रविवार, 31 जुलाई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 77

भारतीय काव्यशास्त्र – 77

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि एक रस दूसरे रस का अंग, रस भाव का अंग, एक भाव दूसरे भाव का अंग और एक रसाभास दूसरे रसाभास का अंग होकर अपरांग गुणीभूत व्यंग्य की स्थिति को जन्म देते हैं। इस अंक में भावशान्ति, भावोदय, भाव-संधि और भाव-शबलता की अपरांगता (दूसरे का अंग होना) सम्बन्धी गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की जाएगी।

निम्नलिखित श्लोक में गुणीभूतव्यंग्य का स्वरूप दिखाया गया है जब भावशान्ति किसी भाव का अंग हो। इस श्लोक में किसी कवि अपने आश्रयदाता राजा की युद्धभूमि में प्रशंसा करता हुआ कह रहा है-

अविरल-करवाल-कम्पनैर्भृकुटी-तर्जन-गर्जनैर्मुहुः।

ददृशे तव वैरिणां मदः स गतः क्वापि तवेक्षणे क्षणात्।।

अर्थात् (हे राजन्) लगातार तलवारें भाँजते हुए, भृकुटी टेढ़ीकर डराते हुए, बार-बार गरजते हुए आपके शत्रुओं का अभिमान आपको देखते ही क्षण भर में कहाँ चला गया।

यहाँ शत्रुओं के मद-भाव की शान्ति कवि की अपने राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग हो गया है। अतएव भावशान्ति का भाव का अंग होने के कारण यहाँ भी अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

निम्नलिखित श्लोक में भावोदय का दूसरे भाव का अंग हो जाने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की सृष्टि का रूप दिखाया गया है। इस श्लोक में भी कवि द्वारा अपने आश्रयदाता राजा की प्रशंसा की गयी है-

साकं कुरङ्गकदृशा मधुपानलीलां कर्तुं सुहृद्भिरपि वैरिणि ते प्रवृत्ते।

अन्याभिधाय तव नाम विभो गृहीतं केनापि तत्र विषमामकरोदवस्थानम्।।

अर्थात् हे राजन्, आपका शत्रु अपने मित्रों सहित एक मृगनयनी के साथ मद्यपान में रत था कि किसी ने आपका नाम किसी अन्य अर्थ में ले लिया और वह (आपका शत्रु) अत्यन्त घबरा गया।

यहाँ शत्रु के भय का भावोदय कवि में स्थित राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग हो गया है। अतः इसमें त्रास-भाव का उदय राजा के प्रति भक्ति-भाव का अंग होने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

निम्नलिखित श्लोक में भाव-संधि की अपरांगता दिखायी गयी है। इसमें कवि ने माँ लेकर भगवान शिव की वन्दना की है-

असोढा तत्कालोल्लसदसहभावस्य तपसः कथानां विश्रम्भेष्वथ च रसिकः शैलदुहितुः।

प्रमोदं वो दिश्यात् कपटबटुवेषापनयने त्वराशैथिल्याभ्यां युगपदभियुक्तः स्मरहरः।।

अर्थात् जो पार्वती की तपस्या की कठोरता को न सह सकनेवाले और आत्मविश्वास भरी उनकी बातों में रस लेनेवाले कपटपूर्ण ब्रह्मचारी वेष छोड़ने की शीघ्रता और शिथिलता दोनों को एक साथ अनुभव करनेवाले कामदेव का विनाशक (भगवान शिव) आपलोगों के आनन्द प्रदान करें।

यहाँ भगवान शिव का कपट-वेष छोड़ने की जल्दी और धैर्य (शिथिलता) भावों की संधि का कवि का उनके (भगवान शिव) प्रति भक्तिभाव का अंग होकर अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की अभिव्यक्ति हुई है।

नीचे के श्लोक में भावशबलता की अपरांगता के द्वारा गुणीभूतव्यंग्य दिखाया है। इस शलोक में किसी राजा की स्तुति करते हुए कवि ने जंगल में रहनेवाले शत्रु की कन्या की अवस्था का वर्णन किया है, जो जंगल में फल-फूल चुनने गयी है और वहाँ किसी कामुक व्यक्ति से उसका संम्बन्ध हो गया है। कन्या की उससे कही बातों का वर्णन करते हुए कवि कहता है-

पश्येत्कश्चिच्चल चपल रे का त्वराहं कुमारी

हस्तालम्बं वितर ह ह हा व्युत्क्रमः क्वासि यासि।

इत्थं पृथ्वीपरिवृढ भवद्विद्विषोरण्यवृत्तेः

कन्या कञ्चित् फलककिसलयान्याददानाभिदत्ते।।

अर्थात् (जब कामुक व्यक्ति उस लड़की को एकान्त में पकड़ना चाहता है, तो वह उससे कहती है)- अरे कोई देख लेगा, अरे चपल दूर हट, जल्दी क्या है, मैं क्वारी हूँ, मुझे अपने हाथों का सहारा दो, ह ह हा, यह तो मर्यादा का अतिक्मण है, अरे तुम कहाँ जा रहे हो, हे राजन, आपके डर से जंगल में रहनेवाले आपके शत्रु की कन्या भोजन के लिए फलों और पत्तों को तोड़ती हुई किसी कामुक से इस प्रकार कहती है।

इस श्लोक में कन्या के शंका, असूया, धृति, स्मृति, श्रम, दैन्य, विबोध और औत्सुक्य आठ भावों की शबलता कवि की राजा के प्रति भक्ति-भावना का अंग हो जाने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

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शनिवार, 30 जुलाई 2011

फ़ुरसत में … माई फ़ुट !

फ़ुरसत में

माई फ़ुट !

211622_1700089266_7326004_qमनोज कुमार

तब मेरी उम्र कोई पांच सात साल की रही होगी। गर्मियों के दिन थे। सुबह से ही पेट में दर्द शुरू हुआ। कुछेक घंटो के बाद पेट चलना शुरू हुआ। शाम तक दस्‍त के साथ कै भी होने लगी। आधी रात के बाद तो शायद मेरे होश-हवास भी न रहे होंगे। घर में जो भी प्राथमिक उपचार हुआ हो, रात के आधे पहर से अधिक बीत जाने के बाद जब स्थिति क़ाबू से बाहर हो गई तो हमे सदर अस्‍पताल, मुज़फ़्फ़रपुर ले जाया गया।

IMG_1471बीती रात कौन जगा होता है ? किसी तरह इमर्जेंसी वार्ड के कुछ लोगों को जगाया गया। वहां जो भी डॉक्‍टरनुमा व्यक्ति था उसने मेरी केस हिस्‍ट्री सुनकर सामने की तरफ के वार्ड की तरफ इशारा करते हुए बोला, “वहां भर्ती कर दीजिए।”

उधर झोपड़पट्टीनुमा दो चार कमरे बने थे। उन दिनों एकदम से अलग थलग बने ये वार्ड “कॉलरा वार्ड” कहलाते थे। उनकी खिड़कियों से झांकती पीली टिमटिमाती रोशनी मौत का पैगाम लेकर ही आती थी। शायद ही कोई वहां से दुबारा अपने घर वापस जाता रहा होगा।

डॉक्टर की बातें सुन मेरी मां ने ज़ोर से मुझे अपनी बाहों में भींच लिया और पिताजी को, जो उस वार्ड की तरफ़ चल पड़े थे, चिल्‍ला कर कहा – “नहीं … वहां हम नहीं जाएंगें ! अगर इसको मरना ही है तो घर में ही मरेगा।”

ऐसा ख़ौफ़ था कॉलरा वार्ड का। मां की बात सुन पिजाजी भी ऊहापोह में पड़ गए। डॉक्‍टर इघर हिदायत दे रहा था, “तुरंत पानी चढ़ाना पड़ेगा नहीं तो...!”

पर इस “नहीं तो” की मां को कहां परवाह थी ! वह तो उसी रिक्‍शे पर मुझे गोद में लिए लपक कर बैठ चुकी थी जिससे हम आए थे। मां की वाणी में क्या ओज था, क्या आत्म-विश्वास था, क्या भरोसा था, कि उस पीली रोशनी के दायरे से हमे बाहर ले चली और मां के अंतरआत्मा की आवाज़ सुन और उसकी आंखों की नूर देख कर पिताजी भी आ गए वापस। जैसे पक्षी अपने परकोटे में अपने बच्चे को छुपा कर लाती है वैसे ही मेरी मां मुझे लाई थी और उस दिन को याद कर मुनव्वर राना का यह शे’र मुझे बहुत सही जंचता है

ये  ऐसा  कर्ज़  है  जो मैं  अदा  कर  ही  नहीं  सकता

मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है

लौटते वक़्त रिक्‍शे पर ही तय हुआ कि हम बखरी चलते हैं। वहां हमारे फूफाजी थे। वे उस गांव में रहते थे और चिकित्‍सक थे। शायद आयुर्वेद की शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण की हो। रास्‍ते में ही बस स्‍टैंड था। हम सुबह उजाला होते होते बस से फूफाजी के यहां आ गए।

पता नहीं क्या-क्‍या उपचार मेरा हुआ, पर मुझे याद है कि कोई एलोपैथ की दवा नहीं दी गई थी। अधिकांश चीज़ें घरेलू ही थीं। ... और जो चीज़ सबसे ज़्यादा मुझपर असर की वह फूफाजी के ही स्‍वरों में – “चूरा को इतना फुला दीजिए कि भात जैसा हो जाए और फिर उसमें दही मिलाकर खिलाइए। दोपहर तक ठीक हो जाएगा।”

ऐसा ही हुआ ! शाम तक तो मैं घर के बाहर घूमने लगा, दूसरे दिन खेलने भी। उन दिनों कैसे-कैसे उपचार होते थे और हम ठीक भी हो जाया करते थे। चोट लगी कट फट गया, गेंदे के फूल का पता हाथ में मसल कर लगा देते थे, ठीक हो जाता था, दांत का दर्द हुआ, दो लॉंग खा ली, ठीक हो जाता था, सर्दी हुई - तुलसी का काढ़ा बना कर पी लिया, पेट में दर्द हुआ, आजवायन खा लिया, कान में दर्द होने पर सरसों का तेल डाल लिया, ... ये पत्ती खा लिया, … वो काढ़ा पी लिया ... हम उन्हीं उपचारों से ठीक भी हो जाया करते थे।

याद है मुझे, जब हमें पेट में दर्द होता था, तो नानी पेट पर सरसों तेल लगाकर एक दीपक जला कर रख देती थी और उसके ऊपर कोई लोटा आदि से उसे ढंक देती थी। कुछ देर मे दर्द गायब !

