शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

फ़ुरसत में … क्यों बनाऊं रिश्ते, क्यों बढ़ाऊं दोस्तों की संख्या

फ़ुरसत में …

क्यों बनाऊं रिश्ते, क्यों बढ़ाऊं दोस्तों की संख्या

19012010015मनोज कुमार

आज की बात शुरु करने के पहले कल की बात शुरु करता हूं। कल एक ब्लॉगर मित्र से चैट करते-करते बात अचानक बन्द हो गई। नहीं-नहीं, आप ग़लत न समझें, उनकी तरफ़ से नहीं, मेरी तरफ़ से। अब, आज जब उन्होंने मेरी बत्ती हरी देखी तो धर लिया। आगे बढ़ने के पहले आज की चैट से आपको रू-ब-रू करता चलूं …

वो : नमस्कार! तबियत ठीक है न ?

मैं : नमस्कार ! क्यूं … तबियत के बारे में प्रश्न ..?

वो : आज कल आप अचानक गायब हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता ..!

मैं : हां, हां ठीक ही है तबियत। पर कुछ आपात स्थिति ही थी कि झट से कम्प्यूटर बन्द करना पड़ा।

वो : आज कल आप गज़ब के साहित्यकार हो गए हैं, अब आपातकालीन स्थिति क्या थी यह नहीं पता न :) ...!

मैं : बीवी की भृकुटी का तनना, तो मेरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की ताक़त रखता है। इससे बड़ा आपात काल क्या हो सकता है?

वो : :):) …  हाँ यह तो है ... यानि आप नेट बंद कर भाग खड़े हुए?!

मैं : अजी उसके लिए हमें अपने हाथ-पैर नहीं चलाने पड़े ...!

वो : मतलब?

मैं : उनको भी आता है कम्प्यूटर खोलना और बंद कर देना। कमाल की बात तो यह है कि हम तो शट डाउन करते हैं, वो ... शट अप !!

वो : हा हा आह, … सही है

उनकी हंसी (हा-हा) के साथ ‘आह’ ... का निकलना ... चुनौती के साथ चिन्ता की बात थी मेरे लिए। ‘हंसी’ एक चुनौती थी और ‘आह’ चिन्ता। छोटी नहीं बहुत बड़ी चुनौती, कि मैं भी ठहाके लगाता जाऊं और आह भी न निकले .. और यह तभी हो सकता था जब मैं इस आभासी दुनिया के लोगों के साथ चैटियाता रहूं। पर, आए दिन मेरे अनायास उठ गये ठहाकों से उनको बैठे-बिठाए कोई क्लु दे-देना कौन सी बुद्धिमानी की बात है? उस दिन छदामी से चैट करते-करते जो ठहाका लगाया, तो उनकी भृकुटि तन गई थी। उनकी तनी हुई भृकुटि यह सूचक होती है कि उनका अगला प्रहार मेरे लैपटॉप पर ही होना है। ... और फिर ये स्थिति मेरे लिए चिन्ता का सबब बन जाती है। तब तो मैं तय कर लेता हूं कि आभासी दुनिया से नाता-रिश्ता ही खतम कर लूं। हो जाऊं एकाकी ... क्यों बनाऊं रिश्ते, क्यों बढ़ाऊं दोस्तों की संख्या, क्यों विस्तृत करूं परिवार? उनके द्वारा और उनके साथ होने वाले और हो चुके किसी लीला प्रसंग का वर्णन करना आज का उद्देश्य नहीं है मेरा। फ़ुरसत में हूं .. तो सोचा यह प्रसंग भी बताता चलूं।

कभी-कभी फ़ुरसत में सोचता हूं तो मुझे यह प्रतीत होता है, इक्कीसवीं शताब्दी में, जहां एक दूसरी तरह की आबोहवा, बड़ी सनकी शैली में क्रियाशील है, उसके पीछे कोई विवेक नज़र नहीं आता। लोग मतलब-बेमतल भृकुटि तान लेते हैं। ऊल-जलूल हरकतें करते हैं। आपसी रिश्तों को तार-तार कर लेते हैं। लगता है हमारे चारो ओर एक तूफ़ानी हवा अंधड़ का रूप धारण कर साएं-साएं बह रही हो। ऐसा अंधड़, जो सारे मानव-मूल्यों को जैसे शेष करने के लिए ही क्रियाशील हुआ हो! अब आप कहेंगे इसमें उनकी भृकुटि कहां से आ गई? या ‘उनके’ उस लीला-प्रसंग की प्रासंगिकता क्या हो सकती है?

