फुरसत में…
राजगीर के दर्शनीय स्थलों की सैर
प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। बिहार की राजधानी पटना से लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं।
मगध साम्राज्य की राजधानी
प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। प्राचीन काल में इसे कई नामों से जाना जाता था। “रामायण” में इसका नाम “वसुमती” बताया गया है। इसका संबंध पौराणिक राजा वसु से है जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे ही इस नगर के प्रतिष्ठाता थे। महाभारत और पुराणों में इसे “बारहद्रथपुर” कहा गया है। इस नाम से वृहद्रथ की याद आती है। वे जरासंध के पूर्वज थे। इसे “गिरिव्रज” भी कहा जाता क्यों कि यह चारों तरफ़ से पहाड़ियों से घिरा है। सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत आए प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग के द्वारा लिखी गई बौद्ध पुस्तकों में इसे “कुशाग्रपुर” कहा गया है। ह्वेन सांग के अनुसार यह अच्छी किस्म की घासों का नगर था। इन्हीं खुश्बूदार घासों के उगने के कारण इसका नाम कुशाग्रपुर पड़ा। किन्तु दूसरा कारण भी हो सकता है। वृहद्रथ के बाद यहां के राजा कुशाग्र हुए और उनके ही नाम पर इस जगह का नाम कुशाग्रपुर पढ़ा हो। किन्तु इसका नाम “राजगृह” यानी राजाओं का घर ज़्यादा सही प्रतीत होता है। यह सदियों तक मगध की राजधानी रही।
राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ा है। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंध के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं।
रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने “गिरिव्रज” नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। वृहद्रथ अपनी शूरता के लिए मशहूर था। उसने काशिराज की जुड़वा बेटियों से विवाह किया था। शादी के बहुत दिनों बाद तक उसके कोई संतान नहीं हुई। वृद्धावस्था आने पर वह अपना राजपाट अपने मंत्रियों के हवाले कर अपनी पत्नियों के साथ वन में तपस्या करने चला गया। एक दिन उसके आश्रम में महर्षि गौतम के वंशज चण्डकौशिक मुनि पधारे। उनका वृहद्रथ ने काफ़ी स्वागत-सत्कार किया। उससे प्रसन्न होकर मुनि ने राजा को वर मांगने को कहा। रजा ने कहा मैं बहुत ही अभागा इंसान हूं। जब पुत्र ही नहीं हुआ तो और क्या आपसे मांगूं?
यह सुन मुनि का दिल पसीजा और उन्होंने एक वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। उनकी गोद में एक पका हुआ आम गिरा। मुनि ने उसे राजा को दिया और कहा कि इसे अपनी पत्नियों को खिला दे। राजा ने उसके दो टुकड़े कर दोनों रानियों को खिला दिया। रानी गर्भवती हुईं। जब उनके बच्चे पैदा हुए तो दोनों को घोर निराशा हुई। उनके बच्चे का शरीर आधा था। यानी एक के केवल एक हाथ, एक आंख, एक पैर,आदि। उसे देख कर ही घृणा होती थी। मांस के इस मनहूस पिंड को उन्होंने दाइयों के हवाले किया और कहा कि इसे फेंक दिया जाय। दाइयों ने उसे कूड़े के ढ़ेर पर फेंक दिया। कुछ देर के बाद उधर से एक राक्षसी गुज़र रही थी। उसने मांस के टुकड़े को देखा तो फूली न समाई। खाने के लिए उसने ज्यों ही मांस के दोनों पिंडों को उठाया तो वे आपस में जुड़ गए और एक सुन्दर बच्चा बन गया। राक्षसी ने एक सुन्दर युवती का वेश धारण किया और बच्चे को ले जाकर राजा को सौंपती हुई बोली कि यह आपका बच्चा है। राजा के ख़ुशी की सीमा नहीं रही। वह अपनी पत्नियों और बच्चे के साथ मगध वापस लौट आया और राजकाज करने लगा।
मुनि चण्डकौशिक के वरदान के कारण बच्चा काफ़ी बलशाली हुआ किन्तु उसका शरीर चूंकि दो टुकड़ों के मिलने से बना था, इसलिए कभी भी अलग हो सकता था। वही बच्चा जरासंध के नाम से मशहूर हुआ। वह अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध था। जरासंध ने कृष्ण के मामा और मथुरा के राजा कंस के साथ वैवाहिक संबंध क़ायम किया। महाराज उग्रसेन के लड़के कंस ने जरासंध की बेटी से शादी कर लिया था। कंस को श्री कृष्ण ने उसके पापों की सज़ा देते हुए वध कर डाला। श्री कृष्ण और उनके साथियों ने जरासंध के विरुद्ध भी युद्ध किया। तीन वर्षों तक लड़ाई हुई किन्तु अंत में उनकी हार हुई और मथुरा छोड़कर दूर द्वारका में जाकर रहना पड़ा।
