बुधवार, 31 मार्च 2010

देसिल बयना 24 : जल नहीं जाए जीभ

-- करण समस्तीपुरी
"धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा.... !! हो... ओ... ओ.... धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा..... !! उ दिन लहरू भाई साइकिल के घंटी पर ताल मिलाते हुए लहर छोड़ के गा रहे थे। लहरू भाई को पहिचाने नहीं..... ? अरे वही डीह पर वाला.... पछिला लगन में जिनका ब्याह हुआ था..... बराती गए थे नहीं सुखलहा जीवछ नदी को पार कर के.... ? याद आया न वही लहरू भाई !
ब्याह का सालो नहीं लगा और ई लहरू भाई का पांचवा ट्रिप था। ई बार हमको भी साथ ले लिए थे। दरअसल बहुत चिढाये थे न उनको.... तो कहे कि चल तू भी भौजी से मिल आना। बस हम भी फुल-पैंट और हवाई शर्ट पर चमरौधा बेल्ट कसे और अपना खरखरिया साइकिल जोत दिए। सुरुज भगवान अस्ताचल पर थे। पूरा आकाश लाला गया था। चिड़ी-चुरमुन्नी सब चायं-चुइं करते हुए घोसला के तरफ उड़ा जा रहा था और हमलोग भी अपने साइकिल पर खर-खर करते उनसे रेस लगाए थे। पंछी का हजूम पीपर पर बैठ गया और हम दुन्नु भाई जीवछ के बाँध से नीचा साइकिल ढुलका दिए।
पहिल सांझ लहरू भाई के ससुराल में साइकिल लगा दिए। छोटका साला डमरुआ डाँर (कमर) ऊपर और मूरी (गर्दन) नीचा कर के फू...फू...... कर घूरा फूँक रहा था। जैसे ही मूरी उठाया.... बेचारा आँख में लोरे-झोरे (आंसू) भरा पाहून आये... पाहून आये.... का शोर मचाने लगा। ससुर महराज वहीं खटिया पर बैठे थे। उनके पायं लगे। फिर वहीं आराम-बेंच पर बैठ गए। फिर थोड़ी देर में लहरू भाई भी अन्दर चले गए। हमरे छोड़ गए खूसट ससुरा के भरोसे।
बूढा बतियाये भी तो का.... 'गेहूं का फसल कैसा है... ? सरसों कट्ठा में कैसे गिरा.... ? तम्बाकू का पत्ता तो नहीं न झरका (जला) पाला (शीत-लहर) में.... ? हम ऊपर से तो हाँ-हूँ कर रहे थे मगर मने-मन कहे, "आपही काहे नहीं सबसे पहले झरक गए पाला में।" अन्दर से फुलही थाली में चिउरा के भूजा और हरी मिर्च आया तो ससुर जी का इंटरव्यू बंद हुआ। भूजा फांकने के बाद बुढौ सरक गए घूरा के पास। हम अकेले टुकुर-टुकुर छप्पर का बांस-बल्ली गिन रहे थे। तभी डमरुआ आ के कहिस, "भीतरे चलिए न... पाहून बुला रहे हैं।'
अंगना में तो एकदम से मंदालिये जमा हुआ था। बडकी सरहज, मझली सरहज, छोटकी साली... बगल वाली.... और नहीं जाने कौन-कौन। सब मिल के लहरू भाई को लहर छुड़ाए हुए थे। कोई इधर से मजाक दागे, कोई उधर से चुटकी.... कोई इधर से छेड़े... तो कोई उधर से संभाले। लेकिन हमें देखते ही लहरू भाई हिम्मत से दोबर होय गए। पहिले हमारा परिचय करवाए सबसे... फेर तो हम उ सब का लाइन-डोरी सीधा कर दिए। मौगिनिया (औरत) महाल बतकिच्चन में नहीं टिका तो डमरुआ के दू-चार गो यार-दोस्त सब आया.... लेकिन उ हमलोगों जैसे खेलल खेसारी से कैसे मोर्चा ले। तुरत हथियार डाल दिया।
बाते-बाते में कैसे एक पहर रात बीत गयी पतो नहीं चला। लड़की-लुगाई अपने-अपने घर गयी। लेकिन एक-आध बुजरुग महिला अभियो हुक्का गुरगुरा रही थी। लहरू भाई की मझली साली ठांव-पीढी लगा गयी। बड़की सरहज आ के बोली, "उठिए ! हाथ-मुँह धोइए, भोजन लगाते हैं।" लहरू भाई छोटकी साली से और हम डमरुआ के हाथ से पितारिया लोटा लिए और गुलगुला के मुँह का पानी फेंके। हाथ-वाथ धोये और पीढ़ी पर आसन जमा दिए।
प्रात जैसा दू-दू गो फुलही थाली सामने पड़ गया। अरवा चावल का भात, नयका अरहर का दाल, आलू-बैगन-बड़ी के तरकारी, आम का अंचार, कद्दू के भुजिया, तिलकोर का तरुआ, तिलौरी पापर..... ! ओह... जैसे-जैसे आइटम पर आइटम आ रहा था भूख उतने ही स्पीड से बढ़ा जा रहा था। उ कहते हैं न कि, "तुलसी सहा न जात है, पत्ते पर की भात !"
