बुधवार, 13 जुलाई 2011

देसिल बयना–89 : अंधा गुरु बहीर चेला…

देसिल बयना–89

अंधा गुरु बहीर चेला…

करण समस्तीपुरी

ताजमहल आगरा के…, पुल देखो हावरा के…, खच्चर हो कटरा के… बाते कुछ और है! हाजीपुर के केला के…., सोनपुर मेला के….., कलकतिया ठेला के बाते कुछ और है!

हाँ भाई… बाते कुछ और है। हर जगह का कुछ-न-कुछ खास होता है। फ़ेमस… और उसका बाते कुछ और होता है….। जैसे रंग में होरी के, चप्पल हो चोरी के…, पैसा घुसखोरी के…. तो बाते कुछ और है।

वैसे ही सब्जी में आलू के…, नेता में लालू के…, जंगल में भालू… के बाते कुछ और है। आंटा में चोकर के…., रस्ता में ठोकर के…., नाच में जोकर के… बाते कुछ और है… ! बाते कुछ और है… बाते कुछ और है!

और इसी तरह भारत अखण्ड के…, राज झारखण्ड के और गाँव रेवाखण्ड के बाते कुछ और है। ओह… आपहुँ रहे-गये रहते तो… बाते कुछ और था। खैर अब किस्से सुन के संतोष कीजिये।

हाँ तो हम कह रहे थे कि वैसे तो रेवाखण्ड का सब कुछ फ़ेमसे है। ऊ में भी एगो इलाका-फ़ेमस सावन का झूला। रेवाखण्ड का झूला नहीं देखे तो जाओ रे मन… क्या मथुरा-वृंदावन…! तेरह दिन तक धमगज्जर… ’झूला लगे कदम के डारी… बड़का ठकुरवारी… ! डरौरी का कीर्तन और बनारस का नौटंकी आता था। बूझे कि नहीं… रेवाखण्ड के झूला में बनारस के नौटंकी और उ नौटंकी में बंठा जोकर। सच्चे कहा है नाच में जोकर के बाते कुछ और है। हमैं तो सत-हरिश्चन्द्र का ’नछत्तर दास’, सुल्ताना डाकू का ’दरोगा हग्गु खाँव’, अर्थ-पिशाच का ’काफ़िया-तंग’, सम्राट जलंधर के ’नारद’ तक का संवाद रटा गया था।

वैसे तो नौटंकी का सौकिन हम शुरुए से थे मगर ई जोकर सब का हंसोर चरित्तर एतना इंस्पायर किया कि बाद में नाटक खेलने भी लगे और आखिरकार ’छत्तरपति शिवाजी’ में ’गो… गो… गो…गो….गोविंदराव’ का चरित्तर निभाकर ही ’श्री गो़विंदाय नमो-नमः’ किये।

वैसे तो लड़िका बच्चा के लिये नाटक देखना बड़ा मोस्किल होता था मगर हम ऐसन जिद्दी के जड़ कि हाय नरायण! मानेंगे नहीं। ’कफ़न’ ’कच्चे धागे’ और ’चंबल घाटी का लूटेरा’ तो लुका-चोरा के देखते थे मगर  ’राजा भरथरी’, ’सरवनकुमार’ और ’हरिश्चन्द्र’ नाटक बाबूजी अपने कंधा पर चढ़ाके देखाते थे।

बाप रे बाप ! उ नाटक में जैसे ही नछत्तर का पाट शुरू हो कि सारा दर्शक हँसते-हँसते लोट-पोट-पेटकुनिया….! बाबा विश्वामित्तर राजा हरिश्चन्द्र का राज-पाट ले लेते हैं। अब दान का दक्षिणा केलिये काशी जाकर बिकना पड़ता है। तो बाबा विश्वामित्तर नछत्तरदास को साथे लगा देते हैं कि उहां से दक्षिणा लेकर आ जाय। बाबाजी औडर करते हैं, “चेला नछत्तर दास….!’ उधर उ भीड़ में अमरुद का माला पहिने उप्पर होता था, “हाँ हौ…. बाबा !” सारे दर्शक हिहिया देते थे।

