अंक-3
भगवान अवधूत दत्तात्रेय
पिछले दो अंकों में भगवान दत्तात्रेय के 17 गुरुओं और उनसे प्राप्त शिक्षाओं का उल्लेख किया जा चुका है। इस अंक में शेष सात गुरुओं और उनकी शिक्षाओं पर चर्चा की जाएगी।
महाराज यदु के पूछने पर भगवान दत्तात्रेय ने अपने अठारहवें गुरु के रूप में एक छोटे पक्षी कुरर का उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि हे राजन्, एक बार मैंने देखा कि एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा एक छोटा लेकर उड़ा जा रहा था। तभी शक्तिशाली पक्षी उस मांस के टुकड़े को छीनने के लिए उसके पीछे पड़े और अपनी चोंचों से उसपर आघात करने लगे। अन्त में अपनी रक्षा करने के लिए कुरर को मांस का टुकड़ा छोड़ना पड़ा। तब कहीं दूसरे पक्षियों ने उसका पीछा छोड़ा और कुरर को शान्ति मिली। मैंने उससे सीखा कि मनुष्य को संग्रह की प्रवृत्ति का परित्याग कर सदा अकिंचन भाव से रहना चाहिए। इससे उसे कभी कोई कष्ट नहीं होता, वह सदा सुखी रहता है।
भगवान तदत्तात्रेय ने अपना उन्नीसवाँ गुरु एक बालक (शिशु) को बताया है। वे कहते है कि एक बच्चा भूख लगने पर रोता है और माँ के दूध पिला देने के बाद वह चुप हो जाता है। संतुष्ट होने के बाद माँ कितना ही क्यों न खिलाने-पिलाने की कोशिश करे, वह मुँह फेर लेता है और मस्त रहता है। उसे मान-अपमान का जरा भी ध्यान नहीं रहता। उन्होंने आगे बताया कि इस संसार में केवल दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परम आनन्द में रहते हैं - एक नन्हा सा बालक और गुणातीत पुरुष। इसलिए मैं भी एक छोटे बालक की तरह अपनी आत्मा में रमता हूँ और सदा मौज में रहता हूँ।
हे राजन्, मेरा बीसवाँ गुरु एक क्वारी कन्या है। एक बार जब मैं भिक्षाटन करते हुए एक गाँव में गया। वहाँ एक घर के सामने भिक्षा के लिए रुका। घर से एक क्वारी कन्या बाहर आई और मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। खाना बनाते समय उसके हाथ की चूड़ियाँ आपस में टकराकर बज रही थीं। अतएव उसने एक चूड़ी उतारकर रख दी। फिर भी दूसरी चूड़ियाँ आपस में टकराकर बजती रहीं। इस प्रकार वह दोनों हाथों की एक-एक चूड़ी उतारती रही। जब एक बच गयी तो आवाज भी बन्द हो गयी। इससे मैंने सीखा कि एक से अधिक होने पर लोगों के बीच आपस सहमति, असहमति आदि को लेकर कलह, टकराव होते रहते हैं। शान्ति केवल एकान्त में ही मिलती है।
इसके बाद भगवान दत्तात्रेय ने बताया कि उनका इक्कीसवाँ गुरु बाण बनानेवाला है। उन्होंने कहा कि हे राजन्, एक बार मैं जब एक स्थान से गुजर रहा था, तो देखा कि एक बाण बनानेवाला बाण बनाने में इतना दत्तचित्त था कि राजा की पूरी सवारी निकल गयी और उसे पता तक नहीं चला। उससे मैंने सीखा कि व्यक्ति को वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे एक लक्ष्य में लगा देना चाहिए। इस प्रकार वह सतोगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग कर शान्त हो जाता है जैसे ईंधन के अभाव में अग्नि। फिर धीरे-धीरे वह चेतना के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और अन्त में सूक्षतम स्तर पर जाग्रत होने में सफल होता है।
अपने बाइसवें गुरु के रूप में भगवान दत्तात्रेय ने साँप का उल्लेख किया है। साँप अपना घर नहीं बनाता। वह या तो चूहे आदि दूसरे जीवों के द्वारा खाली किए बिलों में रहता है या पेड़ों के कोटरों में निवास करता है और अकेले रहता है, कभी यह झुंड में नहीं रहता। वह एक स्थान पर बहुत दिनों तक नहीं रहता, अपना स्थान बदलता रहता है। अतएव मैंने उससे सीखा कि संन्यासी को सदा अकेले रहना चाहिए और एक स्थान पर कभी भी अड्डा या मठ बनाकर तो कभी भी नहीं। उसे हमेशा विचरण करते रहना चाहिए। वह अपना स्थायी निवास कभी न बनाए।
