शनिवार, 3 सितंबर 2011

फ़ुरसत में ... गुरुओं को नमन!

फ़ुरसत में ...

गुरुओं को नमन!

मनोज कुमार

09831841741

वर्षा थम नहीं रही। बादल ... उमड़-घुमड़ कर आ रहे हो। मदमस्त, अल्हड़, उन्माद से भरे ... बादल! कभी अपना रौद्र रूप दिखलाते हो, तो कभी रिम-झिम फुहार बरसाते हो। बादल .., ओ बादल! कभी तुमने सोचा कि जिस जल से तुम भरे हुए हो वह तुम्हारा नहीं है। समुद्र का जल पीकर ही पुष्ट हुए हो तुम! ज़रा समुद्र को देखो, अथाह जल राशि से भरा है, फिर भी धीर-गम्भीर है। मेरी बात न मानो, ... तो न मानो, जायसी ने जो लिख डाला है उस पर तो ग़ौर फ़रमाओ ...

मुहमद नीर गंभीर जो सो नै1 मिलै समुँद।     1 = झुककर

भरे ते भारी होइ रहे छूँछे बाजहिं दुंद2         2. नगाड़ा

देखो तुममें लोगों की प्यास बुझाने की अपार क्षमता है। तुम तो धाराधर हो। तुम्हें व्यवहार में गम्भीरता, वाणी में गंभीरता और भावों में गम्भीरता बरतनी चाहिए। ये क्या जहां मन किया लगे कड़कने। जहां मन किया लगे गरजने। जहाँ मन किया लगे बरसने। देखो, तुम तो यह मानते ही होगे कि चाहे जितनी बिजली तड़पाओ, पर आकाश में कभी खलबली नहीं मचती। इसीलिए कहता हूं कि समुद्र की ओर देखो, उसकी विविध लहरों में निश्चलता है, और यही समुद्र का सच्चा गांभीर्य है। गंगा को देखो, देखने से पता चलेगा कि भरी नदी शांत बहती है। जो अच्छे लोग होते हैं, जो सच्चे लोग होते हैं, उन्हें देवगण कह सकते हैं, और ये देवगण आत्मा के शोर को नहीं, उसकी गहराई को पसंद करते हैं।

पर तुम हो कि, कहीं अतिवृष्टि करते हो तो कहीं अना....। क्या तुमने सबको समान भाव से देखना नहीं सीखा। सब पर बराबर निगाह रखा करो। लोचन हो, पर समालोचन। दृष्टि डालो, मगर समदर्शी बनो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसा गम्भीर समालोचक हिंदी तो क्या अन्य भारतीय भाषाओं में भी, या यूं कहें कि पूरे भारत में दूसरा नहीं हुआ। उनका कहना था हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा; दूसरे की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। ... पर यह दृष्टिकोण तभी आ सकता है न, जब हमारी अंतर्दृष्टि को आच्छन्न करनेवाले पर्दे हटेंगे, आंखों पर छाये बादल छटेंगे और तब हमारे विचारों में बल आएगा।

आचार्य शुक्ल की ‘गम्भीरता’ सिर्फ़ चिन्तन की गहराई नहीं, बल्कि दायित्व की गम्भीरता है। वे समालोचना को केवल कृतियों को विश्लेषण और मूल्यांकन तक सीमित नहीं रखते थे। उनके सामने तो एक बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व था। वे ‘लोक-मंगल’, ‘लोक-रक्षा’ की कामना करते थे। आचार्य शुक्ल के ज़रिए हिंदी आलोचना का यह सौभाग्य है, जैसा कि डॉ. नामवर सिंह कहते हैं, उसकी प्रतिष्ठा साहित्य के व्यापक सामाजिक दायित्व की गहरी नींव पर हुई।