बाबाजी औडर करते थे, “नछत्तर दास ! तुम्हे राजा हरिश्चन्द्र के साथ काशी जाना होगा।” नछत्तर दास अंठिया के बोलता था, “एँ…. राजा हरिश्चन्दर के काकी….?” अब पछिला बार जो भी नहीं हसा था उहो सब ठठाकर हंसे। बाबाजी कहें ’काशी’ और नछत्तरदास सुने ’काकी’। दर्शक सब गुदगुदा रहे हैं। आखिर बाबाजी सोंटा चमकाते थे तब नछत्तरदास कुदक-फ़ुदक के बोले, “नहीं…नहीं… नहीं… नहीं…. हो बाबा… ! बूझ गवा…. गवा…. हम जायब काशी…. !!” बाबाजी का सोंटा उपरे रहता था और नछतरा पेटकुनिया लाद के उनका पैर पकड़ ले और दर्शक सब हंसते-हंसते अपना-अपना पेट।

हंसी का दौर रुके तो फिर बाबाजी बोले, “नछत्तर दास ! तुम्हे काशी से एक हजार स्वर्ण-मुद्रा लाना होगा।” नछतरा फिर अनसूनाकर के बोलता था, “क्या कहे… स्वर्ण…?” बाबा चिल्लाकर बोलते थे, “स्वर्ण-मुद्रा… मुद्रा…!” नछतरा मुँह बनाकर बोलता था, “मुर्दा….! उँ…. हूँ…. हूँ… हूँ…. बाबा हौ… हमके बचा लऽ…..! हमसे मुर्दा लाये ना होई हो बाबा…! हमनी के जंतर-मंतर ना आबेला…. सौ-सौ मुर्दा हम कैसे लायेम हो बाबा….!”

अब तक तो जिनगी में कभी नहीं हंसा होगा उका भी बतीसी खुल जाता था। चारों तरफ़ बस ’हा…हा…हा…हा…. ही…ही…ही…ही…खी….खी…खी…खी…. हें.. हें..हें…हें…..!” वैसे नछतरा बाबा विश्वामित्तर को परेशान भी बहुत करता था। मगर नाच बना देता था।

उ दफ़े अकठू झा बाबूजी के पासे खड़े, रनिंग कमेंटरी कर रहे थे। कभी-कभी तो आने वाले दिरिस का भी कमेंट्री कर देते थे। नछत्तरदास का एंट्री होते ही हमेशा की तरह ताली और हंसी बजरने लगी। इधर अकठू झा भी एकदम जोश में अपने कमेंट्री का साउंड तेज कर दिये। मगर एक बात है, झाजी का कमेंट्री नछतरा के जोकरिंग पर सोने पर सुहागा का काम करता था।

भले-शास्त्र-पुराण में जिकिर नहीं हो मगर कलाकर लोग एक-एक ऐसा स्वांग भरते थे कि नौटंकी हिट…! ऐसने एगो दिरिस में बाबा विश्वामित्तर ’अंधासन’ लगाये बैठे थे। एक बार मंतर पढ़ें और दू बार बोलायें नछत्तर दास को। इधर गुरुजी ’अंधासन’ लगाये थे तो चेला ’बहिरासन’। गुरुजी चार बार चिल्लायें तब एक बार बोले, “हाँ हौ… बाबा हौ…!” बाबा विश्वामित्तर ’अंधासन’ लगाये हुए थे सो सोंटियल भी नहीं चमका सकते थे। और नछतरा का जोकरिंग एकदम जोर पर….। दोनो के कनवर्सेशन पर पब्लिक मारे ठहाका…. हा… हा… हा… हा…. !

बाबा विश्वामित्तर वही ’अंधासन’ में बोले, “चेला नछत्तरदास !” नछतरा फिर कान पर हाथ रखकर चिल्लाया, “अस्सी…..!” बाबा खिसिआकर बोले, “क्या अस्सी-नब्बे करता है? नछत्तरदास बड़ी मासूमियत से बोला, “आपही तो पूछे थे ’पचहत्तर पाँच’… तो हम बोले, ’अस्सी’। गुरुजी और खिसियाये, “मार पाजी… ! हम नछत्तरदास बोले थे… नछत्तर दास… पचहत्तर पांच नहीं… नछत्तर दास… तुम्हे बुलाए थे।”