ये प्राकृतिक चिकित्‍सा या घरेलू नुस्‍खें, ये हमारी पद्धतियां थीं। हमारी पारम्परिक पद्धति। आज के बदलते दौर में हम यह सब भूलने लगे हैं। भूलने लगे हैं - और भी बहुत कुछ ...

Spindle-4.jpgस्वस्थ होकर जब फूफाजी के यहां से लौटे तो हमारी परीक्षा शुरू हो चुकी थी। उन दिनों एक पेपर होता था जिसमें हमें हस्‍तकला और स्वच्छता की परीक्षा देनी होती थी। उस दिन परीक्षा में हमें जो काम मिला था, कुछ जंगल आदि साफ करने का। उसे पूरी तन्‍मयता से किया और भरपूर नम्‍बर प्राप्‍त किया। उन दिनों की शिक्षा पद्धति में हमारे समाज आदि की आवश्‍यकताओं को ध्‍यान रखा जाता था। नैतिक शिक्षा और शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य हमारी बुनियादी शिक्षा का आधार था। गृह एवं कुटीर उद्योग की वकालत की जाती थी। मुझे याद है कि एक पीरियड हुआ करता था, जिसमें हम तकली से सूत कातते थे। जिसका जितना अच्छा, पतला और मज़बूत सूत होता था उसे उतने अच्‍छे अंक मिलते थे। आज के विद्यार्थी से तकली के बारे में पूछिए, तो शायद नाम भी न सुना हो उसने, कातना तो दूर की बात है।

DSCN1383हम तकली कातते होते थे तथा आंखो और मन में बापू की तस्‍वीर समाई होती थी। बापू जैसा बनने की सोच विकसित होती थी। इस सूत से, इस धागे से, उस महात्‍मा तक एक बंधन बंधता था। हमें गर्व महसूस होता था। घर में चरखा होता था। महिलाएं चरखा कातती थी। उसके सूत बेचकर कुछ आमदनी भी हो जाया करती थी। चरखा और सूत आत्‍म-सम्‍मान का “प्रतीक”था। कुछ नहीं तो चरखा है ना जी, हाथ में हुनर हो तो हम जीविकोपार्जन कर लेंगे।

“प्रतीक” बहुत बड़ी चीज होती है। तब के नेताओं में हमारे “प्रतीक” थे –पं. नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल कलाम आज़ाद, शास्‍त्री जी और आज कलमाडी साहब, राजा साहब, अमर साहब , येदुरप्‍पा साहब ! तब सूत हमारा आत्‍म विश्वास और आत्‍म सम्‍मान का सूचक था, और आज ...  “माई फ़ुट ...!”

images (53)हां जी, आज सूत की माला पहना दो यही तो कहते हैं – “सूत ... माई फ़ुट !” उससे जूता साफ कर लिया, कचड़े में डाल दिया। न आज गांधी का महत्‍व है और न उन “प्रतीकों” का। आज के युवा “कमीने” फिल्‍म देखते हैं, “डेलही-वेलही” की भाषा बोलते हैं और “ढ़न्न्‌ टनन्‌” गाते हैं। अब मानवीय संवेदना, लोकाचार का नहीं, “गुल्लक तोड़कर टनटनाने” आदि का “प्रतीक” ज्यादा है।

गांधी जी ने वर्षों पहले भांप लिया था कि स्विस बैंक में धन जमा करने वाले नेताओं द्वारा इस देश के करोड़ो बेरोज़गार लोगों के लिए रोज़गार देना उनके बस की बात नहीं होगी। इसलिए वे लोगों को आत्‍मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया करते थे। बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आगे नतमस्‍तक लोगों ने गांधी जी को दफना दिया है, उनके “प्रतीकों” को जूतों की नोक पर रख लिया है। “ग्रामीण विकास” करने वाले ये लोग गांवों में पेप्‍सी-कोला का साम्राज्‍य खड़ा कर उस साम्राज्‍यवादी ताकतों को न्‍योत रहें हैं, जिन्हें गांधी जी ने सत्‍य, अहिंसा और स्‍वदेशी के बल पर देश से खदेड़ा था।

गांधी जी ने देश की समस्‍याओं के समाधान के लिए विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक उपागमों को खारिज नहीं किया, बशर्ते कि वे नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप होते। इसे वे रचनात्‍मक कार्यक्रम कहते थे। लेकिन वे स्‍वदेशी तकनीक को बढ़ावा देते थे, जो अधिकतम लोगों की जरूरत को पूरा करने वाला होता था। उनके प्रचार में चरखे का गौरवपूर्ण स्‍थान था। उनका मानना था कि इससे गरीबों को जीने का साधन मिलेगा और अपने लिए कपड़ा बुनकर वे पैसे बचा सकते हैं। 1919 में उन्‍होंने चरखे का प्रयोग शुरू किया। सबसे अच्‍छे चरखे को 5,000 रूपये इनाम देने की घोषणा हुई। शीघ्र एक साधारण और सुवाह्य चरखा इज़ाद हुआ। गांधीवादी कार्यकर्ताओं ने इन चरखों को बनाने के लिए चंदे इकट्ठा किए। चरखे बनाकर गरीबों में बांटे गए। सूत बुने गए। उन्‍हें हस्‍तकरघा बुनकरों को दिया गया। खादी कपड़ा बना। खादी भंडार खोले गए। स्‍वदेशी वस्तुओं को स्‍वीकारा किया गया और विदेशी का बहिष्‍कार।

DSCN1384गांधी जी कहते थे – मैं भोजन के बिना तो रह लूंगा, मगर चरखे के बिना नहीं रह सकता। जब मैं चरखे पर सूत कातता हूँ, उस समय मुझे गरीब की याद आती है। गांधी जी की मान्‍यता थी कि चरखा कातने में ही देश के लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। इसमें कम पूँजी की भी जरूरत पड़ती है।

गांधी जी ने आर्थिक स्‍वतंत्रता के लिए “स्‍वेदशी” का आह्वान किया। चरखा कातना उसी स्वदेशी का एक दैनिक उदाहरण था, “प्रतीक” था, एक विराट धर्म नीति थी। जिसका उद्देश्‍य मनुष्‍य को मुक्ति देना था। वे “आखिरी आदमी” को अपना लक्ष्‍य मानते थे।

आज गांधी नहीं रहे। उनके मूल्‍य भी एक-एक कर दरकिनार किए जा रहे हैं। सारी दुनियां का परिदृश्‍य हमारे सामने है। विज्ञान की ध्‍वांसात्‍मक तकनीक का अमानवीय रूप, बेशुमार दौलत पाने की अदम्य लिप्‍सा और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का नंगा नाच, हिंसा और आतंकवाद का बोलबाला, लोकतंत्र के हत्‍यारों का वर्चस्‍व,साम्प्रदायिकता, जातिवाद, अशिक्षा, गरीबी, अशांति और शोषण ... सब है हमारे सामने। इन सबके बारे में किसे सोचना है, और वे क्‍यों सोंचें ... हुंह ... माइ फ़ुट !

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

शिवस्वरोदय – 53

शिवस्वरोदय – 53

- आचार्य परशुराम राय

ऋतुस्नाता रता नारी पञ्चमेSह्नि यदा भवेत्।

सूर्यचन्द्रमसोर्योगे सेवनात्पुत्र संभवः।।286।।

भावार्थ – रजस्वला होने के पाँचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्राहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

English Translation – If husband and wife have intercourse on the fifth day from the day menstruation starts and husband has right nostril breathing and wife left nostril breathing at the time, the wife will conceive and will be blessed with a male child.

शङ्खवल्लीं गवां दुग्धे पृथ्व्यापो वहते यदा।

भर्तृरेव वदेद्वाक्ये दर्प देहि त्रिभिर्वचः।।287।।

भावार्थ – स्त्री गाय के दूध के साथ शंखवल्ली (एक प्रकार की बूटी) का सेवन कर प्रवाहित स्वर में पृथ्वी तत्त्व या जल तत्त्व का प्रवाह होने पर अपने पति से तीन बार पुत्र के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

English Translation – First the woman should take Shankhavalli (a kind of creeper with medicinal property) with cow milk and when Prithvi Tattva or Jala Tattva is active in the breath, she should request her husband three times for having a son.

ऋतुस्नाता पिबेन्नारी ऋतुदानं तु योजयेत्।

रूपलावण्यसम्पन्नो नरसिंहः प्रसूयते।।288।।

भावार्थ – ऋतुस्नान के समय यदि स्त्री उपर्युक्त पेय का सेवन करे और रजो-समाप्ति के दिन (रजस्वला होने के पाँचवे दिन) पति के साथ समागम करने पर गर्भधारण होता है तथा वह नरसिंह के समान पुत्र को जन्म देती है।

English Translation – If a woman takes the above drink, i.e. Shankhavalli with cow milk, during menstruation period and have intercourse on the day it ceases (fifth day), she will conceive and blessed with a brave male child.

सुषुम्ना सूर्यवाहेन ऋतुदानं तु योजयेत्।

अङ्गीनः पुमान्यस्तु जायतेSत्र कुविग्रहः।।289।।

भावार्थ – ऋतु-स्नान के पाँचवे दिन यदि स्त्री का सुषुम्ना स्वर का प्रवाह हो और पुरुष के सूर्य स्वर का प्रवाह हो, ऐसे समय में किए गए समागम के परिणाम स्वरूप गर्भाधान से अंगहीन और कुरूप पुत्र उत्पन्न होता है।

English Translation – If a woman have intercourse on the fifth day of her menstruation period during flow of breath through both the nostril and her husband has right nostril breath at the time, she will have an ugly and physically handicapped son.

विषमाङ्के दिवारात्रौ विषमाङ्के दिनाधिपः।

चन्द्रेनेत्राग्नितत्त्वेषु वंध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।290।।

भावार्थ – ऋतु-स्नान के बाद विषम तिथियों को दिन अथवा रात्रि में जब पुरुष का सूर्य स्वर और स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, दोनों का समागम होने पर बन्ध्या स्त्री को भी पुत्र की प्राप्ति होती है।

English Translation – After cessation of menstruation if husband and wife have intercourse on odd dates (according to the lunar month) either during day or night, even a sterile or barren woman will conceive and will be blessed with a son.

ऋत्वारम्भे रविः पुंसां स्त्रीणां च सुधाकरः।

उभयोः सङ्गमे प्राप्तो वन्ध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।291।।

भावार्थ – ऋतु के आरम्भ में स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, ऐसे समय में सहवास करने से बन्ध्या स्त्री को भी पुत्र पैदा होता है।

English Translation – If husband and wife have intercourse on the day of start of menstruation and husband has right nostril breathing and wife left nostril breathing at that time, even a sterile or barren woman will also be blessed with a son.

