गुरुवार, 2 सितंबर 2010

आंच (33) पर करण समस्तीपुरी की कविता “साँझ भई फिर जल गयी बाती”

आंच (33) पर

करण समस्तीपुरी की कविता

साँझ भई फिर जल गयी बाती

IMG_0166 मनोज कुमार

रचनाकार की प्रतिभा विशिष्ट होती है। यही कारण है कि वह समकालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-स्थितियों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। कोई भी रचनाकार समय, समाज और परिवेश की उपेक्षा नहीं कर सकता है, क्योंकि जहाँ वह रहता है, जहाँ से वह पलकर बड़ा होता है, मनुष्य बनता है, उनके समस्त क्रियाकलाप, ऊहापोह, घात-प्रतिघात, संघर्ष आदि उसके मस्तिष्क में गुंफित होते हैं। रचनाकार की संघर्षशीलता, जुझारूपन, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों के प्रति चेतना और दिशाबोध, उसे यहीं से मिलते हैं। प्रतिभाशाली रचनाकार करण समस्तीपुरी भी अपने समय, समाज और परिवेश की उपज हैं। राष्ट्रीय-फलक पर हताशा है, निराशा है, भूख है, गरीबी है, शोषण है, अशिक्षा है, टूटन है और मोहभंग भी है। समय, समाज और परिवेश की जानकारी रचनाओं की समझ के लिए जरूरी है।

नैतिक और सामाजिक मूल्यों का ह्रास हुआ। शहरों के औद्योगीकरण से गाँव शहरों में भागता चला आया। साहित्य के शिल्प, कथ्य, फार्म, यथार्थ, भाषा और संप्रेषणीयता में भी परिवर्तन हुए। इस यथार्थ को रचनाकारों ने अच्छी तरह महसूसा।

यह समय उथल-पुथल का है, परिवर्तनकामी है। पुरानी और नयी-पीढ़ी के बीच की खाइयाँ काफी बढ़ीं हैं। नैतिक और सामाजिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। शहरों के औद्योगीकरण से गाँव शहरों में भागता चला आया।  साहित्य के शिल्प, कथ्य, फार्म, यथार्थ, भाषा और संप्रेषणीयता में भी परिवर्तन हुए हैं। इस यथार्थ को रचनाकारों ने अच्छी तरह महसू किया है। करण ने भी उस बदलते यथार्थ को अच्छी तरह समझा और महसू किया है। जमीनी सच्‍चाइयों से गहरा परिचय, उसके अंदर के कवि की ताकत है।

आजकल लिखे जाने वाले काव्यों में अरूप सी दुनिया के आदर्श झिलमिलाते दिखाई देते हैं। न उनकी रूपाकृति में हम अपने चेहरों की आकृति देख पाते हैं, न ही उनकी बातों में हम अपने सजातीय मुहावरों को खोज पाते हैं। मानो वे व्यक्तियों की वजाय निर्जीव खण्डहरों से बतियाती हों। सामान्य पाठक के लिए ये रहस्यमय ही बनी रहती हैं। इसके चलते सहसा हमारा एक ऐसे क्रमशः ह्रासशील ‘ग्राफ’ से सामना होता है जिसमें कविता के पाठक धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। यह सिर्फ अलोकप्रियता के कारण नहीं, बल्कि उससे ‘दो चार होने’ के भाव का अभाव है जिसके रहते ‘आदर्श’ केवल हवाई चीज़ मालूम पड़ती है। कविताओं की दुनिया, भावावेग की ऐसी दुनिया दिखती है जिसमें हम किसी भी अर्थ में खुद को खोज पाने में असमर्थ दिखते हें। ऐसे माहौल में करण की साँझ भई फिर जल गई बाती (लिंक है) के रूप में काव्यनिष्ठ प्रेम, सौहार्द्र, अपनापन की दुनिया का अंकन मिलता है, और मिलता है एक अतीत राग।

कविता का प्रारम्भ भारत और इंडिया के बीच की खाई को दर्शाता है। बाती विकास के धूमिल रोशनी का प्रतीक है। इसलिए बाती जलने से कवि को आधुनिक भारत के पिछड़े ग्राम्य विकास की याद आ जाती है।

जल-जल मदिर-मदिर झिल-मिल !

कोई अतीत का गीत सुनाती !!

करण जीवन को उसकी विस्‍तृति में बूझने का यत्‍न करने वाले कवि हैं। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि इनकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है।

इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि करण जीवन को उसकी विस्‍तृति में समझने का यत्‍न करने वाले कवि हैं। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि इनकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है। यह भी लगता है कि कवि शहरी जीवन की कृत्रिमता से दुखी है। एक ओर जहां वह देखता है कि

गाँव किनारे साझा पनघट !!

