समीक्षा
आँच-91 – वेदना
हरीश प्रकाश गुप्त,
सतीश सक्सेना जी की यह कविता “वेदना” उनके ब्लाग “मेरे गीत” पर विगत 21 सितम्बर, 2011 को प्रकाशित हुई थी। कविता के भाव बहुत मर्मस्पर्शी और स्वाभाविक हैं। सतीश जी ने सरल शब्दों में इसे इस प्रकार वास्तविक-सा प्रस्तुत किया है कि कविता सजीव हो उठी है। यह वर्तमान सामाजिक परिवेश का यथार्थ है, जन-जन की अनुभूति है। निश्चय ही उन्होंने समाज के इस चेहरे को बहुत समीप से व बहुत स्पष्ट रूप में देखा है तथा अनुभव किया है और इसको ही उन्होंने इस गीत के माध्यम से शब्द देने का प्रयास किया है। इसीलिए उनका चित्रण पाठक के बिलकुल करीब पहुँच संवेदना जगाता है।
समाज में जहाँ सीधे सच्चे और भोले लोग हैं, जिनके हदय में प्रेम और समरसता है, संवेदना है, आदर है और सहानुभूति है तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अपने अहं मात्र के पोषण को ही अपना अभीष्ट समझते हैं और इसके लिए वे सब कुछ कर सकते हैं जो उनके हित में उपयोगी हो सकता है। भले ही इससे किसी की भावनाएं आहत हों या उनकी अपेक्षाओं को कितनी भी ठेस पहुँचे। इस गलाकाट पर्तिस्पर्धा में आगे बढ़ने के क्रम में मची होड़ में व्यक्ति का व्यक्ति में अविश्वास उपजा है तो कुण्ठा, शंका, असहिष्णुता और संयमहीनता आदि ने स्थायीभाव का रूप ग्रहण कर लिया है और लोगों में आपसी द्वेष, बैर, तिरस्कार, घृणा आदि भाव दिखने लगे हैं। वास्तव में व्यक्ति के अन्दर इन अवगुणों का समावेश अनेकानेक कुण्ठाओं, सीमाओं और संकीर्णताओं के कारण होता है तथा वह इन आग्रहों के चलते प्रवेश के द्वार बन्द कर दिए होते हैं। वह इससे इतर न तो कुछ जान पाता है और न ही कुछ समझ पाता है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि उसके बर्ताव से किसी को कितना आघात पहुँचा है। उसका अनुमान की सीमा से परे आचरण दूसरों के लिए पीड़ा और कष्ट का कारक बनता है। ऐसे में एक सरल संवेदनशील हृदय बहुत आहत होता है। उसकी वेदना फूट पड़ती है, लेकिन धारा का मुख भीतर की ओर ही रहता है। यद्यपि उसे उनसे ईषत् निराशा है, लेकिन इसके बावजूद, अपने दर्द को उद्घाटित करने या प्रतिक्रिया करने के बजाए वह अपने भीतर आशा की ज्योति दीप्यमान रखता है।
कविता में जब बिम्बों के माध्यम से अभिव्यक्ति होती है तो ही कविता दुरूह बनती है। सतीश जी की यह कविता सीधे शब्दों में बात करती है। न कोई अधिक लाग, न अधिक लपेट, न ही गूढ़ निहितार्थ। यथार्थ का सहज, सुगम और प्रांजल प्रकटीकरण। सतीश जी के विषय सामाजिक धरातल पर प्रमाणित होते हैं। वे उनको शब्दों के जाल में इस प्रकार बुनते हैं कि चित्रण वास्तविक प्रतीति कराते हैं और पाठक के मस्तिष्क में अपने आसपास का ही चित्र उभर आता है। जिस कारण पाठक उनसे सहजता से जुड़ जाता है। सतीश जी भाषा में सरल हैं, परन्तु उनकी कविताएं भाव में गहराई लिए होती हैं। यही उनकी विशेषता है। यह कविता भी इसका अपवाद नहीं है, बल्कि यों कहें कि यह कविता बहुत सुगठित है और इसके भाव आत्यंतिक हैं तो अतिशयोक्ति न होगी और इसीलए यह कविता बहुत आकर्षक बन गई है।
कविता के अंतिम पद की रचना सतीश जी की नहीं है, जिसे उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है। उल्लेखनीय यह भी है कि राकेश खण्डेलवाल जी रचित उक्त पद ने कविता को आत्मसात कर लिया है और सम्पूर्ण कविता में इस कदर रच-बस गया है कि यदि बताया न गया होता कि यह किसी और की रचना है तो पाठक को इसका भेद करना कठिन ही बना रहता। इसकी अंतिम पंक्ति “ले जाए नौका दूसरे तट, हम पाल चढ़ाए बैठे हैं” में “दूसरे तट” में प्रवाह में अवरोध आता है। यदि इसे “ले जाए नौका और कहीं, हम पाल चढ़ाए बैठे हैं” कर दिया जाए तो प्रांजलता आ जाती है। इसी प्रकार पूर्व पद में “अपने जख्मों को दिखलाते, वेदना अन्य की क्या समझें” में “अन्य” के स्थान पर “किसी” कर देने से भाव भी परिवर्तित नहीं होते और प्रवाह दर्शनीय हो जाता है। इसी पद में “रिश्ते परिभाषित करती हो” में “करती” स्त्रीवाची प्रयोग हुआ है जो शेष कविता के अर्थ की दिशा को भटकाता है। तीसरे पद में प्रयुक्त पंक्तियों “इस बाल हृदय, को क्यों तुमने, इस तीखेपन से भेद दिया” में कर्तृ वाच्य प्रयोग हुआ है जबकि शेष कविता कर्म वाच्य में है, अतः इसे अनुरूप बनाए जाने की आवश्यकता है। यह कविता में दोष दर्शन नहीं है, बल्कि मेरे सुझाव मात्र हैं।
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समीक्षक के सुझाव ध्यान देने योग्य हैं।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर समीक्षा की है।
जवाब देंहटाएंbahut khoobsurti se samikcha ki hai.