ऋत्वारम्भे रविः पुंसां शुक्रान्ते च सुधाकरः।

अनेन क्रमयोगेन नादत्ते कामिनीजनः।।292।।

भावार्थ – ऋतु के आरम्भ में सहवास के समय पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो और स्खलन के समय अचानक चन्द्र स्वर प्रारम्भ हो जाय, तो गर्भ-धारण नहीं हो सकता।

English Translation – As a result of intercourse on the first day of menstruation, conception cannot take place if the husband’s right nostril breath is suddenly changed to left nostril at the time of fall.

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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

आँच-78 ..... कविताओं में ढूँढ रहा हूँ .....

समीक्षा

आँच-78 .....

कविताओं में ढूँढ रहा हूँ .....

clip_image002हरीश प्रकाश गुप्त

मेरा फोटोश्री आशीष अवस्थी युवा रचनाकार हैं। वे कानपुर से हैं, बावजूद इसके मेरा उनसे सम्पर्क अभी तक उनके ब्लाग तक ही सीमित रहा है। वे अपने ब्लाग सागर पर प्रायः कविताएं पोस्ट करते रहते हैं। इसी सप्ताह उन्होंने अपने ब्लाग पर अपनी प्रथम काव्य रचना के उद्घोष के साथ एक कविता “कविताओं में ढूँढ रहा हूँ, मैं अपनी कविता को” (लिंक) लगाई थी। युवा कवि की पहली रचना के तथ्य को दृष्टि में रखते हुए जब मैंने कविता पढ़ी तो मुझे कवि में पर्याप्त सम्भावनाएं दिखीं। आशीष जी ने इस कविता में भावभूमि पर गहरे उतरकर शब्द-शृंखला रचने का जो प्रयास किया है, वह प्रशंसनीय है। अतः विचार किया कि इस कविता को आँच पर लिया जाए।

कवियों के प्रारम्भिक दौर में रचनाएं प्रायः व्यक्तिनिष्ठ विचारों से स्फूर्त हुआ करती हैं। अनेकानेक सामाजिक और सांसारिक विकार, विषमताएं और विद्रूपताएं जब युवा मन को आन्दोलित करती हैं, तब आशा की किरण भी प्रकाशित होती है और कदाचित थोड़ी निराशा भी। सुखद अपेक्षाएं एवं आदर्श नियामक की भूमिका में होते हैं। ऊर्जा प्रतिकार करने का अवलम्ब होती है। वह निराशा का त्याग कर अपने कल्पनालोक में जिस चित्र की रचना करता है, उसके केन्द्र में वह अनायास स्वयं ही उपस्थित होता जाता है। धीरे-धीरे कवि की रचनाएं व्यक्तिनिष्ठता के बन्धन से मुक्त होकर सामान्यीकरण की ओर उन्मुख हो जाती हैं। आशीष की यह कविता भी अपनी इस निष्ठा का त्याग नहीं कर पाई है और शीर्षक से शुरू होकर अन्त-पर्यन्त व्यक्तिसूचक सर्वनाम के आश्रय से आबद्ध रही है।

इस लौकिक जगत में व्यक्ति का सामना अनेक प्रकार की स्थितियों, परिस्थितियों से होता है। ये कभी हताशा उपजाती हैं और निरुत्साहित करती हैं, तो कभी जीवन को हर्ष और उल्लास से भर देती हैं। कभी एकान्त की गहराई में ले जाकर तन्हा बनाती हैं, कभी क्षोभ और क्लेशकारी होती हैं, तो कभी अन्तर्मन को असीम आनन्द से सराबोर कर देती हैं। ये कभी सुखकारी होती हैं, तो कभी दुखद और पीड़ादायी। इनकी जनक कभी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ होती हैं, तो कभी सम्बन्ध, रिश्ते और नाते। कभी ये निराशा के ऐसे निविड़ अन्धकार में पहुँचा देती हैं कि कोई राह नहीं सूझती। तब बुद्धि और विवेक भी सहयोग नहीं करते और स्वयं पर भी सन्देह होने लगता है। वहाँ कवि की वेदना सस्वर हो उठती है। आशावान कवि-हृदय हर कठिनाई में भी राह खोजने का प्रयत्न करता दिखता है। आशा उसकी शक्ति होती है और मंगल उसका अभिप्रेत। इसीलिए उसके चित्रों में उद्देश्य भी रहता है और कामना भी। स्वयं की खोज भी होती है और स्वयं से साक्षात्कार भी । अपने निज की तलाश करती आशीष की यह कविता इसी भावभूमि पर रची गई है।

आशीष की निष्ठा आशा है, तभी वह अन्धकार में भी जीवन की आशा करते हैं। जीवन के अन्तिम क्षण में भी सुख की अभिलाषा रखते हैं।

मन के अन्धकार सागर में, जीवन की आशा को।

अन्तिम क्षण में ढूँढ रहा हूँ सुख की अभिलाषा को।

जहाँ मृत्यु सुनिश्चित हो वहाँ पर भी जीतने की कामना करते हैं, जिस पर बैठ मृत्यु रण में, मैं जीत सकूँ उस रथ को।

एकाकीपन में स्वयं को ही खोजते हैं

तन्हाई के कारण खोई, मैं अपनी सुध बुद को।

सच तो ये है मैं अपने में ढूँढ रहा हूँ खुद को।

अपने सपनों को पाने के प्रति अभिलाषा की उनकी पराकाष्ठा है और इसके लिए वह चिरनिद्रा का वरण करने से भी नहीं डिगते।

जीवन के गम भी सो जाए, ऐसी चिर निद्रा को।

वे जब अपनी कविता को ढूँढने की बात कहते हैं तो यह संसारिक भीड़-भाड़ में खो-से गए अपने व्यक्तित्व की तलाश होती है। चिरनिद्रा की कामना खुशियों के बदले अपना सब कुछ न्योछावर करने की है। अश्रु भावना का प्रवाह हैं अतः भावना और पवित्रता के साथ कलुषरहित मन की कामना कवि की निश्छल अपेक्षा है। इस प्रकार कविता में प्रयोग हुए बिम्ब अपनी अर्थवत्ता प्राप्त करते हैं। प्रयुक्त बिम्ब यद्यपि सामान्य हैं लेकिन प्रयोग-सिद्ध हैं और सार्थक हैं। यद्यपि कविता में लय बनाने का सोद्देश्य प्रयास किया गया है, परन्तु गीतात्मकता एकाधिक स्थान पर बाधित हुई है। तीसरी, आठवीं और दसवीं पंक्ति को छोड़कर पूरी कविता में 28-28, एकसमान मात्राएं हैं। पांचवीं पंक्ति में ना के स्थान पर करने से यहां दोष दूर हो जाता है। छठवाँ पद अपना अन्वय खोज रहा है, अतः उस पर कवि का ध्यान आकर्षित है। कविता में कुछ प्रयोग दोष-से दिखते हैं। वे टंकण त्रुटियाँ भी हो सकती हैं तथापि उनकी ओर संकेत करना समीचीन होगा। जैसे – दूसरी पंक्ति में नयनों के जल से पवित्र हो में जल सी होना चाहिए। अन्तिम से पूर्व की पंक्ति में खोई में स्त्रीलिंग का कोई औचित्य नहीं है। इसी पंक्ति में सुध-बुद में सुध-बुध होना चाहिए। संक्षेप में कहना होगा कि गीत के भाव सघन हैं, अतएव शिल्प में थोड़े से प्रयास से इसे उत्कृष्ट रूप प्रदान किया जा सकता है।

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

देसिल बयना -91:जैसी तेरी कमरिया वैसा मेरा गीत





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करण समस्तीपुरी





ग्राम्य-जीवन की बात ही अलाहिदा है। आहा… सकल रास-रंग। जीवन के उमंग…! खास कर फ़ागुन और सावन में गाँव नहीं देखे तो अगिला कौआ जनम। अब का खोल के बतायें… ? बुझिये कि सावन में गाँव का यौबन हरियाता है और फ़ागुन में गदराता है। हरि बोल!



फ़ागुन से गोरिया दिन गिनना शुरु करती है, बलमुआ आता है सावन में। “चढ़ते फ़गुनवा सगुनवा मनावै गोरी, चैता करे रे उपवास… ! गरमी बेसरमी न बेनिया डोलावै मन… डारे सैंय्या गलवा में फ़ांस!’ सही में पावस बरसा कि प्रकृति के यौवन से रस टपकने लगता है।



रेवाखंड के लिये सावन के माने था हर ओर हरियाली। खेतों में लहराये हरी-हरी चुनरी। धान रोपे किसान। धनिया लाए जलपान। अगंराई धरती ले… हरषे आसमान। सावन हमरे रेवाखंड की पहचान। चढ़ते सावन ठकु्रवाड़ी पर लगता था विषहर मेला और इजोरिया पक्ख में झूला… ! ई अलमस्ती ठेका देता था भादो के संक्रान्ति तक।



जैसे झूला में बनरसिया नौटंकी नामी था वैसहि विषहर मेला में विसुनी मिरदंगिया। आहहह…. विसुनिया मिरदंगिया का नाम लेते ही कान में गूंज पड़ते हैं, ’डिगे…. धां…. डिगे….. धां….. धा…. धिन्ना… धिग… तिरकिट धिन्ना…. ! और मिरदंग के ताल पर छम…छम… छम…. छम…. छम… छम…छम….छम…… मटर की छिमरी जैसी मचलती महुआ नट्टिन….!