भगवान दत्तात्रेय ने अपना तेइसवाँ गुरु मकड़ी को बताया है। उन्होंने कहा हे राजन्, एक बार मैंने देखा कि एक छोटी मकड़ी जाला बनायी और जब बड़ी मकड़ी ने उसे खाने के लिए उसका पीछा की तो वह जाकर उसमें छिप गयी। तभी बड़ी घनघोर वर्षा होने लगी और वह छोटी मकड़ी अपने जाल में उलझ गयी और बड़ी मकड़ी ने उसे निगल लिया। मैंने उससे यह सीखा कि मनुष्य इस जगत में रहकर अपने लिए मानसिक जगत का निर्माण कर उसी में उलझा रहता है और जन्म-मृत्यु के बन्धन से निकल नहीं पाता।
भागवत महापुराण में इसे इस प्रकार कहा गया है कि मकड़ी जाल बनाती है और फिर बाद में उसे पुनः निगल लेती है जैसे ईश्वर इस सृष्टि को एक ओर से बनाता रहता है और दूसरी ओर से उसे समाप्त करता रहता है, अर्थात् सृजन और विनाश का अनवरत क्रम परिवर्तन के रूप में चलता रहता है।
अपना चौबीसवाँ गुरु भगवान दत्तात्रेय ने भृंगी (बिलनी) को कहा है। वह एक कीड़े को दीवार पर अपनी जगह ले जाकर बन्द देता है और वह कीड़ा भय से उसका चिन्तन करते-करते बिना अपना शरीर छोड़े वैसा ही शरीर धारण कर लेता है। उससे मैंने यह सीखा कि स्नेह से, द्वेष से या फिर भय से जान-बूझकर मन को एकाग्र करके लगा दे, तो वह तद्रूप हो जाता है।
अन्य ग्रंथों में यह बताया गया है कि गानेवाला पक्षी एक प्रकार के कीड़े को अपने घोंसले में ले जाकर वह मधुर स्वर में गाता है और कीड़ा उसके गाने पर इतना मुग्ध हो जाता है कि कब पक्षी उसे खा जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता। इसी प्रकार मनुष्य को नाद-ब्रह्म में ऐसा लीन हो जाना चाहिए जिस प्रकार वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और उसे मृत्यु तक का बोध नहीं रहता।
अगले अंक में इसी संदर्भ में कुछ और चर्चा होगी। इस अंक में बस इतना ही।
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भगवान अवधूत दत्तात्रेय के बारे में विरल किस्म की जानकारी से परिचित करवाने के लिए आपका आभार ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।
हम यदि भगवान अवधूत दत्तात्रेय से प्रेरणा ग्रहण करें तो हमारा जीवन निष्कलंक और सफल हो जाए।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सीखने को मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंहिंदी के लिए आपकी रचनाएं और काम बेहद उपयोगी एवं आदरणीय है
जवाब देंहटाएंदीपावली पर आपको और परिवार को हार्दिक मंगल कामनाएं !
सादर !
शिशु गुरु है!
जवाब देंहटाएंमेरा नाती दूध पीते समय मेरी बिटिया को कहता है - मामा, पेट भर! अर्थात पेट भर गया है।
उसकी मामा बोलती है - नहीं, जब मामा बोलेगी पेट भर, तब पेट भर! अर्थात जब मां बोलेगी पेट भर तब पेट भरेगा।
यहां कौन किसका गुरु है, पता नहीं! :)
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जवाब देंहटाएंइस पूरी कथा में,एक गुरू की आंखें शिष्यवत् खुली दिखती हैं। गुरू होता ही वह है,जो जानता हो कि सृष्टि-चक्र में न तो कुछ अनिर्भर है,न अकारण।
जवाब देंहटाएंअति उत्तम श्रृंखला चल रही है…………दीपावली पर्व अवसर पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं………
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट आभार !
जवाब देंहटाएंमन हमेशा सिखने के लिये खुला रहे
तो सारा जग एक पाठशाला है !
एक अद्भुत महर्षि का जीवन चरित सुन अभिभूत हूँ!!
जवाब देंहटाएंभगवान दत्तात्रेय का संदेश कि शिक्षा लेनेवाला सजग है तो जगत् के प्रत्येक व्यापार से कुछ-न-कुछ सीख सकता है - प्रसारित कर आप सबका हित-चिन्तन किया .
जवाब देंहटाएंतदर्थ आभार !
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दीपावली मंगलमय हो !
ज्ञान की सारगर्भित बातें...आपक़े पोस्ट की विशेषता है...हर बार कुछ सीखने को मिलता है...शुभ दीपावली...
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