पनघट पर पनिहारिन आती !

हिय खोल घट भर ले जाती !!

वहीं यह भी पाता है कि हमारी समृद्ध परंपराओं का दिनानुदिन ह्रास हो रहा है। परंपराओं का निर्वाह नहीं कर रहे हैं हम। और तब उसका प्रतीक बूढा बरगद बन हमारे सामने आता है, जो अभी भी उसी तरह स्नेहिल आँचल फैलाए है। हम उससे दूर चले आये हैं।

लट लटकाए बूढा बरगद !

जो जिस गुण के लिए पहचाना जाता था वही अब नहीं है उसके पास। असंतुलित विकास व उदारीकरण की बयार ने बहुत सी आंतो को सुखा दिया है। पनघट के पानी का स्‍वाद बदल दिया है। और दूसरी ओर शहरी व्यवस्था में आपसी मेल-मिलाप प्रायः शून्य ही है। लेकिन उम्मीद का दामन भी पूरा-पूरा नहीं छूटा है। कवि इन तमाम गिरावटों को दखते हुए यह देखना नहीं भूलता कि

श्रम से निरत शांत दम भरते !

देश-काल की चर्चा करते !!

करण कालचेता की तरह प्रश्नों और समस्याओं के नितांत महीन (सूक्ष्म) पहलुओं को देख लेते हैं। इनकी कविता ज़्यादा विश्वसनीय, ज़्यादा  संगत, ज़्यादा जीवंत और ज़्यादा प्रभावकारी है। इन्होंने जिस भावजगत का चयन किया है उसी के अनुरूप एक भाषा का सृजन और अन्वेषण भी किया है जो अधिक संप्रेषक, अधिक सहज, अधिक सटीक और सम्पूर्ण रही है। करण एक प्रगतिचेता, प्रयोगधर्मी कवि हैं। कवि निराश नहीं है। एक लिहाज से यह चकित करती कविता है। यह ठेठ जमीनी अंदाज में भावावेग से भरी कविता है। बहुत सारी दिक्‍कतों के बीच यह साँझ मे जल गई बाती ही है जो रोशनी बनकर उम्‍मीद की राह बनाती है और परंपरा के प्रति लगाओ की ओर संकेत करती है।

सूना जीवन, मन सूना है !!

शून्य हृदय के अंतस्थल में,

इक आशा की ज्योति गाती !

साँझ भई फिर जल गयी बाती !!

उन्होंने जिस आंचलिक पृष्ठभूमि को कविता का क्षेत्र चुना है उसकी भौगोलिक परिसीमाओं का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर नहीं, बल्कि एक मितव्ययी की भांति केवल उतने ही प्रसंग लिए हैं, जितने अनिवार्य हैं। परंतु इतना होने पर भी उनकी कविता में गांव का निश्छल अल्हड़पन, और सोंधी गवई खुशबू निरंतर बनी हुई है।

इनकी कविता पढ़ने पर भीषण तप्त ग्रीष्म में शीतल छाया की सुखद अनुभूति मिलती है। कविता में प्रकृति या वातावरण की अतिरिक्त उपस्थिति नहीं है। उन्होंने जिस आंचलिक पृष्ठभूमि को कविता का क्षेत्र चुना है उसकी भौगोलिक परिसीमाओं का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर नहीं, बल्कि एक मितव्ययी की भांति केवल उतने ही प्रसंग लिए हैं, जितने अनिवार्य हैं। परंतु इतना होने पर भी उनकी कविता में गांव का निश्छल अल्हड़पन और सोंधी गवई खुशबू निरंतर बनी हुई है।

      दीप की लौ बलखाये जैसे,

      उनकी क्षीण-कटि  बलखाती !

अरुण क्षितिज में डूबा दिनकर !

बैठक में हुक्के का गर्र-गर्र !!

‘बरगद’ जैसे प्रतीक के सहारे ग्रामीण परिस्थिति को धीरे-धीरे अनावृत करते हैं और ग्रामांचल की लोक चेतना को प्रखर करते चलते हैं। करण की प्रयोगकर्मी शैल्पिक बुनावट में वह इबारत स्पष्ट हो जाती है कि हमारी समृद्ध परंपराओं के दिन अब गिने चुने हैं और कविता पढ़ते हुए यदि कोई राग से भर उठे तो आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए। इस कविता की इन पंक्तियों में अर्थदीप्ति देखिए

दीप के संग बुझने को है अब,

प्यारी सी पुरखों की थाती !

