सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

नवगीत :: पालों से फहरे दिन फागुन के

स्व. श्री श्याम नारायण मिश्र के गीतों के साथ मेरा दीर्घ सान्निध्य रहा। वे मुझे अपने सम सामयिक गीतकारों से अलग और स्वतंत्र व्यक्तित्व के लगते थे। वे उन गीतकारों में से नहीं थे जो मुट्ठीभर रचना करके, अपने कंठमाधुर्य के बल पर, उसके एवज़ में झोली भर चना-चबेना जुगाने की दिशा में हाथ-पैर मारते। न ही ऐसा कुछ था कि उन्होंने अपना एक गीतात्मक सांचा तैयार कर रखा था जिसमें कच्चे माल को ढाल कर वे रातों रात नए संकलन की तैयारी कर डालते। उनके द्वारा छह सौ से अधिक गीतों में पुनरावृत्ति की झलक कहीं नहीं दिखाई पड़ती।

जाड़ा जा रहा है। फाल्गुन दस्तक दे चुका है। ऐसे में मुझे श्यामनारायण मिश्र जी के कंठ से सुना यह नवगीत पालों से फहरे दिन फागुन के’ बरबस याद आ रहा है। आज उसे ही आपसे बांट रहा हूं। आशा है पसंद आएगा।

मनोज कुमार

पालों से फहरे दिन फागुन के

Sn Mishraश्याम नारायण मिश्र

सेंमल की शाखों पर

शत्‌-सहस्त्र कमल धरे,

         कोहरे से उबरे,

                        दिन फागुन के।

 

 

उबटन सी लेप रही आंगन में,

हल्दी सी  चढी   हुई बागन में,

               धूप गुनगुनी,

पत्तों  को  धार  में  नचा  रही,

अरहर  के  खेत  में बजा रही,

           पवन झुनझुनी।

मड़वे पर बिरहा

मेड़ों पर दोहरे,

      लगा रहे पहरे,

                 दिन फागुन के।

 

 

 

आंखों में उमड़े हाट और मेले,

चाहेगा  कौन  बैठना   अकेले,

                    द्वार बंद कर।

दिन गांजा-भंग पिए रात पिए ताड़ी,

कौन चढे – हांके  सपनों  की   गाड़ी,

                     नेह के नगर।

सांझ औ’ सबेरे

   नावों पै ठहरे,

          पालों से फहरे,

                         दिन फागुन के।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-56 :: भक्ति रस और वात्सल्य रस

भारतीय काव्यशास्त्र-56

भक्ति रस और वात्सल्य रस

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अद्भुत रस और शान्त रस पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में भक्ति रस और वात्सल्य रस पर चर्चा करेंगे।

भक्ति रस के संस्थापक के रूप में आचार्य रूपगोस्वामी को जाना जाता है। अपने ग्रंथ भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस पर बड़े ही विस्तृत रूप से चर्चा करते हुए इसे एक स्वतंत्र रस के रूप में निरूपित किया है, स्थापित किया है। जबकि अन्य आचार्यों ने काव्यशास्त्र के अंतर्गत इसे केवल एक भाव कहा है। आचार्य रूपगोस्वामी भी देवताविषयक रति को काव्यशास्त्रियों की भाँति भाव ही मानते हैं। वे भक्ति रस के स्थायिभाव के रूप में केवल कृष्णविषयक रति को मानते हैं। उनकी दृष्टि में कृष्ण या राम देवता नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर हैं। अतएव वे इस रस के आलम्बन विभाव; भक्तों का समागम, तीर्थ, एकान्त पवित्र स्थल आदि उद्दीपन विभाव हैं; भगवान के नाम-संकीर्तन, लीला आदि का कीर्तन, रोमांच, गद्गद होना, अश्रु-प्रवाह, भाव-विभोर होकर नृत्य करना आदि अनुभाव हैं और मति, ईर्ष्या, वितर्क, हर्ष, दैन्य आदि व्यभिचारिभाव हैं।

आचार्य पंडितराज जगन्नाथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रसगङ्गाधर में भक्ति रस की चर्चा निम्नलिखित शब्दों में की है-

भगवदालम्बनस्य रोमाञ्चाश्रुपातादिरनुभावितस्य हर्षादिभिः पोषितस्य भागवतादिपुराण-श्रवणसमये भगवद्भक्तैरनुभूयमानस्य भक्तिरसस्य दुरपह्नवत्वात्। भगवदानुरूपा भक्तिश्चात्र स्थायिभावः। न चासौ शान्तरसेSन्तर्भावमर्हति, अनुरागस्य वैराग्यविरुद्धत्वात्।

भक्ति रस को शान्त रस से अलग करने के लिए वे अनुराग और वैराग्य को भेदक रेखा मानते हैं, अर्थात भक्ति रस में ईश्वर के प्रति अनुरक्ति होती है और शान्त रस में वैराग्य की प्रधानता पायी जाती है। इस रस के स्थायिभाव, विभाव- आलम्बन और उद्दीपन, अनुभाव और व्यभिचारिभाव ऊपर बताये गये के अनुसार ही कहे गए हैं।

भक्ति रस के उदाहरण के लिए महाकवि सन्त तुलसीदासजी की निम्नलिखित कविता ली जा रही है-

तू दयालु दीन हौं तू दानि हौं भिखारी।

हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी।

नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो।

मों समान आरत नहिं आरति हर तोसो।

ब्रह्म तू हौं जीव हौं तू ठाकुर हौं चेरो।

तात मातु गुरु सखा तू सब बिधि हित मेरो।

मोंहि तोंहि नाते अनेक मानिए जो भावे।

ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरन सरन पावे।

इसमें भगवान राम के प्रति रति (अनुराग) स्थायिभाव है, भगवान राम आलम्बन विभाव हैं और उनकी दानशीलता, दयालुता, करुणा आदि उद्दीपन विभाव हैं। अनुनय-विनय का कथन आदि अनुभाव हैं। दैन्य, हर्ष, गर्व आदि संचारिभाव हैं। इस प्रकार इसमें भक्ति रस पूर्णतया परिपुष्ट होता है।

जिस प्रकार भक्ति रस को कुछ आचार्य अलग रस मानते हैं, उसी प्रकार वात्सल्य रस को भी। आचार्य कविराज विश्वनाथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ साहित्यदर्पण में इस रस की विशेष रूप से चर्चा की है और एक स्वतंत्र रस के रूप में प्रतिष्ठा की है। उनके अनुसार वात्सल्य स्नेह इस रस का स्थायिभाव है, पुत्र आदि आलम्बन विभाव और उनकी चेष्टाएँ, विद्या, शूरता, दया, ख्याति आदि उद्दीपन विभाव हैं। आलिंगन, अंगस्पर्श, सिर-चुम्बन, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु आदि अनुभाव और अनिष्ट की आशंका, हर्ष, गर्व आदि संचारिभाव हैं। इस रस का वर्णन अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में आचार्य विश्वनाथ ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-

