शनिवार, 24 सितंबर 2011

फ़ुरसत में ... स्वयं की खोज

फ़ुरसत में ...

स्वयं की खोज

मनोज कुमार

किसी ने ठीक है कहा है अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से आपमें अहंकार सकता है परन्तु आधात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते हैं उतनी ही नम्रता आती है मुझमें भी इन दिनों अहंकार तत्त्व प्रबल होने लगे। अहं भाव से घमंड सिर चढ़कर बोलने लगता है। शालीनता होने का लबादा ओढ़े रहने के बावज़ूद चाल-ढ़ाल, बोल-चाल, खान-पान, हाव-भाव सबों में तो वह घमंड झलकने लगता ही है। दोहरे चरित्र जीने का मोह छोड़ न पाने के कारण कभी कभार लोग मेरे आचरण से कुछ का कुछ अर्थ भी तो लगाने लगते हैं। जैसे अहंभाव से घमंड पैदा होता है वैसे ही विभ्रम मोह का परिणाम है

इस मनोदशा में डूबते-उतराते लगा कि मैं नास्तिक तो नहीं बनता जा रहा। जिन चीज़ों में पहले आस्था थी अब उन पर ही अनास्था होने लगी। जिन्हें अच्छे गुण कहे जा सकते थे, यदि वे बचे भी हैं मुझमें, तो लगता है कि एक-एक कर तिरोहित होते जा रहे हैं। दिव्य गुण मानव को ईश्वर के समीप ले आते हैं जबकि विकार उसे ईश्वर से दूर ले जाते हैं मेरा विकार मुझे पथ-विचलित कर रहा है। इन सब कारणों से शायद मैं अपने ही लोगों में अप्रिय तो नहीं हो रहा। अगर इस स्थिति के मूल में जाऊं तो मैं पाता हूं कि यह सब अहं भाव के उदित होने का ही तो परिणाम है। अहंभाव से मानव में वे सारे लक्षण जाते हैं, जिनसे वह अप्रिय बन जाता है

यौवनं धन संपत्तिही प्रभुत्वम्‌ अविवेकता,

एकैकमप्य अनर्थाय, किंयत्र चतुष्टम्‌। (हितोपदेश)

यौवन, धन-सम्पत्ति, प्रभुता और अविवेक एक-एक ही अनर्थ का कारण हैं और अगर जहां चारों हैं उसका कहना ही क्या?

लगता है नैतिक ,ऊल्य शब्दकोश में दुबक गया है। जीने के लिए, जीवित रहने के लिए कुछ नैतिक मूल्यों का सहारा तो चाहिए। पर जब यह लगने लगे कि मेरे मूल्य मुझे ही धता बता कर मुझसे दूर होते जा रहे हैं तो यह सोचने पर विवश हो जाता हूं कि यदि व्यक्ति अपने नैतिक मूल्य खो देता है तो मानो अपना सब कुछ खो देता है खोते ही जा रहा हूं, लोगों में अच्छाइयां देखना, लोगों के अच्छे गुणों को देखना, समय के उजले पक्ष को देखना। लगता है मैं बीमार होते जा रहा हूं, यदि शरीर से नहीं तो मन से , दिमाग से, तो अवश्य ही। एक अच्छा, स्वच्छ मन वाला व्यक्ति दूसरों की विशेषताएं देखता हैदूषित मन वाला व्यक्ति दूसरों में बुराई ही ढूँढता है मैं अब लोगों की बुराइयां खोज-खोज कर ढूंढ रहा हूं, या अनायास ही मुझे दिख जाता है, कह नहीं सकता। छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति का मुझमें विकसित होते जाना शुभसंकेत नहीं है। यह तो मेरे अस्तित्व को ही बेमानी बना रहा है। जितना मैं दूसरों में अवगुण देखता हूं, उतना ही मुझ पर अवगुणों का असर पड़ने लगा है समाधान तो यही है कि मुझे तो गुणग्राही बनना चाहिए।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई।

जो जग देखा आपना, मुझसा बुरा न कोई॥

कहीं ये सारे गुण इसलिए तो नहीं समा गये मुझमें कि मैं चाहता होऊं कि लोग मेरी तारीफ़ करें, प्रशंसा करें। और यदि ऐसा न हो पा रहा हो तो मैं इन अवगुणों की खान बनता जा रहा हूं। सदा प्रसन्न रहने के लिए झूठी प्रशंसा की इच्छा का त्याग आवश्यक है मुझे यह त्याग करना ही चाहिए। मुझे फिर से खुद की खोज करनी होगी। यह काम क्या सरल है? सहज है? पर कहीं से शुरुआत तो करनी ही होगी। स्ययं की खोज के लिए स्वयं के प्रति सच्चा बनना पड़ेगा इस खोज की यात्रा गांगा तट तक मुझे खींच लाती है। वहां आने पर जो भाव मन में उठते हैं वह काव्य-रूप धारण करते हैं ..., देखें ...