आचर्य शुक्ल की दृष्टि साहित्य के स्वधर्म पर बराबर टिकी रही। उन्होंने इस बात का ख्याल किया कि साहित्य की कोटि में क्या-क्या आता है, क्या नहीं आता। ओ बादल! मेरी नहीं मानते तो उनके ही मुख से सुन लो, कुछ हदबंदी मैं कर लेना चाहता हूं; यह स्थिर कर लेना चाहता हूं किशुद्ध साहित्य के भीतर क्या-क्या आता है।

जब मैंने यहां शुद्ध साहित्यिक कृति की बात की तो तुम गरजे थे, हे बादल याद है क्या कहा था तुमने, याद दिलाऊँ,

.... .... ने कहा

किसी भी विवरण का कोई साक्ष्य या तर्कसंगत आधार इस लेख में नहीं है. नाटकों का श्रेणी विभाजन किन समीक्षकों ने किया? शुद्ध साहित्यिक नाटक, ये कौन सी श्रेणि थी भाई? विडंबना है कि असिए अधकचरे लेख जो भ्रान्ति फैला रहे हैं कि सराहना और इंतज़ार हो रहा है.

शुद्ध साहित्य शब्द से न तो भ्रम होना चाहिए था, न ही गुरेज़। अब हम तो ठहरे निरे मूर्ख। हे बादल, तुम तो जानते होगे कि आचार्य शुक्ल तथाकथित शुद्ध साहित्य के हिमायती थे। आचार्य शुक्ल ने तो एक ग्रंथ ही रच डाला, हिंदी सहित्य का इतिहास। इस ग्रंथ में उन्होंने साहित्य कोटि में रचनाओं को सम्मिलित और तिरस्कृत किया है। अब देखो न उन्होंने क्या लिखा है, देवकीनंदन खत्री के उपन्यास साहित्य कोटि में नहीं आते, जबकि किशोरी लाल गोस्वामी की रचनाएँ साहित्य-कोटि में आती हैं।’’ इस कोटि या श्रेणी विभाजन में आचार्य शुक्ल की जीवन-दृष्टि समाविष्ट थी। अपनी दृष्टि का खुलासा करते हुए वे कहते हैं, सच्चा साहित्यकार वही है जिसे लोक-हृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच से मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को अलग करके देख सके।

‘कोटि’ से मतभेद हो सकता है, किन्तु साहित्य को जाँचने परखने के लिए आचार्य शुक्ल का निश्चित मानदंड था। वे उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में हमें देखने को मिलते हैं। देखो बादल, तुम्हारे ही आचरण को देखकर कहा गया है जो गरजते हैं सो बरसते नहीं। वास्तविकता और सिद्धांत में तालमेल रखो, तभी तो यथार्थवादी कहलाओगे। आचार्य शुक्ल की सब पर समान दृष्टि रहती थी। वह लोक सामान्य या साधारण की प्रतिष्ठा और विशिष्ट या असाधरण का तिरस्कार में विश्वास रखते थे। सामान्य मनुष्य ही शुक्ल जी की लड़ाई का ‘हीरो’ है। उन्होंने विलक्षण के विरुद्ध संघर्ष किया। वे कहते थे, साधारण से साधारण वस्तु हमारे गम्भीर भाव का आलंबन हो सकती है। और, जहाँ तक सामान्य की प्रतिष्ठा की बात है, तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि प्रकृति के निर्माण में यदि बड़ों का योगदान है तो छोटे से छोटे कीट तक का भी योगदान है। तो उसको उसके योगदान को सम्मान मिलना ही चाहिए। भले ही वह किसी अन्य प्रसंग में हानिकर हो। जहाँ हानिकर है, वहाँ उसका दोषदर्शन किया जाना चाहिए। यही तटस्थ समालोचना है। प्रसिद्ध होमियोपैथ डॉ ई. बी. नैश अपनी पुस्तक “Leaders in Homeopathic Therapeutics” में लिखते भी हैं – “ ..... even a bed bug should be given its due credit.”

