रविवार, 9 अक्टूबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 86

भारतीय काव्यशास्त्र – 86

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अवाचक, अश्लील और सन्दिग्ध दोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अप्रतीत, ग्राम्य और नेयार्थ दोषों पर चर्चा की जाएगी।

जब काव्य में किसी ऐसे अर्थ में किसी शब्द का प्रयोग सामान्यरूप में हो, अर्थात् जो लोक में उस अर्थ में प्रसिद्ध न होकर किसी शास्त्र विशेष में पारिभाषिक शब्द के रूप में आता हो, तो वहाँ अप्रतीत दोष होता है, जैसे-

सम्यग्ज्ञानमहाज्योतिर्दलिताशयताजुषः।

विधीयमानमप्येतन्न भवेत्कर्म बन्धनम्।।

अर्थात् आत्मज्ञान की महाज्योति से, जिसके आशय (वासना या कर्म के संस्कार) विनष्ट हो गए हैं, उसके द्वारा किया जानेवाला कर्म उसके बन्धन का कारण नहीं बनता।

यहाँ आशय शब्द योगशास्त्र में वासना या कर्म के संस्कार के लिए प्रयुक्त होता है, लोक में नहीं। अतएव आशय पद के कारण यहाँ अप्रतीत दोष है। निम्नलिखित दोहा उक्त श्लोक का हिन्दी पद्यानुवाद है-

तत्त्वज्ञान की ज्योति सों, भो आसय को नास।

करम किएहूँ परै नहिं, ताके कबहूँ फाँस।।

इसमें भी आसय (आशय) पद उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतएव यहाँ भी इस पद के कारण अप्रतीत दोष है।

यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि विशिष्ट शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडितों द्वारा स्वगत कथन में यह दोष नहीं होता। अप्रयुक्त दोष में जानकार और न जाननेवाले, दोनों को अर्थ की प्रतीति में कठिनाई होती है, जबकि अप्रतीत दोष में जानकार को अर्थ-प्रतीति हो जाती है। दोनों में यही अन्तर है।

जब काव्य में केवल लोक-व्यवहार में ही प्रयुक्त होनेवाले (चलनेवाले) शब्दों का प्रयोग किया जाय, तो ग्राम्य दोष होता है। जैसे-

राकाविभावरीकान्तसंक्रान्तद्युति ते मुखम्।

तपनीयशिलाशोभा कटिश्च हरते मनः।।

अर्थात् पूर्णिमा के चन्द्रमा की कान्ति से द्युतिमान तुम्हारा मुख अथवा जिसकी कान्ति से चन्द्रमा चन्द्रमा द्युतिमान हो रहा वह तुम्हारा मुख और स्वर्ण शिला के समान तुम्हारी कमर मेरे मन को मुग्ध कर रहे हैं।

यहाँ कटि (संस्कृत में) पद ग्राम्य है, अतएव श्लोक में इस पद के कारण ग्राम्य दोष है। निम्नलिखित बरवै (एक छंद) में करिया (काला), फरिया (लहँगा), कुरता, गुजरी (पैर में पहना जानेवाला एक गहना और ग्वालिन), गोड़ (पैर) और चमकी (यहाँ मटकती) पद ग्राम्य हैं-

करिया फरिया, पहिरे कुरता लाल।

गुजरी गोड़ सु गुजरी, चमकी चाल।।

अतएव इस बरवै में भी ग्राम्य दोष है। वैसे हिन्दी में ग्राम्य दोष माना जाय या न माना जाय, यह विवाद का प्रश्न हो सकता है। पर यदि वक्ता ग्रामीण हो, तो उसकी उक्ति में आनेवाले इस प्रकार के पदों को दोष नहीं मानना चाहिए।

नेयार्थ दोष समझाने के लिए आचार्य मम्मट ने आचार्य कुमारिलभट्ट के तत्त्ववार्तिक से निम्नलिखित कारिका उद्धृत की है-

निरूढा लक्षणाः काश्चित् सामर्थ्यादभिधानवत्।

क्रियन्ते साम्प्रतं काश्चित् काश्चिन्नैव त्वशक्तितः।।

अर्थात् कुछ रूढ लक्षणाएँ वाचक शब्द की समान सामर्थ्य से अर्थ का बोध कराती हैं और कुछ समय पर किसी प्रयोजनवश (प्रयोजनवती लक्षणा) प्रयोग की जाती हैं तथा अभीष्ट अर्थ का बोध कराती हैं। परन्तु इन दोनों (रूढ़ि और प्रयोजनवती) के अलावा कोई लक्षणा नहीं करनी चाहिए जो अभीष्ट अर्थ का बोध कराने में सक्षम न हो, अर्थात् अनुमान से जबरदस्ती अर्थ लेना पड़े। अर्थात् जहाँ कवि रूढ़ि और प्रयोजनवती लक्षणा को छोड़कर अपने कल्पित अर्थ में यों ही लक्षणापरक शब्द का प्रयोग कर दे, जिसमें उस अर्थ का बोध कराने की क्षमता न हो, वहाँ नेयार्थ दोष होता है- नेयः रूढि-प्रयोजनाभावे कविना कल्पितोSर्थः यत्र। जैसे-

शरत्कालसमुल्लासिपूर्णिमाशर्वरीप्रियम्।

करोति ते मुखं तन्वि चपेटापातनातिथिम्।।

अर्थात् हे तन्वि (कृश अंगों वाली), तुम्हारा मुख तो शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा को भी चपत लगा रहा है।

यहाँ कवि कहना चाहता है कि वह इतनी सुन्दर है कि उसके मुख का सौन्दर्य शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा को भी तिरष्कृत कर रहा है। यहाँ चपत लगाना या चाँटा लगाना पदों से (लक्षणा शक्ति से) तिरष्कृत करने के अर्थ में कवि ने कल्पना की है, जो उपयुक्त नहीं है। अतएव यहाँ नेयार्थ दोष है। यह दोष पदगत और समासगत दोनों ही रूपों में पाया जाता है।

अगले अंक में क्लिष्ट, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकृत् दोषों पर चर्चा होगी।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. फिर एक बार नया सुंदर ज्ञानवर्धक संग्रहणीय आलेख. आभार आचार्य जी.

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  2. संस्कृत के विद्वानों की रसिकता का मैं कायल हूं। उनकी पारिभाषिक शब्दावली चाहे जितनी कठिन हो,मगर उदाहरण मुख और कटि-सौंदर्य आदि से भरे पड़े हैं।

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  3. इन दोषों को ध्यान में रखकर काव्य रचना करनी चाहिए।

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  4. आचार्य जी!
    इतने सारे अनमोल सूत्रों का अनुपालन कर जिस काव्य की रचना की जाए वह अप्रतिम होगी...कहाँ तक गहराई है इस विज्ञान की, देख रहा हूँ!!

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  5. क्या लिखते समय इन बातों को याद रख पाना संभव है. यदि हो सके तो काव्य अद्वितीय होगी. संग्रहनीय आलेख.

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