-- करण समस्तीपुरी
बसंती भौजी और जुलुमपुर वाली काकी का रुदन-विलाप चल रहा था। साथी-परोसी भी चिंता में आखिर मंगनुआ चला कहाँ गया…. तभीए उधर से काजग पर गरमा-गरम जिलेबी को दुन्नु हाथ में लोकते, मुँह में झोकते बेचारे मंगनूलाल बकरिया चाल चलते चले आ रहे थे।
मंगनू लाल को देखते ही महौल बदल गया। काकी फ़र्लांग भर दौड़ के कलेजा से लगा ली। बसंती भौजी भी पहिले कनखिया के देख ली फिर लगी अंचरा से आंसू पोछे। दुर्गा मैय्या की संझा आरती कब की खतम हो चुकी थी। उधर नौटंकी का टीम-टाम भी शुरु हो गया था। लौडिस्पिकर को भी मजाक सूझ गया। ससुर गाए लगा, “मेला में सैय्यां भुलाइल हमार हम का करीं….?” लगा सब लोग ताली पीट-पीट कर भौजी को मजकियाए। काकी दिशा भी घूम के बोलने लगे, “हम का करीं ए अम्मा…. हम का करीं…. हम का करीं…. मेला में सैय्यां भुलाइल हमार हम का करीं?”
काकी लगी सबको रगेदे, “मार मुँहझौंसा…! तोहरे मुँह में लुत्ती लगे…! जुबान जले तेरी… जा नाशपीटे यहाँ से…..!” यही हँसी-मजाक, खिसियाने-चिढाने में हमलोग लौट आए घर। नौटंकी के लौडिस्पिकर पर अवाज बदल चुकी थी, “हरि ओम नमः शिवाय….!” “रे घंटोलिया…. नाच शुरु हो गया रे….”, लगभग चीखते हुए बोल पड़े थे, गज्जू भैय्या। हम भी चौंक कर कदम पीछे बढ़ाए ही थे कि बुलंती बुआ दहाड़ी, “खबरदार…! कोई नहीं जाएगा नौटंकी-डरेमा में….! अभिए एगो भुलाया था न… उ संजोग कि मिल गया। अब दुबारा रिस्क नहीं। चलो चुप-चाप सीधे घर।”
भाई उ जमाना में बड़ा-बुजरुग का अलगे इज्जत था। अपना हो कि पराया बड़ा-बिरिध लोग जौन बोल दिया उ शास्त्र-पुराण से बढ़कर हो जाता था। कौनो काट नहीं सकता है। उ में भी बुलंती बुआ…..! उ तो हुकुम का एक्का थी। सारा टोला थरथराता था उनसे। हमलोग भी मनमसोस के कदम बाँधे पाछे-पाछे चलते रहे। घर पहुँचकर मैय्या को सारा इसटोरी सुनाए। फिर नौटंकी देखे का परमिशन लेना चाहे मगर मैय्या बोली, “अब पहर रात होय गया है। कल जाना।”
मेला के टेम में जौन नाच-नौटंकी नहीं गए तो रात तो आँखों में ही कटती है। भोरे उठे और फिर से मेलादेखाई मांगना शुरू। बाबा से अठन्नी, बाबूजी से दुटकिया, कक्का से एकटकिया, मैय्या से चरन्नी, आजी से बारह आना, चाची से दुअन्नी… एंह सब समेट्कर बटुआ भारी हो गया था। फिर तो भोरका जलखई किये और मेला दौड़ना शुरू।
सबसे पहिले गये फ़िरंगिया के साथे और चक्कर घिरनी खरीद के आ गए। दुबारा में झमेलिया भी मिल गया। तेसरा बेर में तो चमकू, घोंघबा, चंपैय्या, इस्माइल, नकटा, मजनुआ, गुरका…. ! पूरा हांज बन गया था। अब मेला जमा था। दुपहरिया ढल रही थी। भीड़ बढ़ रही थी। चार-चार आना मिलाके हमलोग पहिले पगला के दोकान से मुढ़ी, कचरी और जिलेबी खरीदे। फिर मिडिल इस्कुल के कोना पर बैठ के उका पारण किये। फिर धनमा से मलाई-बरफ़ लेकर चूसते हुए मेला दर्शन करने लगे।
सामने बैसकोप वाला गीत गा रहा था तो उसके चुकरी में मुरी घुसा दिये। दू आना का काम-तमाम। फिर सब का पिलान बना अकास-झूला का। चढ़ तो गए… मगर हौ महराज! ई है बड़ी खतरनाक खेल। उपर जाए में तो बड़ी मजा मगर नीचे आए में लगे कि मुँहे भरे गिरा देगा उपरे से। उपर जाते हुए पिहकारी और नीचे आए में राम-राम करते हुए तीनों राउंड पूरा किये फिर चार आना पैसा देकर आगे बढ़े।
“अरे उधर काहे की भीड़ है? कल तो उहां कुछो नहीं था….!” झमेलिया बोला था। चलो-चलो देख के आते हैं। कहते हुए सब जने उधर ही पिल गये। चारों तरफ़ से भीड़ और उ में एगो आदमी फ़ुल-पैंट-हवाई शर्ट पहिने डमरू बजा-बजा के चिल्ला आ रहा है, “लौफ़िन गिलास… लौफ़िन गिलास…. एक आना में आइए….. मुँह दिखाइए…. हंसते हुए जाइए…. लौफ़िन गिलास….!”
