गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

आँच-50 राजीव कुमार की कविता “न जाने क्यों?”

आँच-50

राजीव कुमार की कविता “न जाने क्यों?”

परशुराम राय

My Photoश्री राजीव कुमार जी द्वारा विरचित कविता न जाने क्यों? चर्चा के लिए ली जा रही है। यह कविता उन्हीं के ब्लाग घोंसला पर पिछले दिनों प्रकाशित हुई थी। राजीव कुमार जी सरकारी नौकरी में हैं और फिलहाल दिल्ली में कार्यरत हैं।

प्रस्तुत कविता एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवारों में पत्नी के प्रति मानसिकता की भावभूमि पर लिखी गयी है, जो न आधुनिक बन पाते हैं और न ही पिछड़ा बने रहना चाहते हैं। ये दोनों की मानसिकता में जीते हैं। इनमें परम्पराओं के छूट जाने का भय भी बना रहता है और आधुनिक बने रहने का आकर्षण भी इन्हें चैन से रहने नहीं देता। ऐसी ही मानसिकता से उत्पन्न भावनाओं पर प्रस्तुत कविता में पत्नी की ओर से सात प्रश्न उठाए गए हैं सात फेरों के वचन की तरह।

सामान्यतया पत्नी से हमारी अपेक्षा रहती है कि वह हमारी आवश्यकताओं और रुचि का सदा ध्यान रखे और इन सबके ऊपर अहम अपेक्षा होती है कि पत्नी बहुत सुन्दर हो। वैसे भी पहला आकर्षण शारीरिक सौन्दर्य होता है जो हमें आकर्षित करता है और सम्पर्क की जिज्ञासा उत्पन्न करता है। सम्पर्क के बाद भाव-सौन्दर्य से परिचय होता है। भाव-सौन्दर्य आकर्षक हो या विकर्षक, दोनों ही परिस्थितियों में शारीरिक आकर्षण को धीरे-धीरे न्यून कर देता है। आकर्षण को सदा बनाए रखना एक कठिन साधना है। किसी का ज्ञान होते ही आकर्षण खो देना हमारा स्वभाव है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है कि अपनी पत्नी को हमेशा नयी स्त्री की तरह देखो अर्थात एक अपरिचित स्त्री की तरह तो आकर्षण सदा बना रहेगा। बात बड़े पते की है, पर यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए सतत अभ्यास और साधना की आवश्यकता पड़ती है। अपरिचित के साथ हमारी अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। अगर होती भी हैं तो दोनों एक-दूसरे की अपेक्षाओं का ध्यान रखते हैं। लेकिन हमलोग अपने पारिवारिक जीवन में प्रायः ऐसा नहीं करते। पत्नी की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की अधिकतर अनदेखी करते हैं। उनकी अपेक्षाओं को भोजन और वस्त्र तक सीमित कर देते हैं। प्रायः पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही स्त्रियों को चारित्रिक शंका से देखते हैं यदि वे किसी दूसरे पुरुष से बातें करती हैं। महाकवि भवभूति भी अपने प्रसिद्ध नाटक उत्तररामचरितम् में लिखते हैं- यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः अर्थात लोग जैसे स्त्रियों की पावनता के प्रति सदा शंकाशील रहते है, वैसे ही वाणी के प्रति भी सदा दोष-दृष्टि रखते हैं। इस प्रकार स्त्रियों को हम प्रायः संदेह के घेरे में कैदकर रखते हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष के प्रति इस प्रकार की जन-भावना का अभाव है, पर यह स्त्रियों जैसी स्थिति तो नहीं है। इन्हीं अपेक्षा-उपेक्षा, विश्वास-अविश्वास आदि के अन्तर्द्वन्द्व की भाव-भूमि पर रची गयी कविता है न जाने क्यों

