भारत और सहिष्णुता-अंक-22
जितेन्द्र त्रिवेदी
अध्याय –9
पिछले अध्याय में विदेशी आक्रमणकारियों के शृंखलाबद्ध आक्रमणों के उल्लेख के पीछे मंशा यह दिखाने की थी कि भारत में मुसलमानों का आना कोई अनूठी घटना नहीं है। जिस तरह भारत में ई.पू. 500 से ही अनेकानेक विदेशी जातियॉं हमलावर के रूप में आयीं हैं, उसी तरह मुसलमानों का भी आगमन एक चिर-परिचित बाहरी जाति के भारत में प्रवेश के रूप में लिया जाना चाहिये किन्तु भारत में मुसलमानों के प्रवेश को इतने सरल ठंग से लेने में कई लोग आपत्ति रखते हैं। वे लोग अन्य विदेशी आक्रमणकारियों – बौद्ध सेनापति चंगेज खॉँ और बुर्दान्त आक्रांता हलाकू के द्वारा मुसलमानों से कहीं अधिक किये गये नरसंहार और नृशंसता को केवल इसलिये माफ कर चुके हैं कि यवन, शक, कुषाण, हूण, मंगोल और ऐसी ही कई खूँखार विदेशी जातियॉँ अंतत: हिन्दू धर्म में ही विलीन हो गयी और आज उनका अलग से कोई अास्तिव नहीं दिखायी देता किन्तु भारत में मुसलमान एक अलग धर्म के रूप में मौजूद है। डा. रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में चंगेज खॉँ की नृशंसता के बारे में लिखा है कि चंगेज खॉं बौद्ध था किन्तु इस बौद्ध सेनापति ने इतनी निर्दयताऍँ कीं कि इतिहास आज तक उसकी याद रोमांच के साथ करता है। विश्व विजय के उद्देश्य से उसनें बुखारा, समरकंद, हेरात, बलख और कितने ही नगरों को भूनकर राख कर दिया। उसका उत्तराधिकारी हलाकू उससे भी ज्यादा जालिम था, किन्तु उन्हे भी माफ कर चुके है और मुसलमानों के बारे में अभी भी इस देश के कुछ लोगों के दिल साफ नहीं हुए हैं।
...........इतिहास की इन घटनाओं के प्रकाश में देखने पर भारत में इस्लामी अत्याचार के कुछ मनोरंजक पहलू सामने आते हैं। पहली बात तो यह है कि गजनवी और गौरी के साथ जो इस्लाम भारत पहुँचा, वह वही इस्लाम नहीं था जिसका आख्यान हजरत मुहम्मद और उनके शुरू के चार खलीफाओं ने किया था अथवा जो इस्लाम, गजनवी के आक्रमण के पूर्व, सौदागरों और फकीरों के साथ भारत के पश्चिमी तटों पर उतरा था। वास्तव में, यह वह इस्लाम था, जो एम.एन. राय के मतानुसार, तुर्को और तातार अनुयायियों के हाथों व्यभिचरित हो चुका था।
तीसरी बात यह कि गजनवी और गौरी – जैसे मुसलमान इस्लाम के सेवक नहीं थे, उनमें दूसरों का धन लूटकर आनन्द मनाने की भावना ही प्रधान थी। इस्लाम की दुहाई, तौहीद का प्रचार और मूर्ति पूजा का खण्डन, ये सिर्फ लोभ को छुपाने के आवरण मात्र थे। गजनवी ने भारत पर सत्रह बार चढ़ाई की, लेकिन, इन चढ़ाइयों में उसने इस्लाम का प्रचार कुछ भी नहीं किया। इतिहास इतना ही जानता है कि वह इस देश का धन लूटने को आता था और यहॉं की लूट से उसने अपनी राजधानी को मालामाल किया भी। तैमूरलंग ने जब हिन्दुस्तान की ओर नज़र डाली तब, कहते हैं, लोगो ने उससे कहा कि हिन्दुस्तान जाने की ऐसी क्या जरूरत हो सकती है, वहॉँ तो मुसलमानों का राज्य पहले से ही मौजूद है। किन्तु राज्य मुसलमानों का हो या हिन्दुओं का तैमूरलंग भारत की समृद्धि को लूटने के लिये बेकरार था। अतएव, वह सन् 1398 ई. में सिंधु के पार चला आया। मुहम्मद तुगलक को हरा कर उसने दिल्ली में डेरा डाल दिया और लूट मार मचाकर फिर समरकन्द को लौट आया।
इतिहास लेखकों का यह भी मत है कि महमूद गजनवी की सेना में हिन्दू सिपाही भी काफी संख्या में काम करते थे। इन सिपाहियों के मध्य एशिया के युद्धों में महमूद का साथ दिया था। तिलक नाम का एक हिन्दू महमूद की सेना में कुछ ऊँचे पद का अधिकारी था और नियाल्तगीन नामक सरदार ने जब महमूद के खिलाफ विद्रोह किया, तब उसे दबाने को तिलक ही भेजा गया था।
एक स्थित यह भी हुई कि जब इस देश पर मुगलों का आक्रमण हुआ, तब पठान और राजपूत आपस में दोस्त हो गये और यह दोस्ती काफी दिनों तक चलती रही। हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की सेना की एक पंखी बिलकुल पठानों की थी और यह पठान महाराणा के प्रति अत्यन्त वफादार थे।