हमलोग धीरे-धीरे ससर-ससर के आगे बढ़े। मगर ई का….! एगो उंचका टेबुल पर एगो टेढ़का आइना रखे हुए था। उ आइना के सामने दुई चार कठ-मचिया। उ डमरू वाला सबसे एक आना लेकर कठ-मचिया बढ़ा देता था। मार ससुरा के… ई कौन खेल था सो तो पता नहीं मगर उ मचिया पर जौन चढ़े, मरदे अपने मने हँसे-ठिठियाय।
हमलोग भी एक-एक आना देकर मचिया पर चढ़े। आ…. ह…ह… ह्हा….. हा… हा….! रे तोरी के… ई तो भाड़ी मजेदार खेल है। सच्चो में। जादूगर आइना है भाई। बस खाली एन्ने-ओन्ने हिल-डोल के अपने मुँह देखके अपने-अपने हँसते रहिये। ओ…. ह्हो… हो…. हो…. देखो-देखो… घोंघबा का मुँह कैसे चपता हो गया है….! आ… हा… हा… हा… ! अरे… ई हमरा पेट को तो घरा जैसा बना दिया… हे… हे… हे… हे…. ! अरे… उ देखो… उ देखो…. झमेलिया के नाक…..! ससुर भाला जैसे निकल गया है।” हंसते-हंसते एगो उतरे दूसरा चढ़े। दूसरा उतरे तीसरा… कोई एक बार, कोई दोबारा, हमरा तो तिबारा था। ई नया खेल तो रेवाखंडी मेला में पहिले बार आया था।
“अरे नकटा तू भी देख न…. जादू का ऐना है रे…. देखो न फ़िरंगिया के कान एक-एक हाथ का होय गया है….!” दो एकन्नी देते हुए मजनुआ आगे नकटा को चढ़ा कर दूसरा मचिया पर फिर खूदे चढ़ गया। “नकटा आ गया……. नकटा की नाक देखो… नकटा की नाक…. एं….हें….हें…. हें….!” हमलोग आइने में देखकर बोले और फिर हें…हें…हीं…हीं…..!
सब लोग आइना देख-देख कर हँस रहे थे मगर बाप रे बाप… नकटा को पता नहीं क्या हो गया। तमक कर मचिया पर से कूदा। गुर्रा के बोला, “क्या घटिया मजाक है….? ई पगला आइना है…. फ़ोरिये देंगे….!” मरदे आइने को ठेल दिया था…. उ तो डमरू वाला झपट के पकड़ लिया नहीं तो टूटिये जाता। उ आइना को ठीक करके लिया नकटा को पकड़। दून्नो में बहसबाजी होए लगा। हमलोग को कुछ बुझाए नहीं कि क्या करें? सारा खेल का मजा किरकिरा गया। तभी उधर से गज्जू भैय्या और इस्माइल आ गए। दोनों पाटी में बीच बचाव करवा के बात शांत किए। फिर हमलोगों को धकियाते हुए बोले, “चलो घर.. चलो अब…. बहुत हो गया… फिर सांझ में आएंगे।”
सब लोग घर चल पड़े। मगर सबके मन में शायद एक्कहि सवाल था, “आखिर नकटा को गुस्सा किस बात पर आया? उ जादू के आइना तो ऐसहि सब का मुँह-कान बना के हँसाता था।” हम एक बार पूछना भी चाहे मगर गज्जू भैय्या आँख दिखा के हमें चुप करा दिये। पांचूसाह के दुकान के तिकोनिया से नकटा टेढ़िया के अपना घर का रास्ता पकड़ लिया। बांकी सब लोग सीधे चलते रहे। तब गज्जू भैय्या बोलना शुरू किये, “अब सुनो बात क्या हुई उ कहते हैं न ज्यों नकटे को आरसी होत दिखाए क्रोध….!”
