बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

देसिल बयना 100 : बेटा मांगे गयी भतार खो आई

देसिल बयना

बेटा मांगे गयी भतार खो आई

करण समस्तीपुरी

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

एक सौवां अंक! विश्वास नहीं होता। जब यह आइडिया हमारे दिमाग में आया था, तो हमने न सिर्फ़ गांव-घर में बोली जाने वाली कहावतों (फकरा) को इकट्ठा करना शुरु किया बल्कि यह भी तय किया कि इसे हम अपने क्षेत्र की बोली में ही पेश करेंगे। डर तो था ही कि ब्लॉग-जगत इसे स्वीकारेगा या नहीं। पर शुरु से ही जो प्यार और आशीष पाठकों को मिलता रहा आज एक सौ सप्ताह के बाद भी उसमें कमी नहीं आई है। ब्लॉग-जगत में शायद इस तरह का सौ सप्ताह तक किया जाने वाला एकलौता प्रयास हो! करण पर आपका आशीष बना रहे। --- मनोज।

AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4‘जगदंबा घर में दीयरा बार अइनी हे.... मैय्या के चरण पखार अइनी हे... जगदंबा घर में दीयरा बार अनी हे....!’ वेदना से भरी बसंती भाभी का भक्तिपूर्ण स्वर सुनकर टोले के मरद-औरत सबका हिरदय पसीज जाता था। नवरात आते ही ऐसे गीतों की शृंखला लंबी होजाती थी। भौजी साल भर से सांझ-सवेरे काली थान में मैय्या का पीरी लिपती थी। लोग कहता था उह्हुं.... बंगाल मुलुक से आई है.... घोघे तर से तंतर-मंतर।

दुई बरिस हुआ, रेवाखंड में ब्याहकर आई थी बसंती भौजी। झपटु झा पंडीजी के परताप से जुलुमपुर वाली काकी की आखिरी इच्छा भी पूरी हो गयी। अब चतुरी चच्चा का भी वंश चलेगा। सात नदी और सहत्तर देवता से मांगे थे तब जाकर मंगनूलाल का जनम हुआ था। बेचारा पांच बरस पर बोलना शुरु किये उ भी तुतला के... देह बढ़ता गया मगर दिमाग बचकाने रह गया। उपर से माय-बाप का एकलौता... दुलारे जय-जय हरि।

झपटु झा पंडीजी का रेवाखंड पर बड़ा उपकार है। उनके रहते नंगरा-लूला, काना-कोतरा कौनो कुमार नहीं मरेगा। काकी को भी बिरहामन-भोजन का फल मिला। बंगाल बौडर से लुगाई उठा लाए थे मंगनुआ लागी। सुनते हैं कि काकी सबा सौ टका नकद भी दी थी। इहें थनेसर थान में बियाह हुअ था। दोनों खरचा काकिये का।

बड़ी लच्छनमान थी बसंती भौजी। काकी के अंगना से भोर में पराती और सांझ में संझा का गीत उठने लगा। घर में लछमी छिटकने लगी थी। काकी को तो छुट्टा अराम मिल गया था। चार वखत सिद्ध दाना, चारो दिशा घूमना। भगवान ऐसन बहुरिया सबको दें। देवी-देवताओं से काकी की शिकायत भी खतम होने लगी।

अगिला फ़सिल के अभिलाषा में नाग-बाबा, दुर्गा मैय्या, छट्ठी मैय्या, संतोषी माता, ब्रहम बाबा, शिवजी, रामजी करते साल बीत गया। अब काकी की उलहन-शिकायत देवी-देवताओं से भौजी की तरफ़ शिफ़्ट हो गयी थी। सोहाग-सुंदरी कुलटा-करमजली हो रही थी। बेचारी बसंती भौजी नैहर-सासुर कोई कहीं नहीं। पति भी व्यथा समझे तो सौ कष्ट दूर। मगर उ बेचारी को तो बस एगो देविये मैय्या का सहारा रह गया था। सांझ-भिनसर बस उनहै पुकारे, “जगदंब अहीं अबलंब हमर हे माय अहाँ बिनु आश केकर....!”

