फुरसत में…
राजगीर के दर्शनीय स्थल की सैर-2
मनोज कुमार
पिछले अंक में हमने देखा कि ई.पू. छठी शताब्दी के पहले मगध में बार्हद्रथ के वंश का शासन था। इसकी राजधानी राजगृह या गिरिव्रज में थी। राजगृह यानी राजा का घर या निवास स्थान। चारों तरफ़ पाहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसका नाम “गिरिव्रज” पड़ा।
“गृध्रकूट”
राजगृह बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। राजकुमार सिद्धार्थ (बुद्ध) संसार त्यागने के बाद मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा से इस नगर में आए थे। अपने धर्म के प्रचार के लिए लम्बे समय तक यहां ठहरे। बुद्ध के लिए इस नगर का सबसे प्रिय स्थल “गृध्रकूट” अथवा गीद्ध का शिखर रहा। गृध्रकूट पहाड़ या गीद्ध शिखर नगर के बाहर एक छोटा सा पहाड़ है। गीद्ध के चोंच जैसी अजीब आकृति ही शायद इसके इस प्रकार के नाम का कारण है। इस जगह बुद्धत्व प्राप्ति के 16 साल बाद गौतम बुद्ध ने यहां पर 5000 बौद्ध संन्यासियों, जनसाधारण और बोधिसत्व की सभा में दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन का सिद्धान्त लिया। गृध्रकूट पर ही उन्होंने पद्मसूत्र को प्रस्तुत किया जिसमें सभी प्राणियों को मोक्ष प्रदान करने का वादा किया गया है। इस सूत्र में भगवान बुद्ध की करुणापरायणता की साफ झलक मिलती है जो आम लोगों के पार्थिव तकलीफ़ों को लेकर परेशान थे। जो भी बुद्ध के सामने अपना हाथ जोड़े या मुंह से “नमो बुद्ध’ का सिर्फ़ उच्चारण मात्र करता उन सबके लिए बुद्धत्व प्राप्ति की बात बताई गई है।
भगवान बुद्ध ने गृध्र कूट से ही ‘प्रज्ञा पारमिता’ सूत्र अथवा सही ज्ञान के सूत्र का भी उपदेश दिया था। इन उपदेश संग्रह को प्रदान करने में भगवान बुद्ध को 12 साल लगे और उन्होंने ख़ुद आनन्द से कहा कि इसमें उनके सारे उपदेशों का सारांश निहित है। फा-हियेन ने इस जगह एक गुफा का ज़िक्र किया है। व्हेन सांग ने इसके नीचे एक हॉल का ज़िक्र किया है जहां पर भगवान बुद्ध बैठए और उपदेश दिया करते थे। अब भी यहां शान्ति का वातावरण है।
ह्वेन सांग के अनुसार जब बिम्बिसार भगवान बुद्ध से मिलने गृध्रकूट के पहाड़ पर जाने लगा तब उसने अपने साथ बहुत से लोगों को भी ले लिया जिन्होंने घाटी को बराबर बनाया और खड़ी चट्टानों के बीच पुल बनाया और पहाड़ी पर चढ़ने के लिए दस कदम चौड़ी और पांच लम्बी सीढ़ी का निर्माण किया।
वृहद्रथ का पुत्र जरासंध शक्तिशाली शासक था। जरासंध के बाद भी इस वंश के शासक राजगृह पर शासन करते रहे। ई.पू. छठी शताब्दी में मगध में हर्यक कुल का शासन था। भगवान बुद्ध के समय इसी वंश का शासक बिम्बिसार मगध में राज कर रहा था। वह सोलह महाजनपद का काल था। उस समय के चार महान शक्तिशाली राजाओं में से एक बिम्बिसार भी था। अन्य तीन थे कोसल के प्रसेनजीत, वत्स के उदयन और अवन्ति के प्रद्योत। बिम्बिसार का वंश उतना ऊंचा नहीं था। बिम्बिसार एक सामान्य सामंत भट्टिय का पुत्र था। लेकिन अपने पौरुष और राज्य के विस्तार में वह बाक़ी तीनों के बराबर था। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था। अपने राजनीतिक कौशल से उसने मगध की विजययात्रा अनेकों राज्यों पर स्थापित की और सुदृढ़ मगध साम्राज्य की नींव डाली। अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए उसने उस समय के राज्यों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने कोशल की राजकुमारी कोशल देवी जो महाकोशल की बेटी और प्रसेनजीत की बहन थी, से विवाह किया। इसके फलस्वरूप उसे दहेज में काशी मिली। इस प्रकार कोशल और मगध में मित्रता हो गई।
बिम्बिसार ने उसके बाद अपनी नज़र वैशाली पर डाली। वैशाली के लिच्छवि राजा चेटक की पुत्री चेलना के साथ विवाह करके उसने लिच्छवियों की मित्रता प्राप्त कर ली। इसके अलावे उसने मद्र की राजकुमारी क्षेमा के साथ भी विवाह किया। इस प्रकार मगध का प्रभाव क्षेत्र और भी विस्तृत हो गया। वैवाहिक संबंधों की नींव पर बिम्बिसार ने मगध के प्रसार की अट्टालिका खड़ी की। अंग आदि को जीत कर अपने राज्य में मिलाया। वह भगवान बुद्ध का समर्थक बना।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि बिम्बिसार अपने पुत्र दर्शक की सहायता से शासन करता था। उसके समय जीवक नामक प्रसिद्ध वैद्य और महागोविन्द नामक प्रसिद्ध वास्तुकार भी हुए। महागोविन्द ने ही राजगृह का निर्माण किया था। उसका शासन काल ई.पू. 544 से ई.पू. 491 तक था।
