बुधवार, 31 मार्च 2010
देसिल बयना 24 : जल नहीं जाए जीभ
मंगलवार, 30 मार्च 2010
वन्दे मातरम् .... वन्दे मातरम् !
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम् , वन्दे मातरम्।
सोमवार, 29 मार्च 2010
बुढ़ापा
-- मनोज कुमार
देवी मां के दर्शन के लिए पहाड़ की ऊँची चढ़ाई चढ़ कर जाना होता था। सत्तर पार कर चुकी उस वृद्धा के मन में अपनी संतान की सफलता एवं जीवन की कुछेक अभिलाषा पूर्ण होने के कारण मां के दरबार में शीष झुकाने की इच्छा बलवती हुई और इस दुर्गम यात्रा पर जाने की उसने ठान ली। चिलचिलाती धूप और पहाड़ की चढ़ाई से क्षण भर को उसका संतुलन बिगड़ा और लाठी फिसल गई।
पीछे से अपनी धुन में आता नवयुवक उस लाठी से टकराया और गिर पड़ा। उठते ही अंग्रेजी के दो चार भद्दे शब्द निकाले और चीखा, “ऐ बुढि़या देख कर नहीं चल सकती।”
पीछे से आते तीस साल के युवक एवं 35 साल की महिला ने सहारा दे उस वृद्धा को उठाया। युवक बोला,“भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या का ही देखो IAS बेटा और डॉक्टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।”
रविवार, 28 मार्च 2010
काव्यशास्त्र : भाग 8
आचार्य वामन
--आचार्य परशुराम राय
आचार्य वामन आचार्य उद्भट के समकालीन थे। क्योंकि महाकवि कल्हण ने अपने महाकाव्य राजतरङ्गिणि में लिखा है कि आचार्य उद्भट महाराज जयादित्य की राजसभा के सभापति थे और आचार्य वामन मंत्री थे। जयादित्य का राज्य काल 779 से 813 ई. माना जाता है।
आचार्य वामन काव्यशास्त्र में रीति सम्प्रदाय प्रवर्तक है। ये रीति (शैली) को काव्य की आत्मा मानते हैं। इन्होंने एकमात्र ग्रंथ काव्यालङ्कारसूत्र लिखा है। यहकाव्यशास्त्र का ग्रंथ है जो सूत्र शैली में लिखा गया है। इसमें पाँच अधिकरण हैं। प्रत्येक अधिकरण अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रंथ में कुल बारह अध्याय हैं। स्वयं इन्होंने ही इस पर कविप्रिया नाम की वृत्ति (टीका या भाष्य) लिखी-
प्रणम्य परमं ज्योतिर्वामनेन कविप्रिया।
काव्यालङ्कारसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते।
उदाहरण के तौर पर अन्य कवियों के साथ-साथ अपनी कविताओं का भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे स्वयं भी कवि थे। लेकिन काव्यालंकार सूत्र के अलावा उनके किसी अन्य ग्रंथ का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हो सकता है कि उन्होंने कुछ श्लोकों की रचना केवल इस ग्रंथ में उदाहरण लिए ही की हो।
काव्यालङ्कारसूत्र पर आचार्य वामन की कविप्रिया नामक वृत्ति ही मिलती है। इस पर किसी ऐसे आचार्य ने टीका नहीं लिखी जो प्रसिद्ध हों। लगता है कि कविप्रिया टीका में आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ को इतना स्पष्ट कर दिया है कि अन्य परवर्ती आचार्यों ने अलग से टीका या भाष्य लिखने की आवश्यकता न समझी हो या यह हो सकता है कि आचार्यों ने टीकाएँ की हों, परन्तु वे आज उपलब्ध न हों। क्योंकि काव्यालंकारसूत्र बीच में लुप्त हो गया था। आचार्य मुकुलभट्ट (प्रतीहारेन्दुराज के गुरु) को इसकी प्रति कहीं से मिली, जो आज उपलब्ध है। इस बात का उल्लेख काव्यालंकार के टीकाकार आचार्य सहदेव ने किया है।
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पिछले अंक
|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट|| |
शनिवार, 27 मार्च 2010
बड़ सुख सार पाओल......... गंगा की गोद में !
कुंभ के अवसर पर हरिद्वार शहर आध्यात्मिक गुरुओं, साधु-संतों की भीड़, होर्डिंग्स, पोस्टर, बैनर आदि से अटा पड़ा है। प्रवचन, व्याख्यान की होड़ है। और हो भी क्यों नहीं! वर्षों से चली आ रही इस परंपरा (कुंभ) में मान्यता है कि तैंतिस करोड़ देवी-देवता और अट्ठासी लाख ऋषि मुनि उपस्थित होते हैं। पुण्य नक्षत्र की घड़ी में वे पावन गंगा में डुबकी लगाते हैं। अब ऐसे माहौल में कोई डुबकी लगाए तो उसके पापों का क्षय भी तो होगा ही।
और वह भी उपाय भी है जिसके बारे में कुछ दिनों पुर्व ज्ञान जी के एक पोस्ट में देखा था। उसकी तस्वीर भी उठा लाया।