सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

यह झुलसता गांव लेकर



यह झुलसता गांव लेकर

श्यामनारायण मिश्र

बाग में कदंब नहीं फूले
सावन में नहीं पड़े झूले
    झूलने का चाव लेकर
         किस जगह जायें।

सूरज पी डलेगा
    लगता है नदियां।
एक एक दिन में
    होती है सदियां।
लगता है मेघ राह भूले
उठते हैं आग के बगूले
    यह झुलसता गांव लेकर
         किस जगह जायें।

धूप-धोबिन धो रही
    हरियालियां भू से
भूख-भिल्लिन जो मिले
    सो पेट में ठूंसे
लाचारी अंतस तक झूले
फटते हैं लाज के बबूले
    दीनता का भाव लेकर
         किस जगह जायें।

16 टिप्‍पणियां:

  1. गाँव लेकर कहीं नहीं जा सकते,हाँ वहाँ पधार सकते हैं !

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  2. जीवन का अस्तित्व सोखती यह गर्मी।

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  3. सूखे का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है मिश्र जी ने।

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  4. अभिनव प्रयोगों से अलंकृत नवगीत बहुत आकर्षक बन पड़ा है। कुछ टंकणगत त्रुटियाँ शेष रह गई हैं।

    सूरज पी डलेगा (डालेगा या लेगा होना चाहिए)
    लगता है नदियां।
    एक एक दिन में
    होती है सदियां (अनुनासिक सहित हैं होना चाहिए)

    इसके बावजूद इन पंक्तियोँ में नवीन प्रयोग बेहद मनभावन हैं।

    धूप-धोबिन धो रही
    हरियालियां भू से
    भूख-भिल्लिन जो मिले
    सो पेट में ठूंसे,

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  5. आह... मन व्याकुल और अधीर हुआ जाता है! आधुनिकीकरण और विकास की यही विडंबना तो सब-कुछ लील रही है!

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  6. सावन के झूले वाले गाँव अब सपने ही तो हैं ...
    सुन्दर नवगीत!

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  7. यह अक्टूबर का माह प्रारम्भ हुआ है जब दशहरा और दीपावली की आमद होने वाली है। मौसम भी आनंददायक है। स्वप्नलोक पर एक मौंजू गीत अभी पढ़कर आया हूँ http://doordrishti.blogspot.com/2011/10/blog-post.html

    इस उल्लासमय वातावरण में प्रचंड गर्मी की कविता पढ़कर मन के भाव बदल गये। वैसे रचना बहुत अच्छी है।

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  8. बेहद गहन और मार्मिक चित्रण किया है फिर चाहे इसे गाँव के संदर्भ मे लें या मनुष्य जीवन के।

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  9. अद्भुत रचना है आपकी...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  10. सूरज पी डलेगा
    लगता है नदियां।
    एक एक दिन में
    होती है सदियां।
    वाह सच्चाई को चित्राथ करती बहुत ही मार्मिक प्रस्तुत समय मिले तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  11. कमाल के प्रयोग दीखते हैं इस नवगीत में!! एक गुमनाम नवगीत रचनाकार की रचनाएँ पढकर सदा मुग्ध होता हूँ!!

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  12. नहीं,नहीं .इतने अच्छे दिन(नवरात्र) ,इतना अच्छा मौसम!
    अभी नहीं ऐसे गीत कि थोड़े दिनों का यह मोहक परिवेश हवा हो जाय, असल में गीत इतना समर्थ है कि सारा इन्द्रजाल भंग कर अपना ही ताप बिखेर गया तो !

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