ऐसा विश्वास चला आ रहा है कि बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बना लिया और उसकी हत्या कर बलपूर्वक सिंहासन पर अधिकार कर लिया। अजातशत्रु ने बिम्बिसार को जहां बन्दी बनाकर रखा उस जगह को बिम्बिसार का कारागार कहा जाता है। यह लगभग 60 कि.मी. का एक क्षेत्र है जिसके चारो तरफ़ 2 मी. चौड़ी दीवार है। इसके कोने पर वृत्ताकार बुर्ज बने हैं। बिम्बिसार ने ख़ुद अपने बन्दी जीवन के लिए इस जगह को चुना था क्योंकि इस जगह से वह गृध्रकूट पर्वत की चोटी पर अपने शैलावास पर चढ़ते हुए भगवान बुद्ध के दर्शन कर पाता। खुदाई से निकले इसके फ़र्श पर लगे लोहे के कड़े से इसके कारागार के अवशेष होने का प्रमाण मिलता है।
अजातशत्रु का अन्य नाम कुणिक भी था। पहले वह अंग की राजधानी चंपा में शासक नियुक्त हुआ और वहीं उसने शासन की कुशलता प्राप्त की। जनश्रुति के अनुसार भगवान बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त के उकसाने पर ही उसने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था। बौद्ध साहित्य में उसे कोशल देवी का और जैन साहित्य में उसे चेलना का पुत्र कहा गया है। अजातशत्रु के समय ही कोशल और मगध में संघर्ष शुरु हुआ। यह काफ़ी दिनों तक चला। इसमें कभी मगध तो कभी कोसल की विजय होती रही। बाद में कोसल के राजा प्रसेनजीत ने संधि कर ली और अपनी कन्या वजिरा का विवाह अजातशत्रु के साथ कर दिया। अंग, काशी, वैशाली आदि प्रदेशों को जीत कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य खड़ा किया।
बाद में अजातशत्रु ने भी भगवान बुद्ध की शरण ली और बौद्ध धर्म को अपना लिया। पांचवीं सदी में भारत की यात्रा करने वाले चीनी यात्री फा-हियेन के अनुसार पहाड़ियों के बाहरी हिस्से में नया राजगृह नगर का निर्माण अजातशत्रु ने ही किया था। ह्वेन सांग ने भी इसका समर्थन किया है। पाली भाषा में लिखी पुस्तकों में कहा गया है कि उसने नए सिरे से राजगृह की किलाबन्दी की क्योंकि उसे अवन्ति के राजा प्रद्योत द्वारा आक्रमण की आशंका थी। बुद्धघोष ने कहा है कि नगर भीतरी और बाहरी दो हिस्सों में बंटा था। नगर के चारो तरफ़ 32 बड़े द्वार और 64 छोटे द्वार थे।
भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद अजातशत्रु उनके भस्म में से अपने हिस्से का भाग लाकर उस पर उसने राजगृह में एक स्तूप खड़ा किया। पुरातत्व विभाग के अनुसार अजातशत्रु द्वारा बनाया गया स्तूप का पता नहीं लगा। कुछ समय के बाद जब अग्रणी बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध के उपदेशों की शिक्षा देने के उद्देश्य से एक मंडली बनाने के लिए एक सभा बुलाई तब अजातशत्रु ने इस मकसद के लिए सप्तपर्णी गुफा के सामने बने एक खास हॉल में उन लोगों के ठहरने का प्रबंध किया। उसका शासन काल ई.पू. 491 से ई.पू. 459 तक था।
अजातशत्रु के बाद दर्शक मगध का राजा हुआ। पर जैन और बौद्ध साहित्य के अनुसार उदायिन राजा हुआ था। उदायिन ने पाटलिपुत्र नगर बसा कर राजगृह से अपनी राजधानी बदल ली। उसने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र स्थापित की। संभवतः वहां से बहने वाली गंगा नदी द्वारा संचार व्यवस्था की सुविधा को ध्यान में रखकर उसने राजधानी बदली होगी।
नागदशक को मगध की गद्दी से हटा कर शिशुनाग मगध का राजा बना। उसने राजगृह को एक बार फिर से मगध की राजधानी बनाया। यहीं से राजगृह की अवनति शुरु हुई। कालाशोक या काकवर्ण ने पुनः पटलिपुत्र को मगध की राजधानी बना डाला। परन्तु अशोक के द्वारा इस स्थान पर एक स्तूप और एक स्तम्भ का निर्माण इस बात को सिद्ध करता है कि ईसा पूर्व तीसरी सदी में भी इस स्थान का महत्व बिल्कुल खत्म नहीं हुआ था।
क्रमशः (अभी राजगृह के दर्शनीय स्थल की जानकारी बाक़ी है ...)
