रविवार, 31 जुलाई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 77

भारतीय काव्यशास्त्र – 77

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि एक रस दूसरे रस का अंग, रस भाव का अंग, एक भाव दूसरे भाव का अंग और एक रसाभास दूसरे रसाभास का अंग होकर अपरांग गुणीभूत व्यंग्य की स्थिति को जन्म देते हैं। इस अंक में भावशान्ति, भावोदय, भाव-संधि और भाव-शबलता की अपरांगता (दूसरे का अंग होना) सम्बन्धी गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की जाएगी।

निम्नलिखित श्लोक में गुणीभूतव्यंग्य का स्वरूप दिखाया गया है जब भावशान्ति किसी भाव का अंग हो। इस श्लोक में किसी कवि अपने आश्रयदाता राजा की युद्धभूमि में प्रशंसा करता हुआ कह रहा है-

अविरल-करवाल-कम्पनैर्भृकुटी-तर्जन-गर्जनैर्मुहुः।

ददृशे तव वैरिणां मदः स गतः क्वापि तवेक्षणे क्षणात्।।

अर्थात् (हे राजन्) लगातार तलवारें भाँजते हुए, भृकुटी टेढ़ीकर डराते हुए, बार-बार गरजते हुए आपके शत्रुओं का अभिमान आपको देखते ही क्षण भर में कहाँ चला गया।

यहाँ शत्रुओं के मद-भाव की शान्ति कवि की अपने राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग हो गया है। अतएव भावशान्ति का भाव का अंग होने के कारण यहाँ भी अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

निम्नलिखित श्लोक में भावोदय का दूसरे भाव का अंग हो जाने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की सृष्टि का रूप दिखाया गया है। इस श्लोक में भी कवि द्वारा अपने आश्रयदाता राजा की प्रशंसा की गयी है-

साकं कुरङ्गकदृशा मधुपानलीलां कर्तुं सुहृद्भिरपि वैरिणि ते प्रवृत्ते।

अन्याभिधाय तव नाम विभो गृहीतं केनापि तत्र विषमामकरोदवस्थानम्।।

अर्थात् हे राजन्, आपका शत्रु अपने मित्रों सहित एक मृगनयनी के साथ मद्यपान में रत था कि किसी ने आपका नाम किसी अन्य अर्थ में ले लिया और वह (आपका शत्रु) अत्यन्त घबरा गया।

यहाँ शत्रु के भय का भावोदय कवि में स्थित राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग हो गया है। अतः इसमें त्रास-भाव का उदय राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग होने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

निम्नलिखित श्लोक में भाव-संधि की अपरांगता दिखायी गयी है। इसमें कवि ने माँ लेकर भगवान शिव की वन्दना की है-

असोढा तत्कालोल्लसदसहभावस्य तपसः कथानां विश्रम्भेष्वथ च रसिकः शैलदुहितुः।

प्रमोदं वो दिश्यात् कपटबटुवेषापनयने त्वराशैथिल्याभ्यां युगपदभियुक्तः स्मरहरः।।

अर्थात् जो पार्वती की तपस्या की कठोरता को न सह सकनेवाले और आत्मविश्वास भरी उनकी बातों में रस लेनेवाले कपटपूर्ण ब्रह्मचारी वेष छोड़ने की शीघ्रता और शिथिलता दोनों को एक साथ अनुभव करनेवाले कामदेव का विनाशक (भगवान शिव) आपलोगों के आनन्द प्रदान करें।

यहाँ भगवान शिव का कपट-वेष छोड़ने की जल्दी और धैर्य (शिथिलता) भावों की संधि का कवि का उनके (भगवान शिव) प्रति भक्तिभाव का अंग होकर अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की अभिव्यक्ति हुई है।

नीचे के श्लोक में भावशबलता की अपरांगता के द्वारा गुणीभूतव्यंग्य दिखाया है। इस शलोक में किसी राजा की स्तुति करते हुए कवि ने जंगल में रहनेवाले शत्रु की कन्या की अवस्था का वर्णन किया है, जो जंगल में फल-फूल चुनने गयी है और वहाँ किसी कामुक व्यक्ति से उसका संम्बन्ध हो गया है। कन्या की उससे कही बातों का वर्णन करते हुए कवि कहता है-

पश्येत्कश्चिच्चल चपल रे का त्वराहं कुमारी

हस्तालम्बं वितर ह ह हा व्युत्क्रमः क्वासि यासि।

इत्थं पृथ्वीपरिवृढ भवद्विद्विषोरण्यवृत्तेः

कन्या कञ्चित् फलककिसलयान्याददानाभिदत्ते।।

अर्थात् (जब कामुक व्यक्ति उस लड़की को एकान्त में पकड़ना चाहता है, तो वह उससे कहती है)- अरे कोई देख लेगा, अरे चपल दूर हट, जल्दी क्या है, मैं क्वारी हूँ, मुझे अपने हाथों का सहारा दो, ह ह हा, यह तो मर्यादा का अतिक्मण है, अरे तुम कहाँ जा रहे हो, हे राजन, आपके डर से जंगल में रहनेवाले आपके शत्रु की कन्या भोजन के लिए फलों और पत्तों को तोड़ती हुई किसी कामुक से इस प्रकार कहती है।

इस श्लोक में कन्या के शंका, असूया, धृति, स्मृति, श्रम, दैन्य, विबोध और औत्सुक्य आठ भावों की शबलता कवि की राजा के प्रति भक्ति-भावना का अंग हो जाने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

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6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ज्ञानवर्धक.
    आचार्य जी ज्ञान का भंडार हैं.

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  2. ज्ञानवर्धक पोस्ट , आभार

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  3. बहुत ज्ञानवर्धक.
    आचार्य जी ज्ञान का भंडार हैं.

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  4. एक और बेमिसाल अंक!
    ब्लॉगजगत के लिए नायब तोहफ़ा!

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  5. वाह!
    बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट!
    आचार्य परशुराम राय जी की आभार!
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    पूरे 36 घंटे बाद नेट पर आया हूँ!
    धीरे-धीरे सबके यहाँ पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ!

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