विसुनी गीत भी गाता था चुन-चुन के, “मोरी कलैय्या सुकुमार हो…. चुभ जा ला कंगनमा…!" उके मजीरची को तो मूछ की रेखा तक नहीं आयी थी मगर मजिरा बजाता था एकदम ताल मिला के और विसुनी के पीछे सुर भी लगाता था लय में। ’झुमका गिरा रे…. बरेली के बाजार…’ वाला गीत पर तो महुआ अंग-अंग तोड़ देती थी। छम… छमा… छम… लगे कि बिजली का नाच है। तीखे नैन-नक्श, छरहरी काया, बकोटा भर की कमरिया जब लौंग की डाली तरह लचकती थी तो चारे तरफ़ आये-हाये…! विसुनी के आगे रेजगारी की ढेर लग जाती थी। बीच-बाच में एकाध मुड़े-तुड़े कागजी नोट भी। कितने लोग तो कहते थे कि महुआ जैसी नचनिया तो बनारस के नौटंकी में भी नहीं है।



साल-दर-साल विसुनी का गीत बदल रहा था। उ साल सुने थे, “मुझे नौलक्खा मंगा दे रे…. ओ सैंय्या दीवाने…!” गदरायी महुआ के नाच में मादकता बढ गयी थी। उसी सावन के बाद गाँव से हमरा दाना-पानी उठ गया।



जीविका का सवाल। ’भूल गये रास-रंग, भूल गये छकरी ! तीन चीज याद रहा नमक-तेल-लकड़ी!!’ बरसों हो गये। बिजली के रोशनी में अंधरिया-इजोरिया क्या बुझायेगा? फिर क्या फ़ागुन क्या सावन? बातानुकुलित कमरे में इंतजार रहने लगा तो सिर्फ़ एक तारीख का।



ई बार मधुस्रावनी के संयोग से महीना दिन का छुट्टी मारके पहुँच गये रेवाखंड। मगर अब गाँवो में उ बात कहाँ? खिलहा चौरी की हरियाली के बदले किसान का ईंट का भट्ठा धुआं उगल रहा था। गाँव में भी औद्योगिक क्रांति हो रही है। जहाँ घच्चर कका मचान लगा के खीरा-लौकी बांटते थे वहाँ मुरगी फ़ारम खुल गया था। बूढा पीपल उजार हो गया था। रामदयाल की फ़ुसही चाय दुकान की जगह कबीरा कोल्ड्रींक स्टोर खुल गया था। शुक्र कहिये कि पुरुब जाने का रस्ता नहीं बदला था नहीं तो वहीं किसी से अपने घर का पता पूछना पड़ता।



घर पहुँच बड़े-बुजुर्ग को पांय लागे। और चल पड़े लुखिया ताई के आंगन। लटोरन भाई से मिलना था। सब कुछ तो बदलिये गया है। विषहर मेला भी लगता है कि नहीं? लटोरन भैय्या कहे, “अरे हाँ… मेला क्या…? बूझो धुआँ का धरोहर। किसी तरह निर्वाह हो रहा है।”



मेला से ज्यादा हमारी जिग्यासा किसी और बात के लिये थी, “और उ विसुनी…!” “हाँ, आता है… मगर अब उ बात नहीं रही।” लटोरन भैय्या बड़ी खींच के बोले थे। “काहे…? महुआ….?” हमारा अगिला प्रश्न था। “महुआ अब मुनक्का होय गयी है….?” “क्या बात करते हैं…?” फिर एक प्रश्न। “बात क्या करेंगे…. छोड़ो न कल देखिये लेना… और बंगलौर का हाल-समाचार कहो।” लटोरन भैय्या ने बात का प्लाट चेंज कर दिया था।



पहर रात तक लटोरने भैय्या कने ज्वार का भूंजा फ़ांक-फ़ांक कर गप्प मारते रहे। चौबनिया आया था घर से बोलाने। रात्रि-भोज के बाद विश्राम। छतदार घर और बाबूजी का सगर्व मस्तक देख कर संतोष तो हुआ था मगर बांस-फूस की कोमलता और शीतलता की जगह लोहा-कंकर का रूखापन और उमस। रात-भर नींद नहीं आयी। खुली आँखों से ही विषहर मेला का सपना देखते रहे। मेला में विसुनी मिरदंगिया भी था और महुआ भी…. बरेली के बजार में….!



अगले दिन सवेरे कलेउ खाकर निकल पड़े। भुट्टा ओझा के बथान पर दो-चार हाथ ताश खेले फिर मजलिस चल पड़ा मेला। लटोरन भैय्या, हम, पचकौरिया, पकौरीलाल, झमना, चौठिया, भकोसन, जुलमी, चमकू, बटेसर…. सब तो था ही। अच्छा लगा…! गाँव में सब कुछ बदल गया था मगर बेरोजगारी के सौजन्य से हमारी बाल-मंडली सलामत थी।



मेला में पहुँचते ही हम सीधे अखारा दिस बढ़ते चले गये। सहसा कान में पड़ा, ’डिगे…. धां…. डिगे….. धां….. धा…. धिन्ना… धिग… तिरकिट धिन्ना…. !’ ओह तोरी के….! विसुनी मिरदंगिया के हाथ में तो अभी तक वही जादू है। कैसे कहते थे लटोरन भैय्या कि अब पहिले वाली बात नहीं रही।” मेरे कदम और तेज हो गये।



गले का टीप थोड़ा आगे निकल आया था और सपाट चेहरे के जगह खिचरिया दाढ़ी IMG0680A_thumb1उगी थी मगर विसुनी को पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। धां…..तिरकिट धिन्न…. ! विसुनी के गरदन के नीचे गड्ढे गहरे हो गये थे। पर महुआ? धीरे-धीरे छम-छम भी शुरु हो गया। ओह… तो यही है महुआ। लौंग की डाली से लीची का पेड़ हो गयी थी। ओ… तो इसीलिये लटोरन भैय्या कह रहे थे।



“सखिया सहेलिया के सैंय्या अलबेला बनबारी हो….! बनबारी हो हमरा के बलमा गँवार….!” विसुनी सुर लगाने की कोशिश कर रहा था मगर नीचे के दो टूटे दांत खेल बिगाड़ रहे थे। महुआ बीच-बीच में छम-छमा तो रही थी मगर गड-मड में वो कसिस कहाँ? विसुनी अनुभवी खिलाड़ी था। खेल का इस्टाइले बदल दिया। जा बढा के स्लो पीच में, “नील गगन की छाँव में…. दिन-रैन गले से मिलते हैं….! दिल पंछी बन उड़ जाता है….. ओ…. ओ…. ओ….आ…आ…आ……!”



गीत तो बढ़िया था मगर उ नाच में जमा नहीं। जो भीड़ कभी अंत तक रेजगारी बरसाती रहती थी धीरे-धीरे खिसकने लगी। हमरे तरह एकाध समर्पित दर्शक रह गये थे। गीत खत्म होने पर मैंने क्ड़क दसटकिया दिया था जेबी से निकालकर मगर महफ़िल की तरह महुआ का मिजाज भी उखड़ गया था। कभी विसुनी के इशारे पर नाचने वाली महुआ उसी के आगे घुंघरु पटककर चीखी, “ई कैसा गीत धरा दिया… सारे लोग चले गए…। लोग नाच देखने आते हैं तुम्हारा राग मल्हार सुनने नहीं। अब बैठ के मिरदंग के बदले अपना माथा पीटो।”



बेचारा विसुनी सकपकाकर बोला, “सिरिफ़ हमैं काहे कोस रही हो…? लोग तो सच्चे नाचे देखने आते हैं… मगर कबो आइना के सामने नाचो तब पता चलेगा। कमरी लचकती थी तो नमरी निकलता था…. ! अब हम का करें….? जैसी तेरी कमरिया वैसा अपना गीत। गीत लहरदारे रहता और महरानी भैंस जैसे डोलती रहती तो नोट बरसता…..! अपना दोष तो देखेगी नहीं और बात करती है।



दस का नोट दोनो के बीच पड़ा मुझे ही घूर रहा था। अपने बाल-सखाओं के साथ मैं भी वापस चल पड़ा। नाच तो नहीं जमा मगर विसुनी की वाणी में आज एक व्यवहारिक दर्शन मिल गया था मुझे। “जैसी तेरी कमरिया वैसा मेरा गीत।” मतलब कि जितनी गलती मेरी उतनी गलती तेरी। सूत्र में कहिये तो साझे की सफ़लता के लिये तारतम्य की बहुत जरूरत होती है।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

भारत और सहिष्णुता-12


भारत और सहिष्णुता-12
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जितेन्द्र त्रिवेदी
अंक-12

      इस अध्‍याय में मेरा यह दिखाने का प्रयत्‍न रहेगा कि जिस वाद-संवाद को बुद्ध ने अपने उपदेशों को कहने का माध्‍यम बनाया आखिर वह किस प्रकार सम्‍पादित होता था? बुद्ध को जब किसी से अपनी बात कहनी होती थी तो कुछ इस तरह वे पहले सामने वाले के व्‍यवहार को गौर से देखने के बाद बोलते थे, जिसका निदर्शन यहां "मज्झिम निकाय" के माध्‍यम के एक "सुत्‍त" से दिया जा रहा है-  ‍

            राजगृह में कुछ "निर्ग्रन्‍थ"(वे साधु जो कि कड़े देह दंडन द्वारा आत्‍म बोध को पाना चाहते थे) खड़े-खड़े तपश्‍चर्या कर रहे थे। तथागत बुद्ध उनके पास जाकर बोले- 'हे बन्‍धुओं, आप अपने शरीर को इस प्रकार कष्‍ट क्‍यों दे रहे हो?' उन निर्ग्रन्‍थों ने जवाब दिया- 'निर्ग्रन्‍थ नाथपुत्‍त सर्वज्ञ हैं। वे कहते हैं कि हमें चलते हुये, खड़े रहते हुये, सोते हुये या जागते हुये हर स्थित में तपश्चर्या करनी चाहिये। वे हमें उपदेश देते हैं कि हे निर्ग्रन्‍थों, तुमने पूर्व-जन्‍म में जो पाप किये हैं उसे इस प्रकार के देह दण्‍ड से जीर्ण करो।  इस प्रकार तप से पूर्वजन्‍म के पापों का नाश होगा और नया पाप न करने से अगले जन्‍म में कर्म क्षय होगा और इससे सारा दुख नष्‍ट होगा।  उनकी ये बातें हमें प्रिय लगती है। इस पर तथागत बोले- हे निर्ग्रन्‍थों! क्‍या आप जानते है कि पूर्व जन्‍म में आप थे या नहीं?'

निर्ग्रन्‍थ-           हम नहीं जानते, हे तथागत! कि पिछले जन्‍म में हम थे या नहीं।
तथागत-          अच्‍छा, क्‍या आप यह जानते हैं कि पूर्व जन्‍म में आपने पाप किया था या नहीं?

निर्ग्रन्‍थ-          वह भी हम नही जानते हे तथागत!
तथागत-          क्‍या आपको यह मालूम है कि आपके कितने् दुख का नाश हुआ है और कितना शेष है?