शानदार यात्रा विवरण
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
RajputsParinay
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंशानदार इतिहास का जानदार विवरण।
जवाब देंहटाएंइतिहास के अविस्मर्णीय पडावों की पड़ताल
जवाब देंहटाएंये जानकारी मेरे लिए बिलकुल नई है.आभार.
जवाब देंहटाएंयह मेरा परम सौभाग्य रहा कि राजगीर के दर्शनीय स्थलों की सैर के समय आपका समीप्य मिला था । इसे पढ कर मन अब यह कहता है कि पुनः एक बार राजगीर की सैर करूं ताकि विस्मृत हुए तथ्यों को स्मृतियों की मंजूषा में संजोकर रख सकूँ । विस्तृत प्रस्तुति के लिए आप मेरी ओर से धन्यवाद के पात्र हैं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबढिया यात्रा विवरण। बधाई।
जवाब देंहटाएंरवि को रविकर दे सजा, चर्चित चर्चा मंच
जवाब देंहटाएंचाभी लेकर बाचिये, आकर्षक की-बंच ||
रविवार चर्चा-मंच 681
आज 29- 10 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
बहुत ही जानकारीपूर्ण विवरण. हमलोग कई वर्ष पूर्व जब गए थे वहाँ, नक्सलियों की वजह से कुछ भागों में जाना मुमकिन नहीं था.
जवाब देंहटाएं@ अभिषेक जी
जवाब देंहटाएंहम भी जब 1998 में गये थे, कुम्भ लगा था, और उन दिनों वहां पर हमारे विभाग की एक फ़ैक्टरी का शिलान्यास हुआ था तो हमारे गाड़ी के ड्राइवर ने उसी नक्सली समस्या के कारण उधर जाने से मना कर दिया था और चार बजे से पहले उस क्षेत्र को छोड़ देने को बोला।
पर अब वैसी कोई बात नहीं है।
आपके इस लेख के मध्यम से ऐतिहासिक जानकारी मिली ... ज्ञानवर्द्धक पोस्ट के लिए आभार
जवाब देंहटाएंइतिहास और पुराण दोनों का संगम , हम बांच रहे है , साथ में अपनी इतिहास की जानकारी को आंक रहे है . शानदार श्रृंखलाबद्ध आलेख .
जवाब देंहटाएंयात्रा-वृत्त काफी रोचक ढंग से आपने प्रस्तुत किया है बिलकुल एक प्रोफेशनल व्यक्ति की तरह। आभार।
जवाब देंहटाएंमैं भी बचपन में गया था... कुछ धुंधली यादें ताज़ी हो रही हैं.. पुनः जाने की इच्छा बलवती हो गई है... सुन्दर यात्रा वृतान्त्न...
जवाब देंहटाएंबहुत ही जानकारीदायक आलेख मिला।
जवाब देंहटाएंमैं बिम्बिसार के बारे में विस्तार से जानने को उत्सुक था।
जैन साहित्य में बिम्बिसार को श्रेणिक कहा गया है। असल नाम क्या है? शायद एक नाम सज्ञा हो और दूसरी उपाधि संज्ञा।
रोचक जानकारी के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंअरे वाह आज तो दिन बन गया ..बुक मार्क कर लिया है सुकून से पढेंगे यह तो.
जवाब देंहटाएंसुन्दर यात्रा वृतांत!
जवाब देंहटाएंइतिहास के रोचक वर्णन से विभिन्न काल खण्डों की जानकारी के अलावा पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता है ...आप इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगी यह जानकारी
जवाब देंहटाएंमेरे लिये बिलकुल नई है आभार !
लेख पढ़ कर लगता है...वहां सक्षात भगवान बुद्ध का आभास होता होगा...बेहद रोचक और जानकारीयुक्त पोस्ट...धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंaisi etihasik jankariya milni bahut kathin hain jo aapke in lekhon se mil rahi hain.
जवाब देंहटाएंaabhar.