नछतरा थोड़ा भाव खाते हुए बोला, “हाँ तो एतना चिल्ला काहे रहे हैं… हम तो यहीं है… ! आँख खोलकर देख नहीं सकते हैं… लगे नजदीक के लोग पर भी गला फ़ाड़े…!” गुरुजी फिर कड़के थे, “नछतरा……!” बेचारा नछत्तरदास सकपका के दूर हट गया। पब्लिक की हंसी और अकठु झा की कमेंटरी जारी।

बाबाबाबा विश्वामित्तर दो-चार मंतर के बाद फिर बोलते हैं, “नछत्तरदास…!” नछतरा ई बार होशियार था। गर्दन उठाकर बोला, “हाँ हौ बाबा…!” बाबा उत्साहित होकर बोले, “नछत्तरदास ! व्रत तोड़ने का समय हो गया… जरा गुड़ लाना।” नछत्तरदास बोला, “सूँड़….!” बाबा कड़के, “गुड़…!”  नछत्तरदास दोनों कान में अंगुली डालकर चिल्लाया, “सूँड़… हाथी का सूड़…?” बाबा खिसियाकर बगल से सोंटा उठाये और इस्टेज पर पटककर बोले, “मार बेकूफ़….. !” नछतरा कूद के पीछे भागा….। बाबा सोंटा नचाकर बोले, “अरे गुड़… गुड़ का भेला…. ! अब जल्दी लेके आओ…!”

“गुड़ का भेला…. सुना कि नहीं?” बाबा कंफ़र्म कर लिये। बेचारा नछतरा ’हाँ’ तो बोल दिया मगर इधर ठुड्ढी पर हाथ चला-चलाकर सोच रहा है कि बाबा आखिर ई लेके क्या करेंगे…? फिर मुँह नचाकर बुदबुदाया, “कुछौ करें हमका का उखाड़ लेंगे….?” उधर पर्दा के पाछे गया और एगो इयेह बड़का काली मिट्टी का ढेला गुरुजी के हाथ में पकड़ा दिया…. !

गुरुजी भी ’अंधासन’ में कमंडल से चुल्लू भर जल निकाले और ’त्वदीयं वस्तु गोविंदम्‍….’ पढ़के ढेला के चारो तरफ़ छिड़ककर आँख खोले कि अब भोग लगायेंगे। आहि रे तोरी के…. सामने तो मिट्टी का ढेला पड़ा हुआ है। गुरुजी के तलवा का लहर मगज पर चढ़ गया। सोंटा नचाकर बोले, ’नछतरा…..!’ नछत्तरदास अपना लंगौटी संभालते हुए ही भागा आगे…. इधर बाबा पाछे…..! उधर नगारा वाला भी बजाने लगा, ’डिंग… डिंग…. डा…. डिग्गा….’! इधर पब्लिक फिर से हँसते-हँसते लोट-पोट और अकठु झा ताली पीटकर बोले, “वाह खिलाड़ी….! ई हुआ न नौटंकी….. !! इसी को कहे हैं गोसाईंजी, “अंधा गुरु बहीर चेला ! मांगे गुड़ तो दिये ढेला…!!”

हा…. हा… हा…. हा…. ही…. ही…. ही…. ही….. ! बाप रे बाप ! एक तो नछतरा के नौटंकी से हंसते-हंसते सब का घाम छूटा हुआ था उपर से झाजी एगो अगले लाफ़िंग गैस छोड़ दिये। “खूब कवित्त गढ़े झाजी,….. हा…. हा…. हा… हा….. !” बाबूजी की भी हँसी नान-इस्टाप हो गयी थी। हमें तो हंसते-हंसते हिचकी आ गयी तो बाबूजी उठाकर ले आये पानी पिलाने। नाच खतम हुआ मगर उ दिन से नछतरा के नौटंकी के साथ-साथ अकठु झा का फ़करा भी अमर हो गया, “अंधा गुरु बहीर चेला ! मांगे गुड़ तो दिये ढेला…!!”

अब तो न उ देवी है न उ कराह। रेवाखण्ड में तो नौटंकी बंदे हो गया मगर बिहारी कक्का कह रहे थे कि दिल्ली में तो ई नौटंकी रोजे होता है। अब शहर-बजार की बात हम का जानें…. उ में भी दिल्ली दूर। हम तो गोसाईं बाबा के रमैन (रामचरित मानस) में पढ़े रहे, “गुरु-सिस अंध-बधिर का लेखा।” उ दिन नौटंकी में देखियो लिये, “अंधा गुरु बहीर चेला ! मांगे गुड़ तो दिये ढेला…!!” मतलब कि विधाई और कार्यकारी शक्तियों में समन्वय का अभाव।

16 टिप्‍पणियां:

  1. गुरु गुड ,शक्कर चेला तो सुना था , मगर आज के समय में अँधा गुरु बहिर चेला भी फिट और हिट है !