उन दिनों इन्द्रप्रस्थ में पांडव न्यायपूर्वक राज कर रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों की इच्छा हुई कि राजसूय यज्ञ कर सम्राट का पद धारण किया जाए। सलाह-मशवरा के लिए श्री कृष्ण को संदेश भेजा गया। संदेश पाकर श्री कृष्ण द्वारका से इन्द्रप्रस्थ पहुंचे। युधिष्ठिर को भरोसा था कि श्री कृष्ण सही सलाह देंगे। उन्होंने बताया कि मगध के राजा जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर उन्हें अपने वश में कर रखा है। यहां तक कि शिशुपाल जैसे पराक्रमी राजा ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। अतः बिना जरासंध को हराए सम्राट पद पाना दूर की बात है।
यह सब सुन शान्तिप्रिय युधिष्ठिर ने साम्राज्याधीश बनने का विचार त्याग दिया। यह भीमसेन को नहीं भाया। उसने कहा कि श्री कृष्ण की नीति कुशलता, उसका खुद का बल और अर्जुन का शौर्य मिल जाए तो वे जरासंध की शक्ति पर क़ाबू पा सकते हैं। अर्जुन ने भी भीम का समर्थन किया और कहा कि जिस काम को हम कर सकते हैं उसे हमें ज़रूर करना चाहिए। अंत में निश्चय हुआ कि जरासंध का वध करना उनका कर्तव्य है। किन्तु श्री कृष्ण ने उन्हें आगाह किया कि उसपर हमला करना बेकार है, उसे तो मल्ल युद्ध में ही हराया जा सकता है।
भीम, अर्जुन और श्रीकृष्ण एक साथ वेश बदल कर राजगृह में प्रवेश किए। निःशस्त्र और वल्कल धारण किए अतिथि को कुलीन समझ जरासंध ने उनका आदर के साथ स्वागत-सत्कार किया। जवाब में सिर्फ़ श्री कृष्ण ही बोले, भीम और अर्जुन चुप रहे। श्री कृष्ण ने बताया कि उनका मौन व्रत है जो आधी रात के बाद ही खुलेगा। जरासंध ने तीनों अतिथियों को यज्ञशाला में ठहराया और जब आधी रात हुई तो अतिथियों से मिलने गया। परन्तु वहां उसे यह देख कर ताज़्ज़ुब हुआ कि उनकी पीठ पर ऐसे चिन्ह हैं जो धनुष की डोरी से पड़ते हैं। ये तो ब्राह्मण नहीं है। उसने कहा तुम लोग तो ब्राह्मण नहीं दिखते, सच बताओ, कौन हो तुम लोग? इस पर सच बताते हुए उन लोगों ने कहा कि हम तुमसे द्वन्द्व युद्ध करने आए हैं। उन्होंने अपना परिचय भी दिया। जरासंध ने उनका प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा कि कृष्ण तो ग्वाले हैं, और अर्जुन बच्चा है इसलिए उन दोनों से लड़ने का सवाल नहीं है। वह भीम से लड़ने के लिए तैयार हो गया।
अखाड़े में भीम और जरासंध के बीच कुश्ती शुरु हुआ। तेरह दिन तक लगातार दोनों में मल्ल युद्ध होता रहा। चौदहवें दिन जरासंध थोड़ी देर के लिए अपनी थकान मिटाने के लिए रुका। यह देख श्री कृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया। भीमसेन ने जरासंघ को उठाकर ज़ोर से चारो ओर घुमाया और ज़मीन पर पटक कर उसके दोनों पैर पकड़ कर बीच से चीर डाला। जरासंध को मरा हुआ समझ कर भीम अपनी जीत का उल्लास मना ही रहा था कि उसके चिरे हुए टुकड़े आपस में जुट गए और वह खड़ा होकर फिर से लड़ने लगा।
अब समस्या थी कि जरासंध को कैसे हराया जाए? श्री कृष्ण ने भीम को फिर इशारे में समझाया। उन्होंने एक तिनका उठाया। उसे बीच से चीरा। उन्होंने दायें हाथ के टुकड़े को बाईं ओर और बाएं हाथ के टुकड़े को दाईं ओर फेंक दिया। अब बात भीम की समझ में आ गई। उसने दुबारा जरासंध के शरीर को चीर डाला और दोनों हिस्सों को एक दूसरे की विपरीत दिशा में फेंक दिया। अब टुकड़े आपस में नहीं जुड़ सके। इस प्रकार उसने जरासंध को हराया और उसे मार डाला। बंदीगृह के सभी राजाओं को कैद से आज़ाद कर दिया गया। जरासंध के बेटे सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बिठाकर वे इन्द्रप्रस्थ लौट आए।
क्रमशः (अभी राजगृह के दर्शनीय स्थल की जानकारी बाक़ी है ...)
