मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

भगवान अवधूत दत्तात्रेय : अंक - 2

अंक-2 : भगवान अवधूत दत्तात्रेय

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- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में भगवान दत्तात्रेय के आठ गुरुओं की चर्चा हुई थी। इस अंक में उनके नौ गुरुओं, और उनकी शिक्षा की चर्चा की जाएगी और शेष सात गुरुओं की अगले अंक में। पिछले अंक में एक भूल हो गयी थी। इस संवाद का उल्लेख भागवत महापुराण में ग्यारहवें स्कंध के सातवें से नौवें अध्याय में हुआ है। पिछले अंक में इसके स्थान पर सातवाँ और आठवाँ बताया गया था।

भगवान दत्तात्रेय ने आगे महाराज यदु को बताया कि उन्होंने अपने नौवें गुरु अजगर से भी बहुत कुछ सीखा। दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्, संसार में प्राणी अपने पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार सुख और दुख भोगता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को, जिसे सुख और दुख के रहस्य मालूम हैं, चाहिए कि वह इनके लिए इनकी न चाह करे और न ही उन्हें पाने का प्रयत्न करे। वह अजगर की तरह प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिले, उससे सन्तुष्ट रहे। अजगर एक बार भोजन कर लेने के बाद बहुत दिनों तक शिकार नहीं करता। इससे मैंने सीखा कि जब मेरी आवश्यकता पूरी हो जाय, तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनावश्यक रूप से परेशान नहीं होना चाहिए।

उन्होंने दसवें गुरु के रूप में समुद्र का उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि हे राजन्, पूरे जगत की बरसात का जल, नदियों का जल समुद्र में आता है या इतनी भीषण गरमी पड़ती है, किन्तु उसमें न बाढ़ आती है और न ही जल का स्तर कम होता है। वह सदा अपनी सीमा में रहता है। अतएव समुद्र से मैंने सीखा कि उत्तम से उत्तम सुख मिले या कितनी ही विषम परिस्थिति क्यों न हो, अपनी सीमा (अनुशासन) का परित्याग नहीं करना चाहिए।

पतिंगे को भगवान दत्तात्रेय अपना ग्यारहवाँ गुरु मानते हैं। भागवत महापुराण के अनुसार भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि पतिंगा अग्नि की लपटों पर आकर्षित होकर अपना सर्वनाश कर लेता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि उसे संसार की परिवर्तनशील (नाशवान) वस्तुओं से आकर्षित होकर अपना सर्वनाश न करे, बल्कि उसे सदा अपने विवेक का आश्रय लेना चाहिए।

कुछ अन्य स्थानों पर ऐसा मिलता है कि भगवान दत्तात्रेय ने पतिंगों से सीखा कि जैसे वह प्रकाश को देखकर निर्भयता पूर्वक अपने प्राणों की आहुति दे देता है, वैसे ही निर्भय होकर ज्ञान की अग्नि में अपने कर्म-बन्धनों को जलाकर स्वयं को परिवर्तित करना चाहिए और अपने स्वरूप को उपलब्ध होना चाहिए।

भागवत महापुराण में भगवान दत्तात्रेय के बारहवें गुरु के रूप में भौंरे या मधुमक्खी का उल्लेख है, जबकि अन्य स्थानों पर इन्हें अलग-अलग बताया गया है। जहाँ इन्हें अलग-अलग बताया गया है, वहाँ शहद निकालनेवाले का उल्लेख नहीं है। भौरे के विषय में वे कहते हैं कि भौंरा बड़े-छोटे सभी पुष्पों से केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार रस लेता है, संग्रह नहीं करता। उसे लेने के पहले वह फूलों के आस-पास गाता है, नाचता है और एक उल्लास का वातावरण बनाता है। इसके साथ ही जितना उनसे लेता उससे अधिक उन्हें देता है, उनमें परागण की क्रिया कराकर उन्हें समृद्धि प्रदान करता है। इसी प्रकार हम प्रकृति से जो कुछ लेते हैं, उसका हमें संवर्धन करते रहना चाहिए।

मधुमक्खियाँ विभिन्न फूलों से आवश्यकता से अधिक रस लेती हैं और उसे मधु के रूप में संग्रह करती हैं तथा अपनी आवश्यकता पूरीकर शेष दूसरों के लिए छोड़ देती हैं। इसी प्रकार हमें विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान प्राप्तकर उसे आत्मसात करना चाहिए और दूसरों को उसे उदारता पूर्वक प्रदान करना चाहिए। भागवत महापुराण में कहा गया है कि मधुमक्खियों की भाँति संग्रह करने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए, अन्यथा हम अपनी संग्रह की गयी वस्तुओं के साथ अपना जीवन गवाँ बैठते हैं। इसलिए एक संन्यासी के पास यदि भिक्षा का कोई पात्र हो, तो प्राप्त करने के लिए केवल हाथ और संग्रह करने के लिए केवल पेट।

अपने तेरहवें गुरु के विषय में बताते हुए भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि हे राजन एक बार मैने एक हाथी को बड़े विचित्र ढंग से फँसा देखा। फँसाने वालों ने एक गड्ढा खोदकर उसे वृक्ष की टहनियों से ढक दिया था और दूसरी ओर एक पालतू हथिनी को बाँध रखा था। हथिनी को देखकर हाथी उसकी ओर लपका और उस गड्ढे में फँस गया। वह हाथी ही मेरा तेरहवाँ गुरु है। उसने मुझे सिखाया कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं से सजग रहना चाहिए, अन्यथा इनके कारण ये सांसारिक आकर्षण इन्द्रियों को बेकाबू कर देते हैं और बलवान होने के बावजूद मन उनके जाल में फँसकर निर्बल हो जाता है।