इसका जवाब देना मेरे लिए सचमुच विकट है। लेकिन मैंने जब उस दिन के वाकए पर फ़ुरसत में सोचने का काम शुरु किया, तो आपको अत्यंत विनम्रतापूर्वक मैं बताऊं कि वर्षों पहले जब ‘उन्हें’ जीवन संगिनी बनाया था तो अपनी सहज रुचि के मुताबिक, ‘उनको’ एक अंश तक अपनी सीमित मति के मुताबिक, मैंने समझने की कोशिश की थी। जो संबंध ‘उनसे’ सात वचनों और सात जन्मों का हुआ, उस संबंध के प्रति मेरी एक धारणा थी और आस्था भी।

मैं गांव का आदमी हूं। मेरी ये दृष्टि है, या ये मेरी जो संवेदना है, गांव की आबोहवा ने उसे रचा है। और जब उस संस्था, उस बंधन और आज के ‘उनके’ लीला-प्रसंग पर विचार करता हूं तो मुझे लगता है कि कहीं न कहीं इसका संबंध मेरे गांव के होने से जुड़ा है। हम गांव में जन्मे थे। जिस गांव में मेरा जन्म हुआ था, गंडक के समीप था वह गांव। अब जब जाता हूं, तो मेरे मुंह से अनायास निकल जाता है ‘वो कहां गया? वो तो कहीं दिखाई नहीं देता।’ मैं जब गांव जाता हूं तो लगता है जैसे किसी पराये गांव में आ गया हूं। सारा का सारा वातावरण, सारी संवेदना, जीवन शैली सब कुछ बदल गई है। पहचानना मुश्किल हो गया है कि यह मेरा ही गांव है या हम किसी और गांव में आ गये हैं।’

ये, जो मेरी अपनी संवेदना, ग्रामीण संवेदना, थी, उसकी प्रकृति ये है कि वो समूह से जुड़ी हुई संवेदना होती थी। गांव का आदमी अकेले रह नहीं सकता। उसके दुख-सुख की जो परिधि है, जो सीमा है, उसमें क़ैद होकर घुटते रहना गांव का स्वभाव नहीं है। वो बांटना चाहता है, अपना भी दुख, दूसरे का भी सुख। ये प्रकृति थी। इस तरह से मैं सोचता रहा था और आभासी ही सही, इस दुनियां, जिसे मैं ब्लॉगजगत कहता रहा हूं, फ़ुरसत में के माध्यम से अपनी संवेदना बाँटता रहा, बांटते रहना चाहता हूं।

मेरी, जो भी है, वह एक परिस्थिति छोटी-सी है – जब मैं फ़ुरसत में ... रच रहा होता हूं। इसे रचता हूं एक ललित निबंधकार के रूप में। मित्रों आप सब पंडित आदमी हैं, जानते हैं ललित निबंध की प्रकृति ही ये होती है – बात का बतंगड़ करना। कोई एक बात ले करके उस पर स्वकीय शैली में, बिल्कुल मुक्त शैली में आप अपनी बात पेश करें। रम्यता हो, लालित्य हो उसमें। वो आपको अपने साथ बांध करके यात्रा कराए। उसमें इस तरह की बात न हो जो बहुत ही गरिष्ठ ज्ञान, जो प्रायः सहृदय व्यक्तियों को वितृष्ण करता है, या जो रस के भूखे होते हैं, उनको उसमें रुचि नहीं होती। अब ऐसा बतंगड़ करते-करते मेरी मूढ़ मति किसी के लिए दुख, क्रोध, क्षोभ और रंज का कारण भी बन जाती है। मुझे दुख होता है। आज मैं दुखी हूं। और दुखी मन से आज का फ़ुरसत में रच रहा हूं।