पर तुम्हें क्या बादल? तुम तो हमे यहां पर कह ही चुके हो कि मेरी दृष्टि तुच्छ है ...

“... ... ने कहा

आप सभी पाठको से अनुरोध है कि इस लेख की सामग्री का कहीं भी उल्लेख ना करें. भयानक बचकानी भूलों से भरा पड़ा है यह. इससे अच्छा तो स्नातक के विद्यार्थी लिखते हैं. अब तीन लेख के बाद भी कोई सुधार नहीं है. और इसे उम्दा और जानकारीपूर्ण पता नहीं क्या क्या कहने वालो पे मुझे तरस आता है. अब मुझे चुंकि पता लग गया है कि यहां पे टिप्पणी करना उर्जा को गलत जगह पर खर्च करना है. मैं यह अंतिम टिप्प्णी कर रहा हूं.”

जिसके पास देने को बहुत कुछ होता है, जैसे तुम, अमित आकार के हो हे बादल, अपरिमित हो, असीम हो, पूरे व्योम को आच्छादित कर लेते हो, तो हो ही विशिष्ट लक्षण वाले। पर कभी साधारण और सामान्य के ऊपर भी तरस खा लिया करो। अब, मैं यह तो नहीं कहता कि किसी दूसरे व्‍यक्ति की आलेचना करने से पहले हमें अपने अन्‍दर झॉंक कर देख लेना चाहिए। पर इतना तो आग्रह रख सकता हूं कि समालोचना करके देखो। सरलता भी देखो, क्योंकि सरलता में महान सौंदर्य होता है। जो सरल है, वह सत्‍य के समीप है।

बादल, आपकी आप जानें ... मैं तो इतना जानता हूं कि यहाँ दो तरह के लोग हैं। एक वो जो काम करते हैं और दूसरे वो जो सिर्फ क्रेडिट लेने की सोचते हैं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं पहले समूह में रहूँ क्योंकि वहाँ कम्पीटीशन कम है।

हो सकता है कि मैं ग़लत रहा होऊँगा, हो सकता है कि मैंने ग़लती की होगी। मैंने तो स्वीकार भी किया था,


“मनोज कुमार
ने कहा

भाई ... ... आपके प्रोफ़ाइल में लिखा है
“सलाह अच्छी देता हूँ,”
तो ज़रा मुझे भी दीजिए ना कि क्या ग़लत है और क्या बचकाना है, तो ठीक कर लूँ, कुछ सुधार कर लूँ इस आलेख में, और अपने आप में भी।”

पर आपने कुछ सिखाया ही नहीं। बताया भी नहीं। भाई, मैं तो यह मानता हूँ कि ग़लती करने का सीधा सा मतलब है कि आप तेजी से सीख रहे हैं। ग़लती करने का मतलब यह थोड़े है कि मैंने कोई ऐसा काम किया है जो मुझे नहीं करना चाहिए। ग़लती तो हर मनुष्य कर सकता है , पर केवल मूर्ख ही उस पर दृढ बने रहते हैं। मैं तो ग़लती सुधारना चाहता था। - अलेक्जेन्डर पोप ने कहा था - अपनी गलती स्वीकार कर लेने में लज्जा की कोई बात नहीं है। इससे दूसरे शब्दों में यही प्रमाणित होता है कि कल की अपेक्षा आज आप अधिक समझदार हैं।

अब अपनी बात एक अरबी कहावत के साथ समाप्त करता हूं,

जो जानता नहीं कि वह जानता नहीं, - वह मूर्ख है- उसे दूर भगाओ।

जो जानता है कि वह जानता नहीं, वह सीधा है - उसे सिखाओ।

जो जानता नहीं कि वह जानता है, वह सोया है - उसे जगाओ।

जो जानता है कि वह जानता है, वह सयाना है - उसे गुरू बनाओ।

हे बादल! मेरे गुरु बन जाओ।

एक दिन के बाद ही शिक्षक दिवस है … हे बादल! आपके समेत सभी गुरुओं को नमन!