सब आइटम पड़ गया थाली में। हम जैसे ही भात में दाल मिलाने लगे कि लहरू भाई के चचिया ससुर बोले, "आ..हा... ! रुकिए ! घी तो आने दीजिये।" ले बलैय्या के..... अभी और देर है। हम भी सोचे चलो, घी मे कित्ता डेरे लगेगा.... ? लेकिन ई का... ? और सब आइटम तो फटाफट आता गया.... घी कहीं निकालने तो नहीं लगी ? दू मिनट हुआ कि भौजी के कक्का फिर चिल्लाये, "ए कहाँ गया सब ? जल्दी घी ले के आओ न... !"
थाली में सजा हुआ भोजन को देख कर मेरे मुँह में तो कमला का उफान उठा हुआ था। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी.... किसी तरह हाथ बांधे बैठे रहे। मझली सरहज देखने आयी कि खा रहे हैं या नहीं। उनको देखते ही कक्का बोले, "है दुल्हिन ! अरे देखो ! कुटुम सब थाली पर इंतिजार कर रहे हैं। घी दो न जल्दी। दुल्हिन गयी अन्दर तो अंदरे रह गयी। हमको लगने लगा कि घी मे कुछ गड़बड़ है। तभी बहु के बदले बाहर निकली सासू।
सब कुछ से अनजान बनते हुए सासू जी हमको देख के हाथ उल्टा चमकाई और लहरू भाई से भौंह नाचा कर बोली, "जा... पाहून अभी तक भोजन नहीं शुरू किये.... कीजिये ! कीजिये !! फिर हमें बोलीं, "बबुआ ! का ? कुछ गड़बड़ होए गया का ?" हम बोले, "नहीं-नहीं।" फिर वो बोली, "तो होइये न... ! भोग लगाइए !" हम जब तक भात में दाल मिलाएं कि हुक्का-मंडली मे से एगो महिला बोल पड़ीं, "जा री झाखरा वाली कनिया ! अरी घी पड़ेगा थाली में तब न कुटुंब कौर उठावेंगे।" हम पर तो समझिये कि वज्रपाते हो गया.... ! मने-मन लगा कि, "न घी आएगा... न ई लोग कौर उठाने देंगे। लेकिन बलिहारी लहरू भाई के सासू की हाज़िरजवाबी का। बोली कि नहीं-नहीं। घी का छौंक डाले में लगा दिए हैं। हम जैसे ही फिर कौर बांधे लगे कि एगो दूसरी महिला बोल पड़ीं, "ए दुल्हिन ! छौंक लगा दिए तो का.... अरे दामाद जी आये हैं। दीजिये करका के दाल में उड़ेल।
भीतरे-भीतर हम खिसियाइयो रहे थे.... ई घी के चक्कर में खा-म-खा भात-दाल ठंडा रहा है। लेकिन लहरू भाई की सासू भी आयी रही फुल-होमवर्क कर के। कही, "नहीं ए काकी ! हम नहीं देंगे घी करका के। उतना गरम-गरम घी खायेंगे, कहीं दामाद जी की जीभ जल गयी तो .... ? नहीं-नहीं हम ऐसा काम नहीं करते हैं। सो पहिले ही दाल में मिला दिए।.... का पाहून ?" लहरू भाई भी बसहा-बैल की तरह सिर ऊपर नीचा हिला दिए। सब को राजी देख हुक्का मंडली की पहली महिला बोली, "हाँ ! ठीके है। 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!' होइये कुटुंब जन ! घी दाले में है। शुरू कीजिये भोजन।" लालटेन की रोशनी में कौर उठाते हुए हम देखे लहरू भाई की सासू के होठों पर विजयी और हुक्का-मंडली के मुँह पर कुटिल मुस्कान झलक रहा था।
कल होके लौट रहे थे तो हम लहरू भाई से पूछे, "का लहरू भाई ! अरे हुक्का मंडली की कहावत, 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!' समझे कि नहीं ?" लहरू भाई बोले, "ई में समझाना क्या है ? अरे गरम घी खाने से जीभ तो जलिए जाएगा न...!" हम कहे, "धुर्र मरदे ! तब आप का समझिएगा ? अरे भाई घी की मात्र ही कितनी होती है ? और फिर दाल में मिल जाने पर वो गर्म ही कितना रह जाता है कि जीभ जलने की संभावना हो... ! पापर-तिलौरी, तरुआ सब कुछ तो गर्म ही था..... सब तो फटाफट आ गया। समस्या खाली घी से ही काहे... कि देरी से भी नहीं आया?" लहरू भाई बोले, "हूँ ! हो सकता है घी दाले छौंकने में ख़तम हो गया होगा।"
"हाँ.... !" हम भी हवाई हार्ट के कालर को ऊपर उठा कर बोले, "हाँ ! अब आप समझे।" लहरू भाई धीरे से बोले, "हूँ" तो मुझे लग गया कि असल बात इन्हें समझ आ गयी है.... कुछ भी है तो है आखिर ससुराले न.... ! बात को ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं। दोनों आदमी जोर-जोर से साइकिल का पैडिल मारने लगे। तो यही था आज का देसिल बयना।
अगर आप नहीं समझे तो समझ लीजिये कि "अभाव या अनुपलब्धता को ढंकने के लिए बेकार तर्क प्रस्तुत किये जाएँ तो हुक्का मंडली की ये कहावत याद रखियेगा, 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!'