जवाब देंहटाएंआंच समीक्षा को नई दिशा दे रही है. सतीश जी की यह कविता बेहतरीन है...किन्तु समीक्षा उसे उत्कृष्ट बना रही है...
जवाब देंहटाएंसतीश जी कि संवेदनशील कविता की सार्थक समीक्षा के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील कविता की सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंरिश्ते परिभाषित करती हो” में “करती” स्त्रीवाची प्रयोग हुआ है जो शेष कविता के अर्थ की दिशा को भटकाता है।
इस पंक्ति पर मैं भी थोड़ा ठिठक गयी थी ... फिर से पढ़ सही अर्थ को तलाशा था ...
सार्थक प्रस्तुति
मात्र एक रचना पढ़कर, रचना के साथ साथ किसी व्यक्तित्व का भी वास्तविक अंदाज़ लगाना एक दुरूह कार्य है !आज अपनी एक रचना की समीक्षा पढ़ते महसूस हुआ इतना कुछ शायद मैं खुद अपने बारे में नहीं जानता था !
जवाब देंहटाएंहरीश चन्द्र गुप्ता जी बेहद प्रभावित करते हैं, लगता है समीक्षा करते समय वे उस रचना में डूब जाते हैं, गहराई से व्यक्त, उनके शब्द, इस रचना की हकीकत बयान कर रहे हैं ! उनकी इस समीक्षा से यह रचना सम्मानित हुई है !
मैं खुशकिस्मत हूँ कि उनके द्वारा कुछ जगह मेरी कमियां बताई गयी हैं , मैं उनका कृतज्ञ हुआ !
गीत शिल्प अथवा गद्य शिल्प की समझ मुझे न के बराबर है, एक योग्य समीक्षक का हाथ अपनी और बढ़ा पाकर मैं कृतज्ञ हूँ !
यह उन्होंने एक प्रकार से मेरी मदद ही की है !
आशा है उनकी आलोचना मिलती रहेगी !
आदरणीय राकेश खंडेलवाल ने इस रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय आखिरी खंड लिखा था ! उनकी लेखनी और शब्द सामर्थ्य की तुलना किसी से नहीं हो सकती !
जवाब देंहटाएंकृपया नौका की जगह नाव कर लें , लगता है यह भूल से रह गया है !
"ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं "
समय चाहिए आज आप से,
जवाब देंहटाएंपाई फुर्सत बाढ़ - ताप से |
परिचय पढ़िए, प्रस्तुति प्रतिपल,
शुक्रवार के इस प्रभात से ||
टिप्पणियों से धन्य कीजिए,
अपने दिल की प्रेम-माप से |
चर्चा मंच
की बाढ़े शोभा ,
भाई-भगिनी, चरण-चाप से ||
बढ़िया !
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुरूचिपूर्ण समीक्षा!! कविता और भी मननीय बन जाती है। कवि और समीक्षक दोनो का आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा है। सुझाव भी अच्छे हैं। लेकिन कविता तो कवि की होती है। सुझावों को शामिल कर लेने के बाद वह कवि की न हो कर साँझी हो जाती है।
जवाब देंहटाएंbahut badiya sameeksha..
जवाब देंहटाएंsaarthak prastuti ke liye aabhar..
रचना की समीक्षा बहुत सुंदर ढंग से की गई है !
जवाब देंहटाएंअक्सर कविता बहती है ह्रदय से, जब समीक्षा की आँच
से गुजरती है तो कुछ त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है ! जैसा की आपने
इशारा किया है ! एक सफल रचनाकार को भाव के साथ साथ अपने शब्दों पर भी
विशेष ध्यान देना जरुरी है यह बात मैंने भी आज ही जानी है !
सतीश जी की रचनाएँ हमेशा सरलतासे सबके मन को छू लेने में समर्थ होती है !
बढ़िया समीक्षा आभार !
आलोच्य कविता मैंने भी भी पढी है ..यह रचनाकार की अनुभूतियों और उसकी संवेदनशीलता का ही दस्तावेजीकरण है ...
जवाब देंहटाएंसतीश जी के गीत यथार्थ की गहरी आनुभूतिक प्रक्रिया से उपजे होते हैं ..ऐसे रचनाकार को सलाम !
