काल से ही प्रयोजनवती रही है। सो हमारा उद्देश्य हिन्दी का प्रयोजन अथवा इसकी प्रयोजनमूलकता सिद्ध करना कतई नही है। किंतु आज जिस प्रयोजनमूलक हिन्दी की चर्चा जोर-शोर से की जा रही है उससे मुंह चुराना भी उपयुक्त नही है।
आइये, सबसे पहले देखते हैं कि हिन्दी को प्रयोजनमूलक कहने की आवश्यकता क्यों पड़ीं। दरअसल हिन्दी का साहित्य बहुत पुराना है। यह देव-भाषा संस्कृत के बहुत समीप है। आज भी संस्कृत के मूल शब्द हिन्दी में तत्सम और उनके विकृत रूप तद्भव नाम से उपयोग मे हैं। अतः इसका इतिहास भी उसी अनुपात में पुराना होना स्वाभाविक ही है। फलस्वरूप हिन्दी के छात्रों अथवा अध्येताओं को समग्र अध्ययन में बहुत सारे ऐसे स्थलों से गुजरना पड़ता है जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में कोई ख़ास उपयोग नही है। हिन्दी की गोमुख-गवेषणा प्रायः आम लोगों के लिए कोई विशेष महत्व नही रखती। अपितु भाषा-शास्त्रियों के लिए यह परम उपयोगी है। फिर इस गवेषणा के क्रम में इन अध्येताओं को बीसियों ऐसे ग्रंथों से गुजरना पड़ता है जिसका बाज़ार में कोई नाम तक नही जानता। फिर इतने कठिन और सघन अध्ययन के बाद जब हिन्दी जैसी भाषा का अध्येता कर्म- क्षेत्र में उतरता है तो उसके सामने सीमित विकल्प मौजूद होते हैं, शिक्षण, लेखन, पत्रकारिता या प्रूफ़-रीडिंग के अलावे अनुवादक और राज-भाषा अधिकारी जैसे स्वल्प और सीमित अवसर। उसमें भी तुर्रा यह कि पत्रकारिता और प्रूफ़-रीडिंग जैसे पेशे में हिन्दी के छात्रों के अलावे अन्य प्रतिभाशाली लोगों का भी अच्छा-खासा हस्तक्षेप होता है! अध्यापन के सीमित विकल्प को पाने के लिए अवसर का संयोग भी आवश्यक हो जाता है और लेखन के क्षेत्र में स्थापित होने के लिए सुदीर्घ संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा, यह कहावत आम हो जाती है, "पढे फारसी बेचे तेल।” अतः नब्बे के दशक में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पहल पर हिन्दी के पौराणिक पाठ्यक्रम से आम तौर पर अप्रसांगिक हो चले अंशों को काट कर और वर्तमान परिदृश्य में उपयोगी तत्वों को जोर कर एक ऐसा पाठ्यक्रम विकसित किया गया जो आम-जरूरतों को पूरा कर सके। बेशक, मशीनी युग के भाग-दौर में वही चीज स्वागतेय है जिसका सीधा और तीब्र प्रभाव पड़ता हो। परिवर्तन ही एक मात्र शाश्वत है। फलस्वरूप हिन्दी को भी पौरानिकता की चारदीवारी से निकलकर आधुनिकता का आवरण ओढ़ना पडा। दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाज़ार के मान-दंड पर खडा होना पडा। और हिन्दी जैसी समर्थ, उदार और लोचदार भाषा तो ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार ही थी, अंततः बन गयी प्रयोजनमूलक।

प्रयोजनमूलक बोले तो बाजारू। मतलब बिना लाग-लपेट उतनी ही और वैसी ही हिन्दी जो निर्दिष्ट आवश्यकता को संतुष्ट कर सके। आज हिन्दी केवल शास्त्रीय लेखन की भाषा नही अपितु बाज़ार की भाषा है। अंग्रेजी के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मीडिया उद्योग हिन्दी पर आधारित है। आज के प्रयोजनमूलक हिन्दी में लालित्य, अलंकार और सौंदर्य कतई आवश्यक नही बल्कि प्रभावोत्पादकता और सम्प्रेषनीयता ही वरेन्य है। अभिप्राय यह कि अकादमिक हिन्दी के अलावे प्रयोजनमूलक हिन्दी के रूप मे एक ऐसी भाषा का विकास हुआ है जो जन-संचार अर्थात मास-कम्युनिकेशन की भाषा है। जिस भाषा में रोमांच है, जिसमें ट्विस्ट है, जिसमे टेस्ट है और जिसे हिन्दी भाषियों के अतिरिक्त अहिन्दीभाषी भी आसानी से समझ सकते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी वह है जो लालित्य के बोझ से न दब कर खरी-खरी कहता है। ऐसा नही कि इसमें सौन्दर्य नही है। किंतु इसका सौंदर्य अलंकारों से नही सधारानीकरण से है। सफल संवाद-अदायगी, हमेशा की तरह आज भी इसकी मूलभूत विशेषता है। आज हिन्दी केवल "स्वान्तः सुखाय या रसिक समाज हर्षाय" ग्रंथो की भाषा नही है। वरन लाखों हाथों को काम और करोड़ों लोगों के पेट की आग बुझाने की भाषा है और यही है प्रयोजनमूलक हिन्दी।