स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः।

स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्राद्यालम्बनं मतम्।।

उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयादयः।

आलिङ्गनाङ्गसंस्पर्शशिरश्चुम्बनमिक्षणम्।।

पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः।

सञ्चारिणोSनिष्टशङ्काहर्षगर्वादयो मताः।।

पद्मगर्भच्छविर्वर्णो दैवतं लोकमातरः।

इसका भावार्थ रस के वर्ण और देवता को छोड़कर ऊपर दिया जा चुका है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है- आचार्य मम्मट आदि आचार्य भक्ति रस और वात्सल्य रस को स्वतंत्र रस के रूप में नहीं मानते, अतएव काव्यप्रकाश में इनके उदाहरण नहीं मिलते। इसलिए वात्सल्य रस के लिए साहित्यदर्पण का ही उदाहरण लेते हैं-

यदाह धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गुलिम्।

अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः।।

इस श्लोक में सूर्यवंश के प्रतापी राजा रघु की बाल्य अवस्था का वर्णन है- बालक रघु धाय की कही हुई बातों को तुरंत दुहरा देता था, उसकी अँगुलि पकड़कर चलता था और प्रणाम करने के लिए कहते ही नम्र हो जाता था। उसके ये क्रिया-कलाप पिता महाराज दिलीप के आनन्द को परिवर्द्धित करते थे।

यहाँ बालक रघु आलम्बन विभाव, उसका धाय की बातों का दुहराना, उसकी अँगुली पकड़कर चलना, प्रणाम करने के लिए कहते ही नम्र हो जाना आदि उद्दीपन विभाव हैं, महाराज दिलीप की आँखों की चमक आदि अनुभाव हैं और उनका हर्ष, आनन्दित होना आदि संचारिभाव हैं। राजा और पाठकों में निष्पन्न वत्सलता स्थायिभाव है। इस प्रकार यहाँ वात्सल्य रस का पूर्णरूपेण परिपाक है।

महाकवि सन्त तुलसीदास जी की ही एक सवैया वात्सल्य रस के उदाहरण के रूप में यहाँ उद्धृत है-

कबहूँ ससि माँगत आरि करैं, कबहूँ प्रतिबिम्ब निहारि डरैं।

कबहूँ करताल बजाइ के नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं।

कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै, पुनि लेत वही जेहि लागि अरैं।

अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन मंदिर में बिहरैं।

इसमें विभाव, अनुभाव, संचारिभाव आदि उपर्युक्त की ही भाँति समझ लेना चाहिए। पुनरावृत्ति से बचने के लिए उन्हें दुबारा नहीं दिया जा रहा है।

अगले अंक में रस सम्बन्धी कुछ अन्य शेष चर्चाएँ की जाएँगी।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

फ़ुरसत में ….. “क्या आज कल आलतू-फ़ालतू कविता लिखने लगे हो!”

फ़ुरसत में …..

``आज कल क्या आलतू-फ़ालतू कविता लिखने लगे हो!’’

जिनके लिए यह कविता लिखी उन्हें जब इसे सुनाया तो उनके चेहरे पर मुस्कान थी और मुंह से निकला, “आज कल क्या आलतू-फ़ालतू कविता लिखने लगे हो!”

मेरे मुंह से अनायास निकला, “आपके इस कंप्लीमेंट के लिए समझ नहीं आ रहा कैसे करूं आभार प्रकट!”

वैसे हमें जो न मिला होता है, उसके लिए तो ढेरों कविताएं, गीत, ग़ज़लें, नज़्म लिख डालते हैं, पर जो है, उसके लिए कम से कम मैंने, … सोचा ही नहीं कभी लिखने को, खास कर कविता। जेठ-वैशाख की फुहार की तरह फाल्गुन माह में 23 साल पहले हमारी ज़िन्दगी में उनका सुखद पदार्पण हुआ था। उन्होंने अपने प्रेम की स्वर्णिम ज्योति से मेरी धड़कनों के हर कोने-अंतरे को प्रकाशित किया। अपनी कड़क-मुलायम हथेलियों से हमारे अन्तरमन के आंगन को संवारा, सजाया।

इस शुष्क दुनिया में जी पाने के लिए प्रेम का सहारा बहुत ज़रूरी है। लेकिन प्रेम की निरंतरता बनी रहे, वह फलता-फूलता रहे, इसके लिए ज़रूरत होती है एक उत्तम सोच-समझ रखने वाले जीवन साथी की। अपने ऐसे  जीवन साथी के लिए, कविता लिखना, एक कवि के लिए उन असंख्य कोणों को याद करना है, जिसे उसने (जीवन संगिनी ने) बिना कुछ कहे,  दिखाए, सुनाए, पूरी तरह केवल महसूस ही नहीं कराया,  बल्कि धीरे-धीरे उन्होंने अपने जीवन के प्रेम की अनुभूति हममें रूपांतरित किया और वह भी बिना कुछ बताए। इसके लिए मैं आकंठ उनकी कृतज्ञता में डूबा हूं । --- यह महज भावुकता नहीं, बल्कि एक जीता-जागता यथार्थ है …..

कैसे करूं आभार प्रकट!
IMG_0867मनोज कुमार

 

IMG_0565            एकाकीपन के
भीषण तप्त अहसास में
नम, हसीन, बारिश की बूंदों-सा
हुआ पदार्पण तेरा
मेरे जीवन में !

 

सृजन की
सुंदरतम रचना तुम
इस अंतरतम में
करती वास
खजाना ख़ुशियों का
लुटाती रही हो
मेरे हाथ !

 

 

जीवन उदधि की
अतल गहराई में
प्रगाढ़-प्रेम,
सुख-शांति के
रंग भरे तुमने,
दो-दशक से भी अधिक
इस अंतराल में
उसे सजाया,
संवारा
और
संभालकर रखा
तुमने।

IMG_0861

 

जिसे भेद न सकीं,
न कर सकीं आहत
क्रोध और अविश्वास की
छिछली सतह पर
शैवाल-सी बहुतेरी उलझनें
मन की,
बोझ-सी लगती
ज़िन्दगी की हलचल।

 

ऐसा नहीं कि
आँधियाँ नहीं आईं,
ज्वार नहीं उठे
पर, उनसे बचाना
इस पावन रिश्ते को
लक्ष्य रहा तेरा।

 

अपनी अच्छाइयों से
गहराई दी
सात फेरों,
सात-वचनों और
सौ जन्मों के
इस अटूट बंधन को।

 

                                 मधुर मुस्कान,IMG_0784
खिला मन
ज्यों सवेरा क्वार का
तुम बिन जीवन अधूरा
कहाँ से लाऊँ
वह शब्दावलि
जो दे सके आभार
तुम्हारा !
--

राय जी आपका आदेश सर माथे पर।

डाउनलोड करें (5)

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

शिवस्वरोदय-32

शिवस्वरोदय-32

-आचार्य परशुराम राय

पृथ्वीजलाभ्यां सिद्धिः स्यान्मृत्युर्वह्नौ क्षयोSनिले।

नभसो निष्फलं सर्वं ज्ञातव्यं तत्त्ववादिभिः।।162।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ – पृथ्वी और जल तत्त्वों के प्रवाह काल में प्रारम्भ किए कार्य सिद्धिदायक होते हैं, अग्नि तत्त्व में प्रारम्भ किए गए कार्य मृत्युकारक, अर्थात नुकसानदेह होते हैं, वायु तत्त्व में प्रारम्भ किए गए कार्य सर्वनाश करनेवाले होते हैं, जबकि आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में शुरु किए गए कार्य कोई फल नहीं देते, ऐसा तत्त्ववादियों का मानना है।

English:- As per keen observation made by the wise men, the work started during the flow of earth and water in the breath gives positive result, whereas fire and air create miseries, but other gives no result.