मति मूढ़ है मेरी, सो, तर्क की कसौटी पर कस-कस के गरिष्ठ ज्ञान पेश कर नहीं पाता। वह तो एक ऐसी विधा है, जो शोध का विषय हो सकती है। लेकिन मैं जानता हूं कि ज़माने का रुख़ ऐसा होता है कि जो ज्ञान आप पेश कर रहे होते हैं, उसमें रुचि कम है लोगों की। लोग कुछ ऐसा चाहते हैं कि जो एक रसहीनता हमारे जीवन में न चाहते हुए भी प्रवेश कर रही है, बल्कि हमारे ऊपर हावी हो रही है और हमारे रस-लोक को निरन्तर सोख रही है, बंजड़ बना रही है, एक अवसाद हमारे भीतर पैदा हो रहा है, जो जीवन-प्रियता को आहिस्ते-आहिस्ते लील रहा है, उसका कुछ निराकरण करे।

‘किंकरमम्‌किंकरमेति’ - ये एक समस्या आई है हमारे जीवन में। करें क्या? शांति जिसे कहते हैं – समाधान – वो मिल नहीं रहा है। आज की इक्कीसवीं शताब्दी में, आप सब जानते हैं, कई ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन पर बौद्धिक विमर्श केन्द्रित है। नारी समस्या, अस्पृश्यता की समस्या, धर्म की समस्या, अर्थ की समस्या, इन सब समस्याओं को ले करके अकसर बड़े-बड़े मंचों की ओर से विचार विमर्श आयोजित होते हैं, जिसमें देश के शीर्षस्थ चिंतक शरीक़ होते हैं। लेकिन प्रायः मुझे ऐसा लगता है, मेरी जाति के कुछ और लोगों को भी ऐसा लगता होगा, कि ये विमर्श जो हुआ, उसका निष्कर्ष क्या है? हमारे हाथ क्या लगा? समाधान लगा – या नई-नई समस्याएं और खड़ी हो गईं। अकसर ये प्रतिक्रिया होती है कि ये एक शब्द समारोह है, इससे आम आदमी की समस्याओं का कोई समाधान होने वाला नहीं है।

हमारे गावों में चौपाल होती थी। जानते हैं आप सब। उन चौपालों में हम गंवार लोग,  विभिन्न विषयों पर हम बहस करते थे। विषय का हमें बोध था, नहीं था, पता नहीं, बस, हम बहस करते थे। विषय की सटीक जानकारी नहीं, पर हम बहस करते थे। आज भी है हममें, पर यह हमारी आदत नहीं विरासत है। गांव की विरासत! यह चौपालें, ये गोष्ठियां, जहां हम सब सिर्फ़ गपियाते ही नहीं थे। ये हमारे संवाद का माध्यम थे, संवेदना बांटने का माध्यम थे, ठीक वैसे ही जैसे इस आभासी जगत में चैटिंग। ये चौपालें कितनी समर्थ रही हैं, छोटी-छोटी समस्याओं के प्रति कितनी संवेदनशील रही हैं, और कैसे-कैसे फ़करों (कहावतों) में उनका समाधान लोगों को दे देती रही हैं, इसका एक उदाहरण देते हुए आगे बढ़ता हूं। चौपाल में बोले गए इस फकरे ने एक बेटे की आंखें खोल दीं “.. मइया निहारे जठरी (पेट) मेहरारू (पत्नी) निहारे गठरी (गांठ का पैसा)” – विद्या वो है जो मुक्त करे। सीधी सी परिभाषा उसकी है कि विद्या वह नहीं है जो मुक्त न करे, भार बढ़ाये। उलझने आपके सामने खड़ी कर दे, वह विद्या नहीं है। हम तो उसे अविद्या ही कहेंगे।