    जवाब देंहटाएं
  2. लाजवाब, क्‍या कहने. बार-बार पढ़ने को जी चाहे.

    जवाब देंहटाएं
  3. करण बाबू!अब त मजा आ गया बोलने में भी मजा खराब हो जाता है.. ई आनंद त महसूस करने का चीज है, बोलने का थोड़को है!!
    पटना में सावन महीना में सोम्बारी मेला देखने जाते थे, मगर उसमें भी नौटंकी नहीं होता था.. उसके बाद सिनेमा "तीसरी कसम" में नौटंकी देखे.. मगर असली नौटंकी और सुल्ताना डाकू देखने का मौक़ा मिला जब हम बैसाली जिला में दू साल पोस्टेड रहे.. सऊंसे दिरिस आँख तर नाच गया.. बयना त बयना है आउर संदेस संदेस... बाकी सावन के दू दिन पहिले सावन का मजा जों आप दिला दिए उसके लिए धन्यवाद!!
    - सलिल

    जवाब देंहटाएं
  4. विधाई और कार्यकारी शक्तियों में समन्वय का अभाव।

    नछत्तर की पूरी लीला का निचोड़ अंतिम पंक्तियों में ||

    बहुत प्रभाव शाली प्रस्तुति |

    बधाई ||

    जवाब देंहटाएं
  5. अदभुद करन भाई... और अंतिम पंक्ति पूरे बयना को अलग मोड़ दे देती है... हंसी और विषाद का मिश्रित भाव चेहरे पर उभर गया है...

    जवाब देंहटाएं
  6. व्यंग तो बहुत से लोग लिखते हैं पर करण जी आपकी बाते कुछ और है.
    वाह करण जी वाह.

    जवाब देंहटाएं
  7. “अंधा गुरु बहीर चेला ! मांगे गुड़ तो दिये ढेला…!!” मतलब कि विधाई और कार्यकारी शक्तियों में समन्वय का अभाव।

    बहुत खूब....

    जवाब देंहटाएं
  8. बड़े लाजवाब रूप में प्रस्तुत किया///
    ___________________
    शब्द-शिखर : 250 पोस्ट, 200 फालोवर्स

    जवाब देंहटाएं
  9. जैसे हरिश्चंद्र के नाटक में 'नछत्तर दास' वैसे ही राम लीला में 'मक्खीचूस' दोनों ही हँसाने का अच्छा इंतेजाम करते हैं|

    लोगों को हँसाते हुए जैसे इन दोनों मंचीय प्रस्तुतियों में ज्ञानवर्धक बातें बताई जाती थीं, ठीक उसी तरह आपने भी इस देसिल बयना के थ्रु हमका भी बहोत बहोत हंसाय दिएल बा:)))))) और जानकारियाँ साझा कीं वो बोनस में|

    जवाब देंहटाएं
  10. करन जी,
    नौटंकी का इतना सजीव वर्णन बस आपके के ही बस की बात है ! पढ़कर बचपन के वो दिन याद आ गए जब नाटक कंपनी का नगाड़ा सुनते ही पिता जी से परमिसन लेने के लिए मन मचलने लगता था ! आज वर्षों बाद फिर से नाटक देखने का मज़ा आ गया !
    बधाई हो,शब्दों को दृश्य बनाने के लिए और फिर उन्हें सजीव करने के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  11. सभी पाठकों को नमस्कार एवं हार्दिक धन्यवाद। आपकी प्रतिक्रिया ही हमारी रचनात्मक ऊर्जा की इंधन है। आभार !!!

    जवाब देंहटाएं
  12. अहह हा ..क्या प्रवाह ..क्या शैली..बहुत आनंद आया.

    जवाब देंहटाएं
  13. लाजवाब, क्‍या कहने. बार-बार पढ़ने को जी चाहे.

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत प्रभाव शाली प्रस्तुति |...

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।