चिरलाभः क्षितेर्ज्ञेयस्तत्क्षणे तोयतत्त्वतः।

हानिः स्यान्हि वाताभ्यां नभसो निष्फलं भवेत्।।163।।

अन्वय श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ:- पृथ्वी तत्व के प्रवाह काल में प्रारम्भ किये गये कार्य में स्थायी लाभ मिलता है, जल तत्व में दक्षिण लाभ मिलता है, अग्नि और वायु तत्व हानिकारक होते हैं और आकाश तत्व परिणामहीन होता है।

English:- In view of the above observation wiseman subject to start the work during flow of the earth in the breath if permanent result is desired; for temporary result, flow of water should selected. Flowing periods of the fire and air are always harmful and the work begin during the flow of other does not give any kind of result.

पीतः शनैर्मध्यवाही हनुर्यावद् गुरुध्वनिः।

कवोष्णः पार्थिवो वायुः स्थिरकार्यप्रसाधकः।।164।।

अन्वय श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ:- पृथ्वी तत्व का वर्ण पीला है। यह धीमी गति से मध्य में प्रवाहित होता है। इसकी प्रकृति हल्की और उष्ण है। ठोढ़ी तक इसकी ध्वनि होती है। इसके प्रवाह के दौरान किए गए कार्यों में भी स्थायी रूप से सफलता मिलती है।

English:- The earth tattva has yellow colour, it flows slow and in the middle of the air passage. It nature is light and hot. It sounds upto our chin. The flow of this tattva is auspicious for starting any work in which we need permanent result.

अधोवाही गुरुध्वानः शीघ्रगः शीतलःस्थितः।

यः षोडशाङ्गुलो वायुः स आपः शुभकर्मकृत।।165।।

अन्वय श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ:- जल तत्व श्वेत वर्ण का होता है। इसका प्रवाह तेज और नीचे की ओर होता है। इसके प्रवाह काल में साँस की आवाज अधिक होती है और इस समय साँस सोलह अंगुल (लगभग 12 इंच) लम्बी होती है। इसकी प्रकृति शीतल है। इसके प्रवाह काल में प्रारम्भ किये गये कार्य सफलता (क्षणिक) मिलती है।

English:- Water tattva has white colour. Its flow is fast and downwards. Sound is more prominent in the breath during its flow. The length of breath during the appearance of water tattva in it, is sixteen fingers, i.e. about 12 inches. Its nature is cool. Any work started during the period gives positive result, but of temporary nature.

आवर्तगश्चात्युष्णश्च शोणाभश्चतुरङ्गुलः।

उर्ध्ववाहि च यः क्रूरः कर्मकारी स तेजसः।।166।।

अन्वय श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ:- अग्नि तत्व रक्तवर्ण है। यह घुमावदार तरीके से प्रवाहित होता है। इसकी प्रकृति काफी उष्ण है। इसके प्रवाह काल में साँस की लम्बाई चार अंगुल और ऊपर की ओर होती है। इसे क्रूरतापूर्ण कार्यों के लिए उपयोगी बताया गया है।

English:- Fire tattva got its colour like blood. During its appearance the breath flows in whirl. Its nature is very hot. The length of breath during the appearance of this tattva, becomes four fingers, i.e. about three inches, but upwards. The period of flow of this tattva in breath is suitable for starting the work of a cruel nature.

उष्णः शीतः कृष्णवर्णस्तिर्यगान्यष्टकाङ्गुलः।

वायुः पवनसंज्ञस्तु चरकर्मप्रसाधकः।।167।।

अन्वय:- वायु: पवनसंज्ञस्तु कृष्णवर्ण: तिर्यग्गामी उष्ण: शीत: अष्टकाड्ग़ुल: चर-कर्मप्रसाधकरश्च।

भावार्थ:- वायु तत्व कृष्ण वर्ण (गहरा नीला रंग) है, इसके प्रवाह के समय साँस की लम्बाई आठ अंगुल और गति तिर्यक (तिरछी) होती है। इसकी प्रकृति शीतोष्ण हैं। इस अवधि में गति वाले कार्यों को प्रारम्भ करने पर निश्चित रूप से सफलता मिलती है। परमपूज्य परमहंस सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ने इसके विषय में लिखा है कि भीड़-भाड़वाले प्लेटफार्म पर ट्रेन छूट रही हो और उसे पकड़ने के लिए आप दौड़ लगा रहे हैं। ऐसे समय में यदि स्वर में वायु तत्त्व वर्तमान हो, निश्चित रूप से आप ट्रेन पकड़ने में सफल होंगे।

English:- Vayu tattva (air) has dark blue colour. During its flow the breath becomes eight fingers (six inches) long and angular. Its nature is lukewarm. This period is suitable for starting a work relating to movement. Parama Pujaya Paramahansa Satyananada Saraswati has indicated that if you are running to catch a train at a crowded platform and Vayu Tattva is active at the time, you shall get into the train without fail.

यः समीरः समरसः सर्वतत्त्वगुणावहः।

अम्बरं तं विजानीयात् योगिनां योगदायकम्।।168।।

अन्वय - श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय करने की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ जब स्वर में उक्त सभी तत्त्वों का संतुलन हो और उनके यथोक्त गुण उपस्थित हों तो उसे योगियों को मोक्ष प्रदान करनेवाला आकाश तत्त्व समझना चाहिए, अर्थात आकाश तत्त्व में अन्य चार तत्त्वों का संतुलन पाया जाता है और उनके गुण भी पाए जाते हैं तथा इसके प्रवाह काल किए गये योग-साधना में पूर्णरूप से सिद्धि मिलती है।

English During the flow of ether in the breath all other four Tattvas get balanced and their properties, as described above, are found present in it. This period is the most suitable period for getting perfection in yogic practices.

******

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

आँच-57- “तुम” में जीवन के रंग

समीक्षा

आँच-57- “तुम” में जीवन के रंग तुम एक नन्हा सा धूप का टुकड़ा / जो सीलन भरे घर में आए और / दीवारों के आंसू पोंछ जाये ! तुम हवा का एक झोंका / जो तपती दोपहर की धूप में / मन को राहत दिलाये ! तुम भोर का सूरज, / तुम्हारे साथ / ज़िंदगी की सुबह आई ! तुम एक नन्हा सा फ़रिश्ता / तम्हे गोद में ले कर, / जी किया मै मुस्कराऊँ ! तुम वक़्त के हाथों मिला तोहफा हसीन / ता-उम्र हम जिसको सहेजें / और सजाएँ !