“मतलब” कई लोग एक साथ पूछे थे। गज्जू भैय्या फिर बोले, “देखो… दोष आइना में नहीं… उसी में था…. उसकी नाक है कटी हुई, उको आइना में दिख गया…। दोषी को उसका दोष दिखा दो तो तुम्हई पर क्रोध करेगा। वही काम नकटा किया… आइना दिखा दिया उसकी कटी हुई नाक तो ससुर के नाती लगा आइने को तोड़ने। समझे न… इसीलिये कहते है कि ज्यों अंधे को आरसी होत दिखाए क्रोध।”
गज्जू भैय्या के कहावत का मतलब समझ तो गए मगर सोचे लगे कि उ तो रेवाखंड मे एगो नकटा था तो उ डमरू वाला का आइना बच गया…! मगर ई देश में तो चारो तरफ़ अंधे ही भरे जा रहे हैं… अच्छे है कोई आइना दिखाए वाला नहीं है… नहीं तो सारे देश में शीशी के टुकड़े हीं नजर आएंगे।
बहुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंbhasa me aapke behtarin lekh padhe hain ..aaj bhasa aaur boli ka mila jula gramya jewan ki nautanki ko darshata behtarin lekh padha ..behad aanand aaya..
जवाब देंहटाएंकरण जी दसहरा का मेला घूम के हम आये हैं और इतना जीवंत चित्रण आप कर दिया... सुन्दर बयना... बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंसंयमित भाषा में आपने पूरी सजीवता के साथ मेले का दर्शन उसकी पूरी विविधता के साथ कराया और अंत में जो देसिल बयना से परिचय हुआ वह अब लगता है ग्रामीण मेले की तरह अपना आकर्षण खो रहा है।
जवाब देंहटाएंक्या बात है! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदसहरा मेला का जीवंत चित्रण
जवाब देंहटाएंकहावत के साथ बचपन में देखे मेले के दृष्य साकार हो गये .और चुटकी भी खूब ली है आज के हालात की - सराहनीय !
जवाब देंहटाएंइस देसिल बयना की भाषा बड़ी ही सधी हुई है, बिखराव लगभग नहीं के बराबर है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंहमको त जब ऐना देकेह का मन होता है त बुध के बुध इहाँ चले आते हैं.. देसिल बयना पढला के बाद त बुझाता है कि ऐना देख रहे हैं!! अपना मुँह अपने देखकर खुस हो जाते हैं!!
जवाब देंहटाएंअब कहाँ ऊ सोमारी मेला!! न गंगा जी रहीं न गंगा किनारे का सोमारी मेला!! आनंद आ गया करण बाबू!!
मेला एकदम आँखों के आगे जीवंत हो गया ....
जवाब देंहटाएंजीवंत वृतांत...
जवाब देंहटाएंghar baithe mela ghoom aaye ham bhi..
जवाब देंहटाएंगज्जू भैय्या के कहावत का मतलब समझ तो गए मगर सोचे लगे कि उ तो रेवाखंड मे एगो नकटा था तो उ डमरू वाला का आइना बच गया…! मगर ई देश में तो चारो तरफ़ अंधे ही भरे जा रहे हैं… अच्छे है कोई आइना दिखाए वाला नहीं है… नहीं तो सारे देश में शीशी के टुकड़े हीं नजर आएंगे।
जवाब देंहटाएंव्यंग्य भी देखा व्यंग्य विनोद की धार भी लोक भाषा की मिठास भी .उ मजा ही न आगया भैया .
मेला घुमाने के लिए आभार ...
जवाब देंहटाएंमेला घुमाने के लिए आभार ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंहे भाई,आपने तो पता नहीं कितनी यादों को जीवंत कर दिया.
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