भारतीय काव्यशास्त्र-55
अद्भुत रस और शान्त रस
- आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में भयानक और बीभत्स रस पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अद्भुत रस और शान्त रस पर चर्चा की जा रही है।
अद्भुत रस का स्थायिभाव विस्मय है। इसका आलम्बन विभाव अलौकिक वस्तुएँ हैं और उनका वर्णन ही उद्दीपन विभाव है। स्तम्भन, स्वेद, रोमांच, गद्गद स्वर, सम्भ्रम, आँखों का फैल जाना, अपलक देखना, वाह-वाह जैसे शब्दों की अभिव्यक्ति आदि अनुभाव हैं। वितर्क, आवेग, भ्रान्ति, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं। साहित्यदर्पणकार ने इनका वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया है-
अद्भुतो विस्मयस्थायिभावो गन्धर्वदैवतः।
पीतवर्णो वस्तु लोकातिगमालम्बनं मतम्।
गुणानां तस्य महिमा भवेदुद्दीपनं पुनः।।
स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चगद्गदस्वरसम्भ्रमः।
तथा नेत्रविकासाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः।।
वितर्कावेगसम्भ्रान्तिहर्षाद्या व्यभिचारिणः। (साहित्यदर्पण)
काव्यप्रकाशकार ने निम्नलिखत श्लोक अद्भुत रस के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है –
चित्रं महानेष बतावतारः क्व कान्तिरेषाऽभिनवैव भङ्गिः।
लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभावः काऽप्याकृतिर्नूतन एष सर्गः।।
भगवान वामन को देखकर महाराज बलि की यह उक्ति है। महाराज बलि कहते हैं – यह बड़ा ही विचित्र अवतार है। यह अलौकिक कांति कहाँ मिल सकती है। इनकी उठने-बैठने का ढंग भी अभिनव है, इनका धैर्य भी अलौकिक है और प्रभाव भी, इनका आकार अवर्णनीय है। यह विधाता की अद्वितीय रचना है।
इसमें भगवान वामन आलम्बन; उनकी कान्ति, गुणों की अधिकता आदि उद्दीपन विभाव हैं; स्तुति, प्रशंसा आदि अनुभाव हैं और मति, धैर्य, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं। विस्मय स्थायिभाव है।
लेकिन आचार्य पंडितराज जगन्नाथ आचार्य मम्मट से सहमत नहीं हैं। पंडितराज इसमें रसवत् अलंकार मानते हैं।
हिन्दी कविता के उदाहरण के रूप में कवि पद्माकर की निम्नलिखित कविता उद्धृत की जा रही है। इसमें कालियनाग के सिर पर भगवान कृष्ण द्वारा नृत्य करने का वर्णन है, जिसे देखकर ग्वाल-बाल आदि आश्चर्य-चकित हो रहे हैं-
गोपी ग्वालबाल जुरे आपस में कहें आली
कोऊ जसुदा को अवतर्यो इन्द्रजाली है।
कहै पद्माकर करै को यों उताली, जापै
रहन न पावै कहूँ एको फन खाली है।
देखै देवताली भई विधि के खुशाली, कूदि
किलकति काली हेरि हँसत कपाली है।
जनम को चाली एरी अद्भुत दै ख्याली, आजु,
काली की फनाली पै नाचत बनमाली है।
इसमें कालियनाग आलम्बन विभाव, कालियनाग के फणों पर भगवान कृष्ण का चपलता पूर्वक हँस-हँसकर नृत्य उद्दीपन विभाव है। ग्वालबालों का समवेत कृष्ण के इस कृत्य का वर्णन करते उन्हें इन्द्रजाली कहना, आश्चर्य से उनके नेत्रों का विस्फारित होना आदि अनुभाव हैं। देवतओं आदि का हर्ष, वितर्क आदि व्यभिचारिभाव हैं। ग्वाल-बालों और दर्शकों के अन्दर यह दृश्य देखकर विस्मय का उदय स्थायिभाव है।
शान्त रस का स्थायिभाव निर्वेद है। हालाँकि कुछ आचार्य निर्वेद को इस रस का स्थायिभाव न मानकर शम को मानते हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि निर्वेद सम्पूर्ण चित्त-वृत्तियों के अभाव की स्थिति है, अतएव इसे स्थायिभाव मानना उचित नहीं है। निरीह (इच्छारहित) अवस्था में ब्रह्मानन्द का रसास्वादन शम कहलाता है। इसलिए वे शान्त रस का स्थायिभाव शम को ही मानते हैं और निर्वेद को केवल एक व्यभिचारिभाव। आचार्य विश्वनाथ का भी यही मत है। संसार की अनित्यता, दुख-रूपता, असारता आदि का ज्ञान अथवा परमात्मा का स्वरूप इस रस का आलम्बन विभाव है, ऋषियों का पवित्र आश्रम, पवित्र तीर्थ, रमणीय एकान्त वन, महात्माओं का संग आदि उद्दीपन विभाव हैं। रोमांच आदि अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मरण, मति, प्राणिमात्र पर दयाभाव, सुख-दुख में समभाव आदि व्यभिचारिभाव हैं। साहित्यदर्पण में इसका विवरण निम्नलिखित रूप में दिया गया है।
शान्तः शमस्थायिभाव उत्तमप्रकृतिर्मतः।।
कुन्देन्दुसुन्दरच्छायः श्रीनारायणदैवतः।
अनित्यत्वादिनाऽशेषवस्तुनिःसारता तु या।।
परमात्मस्वरूपं वा तस्यालम्बनमिष्यते।
पुण्याश्रमहरिक्षेत्रतीर्थरम्यवनादयः।।
महापुरुषसङ्गाद्यास्तस्योद्दीपनरूपिणः।
रोमाञ्चाद्याश्चानुभावास्तथा स्युर्व्यभिचारिणः।।
निर्वेदहर्षस्मरणमतिभूतदयादयः।
इन कारिकाओँ का भावार्थ (शान्त रस के देवता व वर्ण को छोड़कर) ऊपर दिया जा चुका है। काव्यप्रकाश में शान्त रस का निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है-
अहौ वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः
क्वचित् पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः।।
अर्थात सर्प में या मोती आदि की माला में, फूलों की शय्या में या पत्थर की शिला में, मणि में या मिट्टी के ढेले में, शक्तिशाली शत्रु में या मित्र में, तृण में या स्त्रियों के समूह में समबुद्धि रखते हुए मेरे दिन किसी पवित्र तपोवन में शिव, शिव, शिव रटते हुए व्यतीत हों।
यहाँ मिथ्या सा लगने वाला संसार आलम्बन विभाव और तपोवन आदि उद्दीपन विभाव हैं। सर्प और हार आदि में समबुद्धि का होना अनुभाव हैं। धृति, मति, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं और निर्वेद या शम स्थायिभाव है।
शान्त रस के लिए हिन्दी में संत कवि दास की निम्नलिखित सवैया उद्धृत की जा रही है।
भूखे अघाने रिसाने हितू अहितून्ह ते स्वच्छ मने हैं।
दूषन भूषन कंचन काँच जू मृत्तिका मानिक एक गने हैं।
सूल सों फूल सों माल प्रबाल सों दास हिए सम सुक्ख सने हैं।
राम के नाम सों केवल काम तेई जग जीवन मुक्ख मने हैं।
इसके विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव उपर्युक्त की भाँति ही समझना चाहिए और निस्संदेह निर्वेद या शम स्थायिभाव।
अगले अंक में वात्सल्य और भक्ति रस पर चर्चा की जाएगी।
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