मंगलवार, 30 मार्च 2010

वन्दे मातरम् .... वन्दे मातरम् !

ब्लोगर बन्धु गण,
नमस्कार,
आपके सस्नेह आग्रह पर आज हम एक बार फिर प्रस्तुत कर रहे हैं बेंगलूर के प्रसिद्द कवि एवं गीतकार ज्ञानचंद मर्मज्ञ की देशभक्ति पूर्ण एक अद्वितीय रचना !


वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
सत्य-सुधा बरसाने वाली, प्रेम भक्ति दरशाने वाली,
सबके दिल में मानवता का जग-मग दीप जलाने वाली।
जात-पात का का भेद मिटा कर सबको गले लगाने वाली,
राष्ट्रप्रेम, सद्भाव, प्रीती का मन में भाव जगाने वाली।
शान्ति, अहिंसा, करुना, ममता जन-जन तक फैलाने वाली,
विश्व-बन्धु और भाईचारा दुनिया को सिखलाने वाली।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।


रंग-बिरंगी भाषा-बोली, तेरी वाणी की रंगोली,
लहराए खेतों की दुल्हन, सजे हमेशा तेरी डोली।
गंग-जमुन, कपिला, कावेरी बहती हैं मुस्कान लिए,
उधर हिमालय अडिग खड़ा है, वीरों की पहचान लिए।
तेरा कण-कण माणिक-मोती, किरण-किरण विश्वास की ज्योति,
ज्ञान बिना जग सुना होता, तू न अगर संसार में होती।
तुम से सुरभित धड़कन-धड़कन, सांस-सांस है चन्दन-चन्दन,
नमन हज़ारों बार तुम्हे है, कोटि-कोटि चरणों में वंदन।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।


चमके देश का कोना-कोना, तेरी मिट्टी सोना-सोना,
नफ़रत में डूबी दुनिया ने, तुझ से सीखा प्यार संजोना।
तेरा वन्दनवार तिरंगा, रूप तेरा श्रृंगार तिरंगा,
हर भारत-वासी का सपना, सपनों का संसार तिरंगा।
आँचल तेरा देख के हरषे, सावन-भादों झूम के बरसें,
गोद तुम्हारी स्वर्ग से बढ़ कर, लोग जनम लेने को तरसें।
कैसे तेरा क़र्ज़ चुकाएं, खून की एक-एक बूँद चढ़ाएं,
जब-जब जन्म हो इस धरती पर, तेरी खातिर ही मर जाएँ।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।