अत्यन्त भावपू्र्ण कविता की तर्कपूर्ण समीक्षा । हार्दिक बधाईयाँ..
जवाब देंहटाएंसतीश सक्सेना जी की कविता को मैं कविता नहीं गीत ही मानता हूँ (शास्त्रीय दृष्टि से इनमें क्या अंतर हैं या तो आदरणीय गुप्त जी ही बता सकते हैं).. और इस गीत के पाठन/गायन में जो प्रवाह है, बिलकुल वही प्रवाह हरीश जी की समीक्षा में दिखाई देता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो दो सरिताएं समानांतर प्रवाहमान हैं. 'आँच' नित्यप्रति नवीन शिखर का आलिंगन कर रहा है!! गुप्त जी का आभार!
जवाब देंहटाएंएक सुंदर समीक्षा!!!हर पक्ष को बताती...
जवाब देंहटाएंसतीश जी की कविताएँ भाव प्रधान होती हैं। शब्द सरल होते हैं लेकिन भाव इतने गूढ़ की जितना डूबो उतना आनंद आता है। इस कविता को पहली बार पढ़कर मैने यह लिखा था....
जवाब देंहटाएंवेदना की कोई दबी नस फूट पड़ी
दर्द शब्दों में ढल गया
गीत ब्लॉग पर आ गया
जिसने पढ़ा
दिल छलनी-छलनी हो गया।
...गीत का भाव पक्ष इतना सबल है कि आलोच्य प्रवाह की कमी ढूंढने का अवसर ही सामान्य पाठक को नहीं देती। दूसरे तट के स्थान पर ..और कहीं..तथा ..अन्य.. के स्थान पर ..किसी..
अधिक सही लग रहा है। ..करती..शब्द का प्रयोग
क्यों किया गया यह सतीश जी ही बेहतर बता सकते हैं। ..करते हो..अधिक सटीक था।
..गीत, कविता, कहानी लेखन की चाहे जो भी विधा हो मेरा मानना है कि भावों की अभिव्यक्ति
प्रथम प्राथमिकता होती है। भाव अभिव्यक्त हों, दिलों पे अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हों, तभी लेखन सार्थक है। क्लिष्ट व सही-सही लिख कर ही हम क्या हासिल कर लेंगे जब आप पढ़े आप समझें वाली स्थिति हो ? सतीश जी इस दृष्टि से सभी को प्रभावित करने में हमेशा सफल रहे हैं।
..हरीश प्रकाश गुप्त जी की तरह समीक्षक ब्लॉग जगत को मिल जांय तो हम सभी में ब्लॉगिंग करते-करते कुछ बेहतर लिख पाने की संभावना प्रबल हो जाती है। 'आंच' पर चढ़ना कविता का सौभाग्य बन जाता है।
waah... ek to kavita lajawaab... aur fir ye sameeksha... behtareen...
जवाब देंहटाएंekdam bingo combination...
Satish Uncle ke baare mei aur bhi kuch cheeze jaanne ko mili... to uske liye bhi thank you so much...
मेरे पहले कमेन्ट में श्री हरीश चन्द्र गुप्त की जगह पर श्री हरीश प्रकाश गुप्त पढ़ा जाए !
जवाब देंहटाएंभूल के लिए खेद है !
सतीश जी के गीतों का तो जवाब नहीं ,संवेदनशीलता और भावनाओं का समंदर होता है उन के गीतों में
जवाब देंहटाएंऔर उस पर ये समीक्षा
उन गीतों में चार चाँद लगा रही है
बधाई!!
सतीश सक्सेना जी एक अति संवेदनशील और भावुक हॄदय रचनाकार हैं. उनकी समीक्षित रचना के अलावा उनकी अन्य रचनाएं भी पाठक को सोचने के लिये बाध्य कर देती हैं. उनको बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंआपका यह प्रयास समीक्षा के अलावा रचनाकारों को मार्गदर्शन एवम प्तोत्साहन भी देता है. इसके लिये आप भी धन्यवाद स्वीकारें.
रामराम.
सुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा.कवि सतीश जी और कुशल समीक्षक हरीश जी ,दोनों को बधाई.
जवाब देंहटाएंकविता पढी थी और बहुत पसन्द आयी थी। अब समीक्षा पढकर उसके आलोचनात्मक पक्ष का परिचय कराने के लिये धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसंवेदनशीलता और कविता दोनों ही सतीश जी के चेहरे पर झलकते हैं. बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंसतीश जी एक सहज प्रवाहि इंसान अहिं और उनकी कवितापों में भी यही प्रवाह नज़र आता है ... संवेदनाओं को दिल से महसूस करके लिखना उनकी पूँजी है ... कविता और उसकी समीक्षा दोनों ही उत्कृष्ट हैं ...
जवाब देंहटाएंइस होली आपका ब्लोग भी चला रंगने
जवाब देंहटाएंदेखिये ना कैसे कैसे रंग लगा भरने ………
कहाँ यदि जानना है तो यहाँ आइये ……http://redrose-vandana.blogspot.com
बहुत बढ़िया ...
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