25 टिप्‍पणियां:

  1. daekhiyae guru jan ki baat me dam haen aur aap ko sudharnae ki jarurat haen

    mae badii pratibha daekh rahee hun us baalak me

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  2. वाह …………आपका तो अन्दाज़ भी आपका ही रहा नमन करने का……………बहुत कुछ अनकहा भी कह दिया और जिस खूबसूरती से कहा वो गज़ब है।

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  3. उनका कहना था ‘हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा; दूसरे की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। ...’ पर यह दृष्टिकोण तभी आ सकता है न, जब हमारी अंतर्दृष्टि को आच्छन्न करनेवाले पर्दे हटेंगे, आंखों पर छाये बादल छटेंगे और तब हमारे विचारों में बल आएगा।

    गुरु को बदल नहीं गंभीर सागर होना चाहिए ..यह बात अच्छी तरह से समझ में आई ... आज की फुरसत बहुत खास लगी ... काफी बिंदु हैं जिन पर विचार किया जा सकता है ..आभार

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  4. बादल को उपालंभ देते हुए, एक सही गुरू को उजागर किया है आपने.. और इसी बहाने आपने मुझे भी वो अंडे और ऑमलेट वाला किस्सा याद दिला दिया... एक शेर हम भी ठोंकते चलते हैं:
    बरसात का बादल तो दीवाना है, क्या जाने,
    किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है!
    अब जिन्होने बरसने का ठेका लिया है, उन्हें यह देखने की फुर्सत कहाँ...
    आपके उलाहना देने का यह अंदाज़ भी पसंद आया.. अलेक्जेंडर पोप ने "एन एस्से ऑन क्रिटीसिज्म" में एक जगह लिखा भी है कि बेवकूफ बेधड़क घुसे चले जाते हैं जहां फ़रिश्ते पाँव रखते भी डरते हैं!!

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  5. @जो जानता है कि वह जानता नहीं, वह सीधा है - उसे सिखाओ।


    जी गुरुजी.... तभी यहाँ बैठे है धुनी जमाये... कुछ सीखने के लिए..

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  6. प्रस्तुत तथा पूर्ववर्ती आलेख [शुद्ध साहित्य] पढ़ा| 'सार्थक' टिप्पणियों को भी पढ़ा| खास कर राहुल जी की 'द्विगणित' वाली टिप्पणी ने पोस्ट की सार्थकता को सुनिश्चित किया|

    आप ने सही कहा है कि यदि ग़लती है भी तो उसे सुधरवाने के लिए संबंधित पक्ष को आगे बढ़ के आना चाहिए| ग़लती का मतलब ही होता है कि काम जारी है - समाज सोया हुआ नहीं है|

    जानकारियाँ बाँटने को ग़लती कदापि नहीं कहा जाना चाहिए, बल्कि उस जानकारी में यदि कोई ग़लती हो भी तो उसे सही रूप में प्रस्तुत कर समाज के हित में खड़ा होना चाहिए| बहरहाल, हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा करने वाले इस आलेख के लिए आप को बहुत बहुत बधाई| दो पंक्तियाँ ज़रूर शेयर करना चाहूँगा:-

    कभी पाठक नज़र से भी किसी के काम को देखें|
    नहीं हर बार टीका-टिप्पणी की दृष्टि से देखें||

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  7. सार्थक विचार और सुन्दर अभिव्यक्ति का अनूठा अंदाज़...

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  8. आपकी सीख पर चलकर ही निर्णय लेंगे।

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  9. किस प्रसंग को कहाँ जोड़ रहे हैं आप...आज तो फुर्सत से गुरु को दक्षिणा दिया है... बहुत खूब....