ऐसे लोग भारत में केवल एक धर्म को प्रमुखता से देखने में ही आनंद की अनुभूति की आकांक्षा रखते हैं और भारत जिन जातीय-विजातीय, भीतरी-बाहरी तत्वों से बना है उसे अनदेखा कर देना चाहते हैं। इस तरह तो उन्हें भारत में उपस्थित सिर्फ मुसलमानों से ही नहीं अपितु ईसाइयों, पारसियों और बौद्धो से भी परेशानी महसूस होती होगी क्योंकि ये धर्म भी भारत में हिन्दू धर्म से इतर अलग अस्तित्व रखे हुए है। मंगोल, तातर, और हूण जैसी बर्बर जातियों के इस देश में किये गये बर्बर कृत्यों को हम सिर्फ इसलिए माफ कर चुके हैं कि अब उनका अलग से कोई अस्तित्व दिखाई नहीं देता और वे तत्व किसी न किसी रूप में हिन्दू धर्म में ही विलीन हो गये किन्तु जो समुदाय उन्हीं की तरह बाहर से आये थे और आज इस देश के हर क्षेत्र में अपनी भूमिकाएँ निभा रहे हैं, वे हमें केवल इसलिये खटक रहे हैं कि धर्म के रूप में उनका अलग अस्तित्व क्यों है? ऐसा सोचना भारत की बहुलतावादी प्रवृत्ति, जिसके दर्शन हमनें पीछे के अध्यायों के पन्ने-पन्ने में किये हैं, को झुठलाना हैं और यह इस देश की महान समाहनकारी परंपरा के भी विरूद्व है। अत: हिन्दू-मुस्लिम संबंधो की व्याख्या के माध्यम से मेरा यह विनम्र प्रयास रहेगा कि यदि हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न का उत्तर बहुत सरल नहीं है तो इस प्रश्न का उत्तर बहुत जटिल भी नहीं है।
इस अध्याय में मैं इस्लाम के आगमन के बाद हिन्दू मुसलमानों के संपर्क से जिस संस्कृति का निर्माण हुआ, उसे व्याख्यायित करने की कोशिश करूँगा। हम यह देखने की भी कोशिश करेंगे कि किस तरह भारत के संपर्क में आकर इस्लाम ने ‘तसब्बुफ’ (तसब्बुफ का अर्थ हिन्दी में लिखना है) की राह पकड़ी और भारत ने इस्लाम के संपर्क से भक्ति आंदोलन की राह पकड़ी। किन्तु अपनी बात शुरू करने से पहले मैं हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न की भूमिका बनाते हुए डॉ. रामधारी सिंह दिनकर की पुस्त्क "संस्कृति के चार अध्याय" से एक मार्मिक बात कहना चाहता हूँ: "हिन्दुओं को इस बात का ज्ञान प्राप्त करना है कि इस्लाम का भी अर्थ शान्ति-धर्म ही है। इस धर्म का मौलिक रूप अत्यन्त तेजस्वी था तथा जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किया, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। इन अत्याचारों को हमें इसलिये भूलना है कि उनका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं जो अब समाप्त हैं और इसलिए भी कि इन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकेंगे।"
इतिहास को खंगाल कर आपने जो शोधपूर्ण दस्तावेज तैयार किया है, वह अमू्ल्य धरोहर बन गया है। आपका यह महती कार्य वर्षों तक स्मरण किया जाएगा।
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार ||
इस तरह के शोधपूर्ण आलेखों ने हिन्दी ब्लॉगजगत की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। आभार आपका जितेन्द्र जी।
जवाब देंहटाएंसातवें और आठवें क्लास में मैंने जो इतिहास पढ़ा था वो याद दिला दिया आपने .सुन्दर आलेख.
जवाब देंहटाएंNice .
जवाब देंहटाएंयह बात एक देश की नहीं है, यह बात एक काल की भी नहीं है।
धर्म कहता है कि सच बोलो और सच बोलने वाले को शासक मार देते हैं हमेशा से,
यह दुनिया हमारे लिए नहीं है।
अच्छी बात है कि यहां मौत आ जाती है।
अगर जीवन अनंत होता यहां पर तो हम कैसे जी पाते ?
इस तरह के शोधपूर्ण आलेखों ने हिन्दी ब्लॉगजगत की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। आभार आपका जितेन्द्र जी।
http://commentsgarden.blogspot.com/
सुन्दर विश्लेषण, सत्ता बहुधा धर्म का सहारा लेती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख ... एक गलती है ... माफ करियेगा ...
जवाब देंहटाएंचंगेज खान बौद्ध नहीं थे ... बौद्ध धर्म को खान वंश में प्रवेश प्राप्त हुआ चंगेज खान के बहुत बाद ...
शोधपूर्ण और सार्थक सोच लिये बहुत रोचक आलेख...
जवाब देंहटाएंमैं मनोज कुमार जी से सहमत हूँ। इस तरह की शोधपूर्ण रचनाओं से ब्लॉग जगत की समृद्धि के साथ-साथ गुणवत्ता में भी वृद्धि हो रही है।
जवाब देंहटाएं