हरीश प्रकाश गुप्त

आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है।

मन के आवेग और संवेग जब सघन होकर शब्द रूप में प्रस्फुटित होते हैं तो काव्य की उत्पत्ति होती है। ये आवेग कृत्रिमताओं से नहीं बल्कि स्वाभाविक भावभूमि से ऊर्जस्वित होते हैं। हमारे आसपास घटित होने वाली छोटी-छोटी घटनाएं इसके उद्दीपन का आधार बनती हैं। कभी-कभी जीवन के ये साधारण से लगने वाले चित्र जब मुखरित होते हैं तो अपनी साधारण शब्द-योजना के बावजूद नितांत भिन्न और व्यापक अर्थ की आभा से उस चित्र को आच्छादित कर लेते हैं। तब वे स्थूल चित्र बिम्ब के रूप में चमत्कृत करते हैं और अपने विकास से रचनाकार को भी चकित कर देते हैं। मंजू मिश्रा की कविता “तुम” कुछ इसी श्रेणी की कविता प्रतीत होती है। यह कविता उनके ब्लाग “अभिव्यक्ति” पर 21 जनवरी 2011 को प्रकाशित हुई थी। यह कविता आँच के इस अंक की विषय वस्तु है।

जीवन सुख दुख का समन्वय है। यदि जीवन में कठिनाइयाँ हैं, संघर्ष हैं तो दूसरी ओर जीवन में सुखद अहसास भी हैं, खुशियाँ भी हैं। पल-पल की संजोई गई छोटी-छोटी खुशियाँ मन को अधिक सुकून देती हैं। ये खुशियाँ स्थाई होती हैं। कभी कभी ये आवृत्त छोटी-छोटी खुशियाँ कठिनाइयों और दुर्गम परिस्थितियों को इस कदर ढक लेती हैं कि हमें उन कठिनाइयों का भान ही नहीं रहता। ये निस्सार सी प्रतीत होती जिन्दगी में रस घोल देती हैं –

एक नन्हा सा धूप का टुकड़ा

जो सीलन भरे घर में आए और

दीवारों के आंसू पोंछ जाये !

दिनानुदिन की एकसार जिन्दगी जब रसहीन बन जाती है और विभिन्न सामाजिक सम्बन्ध और रिश्ते-नाते ऊष्ण हो जाते हैं तब हवा के झोंके की तरह पनपा प्रेम उन्हें आर्द्र कर सुखद अनुभूति प्रदान करता है –

हवा का एक झोंका

जो तपती दोपहर की धूप में

मन को राहत दिलाये !

जब कभी प्रगति पथ अवरुद्ध जान पड़ते हैं तब भोर के सूरज” के रूप में नई आशाएं जीवन में उन्नति की राह दिखाती हैं –

भोर का सूरज,

तुम्हारे साथ

ज़िंदगी की सुबह आई

कभी अचानक हमें वह मिल जाता है जिसकी हमने चाहना तो की होती है, पर वह इतनी आसानी से मिल जाएगा इस कल्पना पर विश्वास नहीं रहता। लेकिन जब वह अकस्मात हासिल होता है तो वह प्रारब्ध रूपी ईश्वर की देन के स्वरूप में ही हमें दृष्टिगत होता है और तब खुशियाँ इतनी बढ़ जाती हैं कि वह हर पल हमारी हर गतिविधि में अभिव्यक्त होती हैं –

एक नन्हा सा फ़रिश्ता

तम्हे गोद में ले कर,

जी किया मै मुस्कराऊँ !

फिर जब खुशियों से ओतप्रोत मन अतीत में लौटता है तो ये सुखद स्मृतियाँ न केवल असीम आनन्द का कारक बनती हैं बल्कि इन्हें संजोकर भविष्य के लिए भी खुशियाँ सहेज ली जाती हैं। प्रस्तुत कविता “तुम” कुछ ऐसे ही भावों को अभिव्यक्त करती प्रतीत होती है –

वक़्त के हाथों मिला तोहफा हसीन

ता-उम्र हम जिसको सहेजें

और सजाएँ !

मंजू मिश्रा ने इस कविता की रचना भले ही किसी इतर अनुभूति के स्तर पर की हो लेकिन कविता में बिम्बों की सार्थकता कविता को एक अलग दृष्टि प्रदान करती है और भावभूमि को विस्तृत स्वरूप में प्रस्तुत करती है। कविता के कुछ बिम्ब बहुत ही आकर्षक हैं। यथा – धूप का टुकड़ा छोटी-छोटी खुशियों की उत्तम व्यंजना है। वहीं दीवारों के आँसू जीवन की दुष्कर परिस्थितियों से उपजी वेदना को अर्थ देने में समर्थ हुए हैं। कवयित्री जब जिन्दगी की सुबह आई व्यक्त करती है तो जिन्दगी यथार्थ न होकर वह खुशहाली के साथ अपेक्षाओं की प्रतिपूर्ति करती हुई जान पड़ती है।

कविता का शब्द विधान बेहद आसान शब्दावली से सुसज्जित है। इसके बावजूद अर्थ अपनी गुरुता के साथ विद्यमान है। कविता में कवयित्री ने एक सर्वनामिक बिम्ब तुम के माध्यम से जीवन के विविध आयामों को जीवंत करने का प्रयास किया है और उसका यह प्रयास एक सीमा तक सफल भी है। कविता में तुम एक अवरोधक आवृत्ति है लेकिन कविता के वर्तमान शिल्प को देखते हुए इसको पृथक करके देखना सहज नहीं है। कविता की नाद योजना अनाकर्षक है। कविता के तीसरे और पाँचवे पद को छोड़कर, यहाँ प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता, शेष प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ पदों में प्रांजलता बाधित हो रही है। जबकि, नाद और प्रांजलता, ये दोनो तत्व काव्य के अभिन्न अंग हैं जिनसे ही काव्य समसामयिक परिधि से परे अपना विस्तार बना पाता हैं।

****

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

देसिल बयना - 69 : चढिये समधी... चढिये समधी.....

-- करण समस्तीपुरी


"उड़ा ले मौज बबुआ.... जवानी चार दिन के....... !" कमाल गाना गाती थी छबीली मामी। सच्चे जवानिये का नाम तो हीरो है। मगर कबो-कबो बुढारियो में रंग जम जाता है। एगो सनीमा देखे रहे, बागवान। का सनीमा था भैय्या.... एक दर्जन तो हीरो-हीरोइनी थी मगर सब को छांट के उ साठ साल का बुढौ और पचपन साल की बूढी जौन रंग जमाई कि 'होरी खेले रघुवीरा अवध में.... होरी खेले रघुवीरा.... !'