आओ ना चैतन्य!

मटमैली गंगा,

विकृत विवेक-सी

पसरी हुई,

दम तोड़ती

गतिहीन-सी, निस्पंद

 

इधर

तट पर

कई ज़िंदगी

झोंपड़ों में सिमटी हुई

ठहर सी गई है।

 

घाट भी नष्ट हो गए

नदी तट सिकुड़ा

रेत ही रेत …

 

उसी तखत पर

बैठ कर

देख रहा

कभी जिनके सभी पाए थे दुरुस्त
आज उनका हो गया क्षरण
फिर भी संभाले तो हैं मुझे,
मेरी हस्ती को!

 

गंगा का तट और अस्ताचल सूर्य
होने वाला है गहन तिमिर का आगमन
व्याकुल, अशांत मन
प्रतिपल
बढती जा रही मन की हलचल|

आओ ना चैतन्य!
करो मेरी समस्याओं का समाधान
बैठो इसी टूटी चौकी पर
साथ मेरे|

जब तुम बैठे थे साथ
रत्नाकर के, तो उसे
वाल्मीकि बना दिया
बैठे जब गौतम के पास
तो वह हुआ बुद्ध
आज इस निशा के आगमन से
गंगा की धार है अवरुद्ध
करो निदान!

हे दिनमान!

27 टिप्‍पणियां:

  1. हम जितना दूसरों में अवगुणों को ढूंढते हैं , अपने ही ज्यादा नजर आते हैं ...
    यही दृष्टि श्रेष्ट इंसान का निर्माण करती है ...
    कविता तो अपने आप में सम्पूर्ण है ही!

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  2. जिन्दगी में आगे बढ़ने की दौड़-भाग में जीवन मूल्य पीछे छूट रहे हैं। व्यक्ति सांसारिक जगत में जितना आगे बढ़ रहा है, उसको उतने ही अधिक चरित्र एक साथ जीने पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि यह एक नियति सी बन गई है। इस परिदृश्य को दर्पण की भाँति प्रकट करती कविता मानव जीवन का वास्तविक चेहरा है। यह स्वयं की खोज करती हुई एक आध्यात्मिक सी कविता है।

    कविता अच्छी लगी। आभार।

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  4. आज ऐसी ही पोस्‍ट की आवश्‍यकता थी। आध्‍यात्‍म का अर्थ ही यह है कि अपनी आत्‍मा को पहचानो। उसे जानो। अहंकार तो वास्‍तव में सारे ही दुर्गुगों की खान है। बहुत अच्‍छी पोस्‍ट के लिए आभार।

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  5. स्वयं को जानने के प्रयास में स्वयं को भुलाते जा रहे हैं।

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  6. सामयिक पोस्ट . आंधी के बाद शीतल बयार की अपेक्षा थी . पर बात शायद लक्ष्य तक पहुँच नहीं पायेगी, क्योंकि पढ़ लिख कर ज्ञान का अहंकार आ गया है मुझ में भी . पर ठहरिये, अहंकार ! और वह भी ज्ञान का ? मनीषियों ने तो कहा है - विद्या ददाति विनयम. विद्या तो है ......पर मेरे अन्दर विनय आ ही नहीं पाया कभी.क्यों नहीं आ पाया ? यही गंभीर विषय है. क्या मनीषियों का कथन मिथ्या था ?
    नहीं ! वस्तुतः हमने तो सांसारिक ज्ञान की सूचनाओं का संग्रह भर किया था. संग्रहण और ज्ञान के अवतरण में अंतर है. ज्ञान तो पुस्तकों में भी लिखा है पर पुस्तक में रहते हुए उस ज्ञान का क्या लाभ ? निष्क्रिय है वह ...जब तक कि वह हमारे व्यवहार में परिलक्षित नहीं होता. निष्क्रिय ज्ञान को सक्रिय ज्ञान में बदलने की पात्रता शायद नहीं थी मेरे पास इसीलिये मनोज भैया ! मैं भी ज्ञान के बोझ से लदे हुए गर्दभ की तरह विचरण कर रहा हूँ. पर आप सबका दायित्व है कि मुझे दुत्कारने की अपेक्षा ईश्वर से मेरे कल्याण की कामना करें ....शायद पात्रता उत्पन्न हो जाय !

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  7. स्वयं की खोज के लिए प्रेरित करती अच्छी प्रविष्ठी ...गंगा किनारे चैतन्य का आह्वान बहुत सुन्दर लगा ..

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  8. स्वयं की खोज यानि आत्म-मंथन भी जीवन में जरूरी होने लगता है। हम अपने जीवन-यात्रा में बहुत आगे निकल जाते हैं लेकिन इन यात्राओं में कही कुछ छुट जाता है कही कुछ जाने अनजाने में गलत हो जाता है लेकिन हम इसे संज्ञान में नही ले पाते हैं । इसे यदि खोज लिया जाए तो हर आदमी पूर्णता की प्राप्ति कर सकता है । आपकी कविता इस चिर सत्य को उदघाटित करती है । धन्यवाद ।

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  9. अहम् ब्रम्हास्मि की आत्ममुग्धता हमको कही का नहीं रहने देगी . फुरसत में अद्भुत आत्मावलोकन .