प्रस्तुत रचना मध्यम वर्ग की सोच या अन्य वर्ग के लोग जिनकी इस प्रकार की पुरुष-जन्य सोच है, उस पर प्रश्न है- न जाने क्यों? अन्य महिलाओं को बाजार, उत्सव या अन्यत्र सजे-धजे देखकर हमारा मन अनायास उनकी ओर आकर्षित होता है। उसी तरह अपनी पत्नी को सजे-धजे देखने की इच्छा हमारे मन में उठती है और अचानक एक दिन हम अपने अपनी पत्नी को सजने-सँवरने की सलाह दे बैठते हैं। लेकिन जब अपने मध्यम-वर्गीय मनोराज्य में प्रवेश करते हैं तो हमारा साहस घुटने टेक देता है और उसके खुले सिर को हम आँचल से ढक देते हैं, न जाने क्यों? बाहर लड़कियों को जिंस और टॉप पहने देखते हैं तो अच्छा लगता है और अपनी पत्नी के लिए भी खरीद लाते हैं। लेकिन अपनी सोच में लौटते ही हमारा साहस काफूर हो जाता है तथा पत्नी को कभी उन्हें पहनकर बाहर नहीं निकलने देते, न जाने क्यों? अन्य महिलाओं को गाड़ी चलाते हुए देखकर पत्नी का ड्राइविंग लाइसेंस तो बनवा लेते हैं, उसके बगल में बैठकर उसे गाड़ी चलाने के लिए उकसाते भी हैं। लेकिन उसे गाड़ी चलाते देख हमारे चेहरे का रंग उड़ जाते हैं, न जाने क्यों? कवि को लगता है कि पति की सोच और पुरुष की सोच का अन्तर हमेशा उसे परेशान करता रहा जिससे वह अपनी पत्नी के सौन्दर्य, इच्छाओं आदि को समझने और संकल्प तथा विकल्प के परे उन्हें देख नहीं पाते, न जाने क्यों? जबकि पत्नी हमारे सपनों को जीती है, लेकिन उसके सपनों के विषय में सोचते तक नहीं, न जाने क्यों? सदा हम रीति-रिवाज, परम्पराओं, पुरुष-जन्य सोच, अपने अहं भाव आदि से अपने अन्दर के खारापन अर्थात मन की कठोरता बढ़ाते रहते हैं, न जाने क्यों?

यदि इन प्रश्नों को देखें तो लगता है कि हम अपने को, अपने सम्बन्धों को सदा दूसरों की दृष्टि से देखते हैं, फिर हमारा व्यवहार केवल प्रतिक्रिया बनकर रह जाता है और ये प्रश्न हमें घेर लेते हैं। जिससे हम न तो खुद जी पाते हैं और न ही अपने सम्बन्धों को। एक घटना मुझे याद है। सत्तर का दशक था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कैम्पस में बिरला छात्रावास का वार्षिकोत्सव था। महादेवी जी उसकी मुख्य अतिथि थीं। डॉ. विजयपाल सिंह, हिन्दी के विभागाध्यक्ष कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। महादेवी जी लगभग एक घंटे तक निर्बाध बोलती रहीं। लेकिन अपने सिर से अपना आँचल नहीं गिरने दिया। ऐसा भी नहीं कि वे पिछड़ी हुई थीं। अपने समय में उन्होंने सबका विरोध सहते हुए वेदों का अध्ययन किया। महिलाओं पर थोपे हुए सभी अनावश्यक विचारों और परम्पराओं का घोर विरोध किया। अतएव आवश्यकता है अपने विचारों और परम्पराओं के प्रति अपने दृष्टिकोण को अपने विवेक से पल्लवित होने देने की। इन सभी भावों को सहेजे कविता “न जाने क्यों?” हमें प्रेरित करती है कि हम अपने जीवन के प्रति अपना दृष्टकोण रखें, न कि दूसरों के दृष्टिकोण से अपने अन्दर के खारापन को बढ़ने दें।

सबकुछ के बावजूद कविता में कुछ कमियाँ हैं। कविता में काफी बिखराव है। इसमें प्रस्तुत भाव को व्यक्त करने के लिए इतना वृहद आकार देने की आवश्यकता नहीं थी। शब्द संयम भी जहाँ-तहाँ कविता में प्राञ्जलता को भंग करते दिखते हैं, यथा- चौथे बन्द में

रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने

तुम्हारे चेहरे का बदलता रंग,

बदरंग होता हुआ

जब लोगों ने देखा था मुझे

इसके स्थान पर यदि इस प्रकार लिखा जाता तो अच्छा रहता-

रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने

तुम्हारे चेहरे का उड़ता हुआ रंग,

जब देखा था मुझे लोगों ने,

उक्त परिवर्तन से पुनरावृत्ति भी दूर हो जाती, शब्दों का बोझ कम होता और प्राञ्जलता बढ़ जाती। इसी प्रकार की कमियाँ कविता में अन्य स्थानों पर भी हैं। यहाँ केवल संकेत मात्र किया जा रहा है। वैसे ये मात्र मेरे दृष्टिकोण हैं। कवि का पाठक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

25 टिप्‍पणियां:

  1. यह न हुई बात-बहुत ही सुंदर मनोविश्लेषण। छा गए गुरू। मेरा भी मन कभी-कभी कुछ कहने के लिए व्याकुल सा हो जाता है लेकिन-

    कामनाओं के झरोखे रोकते हैं राह मेरी,
    खींच लेती है तृषा पीछे पक़ड़ कर बाँह मेरी।

