फ़ुरसत में …
माई फ़ुट !
मनोज कुमार
तब मेरी उम्र कोई पांच सात साल की रही होगी। गर्मियों के दिन थे। सुबह से ही पेट में दर्द शुरू हुआ। कुछेक घंटो के बाद पेट चलना शुरू हुआ। शाम तक दस्त के साथ कै भी होने लगी। आधी रात के बाद तो शायद मेरे होश-हवास भी न रहे होंगे। घर में जो भी प्राथमिक उपचार हुआ हो, रात के आधे पहर से अधिक बीत जाने के बाद जब स्थिति क़ाबू से बाहर हो गई तो हमे सदर अस्पताल, मुज़फ़्फ़रपुर ले जाया गया।
बीती रात कौन जगा होता है ? किसी तरह इमर्जेंसी वार्ड के कुछ लोगों को जगाया गया। वहां जो भी डॉक्टरनुमा व्यक्ति था उसने मेरी केस हिस्ट्री सुनकर सामने की तरफ के वार्ड की तरफ इशारा करते हुए बोला, “वहां भर्ती कर दीजिए।”
उधर झोपड़पट्टीनुमा दो चार कमरे बने थे। उन दिनों एकदम से अलग थलग बने ये वार्ड “कॉलरा वार्ड” कहलाते थे। उनकी खिड़कियों से झांकती पीली टिमटिमाती रोशनी मौत का पैगाम लेकर ही आती थी। शायद ही कोई वहां से दुबारा अपने घर वापस जाता रहा होगा।
डॉक्टर की बातें सुन मेरी मां ने ज़ोर से मुझे अपनी बाहों में भींच लिया और पिताजी को, जो उस वार्ड की तरफ़ चल पड़े थे, चिल्ला कर कहा – “नहीं … वहां हम नहीं जाएंगें ! अगर इसको मरना ही है तो घर में ही मरेगा।”
ऐसा ख़ौफ़ था कॉलरा वार्ड का। मां की बात सुन पिजाजी भी ऊहापोह में पड़ गए। डॉक्टर इघर हिदायत दे रहा था, “तुरंत पानी चढ़ाना पड़ेगा नहीं तो...!”
पर इस “नहीं तो” की मां को कहां परवाह थी ! वह तो उसी रिक्शे पर मुझे गोद में लिए लपक कर बैठ चुकी थी जिससे हम आए थे। मां की वाणी में क्या ओज था, क्या आत्म-विश्वास था, क्या भरोसा था, कि उस पीली रोशनी के दायरे से हमे बाहर ले चली और मां के अंतरआत्मा की आवाज़ सुन और उसकी आंखों की नूर देख कर पिताजी भी आ गए वापस। जैसे पक्षी अपने परकोटे में अपने बच्चे को छुपा कर लाती है वैसे ही मेरी मां मुझे लाई थी और उस दिन को याद कर मुनव्वर राना का यह शे’र मुझे बहुत सही जंचता है
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है
लौटते वक़्त रिक्शे पर ही तय हुआ कि हम बखरी चलते हैं। वहां हमारे फूफाजी थे। वे उस गांव में रहते थे और चिकित्सक थे। शायद आयुर्वेद की शिक्षा उन्होंने ग्रहण की हो। रास्ते में ही बस स्टैंड था। हम सुबह उजाला होते होते बस से फूफाजी के यहां आ गए।
पता नहीं क्या-क्या उपचार मेरा हुआ, पर मुझे याद है कि कोई एलोपैथ की दवा नहीं दी गई थी। अधिकांश चीज़ें घरेलू ही थीं। ... और जो चीज़ सबसे ज़्यादा मुझपर असर की वह फूफाजी के ही स्वरों में – “चूरा को इतना फुला दीजिए कि भात जैसा हो जाए और फिर उसमें दही मिलाकर खिलाइए। दोपहर तक ठीक हो जाएगा।”
ऐसा ही हुआ ! शाम तक तो मैं घर के बाहर घूमने लगा, दूसरे दिन खेलने भी। उन दिनों कैसे-कैसे उपचार होते थे और हम ठीक भी हो जाया करते थे। चोट लगी कट फट गया, गेंदे के फूल का पता हाथ में मसल कर लगा देते थे, ठीक हो जाता था, दांत का दर्द हुआ, दो लॉंग खा ली, ठीक हो जाता था, सर्दी हुई - तुलसी का काढ़ा बना कर पी लिया, पेट में दर्द हुआ, आजवायन खा लिया, कान में दर्द होने पर सरसों का तेल डाल लिया, ... ये पत्ती खा लिया, … वो काढ़ा पी लिया ... हम उन्हीं उपचारों से ठीक भी हो जाया करते थे।
याद है मुझे, जब हमें पेट में दर्द होता था, तो नानी पेट पर सरसों तेल लगाकर एक दीपक जला कर रख देती थी और उसके ऊपर कोई लोटा आदि से उसे ढंक देती थी। कुछ देर मे दर्द गायब !