ऐसी अविद्या की एक आबोहवा हमारे बीच पसरी है। हम आंख फेरे बैठे हैं। चौपालों की ओर आप देखें और वहां के लोग निपढ़ ही होते हैं, उनको, आज की सभ्यता के जो तेवर हैं, जो शिष्टाचार हैं, उसमें उनकी न कोई रुचि होती है, न उनका उन्हें ज्ञान होता है। पढ़े लिखे नहीं हैं। लेकिन गांव में यदि किसी दूसरे के ही घर में कोई बीमार हो जाए तो काली-थान जाकर उसके आरोग्य के लिए सामर्थ्य से अधिक की मनौती रख लेते है। उनके मन में रहता है, ‘उसे कुछ हो जाएगा तो कल से मैं किससे बात करूंगा प्रभु’। ये संवेदना है, ग्रामीण संवेदना।

फ़ुरसत में कुछ कहना चाहा, अपनी अल्प बुद्धि से, कहीं आपको हममें कमी दिखाई देती है, वो मेरी अपनी है। मेरी अपनी कोई क्षमता नहीं है।

32 टिप्‍पणियां:

  1. मनोज जी अभी अभी अपने गाँव से लौटा हूं. ये पोस्ट तो वास्तव में मुझे लिखनी चाहिए. पहले बच्चे को हमने प्लान किया था.जब विवाह को दो साल बीत गए तो खुसुर फुसुर होनी शुरू हो गई और गाँव से लेकर मामा गाँव तक सबने कुछ ना कुछ मनौती रख दिया. बाबा धाम (देवघर) से लेकर विदेश्वर स्थान, भवानी पुर, जनकपुर तक में मुंडन के लिए. एक दो स्थान पर तो करा दिया. अभी कुछ बाकी हैं. ग्रामीण संवेदना को शायद शहर नहीं समझ सकता .

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  2. भारतीय सामाजिक संस्थाओं का विघटन काफी हो गया है। यह विघटन एक नया भयावह रूप लेता जा रहा है। फिर भी लोगबाग खुश हो रहे है, इदमेवाश्चर्यम्।
    बहुत अच्छी पोस्ट।

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  3. हँसी के पुट के साथ अपनी बात को सलीके से कह जाने के आपके हुनर के हम कायल है.

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  4. बाकी तो सब ठीक है लेकिन ये जो फ़ुरसत में अपनी ’उनकी’आप जो छवि बना रहे हैं ये अच्छी बात नहीं है। :)

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  5. @ अनूप जी

    अब जैसी भी ‘उनकी’ छवि है, आज वो अपनी ‘उत्तमांग हैं।

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  6. श्रेष्ट चिंतन तो फुरसत में ही होता है !
    बहुत सुंदर विश्लेषण किया है !

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  7. बिना ज्ञान के बहस करने वालों के आत्मविश्वास का हमेशा कायल रहा हूँ!
    जबरजस्त!

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  8. आपने जो कुछ भी लिखा है वह एक भूली सी बात की तरह मन में कौध जाती है । शहर में जीवन का अधिकांश समय व्यतीत करते-करते हम उस गांव को भूलते जा रहे हैं , जहां से हमारी शुरूआत हुई थी , हमें संस्कार मिले थे , हमें वटवृक्ष की तरह अपनी पारंपरिक विरासत मिली थी , संबंधों की लक्ष्मण रेखा को देखा था । आज जो लोग संस्कारच्यूत हो रहे हैं उसमें उनका दोष नही है अपितु दोष है कि वे लोग अपनी गांव की माटी से जुड़े संस्कार को भूल से गए हैं । हमे अपने बच्चों को अपनी माटी , कुल- देवता, गांव की सभ्यता संस्कृति एवं आत्मीय रिश्तों के बारे में परिचित कराते रहना चाहिए ताकि उन्हे इस बात का सदा एहसास रहे कि हमारा भी एक गांव है । पोस्ट अच्छा लगा ।
    धन्यवाद ।

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  9. 'फ़ुरसत' में आपने 'उत्तमांग' को ही धर लिया...अच्छी रही बतकही !