नवरात का कलशा धराए के साथ ही जुलुमपुर वाली काकी मुलुकचन मिसिर से भौजी को पुतरकाम जोग साधना का संकलप धराई थी। बेचारी भौजी एक्कहि आसन में जो बैठती थी तो पहर दुपहरिया...। काकी के घर में चल रहा था अनव्रत नाद, “नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा। ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी। नमस्तस्मै....नमस्तस्मै... नमस्तस्मै नमो-नमः!” मिसिरजी कहते थे कि ई संतान पिरापती के लिये सप्त-शती का संपूट मंतर है। और कौनो बरत-पूजा का परताप पाप-पुण्ण में घटे बढ़े मगर चंडीजाप का परभाव कबहु नहीं घटता है। ई सब देवताओं से परमाणित है।

उ बार रेवाखंड के दुर्गापूजा का चर्चा चारों तरफ़ था। गंडकीपुर टिसने से रिक्शावाला सब पुछने लगता था, “रेवाखंड जाएंगे... इएह भाड़ी दुरगापूजा हो रहा है...!” मेला भी जिलाजीत था। बाप रे बाप.... काली थान के सामने बदरुसिंघ का जो बरबिगहा पिलौट था उ में पूरा गहागही। दुर्गाजी के पट खुले से पहिलहि अकाश-झूला और गोल-चक्की चालू हो गया था। उधर मिडिल इस्कुल वाला परती में षष्ठी से लेकर जतरा तक पांच दिन आल्हा-उदल नाच का पिलान था। झंझारपुर का झमेलिया वाला विदेसिया पाटी का साटा था। मंदिर के कम्पस में कीरतन के लिये ई दफ़े सरदरिया कीर्तन मंडली आया था।

हमलोग तो षष्ठिये दिन से बाबा से चौबन्नी मांगे, बाबू से अठन्नी, कक्का से रुपैय्या लिये और दौड़ पड़े थे मेला। मनिका के दोकान पर गरम जिलेबी खाए, धनमा का मलाई-बरफ़, पतैलीवाली से कचरी-मुढ़ी ले... मंदिर के कोनमा पर बैठ के सब भाई-बंधु मिल कर जिमे... फिर नाच पाटी का नगारा और हरमुनिया देख आये...! रे तोरी के ई हरमुनिया का भाती तो पैर से चलने वाला है...!” जोखुआ अचरज से बोला था। गोनुआ अकाश-झूला पर चढा था... मगर हमरा पैसा तो कचरी-जिलेबी में ही उड़ गया सो बैसकोप देखकर ही संतोष कर लिये। कौनो बात नहीं। बाबूजी के साथे आएंगे तब झूल लेंगे।

अठमी के सांझ में भौजी के पुतरकाम जप की पुर्णाहुति थी। मिसिरजी बड़का घूरा लगा एक एक-एक कर्छुल घी उझल रहे हैं, “स्वाहा... स्वाहा... स्वाहा...स्वाहा....!” एक सौ आठ बार आग में घी डालने के बाद मिसिर जी को चैन मिला। फिर साष्टांग दंडवत करवाए और केतना एक्सरसाइज...!” फिर बोले कि अब तुम दोनो पराणी जाओ और मंदिर जाकर मैय्या का असिरबाद ले आओ।”

आगे-आगे बसंती भौजी फूल-पत्तर लेके चली। पाछे से बटुआ नचाते हुए मंगनूलाल। एकाध महिला-मेहरारु और थी। हमलोग भी पाछ लग गए थे। मंगनू लाल तो भरे रस्ता हुलुक-बुलुक करता रहा मगर भौजी एकदम पूरा मंदिर तक मुरी झुकाए ‘नमस्तस्मै...नमस्तस्मै’ करती आई थी। मंदिर में भी विध-विधान से पूजा की। दढ़ियल ओझा मंतर पढ़ के मैय्या पर चढ़ाया चुनरी और फ़ल परसाद भौजी के अंचरा में दिये थे। आखिर में भौजी दंडवत करने झुकी तो वेदना फ़ूट पड़ी। भौजी भाव-विभोर हो गयी थी। वंदना का स्वर भी लरखरा रहा था। लोग मैय्या की मुर्ती के साथ-साथ भौजी की सरधा को भी सर झुकाने लगे। हमलोग तो टक-टक भौजिये को देखते रहे।