ये प्राकृतिक चिकित्सा या घरेलू नुस्खें, ये हमारी पद्धतियां थीं। हमारी पारम्परिक पद्धति। आज के बदलते दौर में हम यह सब भूलने लगे हैं। भूलने लगे हैं - और भी बहुत कुछ ...
स्वस्थ होकर जब फूफाजी के यहां से लौटे तो हमारी परीक्षा शुरू हो चुकी थी। उन दिनों एक पेपर होता था जिसमें हमें हस्तकला और स्वच्छता की परीक्षा देनी होती थी। उस दिन परीक्षा में हमें जो काम मिला था, कुछ जंगल आदि साफ करने का। उसे पूरी तन्मयता से किया और भरपूर नम्बर प्राप्त किया। उन दिनों की शिक्षा पद्धति में हमारे समाज आदि की आवश्यकताओं को ध्यान रखा जाता था। नैतिक शिक्षा और शारीरिक स्वास्थ्य हमारी बुनियादी शिक्षा का आधार था। गृह एवं कुटीर उद्योग की वकालत की जाती थी। मुझे याद है कि एक पीरियड हुआ करता था, जिसमें हम तकली से सूत कातते थे। जिसका जितना अच्छा, पतला और मज़बूत सूत होता था उसे उतने अच्छे अंक मिलते थे। आज के विद्यार्थी से तकली के बारे में पूछिए, तो शायद नाम भी न सुना हो उसने, कातना तो दूर की बात है।
हम तकली कातते होते थे तथा आंखो और मन में बापू की तस्वीर समाई होती थी। बापू जैसा बनने की सोच विकसित होती थी। इस सूत से, इस धागे से, उस महात्मा तक एक बंधन बंधता था। हमें गर्व महसूस होता था। घर में चरखा होता था। महिलाएं चरखा कातती थी। उसके सूत बेचकर कुछ आमदनी भी हो जाया करती थी। चरखा और सूत आत्म-सम्मान का “प्रतीक”था। कुछ नहीं तो चरखा है ना जी, हाथ में हुनर हो तो हम जीविकोपार्जन कर लेंगे।
“प्रतीक” बहुत बड़ी चीज होती है। तब के नेताओं में हमारे “प्रतीक” थे –पं. नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल कलाम आज़ाद, शास्त्री जी और आज कलमाडी साहब, राजा साहब, अमर साहब , येदुरप्पा साहब ! तब सूत हमारा आत्म विश्वास और आत्म सम्मान का सूचक था, और आज ... “माई फ़ुट ...!”