रोचक, दर्शनीय, आगे के लिए प्रतीक्षा है.
जवाब देंहटाएंइस दर्शनीय स्थल की जानकारी पहले मुझे नहीं थी.
जवाब देंहटाएंआभार.
आपका यह लेख पढ़कर ३५ साल पुरानी स्मृतियाँ जाग गयीं। आभार।
जवाब देंहटाएंऐतिहासिक जानकारी....आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. मन प्रसन्न हो गया. आगे की कड़ी एक सप्ताह बाद पढ़ सकूँगा.आभार.
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुंदर ||
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी।
जवाब देंहटाएंछात्र जीवन में नालंदा और राजगिरि का भ्रमण किया अवश्य था पर इतनी जानकारी तब नहीं मिल सकी थी. आप बहुत अच्छी जानकारी दे रहे हैं भ्रमण को पुनः स्मरण कर अब नए अर्थ दे रहा हूँ. अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी. नालंदा विश्वविद्यालय की विस्तृत जानकारी दे सकें तो आभारी रहूँगा.
जवाब देंहटाएंयह दुर्लभ रथचक्र चिन्ह रोमांचित कर गए .....
जवाब देंहटाएंआपका आभार !
बहुत अच्छा लेख है इस तरह के दुर्लभ चित्र व जानकारियों के लिए आभार इतिहास में रूचि रख्नने वालों को यह विशेष पसन्द आयेगा।
जवाब देंहटाएंbahut badhiya, gyanverdhak jankari, aise hi aage bhi hume nayi anayi aur gyanverdhak jankari dete rahiyega .......badhai
जवाब देंहटाएंयह जानकारी मेरे लिए नयी है ... जरासंघ की मृत्यु के विषय में पता था जन्मकथा नहीं पता थी ...
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति
अच्छी जानकारी , आभार
जवाब देंहटाएंफुरसत में ज्ञान वर्षा हो रही है यहाँ . राजगीर के इतिहास के बारे में बस इतना पता था की वो मगध राज्य की राजधानी थी . अब याद आया की जरासंध मगध नरेश ही था .
जवाब देंहटाएंहम तो मगध से ही आते हैं.. अच्छा लगा असली मगध का प्रामाणिक वर्णन!!
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंबड़ा ही रोचक विवरण।
जवाब देंहटाएंदीपावली के शुभ अवसर पर, चल अरुणिम देख छटा
जवाब देंहटाएंदो नवगीतों को लेकर के, पूर्व-आभास घटा
राजगीर के दर्शनीय कर, नीरसता तनिक बटा
राम-राम भाई जी कहता, गिल्टी का रोग लटा
लिंक आपकी रचना का है
अगर नहीं इस प्रस्तुति में,
चर्चा-मंच घूमने यूँ ही,
आप नहीं क्या आयेंगे ??
चर्चा-मंच ६७६ रविवार
http://charchamanch.blogspot.com/
@ कौशलेन्द्र भाई!
जवाब देंहटाएंइस लिंक पर देखें। इस विषय पर पहले भी लिख चुका हूं॥
नालंदा विश्वविद्यालय
राजगीर के बारे में पहेली बार पढा, आभार.
जवाब देंहटाएंजरासंध की कथा तो सुन रखी थी पर पौराणिक सन्दर्भ के साथ स्थान विशेष से साक्षात्कार हुआ, यह तृप्ति दायक है।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति के लिए आभार,
ये दर्शनीय स्थल इस बात का प्रमाण हैं कि महाभारत की कथा कोरी कपोल कल्पना नहीं है .
जवाब देंहटाएंइन दुर्लभ जानकारियों के लिये आभार !
bahut acchhi aur nayi jaankari mili.
जवाब देंहटाएंaabhar.
वाह ..
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तार से आपने सारे महत्वपूर्ण तथ्यों को इस पोस्ट में पिरोया है .. बहुत ज्ञानवर्द्धक !!
रोचक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंविस्तृत रोचक जानकारी राजगीर के प्रति उत्सुकता जगाती है !
जवाब देंहटाएंi m posted in Rajgir..one of the best tourist centre of bihar..
जवाब देंहटाएंa new conventioncentre ,police acadmy centre .and nalanda university is also being constructed...here... very infoirmative essay..
आज तो दिन बन गया..बहुत रोचक वर्णन है.और मेरे लिए नई जगह भी.
जवाब देंहटाएंआगे का बेसब्री से इंतज़ार है.
बहुत हि रोचक जानकारी!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
आपकी किसी पोस्ट की हलचल है ...कल शनिवार (५-११-११)को नयी-पुरानी हलचल पर ......कृपया पधारें और अपने अमूल्य विचार ज़रूर दें .....!!!धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय लेख