विज्ञान के चरम उन्नत्ति से हिन्दी को भी नए आयाम मिले हैं। वर्तमान युग आई.टी. युग है। और सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में भारत दुनिया भर में अपनी धाक मनवा चुका है। विज्ञान की इस शाखा में पूरा विश्व भारतीय मस्तिष्क का कायल है। दूसरी बात कि सूचना प्रोद्यौगिकी के विकास ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरो दिया है। यहीं से तकनीक के एक नए व्यवसाय का उदय होता है, जिसका नाम है आउटसोर्सिंग। अर्थात तकनीक हस्तांतरण या दुनिया के किसी कोने में बैठ कर दूसरे कोने को तकनिकी समाधान देना। आज आउटसोर्सिंग बिजिनेस में भारत का कोई सानी नही है। पश्चिमी देशों में तो आउटसोर्सिंग के लिए टर्म बन गया है, "It's been Bangalored". क्योंकि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारतीय अभियंता किसी तकनीक को काफी कम लागत और कम समय में कुशलता के साथ विकसित कर देते हैं। यह भी एक कारण है कि बहुत बड़ी संख्या में विदेशी दृष्टि भारत की ओर लगी हुई है l जाहिर है, कहीं भी व्यवसाय करने के लिए वहाँ की भाषा समझना अनिवार्य है। कहना अतिशयोक्ति नही होगा कि इस कार्य के लिए बिहारीलाल की सतसई या विद्यापति की पदावली को तो काम में लाया नही जा सकता। अतः भारत में जो भाषा यह काम बड़े पैमाने पर कर सकती है, वही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। बात चाहे सॉफ्टवेयर कि हो या अन्य उपभोक्ता उत्पादों कि, विश्व की बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नजर आज भारतीय बाज़ार पर टिकी हुई है। और बिना हिन्दी के भारतीय बाज़ार पर कब्जा करना अगर असंभव नही तो मुश्किल जरूर है। और जो भाषा इस बाज़ार को चलाने में उपयुक्त है वही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। यही वजह है कि अभियंत्रण जैसी तकनीकी विधा के बाद अब हिन्दी जैसे शास्त्रीय विधा के शिक्षकों की पश्चिमी देशों में भारी मांग हो रही है। हाल ही में प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय पत्रिका "फोर्ब्स" में कहा गया था कि आगामी दो वर्षों में योरोप और अमेरिकी देश लगभग पचास हज़ार हिन्दी शिक्षकों की नियुक्ति के बारे में सोच रहे हैं।

प्रयोजनमूलक हिन्दी का सबसे बड़ा उपयोग मिडिया और विज्ञापन के क्षेत्र में है। आज अनेक विदेशी उत्पादों के विज्ञापन भारत में हिन्दी में किए जाते हैं. ऐसी हिन्दी में जिसे उस कम्पनी के सी.ई.ओ से लेकर भारत के गांव का किसान तक समझ जाता है। शीतल पेय कोकाकोला का विज्ञापन कहता है पीयो सर उठा के, मतलब गर्व से पीयो। यहाँ, कोमल कान्त शब्दों वाले मधुर वाक्य का कोई प्रयोजन नही है जबकि चार सामान्य शब्द अभिप्राय का वहन करने में कहीं अधिक सफल है, तो यही है प्रयोजनमूलक हिन्दी। “शहर के ह्रदय स्थल में अवस्थित नगर भवन के विशाल प्रांगन में अपार जन-समूह के बीच एक महती जनसभा आयोजित की गयी।” अब इतना लिखने की जगह ये भी लिखा जा सकता है कि, “नगर भवन में एक जनसभा हुई।” अब एक नजर प्रयोजनमूलक हिन्दी के घटकों पर। प्रयोजनमूलक हिन्दी में शामिल घटकों में प्रमुख हैं, पत्राकारिता, भाषा-विज्ञान (linguistics & philology) , अनुवाद और सृजनात्मक लेखन।