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  10. जब तुम बैठे थे साथ
    रत्नाकर के, तो उसे
    वाल्मीकि बना दिया
    बैठे जब गौतम के पास
    तो वह हुआ बुद्ध
    आज इस निशा के आगमन से
    गंगा की धार है अवरुद्ध
    करो निदान!

    हे दिनमान!

    bahut sunder likhe hain.......

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  11. बहुत उम्दा रचना.
    "गद्य रस" को समर्पित इस सामूहिक ब्लॉग में आयें और फोलोवर बनके उत्साह बढ़ाएं.

    **काव्य का संसार**

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  12. बढ़िया आलेख.पढ़कर अच्छा लगा.
    अहंकार की एक ख़ास बात ये है कि यह जिसके अन्दर प्रवेश कर जाता है उसे पता ही नहीं चलता कि वह अहंकार की गिरफ्त में आ गया है.

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  13. गंगा हमारे जीवन की पवित्रता भी है इस कविता के माध्यम से आपने जीवन की पवित्रता पर घिर आई काली छाया को दिखाया है। बधाई

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  14. बहुत- बहुत जीवनोपयोगी आत्मिक विश्लेषण ...

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  15. हमने आज अपने ज्ञान को सूचनाओं का भण्डार बना लिया है और उसी भण्डार पर इतराते हैं.. धन का भण्डारण कर स्वयं को धनी समझ लेने का भ्रम पाल लेते हैं.. पश्चिम में जिसे विचारक कहते हैं वही हमारे यहाँ दार्शनिक कहे जाते हैं.. विचार तो बस उधार ली हुई वास्तु के समां है.. इनके, उनके या उसके विचार.. मगर दर्शन सर्वथा मौलिक होता है.. गुलाब क्या है यह आप सुनी-सुनाई, पढ़ी-पढाई बातों से व्याख्यायित कर सकते हैं..किन्तु जिसने गुलाब को अपने सम्पूर्ण सौंदर्य में देखा है, उसके दर्शन किये हैं, वह व्यक्त नहीं कर सकता.. व्यक्त करना विचार हो जाता है, किन्तु दर्शन आत्मिक, अंतस का अनुभव है.
    आपकी कविता और विचार हम सभी की भावनाएं हैं!!

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  16. स्वयं यानी सत्य को तलासने को प्रेरित करती अपने में एक सम्पूर्ण और सार्थक पोस्ट...आभार..

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  17. स्वयं की खोज जितनी गहरी उतना अहंकार विसर्जित होता है
    इसलिए तो आध्यात्मिक ज्ञान नम्रता लाता है !
    बहुत सार्थक आत्मचिंतन और रचना भी !

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  18. --परन्तु आधात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते हैं उतनी ही नम्रता आती है।

    सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई ||

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  19. han sach kaha is chaitany ke aatm-manthan se hi ye vikar ja sakte hain. aur ham sab ko aise atm-manthan ki bahut sakht aavashyakta hai. khud ko kendr bindu banate hue jo aapne gyan chakshu kholne ki koshish ki hai vo bahut hi prashansneey aur vicharpoorn hai.

    aabhar.

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  20. स्वयं की खोज अन्तर्यात्रा की जिज्ञासा है, जो पूरी होने पर पूर्णत्व को उपलब्ध होती है और यही आत्मज्ञान कहलाता है। इस जिज्ञासा के बीज को अंकुरित करने के लिए गंगा सी पावनता के जल से उसका अभिसिंचन आवश्यक है। कविता में बिम्ब के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करने में कवि-हृदय सफल हुआ है।

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  21. जीवन मूल्यों में पतन हर गह दिखाई दे रहा है।
    पूर्वकथन और कविता, दोनों ही बहुत कुछ सिखा रहे हैं।

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  22. सदा प्रसन्न रहने के लिए झूठी प्रशंसा की इच्छा का त्याग आवश्यक है।

    बहुत सारगर्भित बात...


    बढती जा रही मन की हलचल| आओ ना चैतन्य!
    करो मेरी समस्याओं का समाधान
    बैठो इसी टूटी चौकी पर
    साथ मेरे| जब तुम बैठे थे साथ
    रत्नाकर के, तो उसे
    वाल्मीकि बना दिया
    बैठे जब गौतम के पास
    तो वह हुआ बुद्ध

    गहन चिन्तनयुक्त, विचारयुक्त भावाभिव्यक्ति...

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  23. thank you.
    this is a beautiful piece of work which also compells us to introspect and realize our own weakness.

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  24. स्वयं की खोज के लिए स्वयं के प्रति सच्चा बनना ही पड़ेगा...

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।