मधुहारी (मधु (शहद) निकालनेवाले) के विषय में भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि जिस प्रकार एक लोभी व्यक्ति बहुत परिश्रम करके धन संचय करता है, सुपात्र को उसका न तो दान करता और न ही स्वयं उसका उपभोग करता है। उस धन की वही दशा होती है जो मधुमक्खियों द्वारा संचित शहद की होती है, अर्थात् मधुमक्खियों के उपभोग से पहले ही मधुहारी उसे उनसे छीन लेता है। इसी प्रकार संचित और अनुपभुक्त धन का उपभोग कोई दूसरा कर लेता है। इस प्रकार मैंने अपने चौदहवें गुरु मधुहारी से यह सीखा कि लोभी की तरह धन इकट्ठाकर मधुहारी जैसे व्यक्ति को उसका उपभोग करने का अवसर नहीं देना चाहिए।

भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि हे राजन्, मेरा पन्द्रहवाँ गुरु हरिन है। वह अन्य विभिन्न ध्वनियों को सुनकर सजग हो जाता है। लेकिन शिकारी की वंशी की ध्वनि से सम्मोहित होकर उसके जाल में फँस जाता है। कहा जाता है कि हरिणी के गर्भ से उत्पन्न ऋष्यशृंग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गीत, वाद्य एवं नृत्य आदि देख-सुनकर उनके हाथ की कठपुतली बनकर रह गए थे। अतएव मैंने हरिन से सीखा कि हम उन शब्दों के प्रति, जो हमारी इच्छाओं, आसक्ति और वासना को उद्दीप्त करते हैं, सजग रहें ताकि हमारा जीवन बन्धन से मुक्त रह सके।

अपने सोलहवें गुरु के रूप में भगवान दत्तात्रेय ने मछली का उल्लेख किया है। उन्होंने महाराज यदु से कहा कि हे राजन्, मछली काँटे में लगे हुए माँस के टुकड़े के लोभ में अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है। मनुष्य भले ही अपने सभी इन्द्रियों पर काबू पा ले, लेकिन जबतक वह अपनी रसनेन्द्रिय पर अधिकार नहीं कर लेता, मछली की भाँति वह अपने जीवन को नष्ट कर देता है। जब इस स्वादेन्द्रिय पर वह अधिकार कर लेता है, तो वह माया के काँटे में नहीं फँसता, यह सीख मैंने मछली से ली।

भगवान दत्तात्रेय ने अपने सत्रहवें गुरु के रूप में पिंगला नामक एक वेश्या का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा, हे राजन्, महाराज विदेह की नगरी मिथिला में कभी पिंगला नाम की एक बहुत ही सुन्दर वेश्या रहती थी। न तो वह अपने ग्राहकों को दिल से प्यार करती थी और न ही ग्राहक उसे। वह ग्राहकों के धन पर आकर्षित थी और ग्राहक उसके रूप पर। उसे धन चाहिए था और ग्राहकों को अपनी वासना की पूर्ति। उसे यह लगता था कि कोई धनाढ्य पुरुष आएगा और जो उसे बहुत सा धन देगा। पर वैसा हुआ नहीं। ऐसे धनी व्यक्ति की प्रतीक्षा में उसकी नींद जाती रही, उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अन्त में वह निराश हो गयी। इस परिस्थिति ने उसके अन्दर वैराग्य को जन्म दिया। उसने धनिकों की प्रतीक्षा और उनसे मिलने की इच्छा का सर्वथा परित्याग कर अपनी शय्या पर लेट गयी। इसके बाद उसे बड़ी शान्ति और सुख की नींद मिली। अतएव मैंने उस वेश्या से सीखा कि इस दुनिया में जितना भी मिलता है, वह हमेशा कम पड़ता है, कभी सन्तुष्टि नहीं होती। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह सांसारिक वस्तुओं से आत्म-संतुष्टि की आशा छोड़कर केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए आत्म-सम्मान के साथ आत्म-चिन्तन करे और अपने को जाने।

अगले अंक में भगवान दत्तात्रेय के शेष गुरुओं पर चर्चा की जायगी।

11 टिप्‍पणियां:

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  2. भगवान दत्तात्रेय से हमें प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए जिन्होंने प्रकृति के छोटे से छोटे जीव तक से शिक्षा ग्रहण की है और उसे अपने कुरु तुल्य माना है। धन्य हैं भगवान दत्तात्रेय। उन्हें नमन।

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  3. क्षमा करें। भूलवश गुरु के स्थान पर कुरु टाईप हो गया है।

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  4. हमें इन सबसे प्रेरणा लेनी चाहिए ...आपने एक महत्वपूर्ण श्रृंखला की शुरुआत की है ....आपको हार्दिक शुभकामनाएं

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  5. बहुत सुन्दरता से आप वर्णन कर रहे है……………हार्दिक आभार्।

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  6. अगले अंक की प्रतीक्षा है !
    आभार बढ़िया प्रस्तुति ....

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  7. दत्तात्रेय जी पर आधारित दूसरा अंक भी जनोपयोगी है

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