दरअसल प्रयोजनमूलक हिन्दी की संकल्पना पत्रकारिता से ही ली गयी है और व्यवहारिक तौर पर यह हिन्दी पत्रकारिता का पर्याय मना जाता है। जन-सम्पर्क और विज्ञापन भी लगभग इसी की परिधि में आ जाते हैं। अतः हिन्दी पत्रकारिता की भाषा, शैली, इतिहास और व्यापार का अध्ययन, प्रयोजनमूलक हिन्दी के दायरे में ही आता है। आज जिस प्रकार हिन्दी मीडिया बूम पर है और इसमें जिस रफ़्तार से देशी और विदेशी निवेश हो रहे हैं, उसे देखते हुए इसमें व्यवहृत भाषा, प्रयोजनमूलक हिन्दी का वर्तमान तो सुदृढ़ है ही भविष्य भी उज्जवल नजर आता है।

पत्रकारिता के बाद आते हैं अनुवाद पर। हालांकि साहित्य के अलावे ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी हिन्दी का इतिहास कमजोर नही रहा है, अपितु ज्ञान-विज्ञान का हस्तांतरण मजबूत भाषा की विशेषता रही है! आज कि तारीख में चिकित्सा, अभियंत्रण, पारिस्थितिकी, अर्थ-शास्त्र से लेकर विभिन्न भाषाओं से साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करने वालों की भारी मांग है। अनुवाद के सम्बन्ध में कहा जाता है कि कोई भी भाषा अपने आप में इतनी कंजूस होती है कि वो अपना सौन्दर्य दूसरी भाषा से बांटना नही चाहती। अतः यह पूर्णतः अनुवादक पर निर्भर करता है कि वह जिस भाषा से और जिस भाषा में अनुवाद कर रहा है उन भाषाओं पर उसका कितना अधिकार है और इन भाषाओं की अनुभूतियों में वह कितनी तारतम्यता कायम रख सकता है। एक सफल अनुवादक वही होता है जो अनुदित कृति में भी मूल कृति की नैसर्गिक अनुभूतियों को अपरिवर्तित रखे।

अब आते हैं भाषा विज्ञान पर। सूचना प्रौद्योगिकी के चरम विकास ने विश्व को एक ग्लोबल विल्लेज बना दिया है। पूरी दुनिया मे आज एक दूसरे को समझने की होड़ लगी हुई है। और इस एक दूसरे को समझने में भाषाओं का अहम् स्थान है। हमारे समबन्ध सांस्कृतिक हों या व्यावसायिक, भाषाओं का महत्व सर्वथा है। अतः आज विभिन्न भाषाओं के बीच सम्बन्ध का अध्ययन भी जोर शोर से चल रहा है। हर जगह linguisticians & philologists की मांग है। भारतीय भाषा-वैज्ञानिक भी किसी से कम नही हैं। अतः हिन्दी भाषा का विकास, व्याकरण, दूसरी भाषाओं से इसका सम्बन्ध, देश,काल, इतिहास, भूगोल एवं अन्य भाषाओं का हिन्दी पर प्रभाव व अन्य भाषाओं को हिन्दी की देन आदि का वृहत अध्ययन सम्प्रति किसी भी तकनिकी शिक्षा से कम फलदायी नही है।

अब बात करें सृजनात्मक लेखन की। आज बाजारबाद शाबाब पर है। उत्पादक तरह तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भुमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उत्पाद भौतिक हो वर्चुअल उनके विज्ञापन में ऐसी सृजनात्मकता दिखाई जाती है कि उपभोक्ताओं पर उसका सीधा असर परे। दिवा-रात्री समाचार चैनल, ऍफ़.एम्. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ ने रोजगार के ऐसे आयाम खोले हैं कि हिन्दी के परम्परागत लेखकों के अलावे ऐसे लेखकों की मांग बेताहासा बढ़ी है जो किसी विषय को बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत कर सके।

इस प्रकार तमाम पहलुओं पर नजर डालें तो हिन्दी में संक्रमण हो रहे हैं, प्रारूप बदल रहा है, लेकिन इस से हिन्दी का दायरा और प्रभाव कहीं से कम होता नही लग रहा है। इस भाषाई विकास के चरम पर भी हिन्दी के अस्तित्व पर मुझे तो कोई संकट नही दिख रहा। हाँ, समस्या हिन्दी की बोलियों और देवनागरी लिपि के साथ है! पता नही इनका क्या होगा!