कहे का मतलब कि हीरो का मतलब खाली जवाने नहीं है। केहू से पूछ लीजिये कि बागवान का हीरो कौन है समझ में आ जाएगा। और ई कौनो सनीमे का बात नहीं है। कभी-कभी सच्चो के भी बूढ़े शेर ही महफील लूट ले जाते हैं। वही किस्सा याद कीजिये न.... कैसे मोर्चा थामे थे बुढऊ लोग....! अरे... हमलोग सुखरिया के बराती में गए रहे। बाप रे बाप सो छकाई कुटुमैती गाँव की जनानी सब कि का बताएं... !


द्वार पर पहुंचे नहीं कि शुरू हो गया भक्ति अभिनन्दन, 'स्वागत में गाली सुनाओ री समधी भरुआ को....!" गुलटेनमा कका सहित सभी बूढे बराती मंद-मंद मुस्किया रहे थे मगर हमलोगों को तो मने-मन इर्ष्या हो रहा था। खास-कर खखोरन भैय्या के ससुर तो दोनो तरफ़ का पानी मार रहे थे। कबहुँ बराती के साथ तो कबहुँ सरियाती के साथ। “हम न जनली ए समधिन तु एतना सिंगार करबू.... आ बूढबा बरतिया से प्यार करबू..... !” हा....हा.... हा....हा....हा....! एक बार तो जैसन न टोन छोड़े कि कुछ देर के लिये गीत-गायिन सब का मुँहे बंद हो गया था।
लेकिन जो कहिये, मजा बहुत आया था। हम लोगों से जादे तो बुढऊ लोगों पर ही लगन का नशा चढा था।

भात-खई में तो बुढऊ लोग आउर फ़्रंट पर थे। “जादा जो खायेगा पेट फूल जायेगा..... पैंट में होगा पखाना रे.... महंगी का जमाना....!” दादा रे दादा......... उ गांव के जनानी सब का गीत....! पुछिये मत। “जैसन इंडिया के गेट, वैसन समधीजी के पेट.... साला झूठ बोले ला.... !” खैर समधीजी सब के आर में हमलोग छुप-छुप के शैतानी करते रहे। केहु का ध्याने नहीं गया जुअनका बदमाश सब पर काहे कि इहां तो मेन लीड में समधीजी सब थे।

खैर भत-खई के बाद बिदाई का बेला आया। उ में भी समधिये लोग पर चोट था,
“अरे समधी तू क्या जाने तेरा खानदान छोटा है.... !” खैर जनेउ-सुपारी और जोड़ा धोती-पाग देकर मिथिला के मरजाद के साथ समधि सब को बिदाई किया गया। फिर सबलोग खरखरिया रिक्शा पर सवार हो कर आये रहे दरभंगा टीशन।

जानकी इस्परेस आने में विलम्ब था। सबलोग इधर-उधर छितरा गय। मगर गुलटेनमा कक्का और भितरपुर वला उनका बड़का समधी एकदम पलेटफ़ारम का कुर्सी तोड़ते रहे उहो एकदम से आगे में ही। हमभी पुस्तक-भंडार के इसटाल पर मंडरा के साबित करने में लगे थे कि एतना बराती में पढे-लिखे तो एगो हमही हैं। तभिये लाउडिसपीकर पर कुच्छो बोला और एगो गाड़ी का पुक्की सुनाई दिया.... ले लुत्ती के.... सब दौड़ा उधरे। बारह आना बरियाती तो चढ गये। बांकी इंतजारी में थे कि गुलटेनमा कक्का और उनके समधी सरकार चढें या कि रस्ता दें तो बाकी लोग भी चढ जायें। मगर ई का इहां तो अलगे खेल शुरु है....।

कक्का कहें, “चढिये समधी... !” तो खखोरन भाई का ससुर बोले, “अरे नहीं समधीजी... पहिले आप तो चढिये...!” पहिले आप चढिये... तो पहिले आप चढिये....! माना कि मिथिलांचल है मगर गाड़ी-घोड़ा थोड़े बुझता है। ले बलैय्या के.... ई लोग ’चढिये समधी... चढिये समधी’ करते रहे उधर गाड़ी पुक्की मारी और छुक-छुक-छुक-छुक... कू......... ! बाकी बुझले बात, “इस्टेसन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक-दो-तीन हो जाती है...!” उ भी जानकी इस्परेस अब पकड़्ते रहो।

जौन लोग इधर-उधर के डिब्बा में घुस गये उ तो चले गये। और हमरे जैसन दो-चार गो काबिल लोग जो चढिये समधी-चढिये समधी का तमाशा देखे में रह गये, उ निहारते ही रह गये टरेन को।

गाड़ी तो खुल के चली और इधर दुन्नु समधी का मुंह देखने लायक था। और उन सब से भी जादे मुंह लाल था लोटकन झा पंडीजी का। बेचारे को रात में फेर एगो लगन पकड़ना था इहां तो टरेने मिस हो गया। हम उनके जले पर और नमक छिड़कते हुए बोले, “का हुआ पंडीजी... आपभी नहीं चढे...!”

पंडीजी खिसिया के बोले, “जाते कैसे तुम्हरे माथा पर चढके....?” इहां देखा नहीं घरबैय्ये झुम्मर खेल रहे थे। ’चढिये समधी तो चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट।’ न ई समधी चढे न उ समधी चढे... ना ही हमलोग को चढे का रस्ता दिये... ! अब इहां टिसन पर बैठ के मच्छर मारो !”

हम कहे, “अरे आप इतना गोस्साते काहे हैं ? अब समधी हैं तो फ़रमलिट्टी भी तो करना पड़ेगा...!” पंडीजी बोले, “मार लाठी तोहरे फ़रमलिट्टी को। कैसन-कैसन लिट्टी-चोखा उड़ा दिये... बकिये ऐसन धोखा कबहु नहीं हुआ। सब ठीक है... मगर एतना दुविधा काहे का... ? अरे सामने जौन काम पड़ा हुआ है उ केहु ना केहु के तो करना ही है ना... ! फिर पहिले आप तो पहिले आप करो... इसी में समय निकल जायेगा तो फिर कपार धुनते रहो। हुआ न... ’चढिये समधी... चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट’।”

प्रमाण

श्री सत्येन्द्र झा मैथिली साहित्य की जेठ के दुपहरी में छाँव की तरह वतरित हुए हैं। मैथिली और यदा-कदा हिंदी में कविता, कहानी और व्यंग्य लिखने वाले श्री झाजी की लोकप्रीय विधा है, 'लघुकथा'। वे अब तक शताधिक लघुकथाओं की रचना कर चुके हैं जिनमे से इक्यावन कथाएं 'अहीं के कहै छी' (आपही को कहते हैं) नामक संकलन में प्रकाशित है और दूसरा संकलन भी प्रकाशन की राह देख रहा है। झाजी की शैली देख कर एक बार पुनः यह विश्वास पुष्ट होता है कि लोकतंत्र में भले ही संख्याबल और आकर्बल माने रखते हों परन्तु साहित्य में अभी भी गुणबल ही प्रधान है। श्री झाजी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में बतौर लेखापाल कार्यरत हैं। उनकी वाणिज्य शिक्षा का प्रभाव उनके लेखन में भी झलकता है कि झाजी कितने नाप-तोल और गिन कर शब्दों का उपयोग करते हैं। -- करण समस्तीपुरी

प्रमाण

-- सत्येन्द्र झा



"आपका नाम क्या है ?" बड़े से कोठानुमा मकान के आदमकद फाटक पड़ खड़े वृद्ध से नौवर्षीय बालक ने पूछा।

"देवचन्द्र।" मैं आपका दादा हूँ..... आपके पिताजी का पिता।"

"आप एक मिनट इध ही रुको। मैं डैडी से पूछ कर आता हूँ।" बालक अन्दर की ओर जाने लगा कि अचानक वृद्ध ने पूछा, "डैडी से क्या पूछेंगे आप ?"

