नवगीत
बावरे घन, तुम सघन वन में जरा बरसो !
- हरीश प्रकाश गुप्त
तुम सघन वन में
जरा बरसो !
आस अंजन सी बसी
हिय में मचलती उर्म्मियाँ,
कौन जाने कब फटेगी –
पौ, खिलेंगी रश्मियाँ,
डगर सी-रूठी हुई
प्राची सनी रव से घनी
प्रीत पाखी डोर बाँधे
उड़ चले पुर को।
प्रवाद को आकुल पड़ा घट
रीत, पनघट पर,
शिथिल औ’ परिश्रांत अब
जैसे बरज दी गई हो सोहर,
चू रही टप-टप विटप से
गगन मन की आर्द्रता,
पूरना दे शीत, व्यथित
अविराग-से उर को।
*****
यदि गुप्त जी का नाम हटा दे तो यह कविता महादेवी जी या फिर बच्चन जी की लग रही है. एक कवि के रूप में भी हरीश जी प्रभावित कर रहे हैं. सुन्दर.
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंअधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद||
जवाब देंहटाएंव्यवस्थित शब्दों से सजी बहुत अच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंहरीश गुप्त जी को सादर बधाई इस बहुत खुबसूरत प्रवाहित रचना के लिए...
जवाब देंहटाएंपढ़ने का आनन्द ऐसी ही रचनाओं में आता है।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रवाहमयी कविता के लिये हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंachchhi lagi kavita ...dhanyvad.
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना ,
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति , बधाई
लाज़वाब अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना पढवाई है हरीश जी की मनोज जी .बहुत बहुत शुक्रिया ज़नाब का .
जवाब देंहटाएंलाजवाब कविता....महादेवी जी ....अतुकांत कब लिखती थीं ..
जवाब देंहटाएंहरीश जी.. शीत काल के आगमन पर आपकी यह घन गरजे बरसे सुनकर शीतलता और बढ़ गयी.. किन्तु कविता की लयात्मकता ने और शब्दों के चयन ने मुग्ध कर दिया!! एक नया रूप आपका देखने को मिला!!
जवाब देंहटाएंगीत के प्रवाह और शब्द व्यंजना ने मन को छू लिया !
जवाब देंहटाएंआभार !
बहुत सुन्दर रचना............आभार
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