29 टिप्‍पणियां:

  1. प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. वंदना गुप्ता जी की तरफ से सूचना

    आज 14- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


    ...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
    ____________________________________

    जवाब देंहटाएं
  4. हिंदी की जय बोल |
    मन की गांठे खोल ||

    विश्व-हाट में शीघ्र-
    बाजे बम-बम ढोल |

    सरस-सरलतम-मधुरिम
    जैसे चाहे तोल |

    जो भी सीखे हिंदी-
    घूमे वो भू-गोल |

    उन्नति गर चाहे बन्दा-
    ले जाये बिन मोल ||

    हिंदी की जय बोल |
    हिंदी की जय बोल

    जवाब देंहटाएं
  5. शानदार था भूत, भविष्य भी महान है..

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया आलेख!
    --
    निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
    बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।।
    --
    हिन्दी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बढ़िया आलेख!
    --
    निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
    बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।।
    --
    हिन्दी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

    जवाब देंहटाएं
  8. aadarniy sir
    bahut hi jankariyan deti hui aapki yah post bahut bahut hi achhi lagi .
    vaise bhi hamesha ki hi tarah main aaj bhi yahi baat kahna chahungi ki mujhe aapke blog par aana bahut hi achha lagta hai .aap chahe ise mera swarth bhi kah sakte hain kyon ki aapke blig se mujhe bahut si jankariyan milti hain jisse mai bahut hi orabhavit hi hun.
    bahut si aisi baate jinke baare me shayad kabhi suna bhi nahi hamne
    to use padhna ya janna bahut hi achha lagta hai.
    jaise aapne
    bataya ki hamara aadarsh granth -ram charit -manas bharat ke alawa aur bhi desho me padha jaata hai
    iske baare me mujhe bilkul hi nahi pata thaa.
    iske liye aapko sadar dhanyvaad
    kinhi parishthitiyon -vash mera aapke blog tatha any blogo par jaana vilamb se ho raha hai.
    kripya meri sthiti ko jaan kar aap mujhe der se aane ke liye xhama kijiyega
    .
    sadar naman
    poonam

    जवाब देंहटाएं
  9. sir
    maffi chahti hun ki mai aaj hindi -diwas ke awsar par roman shabdo ka prayog kar rahi hun.
    chunki hindi typing me mujhe thoda waqt lagta hai aur is waqt aswasth hone ke karan jyaada der nahi baith sakti hun.
    aapse punah xhma yachna ke
    saath
    poonam

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत सुन्दर आलेख....हिन्दी दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाए।

    जवाब देंहटाएं
  11. बाजारवाद के बढ़ते आयाम के साथ प्रयोजनमूलक हिंदी का प्रचलन भी बढ़ गया है एवं जनमानस के बीच यह एक सेतु का कार्य कर रही है । कुछ लोग इसके दिन प्रतिदिन बढ़ते रूप को देख कर कुठित हो रहे हैं कि यह हिंदी के मुख्य स्वरूप को विकृत कर रही है । मेरी अपनी मान्यता है कि इससे हिंदी के मूल स्वरूप पर कोई प्रभाव नही पड़ता है । भारत के संविधान के अनुच्छेद 351 के अंतर्गत यह प्रावधान है कि हिंदी के चतुर्दिक विकास के हेतु भारत की सामासिक संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए किसी भी शब्द को आत्मसात किया जा सकता है । हिंदी दिवस पर यह पोस्ट आपका हिंदी भाषा के प्रति समर्पित अनुरागिता को दर्शाता है ।
    धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  12. पूनम जी(JHAROKHA),
    मुझे यह जानकर काफी दुख हुआ कि आपने अपने कमेंट मे लिखा है कि आप अस्वस्थ चल रही हैं एवं फिर भी व्लॉग पर आ जाती है । हम सब आपके साथ हैं एवं किसी भी परिस्थति में आपको जो भी सहयोग बन पड़ेगा देंगे । आखिर यह भी तो एक परिवार की तरह है एवं हम सब इसके सदस्य हैं । भगवान से प्रार्थी रहूँगा कि वे यथाशीघ्र आपको स्वस्थ कर दें । अन्य ब्लॉगर बंधुंओं से भी अपील करता हूँ कि वे लोग भी आपके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करें । आशा ही नही अपितु मेरा पूर्ण विश्वास है कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएंगीं । मंगलमय एवं पुनीत भावनाओं के साथ--
    प्रेम सागर सिंह ।