"यही कि आप सच में डैडी के पिताजी हैं क्या ?" कह कर बालक अन्दर चला गाया किन्तु वृद्ध के म्लान मुखमंडल पर छोड़ गाया अनेक प्रश्न और उलझन.... आखिर एक पुत्र कैसे प्रमाणित करेगा कि उसका पिता कौन है ?

(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'प्रमाण' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

नवगीत :: गीत कालातीत पर्वत के

नवगीत

गीत कालातीत पर्वत के

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

घाटियों में,

लाल-पीली माटियों में,

ढल रहे हैं नील-निर्झर-गीत पर्वत के।

 

पीकर बूंद पखेरू पागल

        जंगल-जंगल चहके।

चुल्लू भर पीकर वनवासी

        घाटी-घाटी बहके।

मादलों से,

होड़ करते बादलों से,

जब बरसते हैं सुधा-संगीत पर्वत के।

 

सुबह पहाड़ों के माथों पर

      मलती जब रोली।

माला हो जाती वनवासी

      कन्यायों की टोली।

अर्गलाएं,

तोड़ सारे द्वन्द्व सीमाएं,

तौलते हैं बाजुओं को मीत पर्वत के।

 

दुपहर छापक पेड़

      ढूंढकर बैठी काटे घाम।

संध्या की रंगीन छटाएं

             बंजारों के नाम।

यामिनी में,

दूध धोई चांदनी में,

तैर जाते गीत कालातीत पर्वत के।

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-55 :: अद्भुत रस और शान्त रस

भारतीय काव्यशास्त्र-55

अद्भुत रस और शान्त रस

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में भयानक और बीभत्स रस पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अद्भुत रस और शान्त रस पर चर्चा की जा रही है।

अद्भुत रस का स्थायिभाव विस्मय है। इसका आलम्बन विभाव अलौकिक वस्तुएँ हैं और उनका वर्णन ही उद्दीपन विभाव है। स्तम्भन, स्वेद, रोमांच, गद्गद स्वर, सम्भ्रम, आँखों का फैल जाना, अपलक देखना, वाह-वाह जैसे शब्दों की अभिव्यक्ति आदि अनुभाव हैं। वितर्क, आवेग, भ्रान्ति, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं। साहित्यदर्पणकार ने इनका वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया है-

अद्भुतो विस्मयस्थायिभावो गन्धर्वदैवतः।

पीतवर्णो वस्तु लोकातिगमालम्बनं मतम्।

गुणानां तस्य महिमा भवेदुद्दीपनं पुनः।।

स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चगद्गदस्वरसम्भ्रमः।

तथा नेत्रविकासाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः।।

वितर्कावेगसम्भ्रान्तिहर्षाद्या व्यभिचारिणः। (साहित्यदर्पण)

काव्यप्रकाशकार ने निम्नलिखत श्लोक अद्भुत रस के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है –

चित्रं महानेष बतावतारः क्व कान्तिरेषाऽभिनवैव भङ्गिः।

लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभावः काऽप्याकृतिर्नूतन एष सर्गः।।

भगवान वामन को देखकर महाराज बलि की यह उक्ति है। महाराज बलि कहते हैं – यह बड़ा ही विचित्र अवतार है। यह अलौकिक कांति कहाँ मिल सकती है। इनकी उठने-बैठने का ढंग भी अभिनव है, इनका धैर्य भी अलौकिक है और प्रभाव भी, इनका आकार अवर्णनीय है। यह विधाता की अद्वितीय रचना है।

इसमें भगवान वामन आलम्बन; उनकी कान्ति, गुणों की अधिकता आदि उद्दीपन विभाव हैं; स्तुति, प्रशंसा आदि अनुभाव हैं और मति, धैर्य, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं। विस्मय स्थायिभाव है।

लेकिन आचार्य पंडितराज जगन्नाथ आचार्य मम्मट से सहमत नहीं हैं। पंडितराज इसमें रसवत् अलंकार मानते हैं।

हिन्दी कविता के उदाहरण के रूप में कवि पद्माकर की निम्नलिखित कविता उद्धृत की जा रही है। इसमें कालियनाग के सिर पर भगवान कृष्ण द्वारा नृत्य करने का वर्णन है, जिसे देखकर ग्वाल-बाल आदि आश्चर्य-चकित हो रहे हैं-

गोपी ग्वालबाल जुरे आपस में कहें आली

कोऊ जसुदा को अवतर्यो इन्द्रजाली है।

कहै पद्माकर करै को यों उताली, जापै

रहन न पावै कहूँ एको फन खाली है।

देखै देवताली भई विधि के खुशाली, कूदि

किलकति काली हेरि हँसत कपाली है।

जनम को चाली एरी अद्भुत दै ख्याली, आजु,

काली की फनाली पै नाचत बनमाली है।

इसमें कालियनाग आलम्बन विभाव, कालियनाग के फणों पर भगवान कृष्ण का चपलता पूर्वक हँस-हँसकर नृत्य उद्दीपन विभाव है। ग्वालबालों का समवेत कृष्ण के इस कृत्य का वर्णन करते उन्हें इन्द्रजाली कहना, आश्चर्य से उनके नेत्रों का विस्फारित होना आदि अनुभाव हैं। देवतओं आदि का हर्ष, वितर्क आदि व्यभिचारिभाव हैं। ग्वाल-बालों और दर्शकों के अन्दर यह दृश्य देखकर विस्मय का उदय स्थायिभाव है।