निर्ग्रन्‍थ-          वह भी हमें नहीं मालूम, हे तथागत!
तथागत-          यदि ये बातें आपको ज्ञात नहीं है तो क्‍या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि आप पिछले जन्‍म में बहेलियों की तरह क्रूरकर्मा थे और इस जन्‍म में उन पापों का नाश करने के लिये तपश्‍चर्या करते है।

निर्ग्रन्‍थ-          आयुष्‍मान गौतम! हम तो बस इतना जानते हैं कि सुख से सुख प्राप्‍त नहीं होता है, दुख से ही सुख प्राप्‍त होता है।
तथागत-           दुख से ही सुख प्राप्‍त होता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, हे निर्ग्रन्‍थों।
निर्ग्रन्‍थ-          ‘हे गौतम! यदि सुख से सुख प्राप्‍त हुआ होता तो बिंबिसार राजा को  आयुष्‍मान गौतम की अपेक्षा अधिक सुख मिला होता।
तथागत        हे निर्ग्रन्‍थों आपने बिना सोचे- समझे यह बात कही है। यहां मैंने           ऐसा तो कुछ कहा ही नहीं कि सुख से सुख मिलता है। यहाँ मैं आपसे इतना ही पूछँगा कि क्‍या बिंबिसार राजा सात दिन तक सीधे बैठकर एक भी शब्‍द मुँह से निकाले बिना एकांत सुख का अनुभव कर सकेगा, सात दिन की बात जाने दो, क्‍या वह एक दिन के लिए भी वह  ऐसे सुख का अनुभव कर सकता है?’
निर्ग्रन्‍थ-          ‘आयुष्‍मान उसके लिये यह संभव नहीं है

तथागत       तो फिर कष्‍ट सहने से ही सुख मिलता होता तो बिंबिसार राजा को भी वह सुख मिलता। इस तरह बुद्ध ने अपनी अनोखी शैली से निर्ग्रन्‍थों को सद्मार्ग कि देह दंडन से दुख का नाश फिजूल की दिमागी जमा खर्ची है।
            बौद्ध धर्म मुख्‍यत: आचार धर्म है। बुद्ध जानते थे कि मनुष्‍य का अच्‍छा या बुरा होना, सुख या दुख पाना उसके कर्म और चरित्र पर निर्भर करता है। उनका प्रखर रूप से मानना था कि आदमी का ध्‍यान इस बात की बजाय कि वह क्‍या जानता है इस बात पर अधिक होना चाहिये कि वह करता क्‍या है। पैगंबर मुहम्‍मद ने भी ऐसा ही कहा है (हे खुदा हमें जानने, समझने, कहने की बनिस्‍पत अमल की तौफीक अता फरमा पैगम्बर मुहम्‍मद)।
      महात्‍मा बुद्ध द्वारा विकसित की गयी इस अनोखी तर्क प्रवीणता के आख्‍यानों से बौद्ध साहित्‍य भरा पड़ा है। किन्‍तु हम यहॉं कुछेक उदाहरण के रूप में ले रहे हैं जिसमें जाति भेद के विरुद्ध बुद्ध को तर्क करते हुए दिखाया गया है। ये वर्णन सुत्‍तनिपात और मज्झिमनिकाय दोनों में ही मिलते हैं।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

नवगीत

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

श्‍यामनारायण मिश्र

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

सूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।

 

दिनभर आकाश से आखें लड़ाकर

शहतीर के नीचे दुबककर सो गई चिडि़या,

आंखों में सतरंगी इन्‍द्रधनुष के अंडे

सपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,

कुंठा के कोबरे-करैतों की

दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।

 

एक ओर घर था एक ओर जंगल

घर को अपनाकर वह परेशान क्‍यों है?

जिसको बेआबरू करके निकाला था

आंखों में अब भी वह मेहमान क्‍यों है?

आघात से अनवरत रिसता है,

इस रंग से जीवन रचाना चाहता हूँ ।

रविवार, 24 जुलाई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 76

भारतीय काव्यशास्त्र – 76

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अगूढ़ गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में इसके दूसरे भेद अपरांग गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की जा रही है। आचार्य मम्मट द्वारा इसकी परिभाषा निम्नलिखित रूप में दी गयी है-

अपरस्य रसादेर्वावाच्यस्य वा वाक्यार्थीभूतस्य अङ्गं रसादि अनुरणनरूपं वा (इति अपराङ्गम्)।

अर्थात् रस आदि अथवा वाक्य का प्रधान अर्थ अन्य वाच्य, रसादि अथवा संलक्ष्यक्रम व्यंग्य का अंग हो जाय, तो वहाँ अपरांग गुणीभूतव्यंग्य होता है। दूसरे शब्दों में जहाँ रस, रसाभास, भाव, भावाभास आदि एक-दूसरे के अंग हो जाँय, वहाँ अपरांग गुणीभूतव्यंग्य होता है।

यहाँ महाभारत की युद्धभूमि में भूरिश्रवा के कटे हाथ को देखकर विलाप करती हुई उसकी पत्नी की करुण उक्ति को उदाहरण के रूप में लिया गया है। यह श्लोक महाभारत के स्त्रीपर्व में आया है। इसमें यह दिखाया गया है कि एक रस के गुणीभूत होकर दूसरे रस का अंग बन जाने से किस प्रकार अपरांग गुणीभूतव्यंग्य हो जाता है-

अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।

नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः।।

अर्थात् यह वही हाथ है जो रशना (करधनी) को खींचा करता था, पीन स्तनों का विमर्दन करता था और नीवी (नारे) के बन्धनों को खोला करता था।

यहाँ अयम् (यह) पद से कटे हाथ की तात्कालिक दशा की ओर संकेत है और सः पद से उत्कृष्ट (संभोग-रत) दशा का स्मरण है। यहाँ शृंगार रस करुण रस का अंग बनकर रह गया है, अर्थात् शृंगार रस गौण हो गया है। अतएव इसमें अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

एक दूसरा उदाहरण लिया जा रहा है जिसमें एक रस गुणीभूत होकर भाव का अंग बन जाता है। इसमें प्रार्थना की गयी है कि माँ पार्वती के नखों की द्युति तुमलोगों की रक्षा करे-

कैलासालयभाललोचनरुचा निर्वर्त्तितालक्तकव्यक्तिः पादनखद्युतिर्गिरिभुवः सा वः सदा त्रायताम्।

स्पर्धाबन्धसमृद्धयेव सुदृढं रूढा यया नेत्रयोः कान्तिः कोकनदानुकारसरसा सद्यः समुत्सार्यते।।

अर्थात् माँ पार्वती के नखों की वह द्युति तुमलोगों की रक्षा करे, जो रूठी हुई माँ पार्वती को मनाने के लिए झुके भगवान शिव के तीसरे नेत्र से निकलने वाली लाल कान्ति से माँ पार्वती के चरणों पर पड़ने से महावर से रंगे प्रतीत हो रहे हैं और माँ पार्वती की क्रोध के कारण लाल आँखों की लालिमा उससे स्पर्धा में पराजित होकर विलुप्त हो गयी है, अर्थात् भगवान शिव को अपने सम्मुख नत देखकर माँ पार्वती का क्रोध दूर हो गया है।

यहाँ भगवान शिव और माँ पार्वती का शृंगार का वर्णन गुणीभूत होकर माँ पार्वती के प्रति भक्ति-भाव का अंग हो गया है। अतएव यहाँ अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।

निम्नलिखित श्लोक में एक भाव का गुणीभूत होकर दूसरे भाव का अंग बनने के कारण अपरांग गुणीभूतव्यंग्य दिखाया गया है। इसमें कवि ने राजा भोज के पराक्रम का वर्णन किया है-

अत्युच्चाः परितः स्फुरन्ति गिरयः स्फारास्तथाम्भोधयः

तानेतानपि बिभ्रती किमपि न क्लान्ताSसि तुभ्यं नमः।

आश्चर्येण मुहुर्मुहुः स्तुतिमिति प्रस्तौमि यावद् भुवः

तावद्विभ्रदिमां स्मृतस्तव भुजो वाचस्ततो मुद्रिताः।।

अर्थात् हे पृथ्वी, चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों, वैसे ही विस्तृत समुद्रों को धारण करते हुए भी आप थकती नहीं, ऐसी धैर्य और साहसवाली (हे पृथ्वी), आपको नमस्कार है। इस प्रकार आश्चर्य-चकित होकर जब मैं बार-बार पृथ्वी की स्तुति कर रहा था तभी इस पृथ्वी को भी धारण करनेवाली आपकी (राजा भोज की) भुजा की याद आ गयी और मेरी वाणी रुक गयी।

यहाँ कवि की माता पृथ्वी के प्रति रति-भाव (रसाभास) राज विषयक रति-भाव (भावाभास) का अंग है। अतएव इसमें अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है, जिसमें रसाभास गुणीभूत होकर भावाभास का अंग हो गया है।

निम्नलिखित श्लोक में रसाभास का गुणीभूत होकर भावाभास का अंग बनने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य दिखाया गया है-

बन्दीकृत्य नृपद्विषां मृगदृशस्ताः पश्यतां प्रेयसां

श्लिष्यन्ति प्रणमन्ति लान्ति परितश्चुम्बन्ति ते सैनिकाः।

अस्माकं सुकृतैर्दृशोर्निपतितोSस्यौचित्यवारान्निधे

विध्वस्ता विपदोSखिलास्तदिति तैः प्रत्यर्थिभिः स्तूयसे।।

अर्थात् हे राजन, आपके सैनिक आपके शत्रुओं की मृगनयनी पत्नियों को बन्दी बनाकर उनके पतियों के सामने उनका आलिंगन करते हैं, प्रणय-निवेदन करते हैं, चारों ओर से पकड़ कर उनका चुम्बन करते हैं, फिर भी उनके पति आपकी स्तुति करते हुए कहते हैं- हे औचित्य के सागर, हमारे पिछले जन्म के पुण्य के प्रताप से हमें आपके दर्शन मिले हैं जिससे हमारी सम्पूर्ण विपत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं।

यहाँ सैनिकों का परस्त्रीविषयक रति शृंगाराभास है जो राजा के प्रति कवि का भक्ति-भाव (भावाभास) का अंग हो गया है। अतएव इस श्लोक में रसाभास का भावाभास का अंग हो जाने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की सृष्टि हुई है।

*****

शनिवार, 23 जुलाई 2011

फ़ुरसत में ... राजघाट से सस्ता साहित्यमंडल तक ...!

फ़ुरसत में ...

राजघाट से सस्ता साहित्यमंडल तक ...!