    जवाब देंहटाएं
  13. एक बहुत बड़ी गलतफहमी है कि संस्कृत हिन्दी की जननी है। हिन्दी का जन्म प्राकृत भाषाओं से हुआ है। संस्कृत का विकास भी इन्हीं प्राकृत भाषाओं (जन-भाषाओं) का संस्करण है। इसीलिए इसका नाम संस्कृत पड़ा। हिन्दी के संवर्धन के लिए जो प्रावधान भारतीय संविधान में किए गए है, उनसे परिचित होना आवश्यक है। संविधान कहता है कि हिन्दीतर भाषाओं (अंग्रेजी सहित) के शब्दों का अर्थ पहले हिन्दी में खोजेंगे, हिन्दी में समान्तर शब्द न मिलने पर हिन्दी की बोलियों से समानार्थी शब्द को ग्रहण करेंगे। यदि उनमें भी वह नहीं मिलता है, तो उस शब्द का समानार्थी शब्द जिस भारतीय भाषा में उपलब्ध है, उसे ग्रहण किया जाय। भारतीय भाषाओं में भी यदि समानार्थी शब्द न मिलें तो उस शब्द को यथावत हिन्दी में ग्रहण किया जाय।

    जवाब देंहटाएं
  14. ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी की दो सुंदर पंक्तियों से आरम्भ किया गया यह आलेख सहेजने योग्य है ....
    आचार्य परशुराम जी ने सही कहा भारतीय भाषाओं में भी यदि समानार्थी शब्द न मिलें तो उस शब्द को यथावत हिन्दी में ग्रहण किया जाय।

    जवाब देंहटाएं
  15. हिन्दी दिवस है तो राजभाषा हिन्दी के लिए दिए गए प्रावधान को देख लेना चाहिए

    “हिंदी भाषा की प्रसार वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामसिक संस्‍कृति के सब तत्‍वों की अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम हो सके, तथा उसकी आत्‍मीयता में हस्‍तक्षेप बिना हिंदुस्‍तानी और अष्‍टम अनुसूची में उल्लिखित अन्‍य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्‍मसात करते हुए तथा जहाँ तक आवश्‍यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्‍द भंडार के लिए मुख्‍यतः संस्‍कृत से तथा गौणतः अन्‍य भाषाओं से शब्‍द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्‍य होगा ।”
    अनुच्‍छेद – 351
    It shall be the duty of the Union to promote the spread of Hindi Language, to develop it so that it may serve as a medium of expression for all the elements of the composite culture of India and to secure its enrichment by assimilating without interfering with its genius, the forms, style and expression used in Hindustani and in other languages of India specified in the Eighth schedule, and by drawing wherever necessary or desirable for its vocabulary, primarily on Sanskrit and secondarily on other languages.”
    Article - 351

    जवाब देंहटाएं
  16. ज्ञानवर्धक लेख आज के सन्दर्भ में हिंदी की महत्ता को बताया आभार

    जवाब देंहटाएं
  17. हिंदी भाषा विभिन्न विदेशी भाषाओँ और बोलियों के घुलने से और समृद्ध हुई है ...
    संग्रहणीय आलेख!

    जवाब देंहटाएं
  18. समय के साथ चलने की आदत और ग्रहण करने की क्षमता हिन्दी में हमेशा से रही है -और तभी वह विशाल क्षेत्र की जन-भाषा बनी रह सकी है .

    जवाब देंहटाएं
  19. हिंदी के विषय में विचारोत्तेजक लेख प्रस्तुत करने का आभार..... सामयिक लेख.

    जवाब देंहटाएं
  20. ज्ञानवर्द्धक प्रस्तुति...आभार

    जवाब देंहटाएं
  21. हिंदी के आपसे आप आगे बढ़ने की कथा का रोचक वृत्तांत .आभार .

    जवाब देंहटाएं
  22. ज्ञानवर्धक आलेख .....बहुत कुछ जानने को मिला

    जवाब देंहटाएं
  23. बहुत खूब लिखा। हिंदी पर अँग्रेजी का प्रभाव कहीं अधिक है। अब हिंग्लिस का दौर आ गया है जो आपको आम लोंगों की बोलचाल इंटरनेट और मीडिया में सहज ही देखने को मिल रहा है। विचारदास के चाहे जो विचार हो धीरे-धीरे आयोग द्वारा सृजित शब्दावली के शब्द प्रचलन से बाहर हो रहे हैं और अँग्रेजी के शब्द उनका स्थान ले रहे हैं। ज़रा सोचो संगणक, परिकलित्र, संधनित्र, दूरभाष जैसे शब्दों को पछाड़कर मोबाइल, कंप्यूटर, कैलकुलेटर आदि जनता की जुबान पर चढ़ गए हैं।

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।