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  10. श्रेष्ट चिंतन, बहुत सुंदर विश्लेषण...

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  11. बहुत सुंदर विश्लेषण किया है !

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  12. baatein hansati hui gaharaati jaati hain...
    kahte hain bahut see ceeze hoti hai jinka jab tak saamna na ho, wo utne achhe se samajh nahi aati... ho sakta hai isiliye kuchh baaton ki gaharaai mei abhi bhi nahi utar paai...

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  13. आपकी पो्रट के कई बिन्‍दु हैं। एक बिन्‍दु गाँव की परवरिश भी है। अक्‍सर गाँव की पैदाइश को लोग गँवार कह देते हैं, शायद आपने भी इस शब्‍द का प्रयोग किया है। असल में कुछ लोग तार्किक होते हैं और कुछ सहज। यह सहजता गाँव वालों के पास अधिक होती है। शहर में शिक्षा अधिक होने से वे गाँव के व्‍यक्ति को अक्‍सर बुद्धिहीन समझ लेते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। मैंने कई बार सुदूर जनजाति गाँवों की भजन-मण्‍डली सुनी है। उनके जैसा सहज आध्‍यात्‍म मुझे और कहीं दिखायी नहीं देता। इतनी बुद्धिमत्ता से वे अपनी बात को समझाते हैं कि मैं तो कायल ही हो गयी हूँ। शहर वालों ने इतने आवरण ओढ़ लिए हैं कि जीवन में सरसता रह ही नहीं गयी है।
    आपने "उनके" का भी प्रयोग किया है। तो मनोज भाई मुझे तो अभी तक कोई परिवार ऐसा नहीं मिला जहाँ पत्‍नी यह कहे कि मेरे पति समझदार हैं। वे सब उनके सामने मूर्ख ही हैं। वैसे कुछ होते भी हैं या शायद अधिकतर। हा हा हा हा। आनन्‍द ले रही हूँ।

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  14. तुम मेरे पास होते हो गोया,
    जब कोई दूसरा नहीं होता!
    लगभग यही हाल आपका हो चला है इन दिनों.. मगर ज़रा सा उलट.. जब कोई दूसरा नहीं होता (यानी फुर्सत में) तो बस वही होती हैं.. मेरा तो रिश्ता भी ऐसा नहीं कि कुछ सकूँ... लेकिन यह एक सुखद संयोग है या आपकी परिकल्पना या कृति है... वैसे भी मैं उत्तमांग नहीं सर्वोत्तामांग (बेस्ट हाफ, नॉट बेटर हाफ)मानता हूँ...
    मेरा तो गाँव से संपर्क कभी नहीं रहा, मगर माता जी आज तक जुडी हैं अतः जो संस्कार उन्होंने हमें दिए उनमें वो सब कुछ था जो पटना शहर में रहते हुए भी ग्रामीण था. अतः उस पीड़ा का अनुभव मुझे भी जिसका उल्लेख आपने किया है.. हाँ, गंडक का स्थान गंगा ने लिया है मेरी स्मृति में.
    अपने एक आत्मीय की कविता का भाव प्रस्तुत कर रहा हूँ कि सड़कें जो विकास का प्रतीक हैं वही गाँव से शहर की ओर जाती हैं और वही शहर से गाँव की ओर भी आती हैं. वो गन्दगी शायद इसीलिये आयी है, कि गाँव के शहर की ओर पलायन से बने वैक्यूम को तो आखिर भरना ही है!!

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  15. फुर्सत के कुछ लम्हे--
    रविवार चर्चा-मंच पर |
    अपनी उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ,
    आइये करिए यह सफ़र ||
    चर्चा मंच - 662
    http://charchamanch.blogspot.com/

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  16. यह फुर‍सतिया चिंतन सचमुच काम का है।

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  17. छदामी से मिलते रहिये ऐसे ही फुर्सतियाते रहेंगे . गांव की याद दिला दी आपने . जाना है , देखकर आते है राजबली को. बाकी त एकदमे सुघर लिखे है .