हां जी, आज सूत की माला पहना दो यही तो कहते हैं – “सूत ... माई फ़ुट !” उससे जूता साफ कर लिया, कचड़े में डाल दिया। न आज गांधी का महत्व है और न उन “प्रतीकों” का। आज के युवा “कमीने” फिल्म देखते हैं, “डेलही-वेलही” की भाषा बोलते हैं और “ढ़न्न् टनन्” गाते हैं। अब मानवीय संवेदना, लोकाचार का नहीं, “गुल्लक तोड़कर टनटनाने” आदि का “प्रतीक” ज्यादा है।
गांधी जी ने वर्षों पहले भांप लिया था कि स्विस बैंक में धन जमा करने वाले नेताओं द्वारा इस देश के करोड़ो बेरोज़गार लोगों के लिए रोज़गार देना उनके बस की बात नहीं होगी। इसलिए वे लोगों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नतमस्तक लोगों ने गांधी जी को दफना दिया है, उनके “प्रतीकों” को जूतों की नोक पर रख लिया है। “ग्रामीण विकास” करने वाले ये लोग गांवों में पेप्सी-कोला का साम्राज्य खड़ा कर उस साम्राज्यवादी ताकतों को न्योत रहें हैं, जिन्हें गांधी जी ने सत्य, अहिंसा और स्वदेशी के बल पर देश से खदेड़ा था।
गांधी जी ने देश की समस्याओं के समाधान के लिए विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक उपागमों को खारिज नहीं किया, बशर्ते कि वे नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप होते। इसे वे रचनात्मक कार्यक्रम कहते थे। लेकिन वे स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा देते थे, जो अधिकतम लोगों की जरूरत को पूरा करने वाला होता था। उनके प्रचार में चरखे का गौरवपूर्ण स्थान था। उनका मानना था कि इससे गरीबों को जीने का साधन मिलेगा और अपने लिए कपड़ा बुनकर वे पैसे बचा सकते हैं। 1919 में उन्होंने चरखे का प्रयोग शुरू किया। सबसे अच्छे चरखे को 5,000 रूपये इनाम देने की घोषणा हुई। शीघ्र एक साधारण और सुवाह्य चरखा इज़ाद हुआ। गांधीवादी कार्यकर्ताओं ने इन चरखों को बनाने के लिए चंदे इकट्ठा किए। चरखे बनाकर गरीबों में बांटे गए। सूत बुने गए। उन्हें हस्तकरघा बुनकरों को दिया गया। खादी कपड़ा बना। खादी भंडार खोले गए। स्वदेशी वस्तुओं को स्वीकारा किया गया और विदेशी का बहिष्कार।
गांधी जी कहते थे – मैं भोजन के बिना तो रह लूंगा, मगर चरखे के बिना नहीं रह सकता। जब मैं चरखे पर सूत कातता हूँ, उस समय मुझे गरीब की याद आती है। गांधी जी की मान्यता थी कि चरखा कातने में ही देश के लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। इसमें कम पूँजी की भी जरूरत पड़ती है।
गांधी जी ने आर्थिक स्वतंत्रता के लिए “स्वेदशी” का आह्वान किया। चरखा कातना उसी स्वदेशी का एक दैनिक उदाहरण था, “प्रतीक” था, एक विराट धर्म नीति थी। जिसका उद्देश्य मनुष्य को मुक्ति देना था। वे “आखिरी आदमी” को अपना लक्ष्य मानते थे।
आज गांधी नहीं रहे। उनके मूल्य भी एक-एक कर दरकिनार किए जा रहे हैं। सारी दुनियां का परिदृश्य हमारे सामने है। विज्ञान की ध्वांसात्मक तकनीक का अमानवीय रूप, बेशुमार दौलत पाने की अदम्य लिप्सा और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नंगा नाच, हिंसा और आतंकवाद का बोलबाला, लोकतंत्र के हत्यारों का वर्चस्व,साम्प्रदायिकता, जातिवाद, अशिक्षा, गरीबी, अशांति और शोषण ... सब है हमारे सामने। इन सबके बारे में किसे सोचना है, और वे क्यों सोंचें ... हुंह ... माइ फ़ुट !