यह कहकर कवि ने समूचे ग्राम समाज की जिज्ञासा को जैसे अर्थ दे दिया हो।

करण की भाषा काफी साफ और ताकतवर है। उनमें एक प्रकार की सहजता है। लोक-राग की सी सहजता, बेलौसपन। और यह सहजता उनकी इस कविता में परिपक्व दिखती है। उनके पास भाषा और शिल्प ऐसा है कि सीधी-सादी बातों में भी आकर्षण, असर और चमत्कार पैदा कर देते हैं। पीढ़ियों के अंतराल का सूक्ष्म चित्रण ग्रामीण पृष्ठभूमि का सहारा पाकर ही सफल हुआ है और पाठकों के मन पर प्रभाव भी वही छोड़ता है। साझा पनघट, लट लटकाए बूढा बरगद और पुरखों की थाती जैसी उक्तियाँ अपने आप में कितनी असरदार, अभिव्यंजक और कलात्मक हैं, इसे सहज ही समझा जा सकता है।

मिथिलांचल के ग्राम्य-जीवन, संवेदना और सामाजिक पीडाओं का इन्हें बड़ा ही यथार्थ ज्ञान है। भोगे हुए क्षणों का सांकेतिक वर्णन इनका अभीष्ट है। यही कारण है कि करण की संवेदना मन को अधिक छू पाती है। कोई अतीत का गीत सुनाती ! साँझ भई फिर जल गयी बाती !! की सहजता और स्वाभाविकता पाठक पर अपेक्षित प्रभाव छोड़ देती है।

यह कविता एक संवेदनशील मन की निश्‍छल अभिव्‍यक्तियों से भरी-पूरी है। कवि की भाषिक संवेदना पाठक को आत्‍मीय दुनिया की सैर कराने में सक्षम है।

अम्बर का आँगन सूना है !

बिन बदरी सावन सूना है !!

तितली बिन उपवन सूना है !

सूना जीवन, मन सूना है !!

कविता पाठकों के मन को छू लेती है और कवि की सामर्थ्‍य और कलात्‍मक और कल्पना शक्ति से परिचय कराती है। नितांत व्‍यक्तिगत अनुभव कैसे समष्टिगत हो जाता है इसे हम उनकी इस कविता में देख सकते हैं। यह कविता तरल संवेदनाओं के कारण आत्‍मीय लगती है।

समय कोई भी हो, कविता उसमें मौज़ूद जीवन स्थितियों से संभव होती है। वही जीवन की स्थितियां, जिनसे हम रोज़ गुज़रते हैं। करण की रचना इसी के चलते हमें अपनी जैसी लगती है। इसमें निहित यथार्थ जैसे हमारे आसपास के जीवन को दोबारा रचता है। वे इस कविता के लिए किसी भारी-भरकम कथ्य को नहीं उठाते, फिर भी अपने काव्यलोक की यात्रा कराते हुए कुछ ऐसा अवश्य कह जाते हैं, जो पुराना होते हुए भी पूर्णतया नवीनता का बोध कराता है। यह कविता एक विलुप्त होती कला की केवल पहचान दर्ज़ करने की कोशिश नहीं बल्कि क्षरणशील एवं छीजती संवेदनशीलता की शिनाख़्त है। कहीं-कहीं प्रवाह में अवरोध होने के बावज़ूद कविता की भाषा अनावश्यक जटिलता से मुक्त है और कवि सीधे ढंग से अपनी बात कहने में समर्थ हुआ है। तभी तो आख़िरी कुछ पंक्तियां बरबस ध्यान खींचती हैं।

            दीप के संग बुझने को है अब,

     प्यारी सी पुरखों की थाती !

     सांझ भई फिर जल गयी बाती !!

बिखरी चीज़ें  के लिए दिया गया।

http://manojiofs.blogspot.com/2009/11/blog-post_1063.html

30 टिप्‍पणियां:

  1. महोदय बहुत अच्छा लगा आपकी यह आंच पर पकी कविता. सुप्रभात और शुभकामनायें ....

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  2. बहुत अच्छा आलेख.

    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये

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  3. एतना सरल सैली में लिखेंगे त पाठक में भी समीक्षावृत्ति जग जाएगी। अभी तक त ई सब भीआईपी लोगों का ही बपौती माना जाता रहा है।

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  4. आपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
    बहुत बढ़िया आलेख!

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  5. उत्तम आलेख..सुन्दर प्रस्तुति...
    श्री कृष्ण-जन्माष्टमी पर ढेर सारी बधाइयाँ !!
    ________________________
    'पाखी की दुनिया' में आज आज माख्नन चोर श्री कृष्ण आयेंगें...

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  6. आज मैं कुछ नहीं कहूँगा ! बस धन्यवाद !!