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  18. उनकी हंसी (हा-हा) के साथ ‘आह’ ... का निकलना ... चुनौती के साथ चिन्ता की बात थी मेरे लिए। ‘हंसी’ एक चुनौती थी और ‘आह’ चिन्ता। छोटी नहीं बहुत बड़ी चुनौती, कि मैं भी ठहाके लगाता जाऊं और आह भी न निकले ..

    साधारण सी बात से असाधारण चिंतन करना ... अद्भुत है ... ग्रामीण परिवेश का सटीक खाका खींच दिया है ... सच ही आप बड़े साहित्यकार बन गए हैं ... जिसने भी कहा गलत नहीं कहा ... :)

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  19. फुर्सत में आपका यूँ बैठ कर पोस्ट लिखना कितना अनादायक होता है.

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  20. गाँव का आनंद तो अलग ही होता है।

    ये अलग बात है कि अब गाँव वो गाँव नहीं रह गये हैं। शहर तो शहर, अब तो गँवई जीवन भी ज्यादातर षडयन्त्रों और चपरकनातीयों का मजमा भर रह गये हैं। जहां देखों वहीं लगता है कि लोग इसी ताक में हैं कि - किसको लपेटा जाय, किसको कहां बझाया जाय, कौन आगे बढ़ गया, कौन किससे ज्यादा करीब हो गया। किसकी मेड़ डाँढ़ रोक दूं, कहां बबूल की कंटिया रख दिया जाय कि उसे रास्ता बदल कर जाना पड़े।

    एक दौं सी लगी है सब ओर।

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  21. हमें तो इसमें एक बात उत्तम लगी ...आप बड़े साहित्यकार हो गए हैं.बिलकुल सही कहा जिसने भी कहा.बस एक शंशोधन हो गए हैं नहीं...हमेशा से थे.

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  22. कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। जैसे एक शहरी को ग्रामीण वातावरण रुचता है,ग्रामीणों को भी शहरी परिवेश बहुत सुविधाजनक लगता है और अपनी कसक वे व्यंग्य के ज़रिए व्यक्त करते सुने जा सकते हैं। मुझे लगता है,यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात है। अजीत मैडम की इस बात में संदेह नहीं कि ग्राम्य जीवन में सहज अध्यात्म बसता है और हास-परिहास भी उस जीवन का सहज हिस्सा है,जिसके लिए शहरों में लाफ्टर-क्लब बनाने पड़े हैं। मगर क्षमा कीजिएगा,अब यह स्वीकार करने का वक्त है कि ग्रामीण जीवन अत्यन्त दुष्कर है और गांवों की मनोहारी छवि अब केवल उनींदे लोगों की कविता-कहानियों का अंग हैं। गांवों को शहरों में तब्दील होना होगा और संवेदना तथा जीवन के स्पंदन को नए सिरे से महसूसना होगा।

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  23. behad pasan aaya...aapke bihcaron se main purntaya sahmat hoon..sadar pranam ke sath

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  24. ऐसी चिंतनपूर्ण फुरसत मिलती रहे.

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  25. प्रदूषण गाँव से शहरों तक एक सा ही है ! अब कम कोई नहीं रहा !
    चैटिंग के बहाने उच्च साहित्यिक चिंतन!

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  26. विचारणीय। लेकिन ऐसा तो होता ही है सब जगह…ब्लॉग जगत भी ठीक स्थान हो अया है इसके लिए…आभासी ही सही, ठीकठाक है…

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  27. सरजी मैं तो आज भी इस सुख को भोग रहा हूं। हलंाकि बराबर तो नहीं हो पाता है पर कभी कभी बैठ जाता हूं। मेरे घर के पास ही चौपाल बैठती है जो एक बजे रात तक खिंच जाती है और उसमे बैठने के बाद बीबी की डांट लाजिम है पर बैठ ही जाता हूं....

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  28. गाँवों में संवेदना शायद अभी भी जीवित है. वैसे सरकारी नीतियां तो उन्हें शहरों की भद्दी कॉपी ही बनाती जा रही हैं...

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