मनोज कुमार

पिछले दिनों एक जरूरी काम से दिल्‍ली जाना हुआ। सामने प्रश्न था कि काम समाप्‍त हो जाने के बाद बचे समय का कैसे उपयोग किया जाए? तभी मन में ख्‍याल आया कि क्‍यों न कुछ ब्‍लॉगर मित्रों को परेशान किया जाए।

arunpicसबसे पहले अरुण को धरा। छोटा है, छोटे भाई समान – पर वह चैट या मेल में मेरी बीवी को “आंटी” बोलता है। न जाने क्‍यूँ ? कभी मिला नहीं है `उनसे’। फिर भी, यदि कहता है, तो मुझे तो दो ही बात लगती हैं, या तो खुद को बहुत छोटा समझता है या फिर मुझे बड़ा-बूढ़ा दिखाना चाहता है ... जो भी हो, बात मेरी समझ से बाहर है। एक बार मैंने उससे कह ही दिया “इस बात पर तुम्‍हारी आंटी को ऐतराज हो या न हो, उन्‍हें भले आंटी कहते रहो, मुझे अंकल मत कहना, वरना...... !!”

खैर इंडिया गेट के पास से उसको फोन किया और शास्‍त्री भवन के पास मेरे पहुंचने से पहले ही वह सड़क पर हाजिर था। उसको साथ लेने के कई फायदे थे। उनमें से एक यह कि वह बातें बहुत बनाता है और मुझे सुनना अच्‍छा लगता है। ऐसे लोग मुझे विशेष अच्‍छे लगते हैं जो बातों के बीच सुनने वाले के प्रश्‍न, तर्क या उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार नहीं करते और अपनी बात बताते, सुनाते चले जाते हैं। अरुण मुझे अच्‍छा लगता है।

उसकी गप का रथ कहां-कहां दौड़ जाता है, मैं तो कल्‍पना भी नहीं कर सकता। विज्ञापन वर्ल्‍ड से लेकर झोपड़पट्टी तक की खबर रखता है। इसी तरह के आम आदमी पर एक उपन्‍यास भी लिख रहा है “फुटानी चौक” नाम से। … और मल्‍टीप्‍लेक्‍स और रियल स्‍टेट वर्ल्‍ड की भी बात करता ही है। इस दौरान वह जोनाथन स्‍विफ्ट, एप्टिक हे और न जाने किन-किन की चर्चा करता रहा। अंग्रेजी साहित्‍य में अपनी कोई रुचि रही नहीं। … और आपको हो या नहीं, लेकिन अरुण और सलिल जी को आश्चर्य हुआ ही कि मैंने सिडनी शेल्‍डन के अलावा, वह भी दो चार ही, किसी अन्य अंग्रेजी साहित्‍यकार को नहीं पढ़ा है। अब आप कह सकते हैं कि शेल्डन कब से साहित्यकार की श्रेणी में गिने जाने लगे ?

अरुण जब साथ होता है तो दिल्‍ली की सड़कों पर चलने में मुझे कोई चिंता नहीं होती। गली का चप्‍पा-चप्‍पा छाना हुआ है उसका। यह भी राज इस बार उसने खोल ही दिया कि दिल्‍ली में अपने आरम्भिक संघर्ष के दिनों में वह ऐसा काम करता था कि उसे हर गली, मुहल्‍ला घूमना पड़ता था। उसके उन दिनों के अनुभव मुझे अब काम आते हैं।

मुझे राजघाट और गांधी संग्रहालय जाना था ताकि बापू के आशीष के साथ उनका कुछ साहित्य भी मिल जाए पढ़ने को। गया तो था इसी उद्देश्य से, पर हाय री क़िस्‍मत, … हमने इस बात का ध्‍यान ही नहीं दिया कि सोमवार को यहां अवकाश होता है। गांधीजी सोमवार को मौन रखते थे।

लौटते समय हम मौन थे।

अब लगा की सलिल जी को भी छेड़ ही आउँ। ... साथ में छोटा भाई तो है ही, बड़े भाई का अशीर्वाद भी ले लिया जाए। फोन से पूछा, “फ्री हैं...?”

70685_100001232891929_1748183_nसलिल भाई कहने लगे, “कितना समय लोगे … ?”

मैंने कहा, “यह तो आपके आशीर्वाद पर निर्भर करता है ... जितना बड़ा आशीर्वाद देंगे उतना ....”

हमारे धमकते ही लपक कर उसी ताजगी से मिले जैसे वे प्रायः दिखते हैं और दफ्तर के सारे काग़जातों को उन्होंने ऐसे किनारा लगाया कि बेचारे टेबुल पर से गिरते-गिरते बचे।

हमारे बैठते ही शीतल पेय हाजिर था। शीतल पेय का त्वरित गति से हाज़िर हो जाना हमें चौंका नहीं पाया। ... बड़े आराम से बैठे हम समझ रहे थे कि यह एक संकेत था कि आज आशीर्वाद और सान्निध्य सीमित समय के लिए ही है। हम तो अधिकांश समय मौन श्रोता की भूमिका निभाते रहे ... पर एक वक्ता के तौर पर सलिल जी सदैव हमें न सिर्फ़ प्रभावित करते रहे हैं बल्कि उनको सुनना अच्छा लगता रहा है। उनमें एक अच्छे स्क्रिप्टराइटर और मंचीय अभिनेता के गुण के साक्षात दर्शन हो रहे थे। सलिल जी तो ज्ञान का भंडार है। कौन सा ऐसा विषय है जिस पर वो धारा प्रवाह नहीं बोल सकते। जिस तरह उनकी लेखनी संवेदना से ओत-प्रोत होती है … वाणी भी उसी भावना की मिठास लिए। जेम्‍स हेडली चेज को पढ़कर बड़े हुए सलिल जी आज भी जासूसी निगाह से मन की बात पढ़ लेते हैं … तो सुदर्शन फाकीर के शेर में ताजा-तरीन स्थितियों का साम्‍य भी ढूंढ लेते हैं। अधिक कोशिश न करते हुए भी हमें उनका पर्याप्‍त आशीर्वाद मिला और जब रुखसत हुए तो वो हमें सड़क तक छोड़ने भी आए।

अब जहां तीन ब्‍लॉगर हों तो सड़क भी ब्‍लॉगर मीट का स्‍थल बन ही जाती है, भला हो इन्द्र देवता का कि थोड़ी राहत थी, वर्ना ब्‍लॉग जगत की गर्मी दिल्‍ली की गर्मी के सामने पानी भरने लगती है। वहां खड़े राव स्‍टडी सर्कल पर मेरी निगाह गई और सलिल जी ने कन्‍फर्म किया कि यही वह जगह है जहां हम अर्थाभाव के कारण अपने ‘उन’ दिनों में न आ पाए पर हसरत बहुत थी। हां, उन्‍होंने जो ट्रेडमार्क बताया वहां पढ़ने वालों का, उसका एक नजारा प्रत्‍यक्षं किम्‌ प्रमाणं की तरह मिल ही गया कि यहां जब गुजरती लड़की के हाथ में सिगरेट देख लीजिए तो समझ जाइए कि इसी स्‍टडी सर्किल की है। हमें हमारे IAS Coaching Institute East & West Academy पटना के दिन याद आ गए जब क्‍लास में सिगरेट स्‍टूडेंट और टीचर साथ-साथ पिया करते थे और हम मुजफ्फरपुर जैसे छोटी जगह के लोग आश्‍चर्य से मुंह फाड़े देखा करते थे ।

वहीं से 150 मीटर की दूरी पर स्थित मेरा अगला पड़ाव था ... सस्‍ता साहित्‍य मंडल। अरुण साथ था। हम पैदल बढ़ लिए। बड़े भाई अपने आशीर्वाद की पोटली लिए देर तक हमें जाते देखते रहे।

गांधी जी के आशीर्वाद से 1925 में इस मंडल की स्थापना हुई थी, ताकि हिन्दी में उच्च-स्तरीय साहित्य को बिना किसी फ़ायदे के आम जन तक सस्ती मूल्य की पुस्तकें पहुंचाई जाएं। इसके लिए आरंभिक फंड के रूप में “तिलक स्वराज्य फंड” से 25,000 रुपये मिले थे। गांधी जी के ऊपर सैंकड़ो पुस्तकें यहां से प्रकाशित हो चुकी हैं और गांधी जी के कई बहुत ही क़रीबी, जैसे घनश्याम दास बिड़ला, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जमनालाल बजाज, देवदास गांधी जैसे व्यक्तित्व इस सोसाइटी के फाउंडर मेम्बर थे। सस्‍ता साहित्‍य मंडल को अपने पुननिर्माण की दौड़ से गुजरता देख अरुण हतोत्‍साहित हुआ, पर मेरे लिए तो यह खजाना मिलने के समान था। वहां उपस्थित लोगों ने मेरा भरपूर साथ दिया और कहा आप कलकत्‍ते से हमारी पुस्‍तक लेने आए हैं तो हम देंगे जरूर … बस्स, आप ढूँढ लीजिए। बगल के स्‍टोरनुमा रूम में सारी पुस्‍तक गड्-मड्ड पड़ी थीं। बहुत दिनों से धनश्‍यामदास बिड़ला की लिखी पुस्‍तक “बापू” ढूँढ रहा था। गांधी जी तो अंधेरे में चमकने वाले व्‍यक्तित्‍व हैं, उनका साहित्‍य उस धूल और अंधेरे के बीच भी चमक रहा था। मैंने जी-भर कर गांधी साहित्‍य की कुछ पुस्‍तकें उठाईं। सस्‍ता साहित्‍य मंडल की स्‍थापना इसी उद्देश्‍य से ही तो हुई थी।

clip_image004उन्‍हीं पुस्‍तकों के पास मेरी नज़र “गदर की चिनगारियाँ” पर पड़ी। कुछ न कुछ जानी पहचानी सी लगी। उसे उठाया तब रचयिता के नाम पर नजर पड़ी। मुंह से निकला ... ‘अरे यह तो ब्‍लॉगर हैं – डॉ शरद सिंह..’ ...

मेरी पुस्‍तकों की थैली में वह पुस्‍तक भी आ गई। शरद जी को तो मैं लगभग उन्‍हीं दिनों से फॉलो कर रहा हूँ जबसे उन्‍होंने ब्‍लॉग लिखना शुरू ही किया था। उनके सारे ब्लॉग ज्ञान का भंडार हैं। खुद भी कम ज्ञानी नहीं। स्त्री विमर्श पर कई उपन्यास लिख चुकी हैं, काव्य संग्रह, खजुराहो और इतिहास पर पुस्तकें, धर्म, आदिवासियों की समस्या पर पुस्तकें, और न जाने क्‍या क्‍या... कितना कुछ। टीवी, रेडियो, चलचित्र यूनिसेफ़ ... धारावाहिक, पटकथा लेखन ...सब जगह उन्‍होंने अपनी धाक जमाई हुई है। समाज सेवा से भी जुड़ी हैं। उनकी अनेक किताबें और रचनाएं …  ज्‍यों ज्‍यों पढ़ता हूँ … उनके सामने नतमस्‍तक होता जाता हूँ।

‘गदर की चिनगारियाँ’ का अध्‍ययन चल रहा है । सोचा इस पर पुस्‍तक चर्चा लिख कर “आँच” पर डालूँ। शरद जी का ई-मेल आईडी उनके प्रोफाइल पर है नहीं और टिप्‍पणी बॉक्‍स में जाकर यह सब लिखना मुझे उचित नहीं लगता। ... और बिना सहमति के आँच पर हम चर्चा कर नहीं सकते। शायद इस पोस्‍ट के माध्‍यम से उन तक मेरी बात पहुँचे और अगर मेरे प्रस्‍ताव पर उनकी सहमति हुई तो “गदर की चिनगारियाँ” पर कुछ चर्चा होगी अगले किसी अंक में ..........