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  7. @ राधारमण जी
    बहुत-बहुत धन्यवाद।
    हर्र चीज़ शास्त्रीय ही हो, यह ज़रूरी नहीं। जो दिल को छू ले, उसके लिए सहज शैली ही ही उपयुक्त लगी मुझे।

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  8. Manoj Kumar ji ki likhi samiksha padhi. Apane to samiksha ke liye apani svayam ki bhasha ka hi srijan kar dala hai. Bahut hi akarshak bhasha hai apaki. Jai Shri Krishna.

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  9. बहुत अच्छी लगी आपकी समीक्षा। श्री कृष्ण-जन्माष्टमी पर ढेर सारी बधाइयाँ ।

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  10. उत्तम प्रस्तुति
    --
    आदरणीय मनोज जी, कारन समस्तीपुरी जी,
    आप सभी को जन्माष्टमी की बहुत बहुत बधाई!!!

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  11. करण जी जितनी सहजता से गद्य और पद्य लिख रहे हैं, हिंदी ब्लोगिंग के संसार में ए़क उदीयमान प्रतिभा हैं ही.. मैं उनका नियमित पाठक हूँ... लेकिन मनोज जी ने उनके जिन पक्षों पर प्रकाश डाला है.. इस से उन्हें पढने, समझने और गह ने में पहले से अधिक आनंद आएगा... सुंदर कविता की अतिसुंदर समीक्षा...

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  12. करण जी की खूबसूरत कविता की उतनी ही सुन्दर समीक्षा ...
    आपकी डी गयी समीक्षा से कविता के नए आयाम भी पता चले ...आभार ..

    पुरस्कार के लिए बधाई

    जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

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  13. पुरस्कार के लिए बधाई। आशा है,आप ब्लॉग जगत को समृद्ध करने का सुकार्य जारी रखेंगे।

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  14. जितनी खूबसूरत कविता उतने ही खूबसूरत अंदाज में आपने इसे पेश किया है । आपके समीक्षा का अंदाज सबसे अलग है । बिल्कुल सहज और सरल ।
    वैशाखनंदन रजत सम्मान के लिए हार्दिक बधाई ।

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  15. मनोज जी, जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  16. श्री कृष्ण जन्माष्ठमी की बहुत-बहुत बधाई, ढेरों शुभकामनाएं!

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  17. @राधारमण जी!
    काहे हमरा दोकान बंद करने पर लगे हैं...
    मनोज जी,
    हरदी त पहिलहीं लगा गए थे करन बाबू और आप समीछा का फिटकिरी लगा दिए हैं,अऊर चढा दिए हैं आँच पर..अब रंग एकदम पकिया हो गया है..
    ई भादों में बैसाखनंदन...!!! हा हा हा!!!

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  18. @ सलिल जी
    हा-हा-हा.....
    भदवारी गदहा को हरा ही हरा नज़र आता है।

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  19. पहले समीक्षा पढी और फिर यह कविता......
    कविता में जो भाव हैं...समीक्षा में जो कुछ कहा गया.....
    इसके बाद कुछ बचता है यदि कहने को तो संभवतः वह मेरे सामर्थ्य में नहीं(मेरी बुद्धि वहां तक नहीं जाती)...इसलिए बस इतना ही कह सकती हूँ कि इनके पठ्नोपरांत आत्ममुग्धता की जो स्थिति हमने पायी है,उसके लिए आप लोगों का कोटिशः आभार....

    उस माटी जिससे ह्रदय का हर तार बंधा है,को जिस तरह आप अपने रचनाओं में ला कर इस अंतरजाल पर संजोते जा रहे हैं,केवल हम धन्य नहीं हो रहे ,यह साहित्य भी समृद्ध हो रहा है..आपलोगों के इस पावन सद्प्रयास के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि " आपका शुभ हो "...

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  20. वैशाखनंदन रजत सम्मान पर बहुत-बहुत बधाई !!

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  21. बहुत सुंदर और सहज आलेख, कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

    रामराम.

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  22. समीक्षक लोग कई बार ऐसे रहस्योद्घाटन भी करते हैं जो पता नहीं,लिखते समय मूल लेखक के ध्यान में भी रही होगी या नहीं।

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  23. बहुत अच्छा आलेख|

    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये!

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  24. बहुत अच्छी समीक्षा।
    आपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !

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  25. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    कृष्ण जन्माष्टमी के इस पावन दिवस पर हार्दिक
    शुभकामनाएँ!

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  26. आप की रचना 03 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/266.html


    आभार

    अनामिका

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  27. सुन्दर गीत की अतिसुन्दर समीक्षा। सहज और संप्रेषणीय भाषा में गीत को अच्छा विस्तार मिला है।
    आभार।
    वैशाखनन्दन पुरस्कार के लिए बधाई स्वीकार करें।

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  28. सुन्दर प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी आपकी समीक्षा।

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।