ओझाजी द्वारा माथा पर हाथ फ़ेरे पर भौजी उठी। फिर से मैय्या को सिर नवाई, पंडीजी के चरण स्पर्श किये, अन्य बड़ी-बूढी महिलाओं के भी पैर छुए फिर भरी आँखे वापिस चली। कुछ देर चली तब याद आया, “अरे... उ किधर गए?” ओह...! मंगनूलाल कहीं छूट गए थे। हमलोग सब हैरान। फिर पिछले पैर मंदिर गए। पुजारीजी से पूछे... वहां नहीं हैं। कोई मेला में गया... कोई दुकान में... कोई नाच में... सब-सब दिशा में खोजने लगा। भौजी को तो जैसे काठ मार गया हो... वहीं बैठ गयी।

आखिर एक-एक कर सब आते गये। सब के सब मुँह लटकाए। तब तक बात टोला में भी पहुँच गयी। उधर से काकी भी रोते-गाते दौड़ पड़ीं। और सब लोग भी। कोई कहे लाउडस्पिकर पर परचार कराओ तो कोई कहे पुलिस-थाना को खबर करो। सब सिरिफ़ कहे करने वाला कोई नहीं। उपर से काकी तो और सोहर-समदन शुरु कर दी... बाबू हो... बौआ रे...!

आखिर सारा कोप भौजिये पर टूटा। अधिकांश महिलाएं भी भौजी को ही दोष लगाने लगी। बुलंती बुआ तो पूरा इस्टाइले में डायलोग पूरा की थी, “अएं... मरद बुरबक था तो औरते ध्यान धरती ना.... बताओ... ई कौन पूजा-बरत हुआ... “बेटा मांगे गयी और भरतार खोके आयी....!” जनाना मंडली बुआ के बात पर हाथ-मुँह चमका के “हाँ... हें.. हूँ... हाँ नहीं तो क्या...” और न जाने क्या सब... अपना-अपना तकिया-कलाम खोलने लगी। हमें कुछ समझ में नहीं आया तो वहीं प्रश्नसूचक दृष्टि से कटहा वाली ओझाइन का मुँह ताकने लगे। ओझाइन बोली, “मुँह क्या ताकते हो... ठीके तो बोली, बुलंती दैय्या...! अब भविस की प्रत्याशा में कोई वर्तमान की ही हानि कर ले तो का कहोगे...? अरे है और कछु बात? तो वही बात, “बेटा मांगे गयी, भरतार खोके आयी।” इधर यही माथापच्ची चल रहा था कि उधर से काजग पर गरमा-गरम जिलेबी को दुन्नु हाथ में लोकते, मुँह में झोकते बेचारे मंगनूलाल बकरिया चाल चलते चले आ रहे थे। th_6675

8 टिप्‍पणियां:

  1. एकदम्‍मे सेन्‍चूरियन शाट. गोल-गोल उलझी जलेबी, भटकाय भी, राह पर भी लाए, मिठाय भी.

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  2. करण जी ,
    आपके इस पोस्ट पर आना बहुत अच्छा लगता है ।
    देशिल बयना में प्रयुक्त शब्द आत्मीय लगने के कारण हमें एक सुखद एहसास की अनुभूति से पुलकित कर जाते हैं।. मेरा व्यक्तिगत सुझाव है कि गंगा -जमुनी धारा न लिख कर इसकी जगह गंगा-जमुनी संस्कृति लिखें तो अच्छा होता । बहुत अच्छा । धन्यवाद ।

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  3. १०० वें अंक हार्दिक की बधाई आपको भी करण जी और मनोज जी को भी.

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  4. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  5. करन बाबू, वहुत बढ़िया लिखा है आपने। शतक के लिए बधाई।

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  6. बढ़िया अभिवक्ती पढ़कर अच्छा लगा।
    समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  7. करण बाबू!आप सचिन तेंदुलकर हैं इस भाषा के और आपकी बोली की मिठास तृप्त करती है!!सोंधी मंहक से सजी!! आशीष और शुभकामनाएं!!

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