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

शिवस्वरोदय – 52

शिवस्वरोदय – 52

आचार्य परशुराम राय

इन श्लोकों में वशीकरण के तरीके बताए गए हैं। इनपर लिखते समय यह विचार आया कि इसे छोड़ दिया जाय, पर ऐसा करने से यह अधूरा रह जाता जो अनुचित होता। श्लोक संख्या 285 तक स्त्रियों को वश में करने के तरीके बताए गए हैं और श्लोक संख्या 286 से 300 तक गर्भाधान के तरीके बताए गए हैं। यदि इसे पढ़कर पाठकों को अन्यथा लगता है, तो उसके लिए मैं क्षमा माँगता हूँ।

शिव आलिङ्ग्यते शक्त्या प्रसङ्गे दक्षिणेSपि वा।

तत्क्षणाद्दापयेद्यस्तु मोहयेत्कामिनीशतम्।।281।।

भावार्थ – संभोग के समय यदि स्त्री का चन्द्र स्वर और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो और दोनों के स्वर परस्पर संयुक्त हो जायँ, तो पुरुष को सौ स्त्रियों को वश में करने की शक्ति मिल जाती है।

English Translation – While going for intercourse if left nostril of the woman and right nostril of the man are active and the breath of both comes into contact, the man acquires the power to have command on hundred women.

सप्त नव त्रयः पञ्च वारान्सङ्गस्तु सूर्यभे।

चन्द्रे द्विचतुःषट्कृत्वा वश्या भवति कामिनी।।282।।

भावार्थ – सूर्य स्वर के प्रवाह काल में यदि पुरुष का किसी स्त्री के साथ पाँच बार, सात बार या नौ बार संयोग हो अथवा चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में दो बार, चार बार या छः बार संयोग हो, तो वह स्त्री सदा के लिए उस पुरुष के वश में होती है।

English Translation - At the time when right nostril of a man is active and if he has intercourse with a lady five times, seven times or nine times or when left nostril is active and if he do two times, four times or six times, the woman will come under his command forever.

सूर्यचन्द्रौ समाकृष्य सर्वाक्रान्त्याSधरोठयोः।

महापद्म मुखं स्पृष्ट्वा बारम्बारमिदं चरेत्।।283।।

भावार्थ – पुरुष के सूर्य स्वर तथा चन्द्र स्वर सम हों, तो उस समय पुरुष को अपनी साँस अन्दर खींचकर अपना पूरा ध्यान स्त्री के निचले होठ पर केन्द्रित करना चाहिए और जैसे ही सूर्य स्वर प्रधान हो, स्त्री के चेहरे को बार-बार स्पर्श करना चाहिए।

English Translation – When breath of a man flows through both the nostril and he concentrates his mind on the lower lip of the woman by holding the breath in and as his only right nostril becomes fully active, he should touch her face repeatedly.

आप्राणामिति पद्मस्य यावन्निद्रावशं गता।

पश्चाज्जागृति वेलायां चोष्यते गलचक्षुषी।।284।।

भावार्थ – जब स्त्री गहरी निद्रा में सो रही हो, उस समय पुरुष को उसके होठों को बार-बार उसके जगने तक चुम्बन करना चाहिए और उसके बाद उसके नेत्रों और गरदन का चुम्बन करना चाहिए।

English Translation – At the time when the woman is sleeping in deep sleep, the man should kiss her lips till she awakes and thereafter he should kiss her eyes and neck.

अनेन विधिना कामी वशयेत्सर्वकामिनीः।

इदं न वाच्यमस्मिन्नित्याज्ञा परमेश्वरि।।285।।

भावार्थ – हे पार्वती, इस प्रकार प्रेमी समस्त कामिनियों को अपने वश में कर सकता है। स्त्रियों को वश में करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

English Translation – O Goddess Parvati, in these ways a lovers can have command over their partners. There is no other way to have command over women, except what were told.

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गुरुवार, 21 जुलाई 2011

आँच-78 .....मन तो चाहे अम्बर छूना...

समीक्षा

आँच-78

मन तो चाहे अम्बर छूना...

clip_image002हरीश प्रकाश गुप्त

विगत सप्ताह “छान्दसिक अनुगायन” ब्लाग पर पुनः जाने का संयोग बना तो एक छोटे से गीत “मन तो चाहे अम्बर छूना...” तथा एक गजल के माध्यम से एक कवयित्री, मेरे लिए नई हैं, से परिचय हुआ। उनकी दोनों रचनाएं बहुत सधे ढंग से सरल शब्दों में अभिव्यक्त हुई हैं और संवेदना जगाती हैं। पेशे से शिक्षिका यह कवयित्री हैं मधु शुक्ला। मूल रूप से उत्तरप्रदेश की निवासी यह कवयित्री सम्प्रति व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते भोपाल में वास करती हैं। साहित्य उनके अध्ययन का विषय रहा है परन्तु यह उनका अध्यवसाय भी है। आज के आँच स्तम्भ में उनके इसी परिचय गीत पर चर्चा अभिप्रेत है। यह गीत उक्त ब्लाग पर इसी 13 जुलाई को प्रकाशित हुआ था।

हर एक व्यक्ति को स्थितियों-परिस्थितियों से अवश्य जूझना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है। कठिनाइयाँ जीवन की राह दुष्कर बनाती है। लेकिन जिसके अन्दर इन कठिनाइयों का सामना करने का साहस है, विषमताओं में जकड़े होने के बावजूद उसका ध्येय हमेशा उसकी मंजिल बना रहता है। व्यक्ति के व्यवहार में दो तत्वों की प्रधानता होती है- बुद्धि-तत्व की और हृदय-तत्व की। जीवन की वास्तविकताओं के संघर्ष का नेतृत्व बुद्धि-तत्व करता है जबकि हृदय-तत्व कल्पना लोक की उड़ान का। यह आभासी है। यह कभी सुखद आकाश में विचरण कराता है तो कभी अवसाद के गहन विवर में भी पहुंचा देता है। मन तो मुक्त है। मन की चाहत अनन्त है। जिसने संघर्षों से पार पाने की ठान ली हो तो उसकी चाहना शिखर को छूने की ही होगी। भले ही वास्तविकता उसे स्वीकार करे अथवा न करे। परछाईं तो वास्तविकता है और हर पल की साक्षी भी अतः उसका प्रेक्षण भी यथार्थ होगा। मन तो चाहे अम्बर छूना, पांव धंसे हैं खाई। दूर खड़ी हँसती है मुझ पर, मेरी ही परछाई। यही मन व्यक्ति को कभी-कभी जीवन के कठोर यथार्थ से दूर ले जाकर आभासी सुख देने वाली दुनिया में ले जाता है, जहाँ उसे सब कुछ अपेक्षित मिलता है। यहाँ तक कि जिस यथार्थ का साक्षी वह स्वयं रहा होता है, वह भी वहाँ ध्वनित नहीं होता क्योंकि वहाँ वह अपेक्षित नहीं है। लेकिन यह सब आभासी दुनिया में ही है, वास्तविक दुनिया में तो एक छलावा है, कंचन मृग की तरह, जो आकर्षित तो करता है लेकिन वास्तव में उसका अस्तित्व नहीं है। ये चाहतें मरीचिका की भाँति आकर्षक दिखती हैं और इन्हें पाने की लालसा भटकाती भी हैं। तब यह और दुष्कर हो जाता है जब मन को तोष देने वाला विश्वास भी अब साथ छोड़ देता है। इच्छाओं का कंचन मृग , किस वन में भटक गया। बतियाता था जो मुझसे, वह दर्पण चटक गया। अपने ही स्वर अब कानों को , देते नहीं सुनाई। परिवर्तन की बयार में सम्बन्धों का क्षरण हुआ है और अविश्वास उपजा है। सामाजिक बदलाव के इस दौर में सम्बन्धों के मायने भी बदले हैं, सरसता क्षीण हुई है। आपसी विश्वास अविश्विसनीय बन चुका है और यह सब एक यथार्थ है। जैसे-जैसे इन सम्बन्धों की वास्तविकता पर्त दर पर्त खुलती है, सम्बन्ध टूटते जाते हैं। यहाँ तक कि अपने भरसक प्रयासों के बावजूद स्वयं पर से भी विश्वास डिग जाता है। विश्वासों की पर्त खुली तो, चलती चली गयी। सम्बन्धों की बखिया, स्वयं उघड़ती चली गयी। चूर हुए हम स्थितियों से , करके हाथापाई। समाज की दशा से जो अंधकार आच्छादित है उसमें अब आशा की किरण भी नहीं दिखती और इससे कवयित्री व्यथित है। राह कठिन है, लेकिन कुछ हासिल करने के प्रयासों के बावजूद निराशा व्याप्त है और कवयित्री सफलता के प्रति ईषत सशंकित भी है। परिवर्तन की जाने कैसी , उल्टी हवा चली। धुआँ -धुआँ हो गयी दिशाएं , सूझे नहीं गली। जमी हुई हर पगडंडी पर, दुविधाओं की काई |

इसी भाव-भूमि पर विरचित यह गीत प्रगति की ओर अग्रसर आधुनिक समाज का प्रतिबिम्ब है, जिसमें विषमताएं है, जीवन संघर्ष भी हैं और यथार्थ भी है। कवयित्री ने बहुत ही सरल शब्दों में सरस गीत की रचना की है। गीत के भाव सघन है, स्वर जन सामान्य का और क्षेत्र व्यापक। क्योंकि आम जीवन इन्हीं तरह के संघर्षों की व्यथा कथा होता है। हमें अपने समाज में ऐसी ही परिस्थितियां चहुँदिश दिखाई पड़ती हैं। इसीलिए यह गीत व्यक्तिनिष्ठता से ऊपर उटकर आम जन की अभिव्यक्ति सा प्रतीत होता है।