    नववर्ष-2011 की अशेष शुभकामनाओं के साथ। सादर।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी समीक्षा ने तो नए मायने स्थापित कर दिए .....भाव और शिल्प पक्ष पर बहुत सूक्षम दृष्टि से प्रकाश डाला है ....शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय केवल राम जी,
    सराहना के लिए और उत्साहवर्घन के लिए धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. समीक्षा में पैनी पड़ताल और बेबाक स्पष्ट वादिता साफ़ द्दृष्टि गोचर है ! समीक्षक की सूक्ष्म दृष्टि ने कविता के अन्दर तक झांक कर देखा है !
    इस सशक्त और सटीक समीक्षा के लिए आचार्य जी बधाई के पात्र हैं !
    नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्‍दर गहन भावों के साथ बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  6. हर हफ्ते आंच का इन्तजार रहता है.. इस बार मेरे प्रिय कवि राजीव जी इस कविता की समीक्षा देख अभिभूत हूँ.. कविता पहले भी कई बार पढ़ चूका हूँ और अब समीक्षा देख कविता के नए आयामों से मिल रहा हूँ... उच्च कोटि की समीक्षा है परशुराम जी की.. मनोज जी से अनुरोध भी किया था कि एक बार मेरी कविता को परशुराम जी की अंगीठी की आंच पर चढ़ाएं लेकिन उन्होंने अनुरोध पर निर्णय लंबित है उनके दरबार में... मनोज जी के पूरे टीम को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना...

    जवाब देंहटाएं
  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  8. मनोज जी , परसुराम जी ने पारखी नज़र से बहुत ही अच्छी समीक्षा पेश की है. वे बधाई के पात्र है..... वैसे कविता में कुछ विखराव तो है मगर विषय और भाव कि दृष्टी से काफी सशक्त है और मध्य वर्ग की इस मानसिकता से इंकार नहीं किया जा सकता .सुंदर समीक्षा.

    जवाब देंहटाएं
  9. अति सुंदर समीक्षा, राजीव जी से मिलाने के लिये आप का धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  10. इतनी विशद और डूब कर की गयी समीक्षाएं तो कम ही देखने को मिलती हैं, विशेषकर ब्‍लॉग जगत में तो असंभव। आपके इस आलोचनाकर्म को नमन करता हूँ।

    ---------
    साइंस फिक्‍शन और परीकथा का समुच्‍चय।
    क्‍या फलों में भी औषधीय गुण होता है?

    जवाब देंहटाएं
  11. समीक्षा के लिए परसुराम जी को बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  12. समीक्षाएं यूँ ही होती रहना आवश्यक है

    जवाब देंहटाएं
  13. सभी पाठकों को उतसाह वर्द्धन हेतु धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  14. "न जाने क्यों" की समीक्षा बहुत बढ़िया रही!
    आपको नव वर्ष मंगलमय हो!

    जवाब देंहटाएं
  15. समीक्षा अच्छी लगी ... “न जाने क्यों?”"
    सुंदर मनोविश्लेषण।

    जवाब देंहटाएं
  16. राजीव जी के घोंसले से होकर आ चुका हूम जब इस कविता के तिनकों सए वह बना था.. आज आचार्य जी के अनुभव और ज्ञान की आँच ने एक पूर्णता प्रदान की है!
    नमन आचार्य!!

    जवाब देंहटाएं
  17. उम्दा पोस्ट !
    नव वर्ष(2011) की शुभकामनाएँ !

    जवाब देंहटाएं
  18. परम आदरणीय परशुराम जी, सादर चरण-स्पर्श.
    'आंच' पर "न जाने क्यों?" की आपकी समीक्षा मेरे लिए एक सपने जैसा आशीष है.आपकी गहन दृष्टि,सघन विश्लेषण और बेबाक टिप्पणी ने अनायास ही मेरे जेहन में डा० उमेश्श्वर प्रसाद (तब(1983 -1985 ) अंग्रेजी के रीडर और मेरे परम आदरणीय गुरु) की याद ताजा कर दी है.मेरी रचनाओं में व्याप्त कमियों का एक मुख्य कारण मार्गदर्शन की कमी है,जिसे मैं पूरी शिद्दत से महसूस करता हूँ.इस क्षेत्र में मैं प्राइमरी के छात्र जैसा हूँ जिसे आप जैसे गुरुजनों का मार्गदर्शन आवश्यक है.आशा है भविष्य में भी आप अपना आशीष बनाये रखेंगे. इसके लिए बड़े भाई सामान आदरणीय मनोज जी का भी दिल से आभारी हूँ जिन्होंने आपका आशीष दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.
    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  19. itna suksham vishleshan..........kya kahne hain............waise Rajeev ji ki ye kavita maine padhi thi.........behad umda likhte hain wo!!

    nav varrsh ki subhkamnayen..

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।