शान्त रस का स्थायिभाव निर्वेद है। हालाँकि कुछ आचार्य निर्वेद को इस रस का स्थायिभाव न मानकर शम को मानते हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि निर्वेद सम्पूर्ण चित्त-वृत्तियों के अभाव की स्थिति है, अतएव इसे स्थायिभाव मानना उचित नहीं है। निरीह (इच्छारहित) अवस्था में ब्रह्मानन्द का रसास्वादन शम कहलाता है। इसलिए वे शान्त रस का स्थायिभाव शम को ही मानते हैं और निर्वेद को केवल एक व्यभिचारिभाव। आचार्य विश्वनाथ का भी यही मत है। संसार की अनित्यता, दुख-रूपता, असारता आदि का ज्ञान अथवा परमात्मा का स्वरूप इस रस का आलम्बन विभाव है, ऋषियों का पवित्र आश्रम, पवित्र तीर्थ, रमणीय एकान्त वन, महात्माओं का संग आदि उद्दीपन विभाव हैं। रोमांच आदि अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मरण, मति, प्राणिमात्र पर दयाभाव, सुख-दुख में समभाव आदि व्यभिचारिभाव हैं। साहित्यदर्पण में इसका विवरण निम्नलिखित रूप में दिया गया है।

शान्तः शमस्थायिभाव उत्तमप्रकृतिर्मतः।।

कुन्देन्दुसुन्दरच्छायः श्रीनारायणदैवतः।

अनित्यत्वादिनाऽशेषवस्तुनिःसारता तु या।।

परमात्मस्वरूपं वा तस्यालम्बनमिष्यते।

पुण्याश्रमहरिक्षेत्रतीर्थरम्यवनादयः।।

महापुरुषसङ्गाद्यास्तस्योद्दीपनरूपिणः।

रोमाञ्चाद्याश्चानुभावास्तथा स्युर्व्यभिचारिणः।।

निर्वेदहर्षस्मरणमतिभूतदयादयः।

इन कारिकाओँ का भावार्थ (शान्त रस के देवता व वर्ण को छोड़कर) ऊपर दिया जा चुका है। काव्यप्रकाश में शान्त रस का निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है-

अहौ वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा

मणौ वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा।

तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः

क्वचित् पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः।।

अर्थात सर्प में या मोती आदि की माला में, फूलों की शय्या में या पत्थर की शिला में, मणि में या मिट्टी के ढेले में, शक्तिशाली शत्रु में या मित्र में, तृण में या स्त्रियों के समूह में समबुद्धि रखते हुए मेरे दिन किसी पवित्र तपोवन में शिव, शिव, शिव रटते हुए व्यतीत हों।

यहाँ मिथ्या सा लगने वाला संसार आलम्बन विभाव और तपोवन आदि उद्दीपन विभाव हैं। सर्प और हार आदि में समबुद्धि का होना अनुभाव हैं। धृति, मति, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं और निर्वेद या शम स्थायिभाव है।

शान्त रस के लिए हिन्दी में संत कवि दास की निम्नलिखित सवैया उद्धृत की जा रही है।

भूखे अघाने रिसाने हितू अहितून्ह ते स्वच्छ मने हैं।

दूषन भूषन कंचन काँच जू मृत्तिका मानिक एक गने हैं।

सूल सों फूल सों माल प्रबाल सों दास हिए सम सुक्ख सने हैं।

राम के नाम सों केवल काम तेई जग जीवन मुक्ख मने हैं।

इसके विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव उपर्युक्त की भाँति ही समझना चाहिए और निस्संदेह निर्वेद या शम स्थायिभाव

अगले अंक में वात्सल्य और भक्ति रस पर चर्चा की जाएगी।

*******

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

फुर्सत में : खट्टर पुराण

-- करण समस्तीपुरी

पिछले दिनों आचर्य जानकीबल्लभ शास्त्री जी से भेंटवार्ता का आनन्द लेते हुए स्नेही ब्लोगर बन्धु श्री अरुण चन्द्र राय जी ने इच्छा प्रकट किया था कि कभी पंडित हरिमोहन झा से हिन्दी ब्लोग-जगत का परिचय कराया जाय। वैसे मुझे इसमें सन्देह है कि हिन्दी ब्लोग-जगत अभी तक हरिमोहन झा से अवगत नही होगा।

हरिमोहन झा उद्भट विद्वान थे। उनका जन्म वर्तमान बिहार राज्य के मिथिलांचल में हुआ था। वैशाली जिला के मालपुर/वाजितपुर गांव को उनकी जन्मभूमी होने का गौरव प्राप्त है। उनकी वास्तविक जन्मतिथि के विषय में प्रमाणिक जानकारी नही है किन्तु कहा जाता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिला के एक कर्मकाण्डी ब्रह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ था। इस तिथि को बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में महिलायें अपने सन्तान के दीर्घायु के लिये भगवान जिमुतवाहन का व्रत रखती हैं, जिसे ’जितिया’ के नाम से जाना जाता है।

झाजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। छः वर्ष की आयु से ही इन्हे संस्कृत के अनेक श्लोक एवं स्तोत्र याद हो गये थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा का अन्दाज तभी हो गया था जब महज बारह वर्ष की उम्र में उन्होने अपने ’नाना’ को समर्पित संस्कृत में एक लम्बे स्तुतिगान की रचना कर डाली।

हालांकि उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत देर से शुरु हुइ। कोइ बारह साल की आयु में उन्होने विद्यालय का मुंह देखा किन्तु उसके बाद से तो उन्हे जैसे सभी परीक्षाओं में प्रथम आने की आदत सी हो गयी थी।

उन्होने प्रतिष्ठित पटना विश्वविद्यालय से दर्शन-शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि स्वर्ण-पदक के साथ प्राप्त किया। उस समय (शायद १९४९) में उनका

प्राप्तांक संयुक्त बिहार, बंगाल और उड़ीसा में सर्वाधिक था। बाद में इसी विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर अध्यापन आरम्भ किया और दर्शन-शास्त्र के विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत हुए।

मैथिली मातृभाषी पंडित हरिमोहन झा दर्शन के अतिरिक्त काव्य-शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, इतिहाष, आयुर्वेद आदि विषयों के मूर्धन्य के विद्वान थे। मैथिली के अतिरिक्त हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला, ओड़िया, संस्कृत,भोजपुरी, अवधी भाषाओं पर समान अधिकार था। मातृभाषा से अनन्य प्रेमवश इन्होने मैथिली को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उपन्यास कन्यादान और द्विरागमन इनकी कालजयी रचनायें हैं। इसके अतिरिक्त अनेक फुटकर कहानियां, संस्मरण, ललित-निबंध, प्रहसन आदि इनकी कलम से निकले हैं, जिनकी लोकप्रियता मिथिलांचल में चरम पर है। हरिमोहन झाजी की अधिकांश रचनाओं का अनुवाद हिन्दी में हो चुका है। कुछ रचनाएं गुजराती एवं अन्य भाषाओं में भी अनुदित हुई हैं।