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  10. आचार्य शुक्ल और धीर गंभीर सागर, लहर्रों में भी सीप वाले मोती . गरजते बादल बरसे तो सावन नहीं तो केवल मनसायन . हम तो सब पढ़े, कुछ सीख के ही जा रहे है / फुरसत में वैसे ही है .

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  11. निराला.. .बेहद सुन्दर पोस्ट.

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  12. आज आपके लेख से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के साहित्यिक मापदंड भी समझ आ गये, बादल के भी और लेखक के भी. सबके सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में हमें देखने को मिले हैं . साथ ही ये भी शिक्शा मिली की वास्तविकता और सिद्धांत में तालमेल कैसे किया जाना चाहिए.

    प्रसंग कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंच गया पता ही नहीं चला. हाँ सरलता में महान सौंदर्य होता है। जो आपने इस लेख के माध्यम से सिध कर दिया.

    और अन्त में ये कहावत ..

    जो जानता नहीं कि वह जानता नहीं, - वह मूर्ख है- उसे दूर भगाओ। जो जानता है कि वह जानता नहीं, वह सीधा है - उसे सिखाओ। जो जानता नहीं कि वह जानता है, वह सोया है - उसे जगाओ। जो जानता है कि वह जानता है, वह सयाना है - उसे गुरू बनाओ।

    लाजवाब है....इस पर विचार अवश्यम्भव है.

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  13. गुरुवर...ज्ञान कहीं से भी मिले लपक लेना चाहिए...शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं...

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  14. बहुत कुछ कह गया यह फुरसतनामा .

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  15. sundar rochak ek behtarin sandesh liye hue post...binamrta ke sath aapne har baat keh di..sachmuch dil ko choo lene wala ..badhayee aaur sadar pranam ke sath

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  16. फुरसत में गम्भीरतापूर्वक ज्ञान की बातें बताने के लिये धन्यवाद.
    शिक्षक दिवस की अग्रीम शुभकामनाएँ...

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  17. अलेक्जेन्डर पोप ने कहा था - अपनी गलती स्वीकार कर लेने में लज्जा की कोई बात नहीं है। इससे दूसरे शब्दों में यही प्रमाणित होता है कि कल की अपेक्षा आज आप अधिक समझदार हैं।......आपकी ये रचना बहुत कुछ सीख देती है बहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक पोस्ट |

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  18. दूसरों की दृष्र्टि से अपने को देखना हमारा स्वभाव हो गया है और यही परेशानी का कारण बन जाता है। रचनाकार ने अपना पक्ष बड़े ही सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। साधुवाद।

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  19. बादल और समुद्र के माध्यम के मन के अन्दर चल रहे उथल-पुथल को बड़े सलीके से और सुन्दर तरीक़े से व्यक्त किया है आपने .मैं आपकी लेखनी का कायल हूँ.काश मैं भी इसे सीख पाता.बधाई इस प्रस्तुति के लिए.

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  20. गुरु , शिष्य , बिजली , बादल , समादर आदि प्रतिमानों से आपने बहुत अच्छी तरह अपनी बात को प्रस्तुत किया ...अपनी बात बिना किसी को अपमानित किये कहना भी एक कला है ...बहुत कुछ सीखना होगा आपसे !
    आभार !

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  21. बादलों के माध्यम से विविध पक्षों पर गंभीर विमर्श किया है आपने.

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  22. मनोज भैया ! विनम्र शैली में एक गंभीर विमर्श ...वह भी पूरी शिकायत के साथ....जैसे किसी क्रांतिकारी बहू ने मीठी छुरी चलाई हो...... पूरे दृढ निश्चय के साथ कि ज़रा आइये तो मैदान में ....
    अब ज़रा बिंदास बोलूँ तो ...क्या मारा है भिगा के......मार-मार के बर्फी मुंह सुजा दिया.
    आपके व्यक्तित्व का यह पहलू भी अनोखा ही है. परनाम करतानी.

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  23. अति उत्तम विचार है/ बहुत खूब कहा है आपने /

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