-- ज्ञानचंद मर्मज्ञ

सोमवार, 29 मार्च 2010

बुढ़ापा

-- मनोज कुमार

देवी मां के दर्शन के लिए पहाड़ की ऊँची चढ़ाई चढ़ कर जाना होता था। सत्तर पार कर चुकी उस वृद्धा के मन में अपनी संतान की सफलता एवं जीवन की कुछेक अभिलाषा पूर्ण होने के कारण मां के दरबार में शीष झुकाने की इच्‍छा बलवती हुई और इस दुर्गम यात्रा पर जाने की उसने ठान ली। चिलचिलाती धूप और पहाड़ की चढ़ाई से क्षण भर को उसका संतुलन बिगड़ा और लाठी फिसल गई।

पीछे से अपनी धुन में आता नवयुवक उस लाठी से टकराया और गिर पड़ा। उठते ही अंग्रेजी के दो चार भद्दे शब्‍द निकाले और चीखा, ऐ बुढि़या देख कर नहीं चल सकती।

पीछे से आते तीस साल के युवक एवं 35 साल की महिला ने सहारा दे उस वृद्धा को उठाया। युवक बोला,भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या का ही देखो IAS बेटा और डॉक्‍टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्‍सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्‍हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।

रविवार, 28 मार्च 2010

काव्यशास्त्र : भाग 8

आचार्य वामन

--आचार्य परशुराम राय

आचार्य वामन आचार्य उद्भट के समकालीन थे। क्योंकि महाकवि कल्हण ने अपने महाकाव्य राजतरङ्गिणि में लिखा है कि आचार्य उद्भट महाराज जयादित्य की राजसभा के सभापति थे और आचार्य वामन मंत्री थे। जयादित्य का राज्य काल 779 से 813 ई. माना जाता है।

आचार्य वामन काव्यशास्त्र में रीति सम्प्रदाय प्रवर्तक है। ये रीति (शैली) को काव्य की आत्मा मानते हैं। इन्होंने एकमात्र ग्रंथ काव्यालङ्कारसूत्र लिखा है। यहकाव्यशास्त्र का ग्रंथ है जो सूत्र शैली में लिखा गया है। इसमें पाँच अधिकरण हैं। प्रत्येक अधिकरण अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रंथ में कुल बारह अध्याय हैं। स्वयं इन्होंने ही इस पर कविप्रिया नाम की वृत्ति (टीका या भाष्य) लिखी-

प्रणम्य परमं ज्योतिर्वामनेन कविप्रिया।

काव्यालङ्कारसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते

उदाहरण के तौर पर अन्य कवियों के साथ-साथ अपनी कविताओं का भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे स्वयं भी कवि थे। लेकिन काव्यालंकार सूत्र के अलावा उनके किसी अन्य ग्रंथ का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हो सकता है कि उन्होंने कुछ श्लोकों की रचना केवल इस ग्रंथ में उदाहरण लिए ही की हो।

काव्यालङ्कारसूत्र पर आचार्य वामन की कविप्रिया नामक वृत्ति ही मिलती है। इस पर किसी ऐसे आचार्य ने टीका नहीं लिखी जो प्रसिद्ध हों। लगता है कि कविप्रिया टीका में आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ को इतना स्पष्ट कर दिया है कि अन्य परवर्ती आचार्यों ने अलग से टीका या भाष्य लिखने की आवश्यकता न समझी हो या यह हो सकता है कि आचार्यों ने टीकाएँ की हों, परन्तु वे आज उपलब्ध न हों। क्योंकि काव्यालंकारसूत्र बीच में लुप्त हो गया था। आचार्य मुकुलभट्ट (प्रतीहारेन्दुराज के गुरु) को इसकी प्रति कहीं से मिली, जो आज उपलब्ध है। इस बात का उल्लेख काव्यालंकार के टीकाकार आचार्य सहदेव ने किया है।

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पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||

शनिवार, 27 मार्च 2010

बड़ सुख सार पाओल......... गंगा की गोद में !


बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !

हम भी कुंभ नहा आए! हरिद्वार के हर की पौड़ी में डुबकी लगाना जीवन का सबसे अहम अनुभव था। आप इसे मेरी धर्मांधता कहें या अस्था का पगलपन - पर हरिद्वार में गंगा तट पर उमड़ी लाखों की भीड़ आपके सभी तर्कों को खोखला साबित कर देगी।
जब मैं गंगा के निर्मल जल में डुबकी लगा रहा था तो मेरे मन में मैथिल कवि विद्यापति की पन्क्तियां अनवरत गूंज रही थी ...

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !
छारैते निकट नयनन बह नीरे !!

एक अपराध छेमब मोर जानी !
परसल माय पाय तुअ पानी !!

कि करब जप-तप-जोग-ध्याने !
जनम कृतारथ एकही स्नाने !!

कर जोरि विनमओ विमल तरंगे !
पुनि दर्शन कब पुनमति गंगे !!

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !
छारैते निकट नयनन बह नीरे !!


हमारे प्राचीन ग्रंथों में कुंभ स्नान का महत्व का विस्तार से वर्णन किया गया है। भागवत के अनुसार अमृत दुर्वासा मुनि के शाप के कारण समुद्र के बीच मे घड़े मे़ सुरक्षित रह्ते हुए समा गया था। स्कंद पुराण के अनुसार एक बार रक्षसों और देवताओं में युद्ध छिड़ा। इस युद्ध में असुर पक्ष की विजय हुई। सारे देवता गण भगवान विष्णु के पास पहुंचे। उन्होंने भगवान विष्णु से अपने छीने हुए राज्य के वापसी की प्रर्थना की। विष्णु भगवान ने देवताओं को समुद्र मंथन की सलाह दी। उनकी सलाह पर अमल हुआ। समुन्द्र मंथन हुआ। इस मंथन में मंदराचल पर्वत मथानी के रूप में तथा नागराजा वासुकि रस्सी के रूप में प्रयुक्त किए गए। उसी घड़े को हाथ मे़ लिए समुद्र मंथन के समय धन्वन्तरि (विष्णु) प्रकट हुए थे।

मंथन से अमृत कलश निकला। उस अमृत कलश को पाने के लिए छीना-झपटी शुरु हुई। इन्द्र के पुत्र जयंत इस अमृत कुंभ को लेकर भागे। भागते वक़्त उनके कलश से अमृत चार स्थानों पर छलक कर गिरा। ये स्थान हैं हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग। इसी कारण से कुंभ पर्व मनाया जाता है।

कुंभ के अवसर पर हरिद्वार शहर आध्यात्मिक गुरुओं, साधु-संतों की भीड़, होर्डिंग्स, पोस्टर, बैनर आदि से अटा पड़ा है। प्रवचन, व्याख्यान की होड़ है। और हो भी क्यों नहीं! वर्षों से ली रही इस परंपरा (कुंभ) में मान्यता है कि तैंतिस करोड़ देवी-देवता और अट्ठासी लाख ऋषि मुनि उपस्थित होते हैं। पुण्य नक्षत्र की घड़ी में वे पावन गंगा में डुबकी लगाते हैं। अब ऐसे माहौल में कोई डुबकी लगाए तो उसके पापों का क्षय भी तो होगा ही।
हरिद्वार में गंगा की कलकल ध्वनि के साथ जुटी भीड़ के कोलाह से अद्भुत समां बंधता है। कुछ लोग पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर चिंतित नज़र आते हैं। कुंभ सेवा समिति भी है। इस बात की उद्घोषणा निरंतर होती रहती है कि आप प्लस्टिक के सामान लेकर गंगा तट पर जाएं। साबुन-तेल आदि से स्नान करें।

और
वह भी उपाय भी है जिसके बारे में कुछ दिनों पुर्व ज्ञान जी के एक पोस्ट में देखा था। उसकी तस्वीर भी उठा लाया।

गंगा के तट पर शाम को होने वाली आरती अद्भुत और रोमांचक है। एक साथ बजते घंटे और घड़ियाल और मनोरम दृश्य देख-सुन कर हम तो धन्य हो गए।
गंगा के तट पर पूजा-पाठ, हवन, पिंडदान, दीपदान, आदि हमारे आस्था और परंपरा के प्रतीक हैं। इन्हें कर्मकांड कहकर हम अपनी आधुनिकता की विद्वता का परिचय तो दे सकते हैं पर क्या आपको लगता नहीं कि हम पश्चिम के अंधानुकरण में बहुत कुछ खोते जा रहे हैं --और इसके एवज़ में पाया क्या है?