स्पष्ट कहें तो वैद्यनाथ मिश्र (नागर्जुन) और फिर हरिमोहन झा ही मैथिली में विद्यापति के प्रसाद को आगे बढाने वाले साहित्य नक्षत्र हुए। रुढियों पर कुठाराघात इनकी रचनाओं का मूल स्वर रहा है। अपनी अमर कृति कन्यादान और द्विरागमन में इन्होने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, पर्दा प्रथा, कम उम्र में प्रसव आदि ज्वलन्त समस्याओं पर बड़ा ही तिक्ष्ण किन्तु गुदगुदाता प्रहार किया है। हलांकि समाजिक कुरितियां जो तत्कालीन समाज के अभिन्न अंग बन गये थे, उनके बहिष्कार के कारण इन्हे विद्वद एवं सामन्य समाज की आलोचनायें भी झेलनी पड़ी। किन्तु झाजी की कल्पनाशक्ति की प्रशंसा करनी होगी जिसकी बदौलत आज से साठ साल पहले उन्होने आधुनिक प्रगतिशील (मिथिलांचल) समाज का सपना देखा था।

इनका रचना संसार आकाश की तरह विस्तृत, वायु की तरह विहंगम और पक्षी की तरह उन्मुक्त है। हास्य आपकी रचनाऒं में नये क्षितिज और व्यंग्य नए गगन का निर्माण करता है। इत-उत करुण रस के भी दर्शन हो जाते हैं। आंचलिक वर्णन में आपका कोई सानी नही है। आपके अकाट्य तर्क के आगे बड़े-बड़े पंडित भी खंडित हो जाते हैं। पतरा पर खतरा आ जाता है। नैयायिकों को अन्याय लगने लगता है। इनके व्यंग्य के नुकीले तीर कहीं-कहीं भावुक पाठकों को भी चुभ जाते हैं, मगर मेरा विश्वास कीजिये, इनका हास हमेशा आपको गुदगुदाता रहेगा। मैथिली साहित्य में इन्होने ’खट्टर कका’ के चरित्र की सृष्टि क्या की.... बाद में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि हरिमोहन झा इसी नाम से साहित्य सृजन करने लगे।

मेरा सौभाग्य है कि मैं खट्टर कका की तमाम रचानाएं पढ चुका हूं। और दावे के साथ कह सकता हूं कि मैथिली/हिन्दी साहित्य में इनके जैसा ह्युमरिस्ट न तो तभी कोई था और न अभी। खट्टर कका का तरंग साहित्यरस पिपासुओं के लिये तो पीयूष स्रोत है ही साथ ही यह ऐसा लाफ़िंग गैस है जिस से कोई नहीं बच सकता। रोते हुए आता है फिर भी हंसना ही पड़ेगा। बहुत दिन हो चुके हैं किन्तु स्मृति पटल में छुपे उनके हास्य-रस के मोती आपको भेंट करने की कोशिश कर रहा हूं।


दही चूड़ा चीनी


खट्टर काका दरवाजे र बैठ कर भांग घोंट रहे थे. मुझे आते हुए देख कर बोले, " अरे उधर मिर्च के पौधे लगे हैं, इधर से आओ"

मैं ने कहा, " खट्टर काका, आज ज्यवारी (सात गांव का) भोज है। उसी का निमंत्रण देने आया हूँ

खट्टर काका खुश होते हुए बोले, " वाह वाह भोज का निमंत्रण देने आये हो.... ? तब ओ सीधा आ जाओ क्या होगा दो चार पौधे ही टूटेंगे न ये कहो की भोज में होगा क्या सब ?"

मैं ने कहा, " दही, चूडा, चीनी"

खट्टर काका, " बस, बस, बस सृष्टि में सब से उत्कृष्ट पदार्थ तो यही है गोरस में सबसे मांगलिक वस्तु दही, अन्न में सबका चूडामणि चूडा, और मधुर में सबका मूल चीनी इन्ही तीनों का संयोग तो त्रिवेणी संगम है मुझे तो त्रिलोक का आनंद इन्ही में मालुम पड़ता है चूडा भूलोक दही भुवर्लोक चीनी स्वर्लोक "

मैं ने देखा की खट्टर काका अभी तरंग में हैं सब कुछ अद्भुत ही कहेंगे सो, थोड़ा काम रहते भी बैठ गया उनकी सरस बातें सुनने को

खट्टर काका ने कहा, "मुझे तो लगता है की चूडा दही चीनी से ही संख्या दर्शन की उत्पत्ति हुई होगी

मैं ने चकित होते हुए पूछा, " चूडा दही चीनी में संख्या दर्शन कहाँ से आ गया ?"

खट्टर काका ने कहा, " अभी तुम्हे कोई हड़बड़ी तो नही है ? अगर नही तो बैठो मेरा विश्वास है की कपिल मुनि ने चूडा दही चीनी के अनुभव पर ही तीनो गुणों की व्याख्या की होगी दही सत्व गुन चूडा तमोगुण चीनी रजोगुण

मैं ने कहा, " खट्टर काका आपकी तो हर बात ही अलग होती है ऐसा तो मैं ने पहले कहीं नही सुना"

खट्टर काका बोले, "मेरी कौन सी ऐसी बात है, जो तुम कहीं और सुने हो ?"

मैं ने कहा, "खट्टर काका आपने दही चूडा चीनी, से त्रिगुण का अर्थ कैसे लगाया ?"

खट्टर काका, " असली सत्व दही में ही होता है, इसीलिए इसका नाम सत्व चीनी धूल होता है इसीलिए यह रज और चूडा रुक्ष्तम होता है इसीलिए तम"

मैं ने कहा, "आर्श्चय इस र तो मेरा ध्यान हे नही गया था "

खट्टर काका ने व्याख्या करते हुए कहा, "देखो, तम का अर्थ होता है अन्धकार इसीलिए, सूखा चूडा पत्ते पर परते ही आंखों के आगे अँधेरा छा जाता है जैसे ही

फ़ेद दही उस पर पड़ता है, आंखों में चमक आ जाती है इसीलिए सत्वगुण को प्रकाशक कहा गया है 'सत्वं लघु प्रकाशक्मिश्तम' इसीलिए दही लघुपाकी और सबका प्रिय होता है

चूडा कब्जकर होता है इसीलिए तम को अवरोधक कहा गया है और बिना रजोगु के क्रिया का प्रवर्तन सम्भव ही नही, इसीलिए चीनी के बिना खाली चूडा दही गले के नीचे नही उतरता है अब समझे "

मैं ने कहा, "धन्य हैं खट्टर काका आप जो न सिद्ध कर दें "

खट्टर काका बोले, "सुनो, सांख्य मत में प्रथम विकार होता है महत या बुद्धि दही चूडा चीनी खाने के बाद यह पेट मैं फैलता है यही महत की अवस्था है इस अवस्था में गप्प खूब सूझता है इसीलिए महत कहो या बुद्धि, बात एक ही है लेकिन इसके लिए सत्वगुण का आधिक्य होना चाहिए, यानी कि दही ज्यादा होना चाहिए "

मैं- "अहा संख्य दर्शन का ऐसा तत्व और कौन कह सकता है "

खट्टर काका, "अगर इसी तरह निमंत्रण देते रहो तो मैं सारे दर्शन का तत्व समझा दूँ

*मैथिली पुस्तक ’खट्टर कका’क तरंग’ से साभार....