गीत के शिल्प पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि एक-आध स्थानों को छोड़कर कवयित्री की सजग दृष्टि इस गीत पर आद्योपांत रही है। गीत में प्राजंलता पूर्णरूपेण दर्शनीय है। भले ही कवयित्री ने मात्राओं पर विशेष ध्यान दिया हो अथवा नहीं, पंक्तियों को यदि युग्म में देखा जाए तो एक स्थान पर – दूसरे पद की तीसरे पंक्ति-युग्म में दो मात्राओं की कमी है – को छोड़कर यह गीत मात्राओं की कसौटी पर भी सफल है। प्रत्येक पद के पहले दो पंक्ति-युग्म 26-26 मात्राओं के हैं तथा अंतिम युग्म में व पहले पद के दोनों युग्मों में 28-28 मात्राएं हैं। मात्राओं की यही एकरूपता गीत को प्रवाहमान बनाती है। तीसरे पद की दूसरी पंक्ति में चलती शब्द प्रसंग में अनुपयुक्त लगता है और प्रभावी अर्थ नहीं देता। यदि इसके स्थान पर खुलती होता तो शायद अधिक आकर्षक प्रतीत होता। यह टंकण त्रुटि भी हो सकती है। गीत में प्रयुक्त बिम्ब जमी हुई हर पगडंडी पर, दुविधाओं की काई नया सा लगता है। हालाकि अन्य बिम्ब भले ही नवीन न हों लेकिन भाषा में ताजगी है और अर्थपूर्ण प्रयोग इन्हें आकर्षक बनाते हैं। यह छोटा सा गीत कवयित्री में सम्भावनाओं का संकेत भर है।

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बुधवार, 20 जुलाई 2011

देसिल बयना – 90 : आपहि टांग उघारिये, आपहि मरिये लाज

देसिल बयना 90 : आपहि टांग उघारिये, आपहि मरिये लाज

करण समस्तीपुरी

“आग लगावे पानी में ई नयकी दुल्हनिया…. गुलटेनमा कक्का हो…. हमर बचबा के जननिया…. गुलटेनमा कक्का हो…. हमर बचबा के जननिया….. !” आन दिन भोरे-भोर भकोसन चचा पराती गाते थे मगर आज सांझ में काहे सोहर उठा दिये?

हमरे घर के पजरिये में रहते थे। जात-बिरादरी का जानें मगर तीन पुश्त से दोस्ती-यारी चला आ रहा था दोनो परिवार में। भकोसन चच्चा के सगे गुलटेन कक्का से हमरे बाबा की दोस्ती थी। भकोसन चच्चा से बाबूजी की दाँतकटी रोटी और उनका बेटा मंगरुआ हमरा लंगौटिया यार। ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे…. तोड़ेंगे दम मगर तेरा साथ ना छोड़ेंगे….! मगर मंगरुआ निकला चुप्पा-बदमाश। ससुर जुआनी के देहरी पर पैर रखते ही साथ छोड़ दिया।

लड़िकपन में केतना मार खाये…. मगर दोनो शीत-बसंत का जोड़ी टूटा नहीं। गिल्ली-डंडा, कबड्डी, डोल-पत्ता…. बुद्धन बुढौ को चिढ़ाना, कोठी पर वाला महंथ के गाछी से आम का टीकोला तोड़ना, देसुआ वला के खेत से मकई का बाल… पाप-पुण सब में सहभागी। पदुम लाल गुरुजी के इस्कुल से लेकर पुरना कौलेज तक पहुँच गये ऐसहि हाथ में हाथ दिये। हम तो वैसे ही सिकिया पहलवान रह गये मगर मंगरुआ मिसरिया बाबा के अखारा पर दंड पेल के बाँह-पुट्ठा बना लिया था। जुल्फ़ी भी कटिनगर कटाता था। साइकिल हांकते-हांकते अगिला चक्का उठा देता था। क्या मजाल कि खेती-गिरहस्थी में हाथ लगाये…? हर घड़ी फ़ुलपैंट में हवाई-शाट कोंच के चमरौधा बेल्ट कसे रहता था। कहता था कि बंबई जाकर सनीमा का हीरो बनेगा।

अदरा नछत्तर चढ़ते झमझमा के बरसा था। किसान-गिरहस्थ सब के चेहरे पे चमक आ गयी थी। टुन-टुनुन-टुन…टुन…. भोर से लेकर पहर सांझ तक बरखा रानी के छम-छम पर जब बैलों के गले की घंटी ताल मिलाती थी बरबस पुरबैय्या का आंचल उड़ने लगता था। खेत की मेड़ों से फूटते थे पंचम स्वर….



“सावन के बरसे बदरिया हो…. धान रोपे किसान… !

गोरिया के भींगे धानी चुनरिया…. बलमा लगावे छतरिया हो …

धान रोपे किसान….!!”



ऐसने ताक के समय में भकोसन चचा को जाना पड़ा शहर दरिभंगा। कहचरी का काम था। मंगरुआ को कह गये थे झिंगुरदास और कोकैय्या को लेकर काली चौरी से तुलसीफ़ुल का बिचरा उखरबा कर डोरा में रोपवा देने। मगर मंगरुआ पर तो हीरोगिरी का भूत चढ़ा हुआ था। उ भला कादो-कीचर में जायेगा। दो दिन बाद भकोसन चचा आये। सबसे पहिले चच्ची से धनरोपनी का ही समाचार पूछे। चच्ची तो अपना भरसक हल्के-फुल्के कही थी मगर चचा के कान के केश का गुच्छा एकदम खड़ा हो गया। आँखें लाल और भौंह फरफराने लगी, “आज आने दो ई करमकीट को… मार-मार के सारा हिरोपनी पछुआरे से निकालते हैं।”

हम दोनों एक पहर रात ढले अखारा पर से आये थे। उ अपने घर गया और हम अपने। अब पता नहीं रात में क्या हुआ मगर धमा-धम की आवाज तो आई थी एकाध दफ़े। अगले दिन मंगरुआ नजर नहीं आया। हम भी सहम के कहीं नहीं निकले। दोपहर में चच्ची आयी मंगरुआ को खोजने तो हमैं अचरज लगा…. आज तक तो उ हमैं छोड़ के कहीं गया नहीं…. हमें घर में देख चच्ची का भी अंदेशा बढ़े लगा और हम भी सोच में पड़ गये।

फिर सौ ओझाई-गोसाईं, मन्नत-कबुला हुआ। पंदरहिया बीत गया मगर मंगरुआ का कौनो समाचार नहीं। भकोसन चच्चा पश्चाताप में जले जा रहे थे और चच्ची तो बिछौने पकड़ ली थी।

उ दिन टोले में चिट्ठी बाबू को दोपहरिया में देखकर सब अपने-अपने घर से निकल आये थे। चिट्ठी बाबू भकोसन चचा का नाम पुकार कर कहे, “बंबई से बैरंग आया है।” सब लोग चिट्ठी बाबू को गोल-गंडा घेर लिया था। जरूर मंगरुए का तार होगा।

दोहाई बाबा विश्वनाथ के! सच्चे मंगरुए का तार था। चिट्ठी बाबू को अठन्नी थमा कर बैरंग भकोसन चच्चा हमरे तरफ़ सरका दिये। चोटबा अंगरेजी में हिन्दी लिखा था,



“बाबूजी को मालुम कि हम बंबई पहुँच गये। सब बात समाचार तो ठीक है मगर इहाँ तो अपना गाँव से भी ज्यादा गरीबी है। अच्छे-अच्छे घर की बहू-बेटियों को भी पहनने के लिये पूरे कपड़े नहीं मिल रहे हैं। बाबूजी को मालुम कि गाँव भर में चंदा करके सौ-पचास साड़ी भेजवा दीजिये। हम इहां बंटवा देंगे। और कौनो चिंता फिकिर का बात नहीं है।”



हा… हा… हा…. ! चिट्ठी सुनके उहाँ मौजूद सकल सभा की हंसी छूट गयी। भकोसन चचा गमछी के छोड़ से आँखों का कोर पोछने लगे। चच्ची तो चिट्ठी हमरे हाथ से लेकर कलेजा में सटा ली थी। उ दिन पहिल बार हमैं मंगरुआ से इर्ष्या हो रही थी।

पता नहीं भकोसन चचा साड़ी-उड़ी भेजाए कि नहीं मगर ऐसहि साल-दो साल तक चिट्ठी-पत्री आते रहा। होली-दिवाली में मनिआटर भी आता था। अचानक पंद्रह दिन पहिले गाँव में एगो मोटर हरहराते हुए आया और पेंपेंप…पेंपेंप करते हुए सीधा भकोसन चचा के दरवाजे जा लगा। बच्चा-बूढ़ा जर-जनानी सब मोटर को घेर लिहिस। शायद एमपी-कलस्टर आये होंगे। कहीं राशन काट बंटेगा।

images (4)ओह तोरी के…. ! ई तो मंगरुआ निकल रहा है मोटर से। अरे बाप रे… अब तो और गवरु जवान हो गया है। कोट पैंट पहिर के आया है। सब और करीब हो गया। भकोसन चच्चा तो कहीं बाहेर गये हुए थे। चच्ची भीड़ को चीर कर बढ़ी। मंगरुआ माय के पैर छूता उसे पहिले ही उ उको पकड़ के रोने लगी। हम भी अपने दरवाजे पर से गमछे लपेटे भागे। मंगरुआ मोटर के पछारी से बक्सा-पेटी निकाल रहा था। हमें देखकर सरपट लिपट गया। उ तो दो मिनिट के बाद उका कुछ याद आया तो मोटर का दहिना तरफ़ वाला दरवाजा खोला। आहि रे दैय्या…. ! ई मंगरुआ तो दुल्हिन लेके आया है… उ भी एकदम अंगरेजी मेम।

चच्ची तो सकदम रह गयी। केहु गया भकोसन चच्चा को समाद कहे। इधर उहाँ बेगर न्योत-हकार के जुटी महिला मंडली दुल्हिन के स्वागत का गीत शुरु कर दी। आनन-फ़ानन में दुल्हिन को साड़ी ओढ़ाकर आंगन ले जाया गया। बाद में चच्चा भी आये। दोनो प्राणी के चेहरे पर असंतोष तो था मगर बरसों बाद बेटे के आने की खुशी और फिर कहीं खो न जाने का डर ने हालात से समझौता करा दिया था।

एकाध दिन तो गुजरा मगर उ बम्बैया दुल्हिन कोहबर में केतना दिन रहे? अंगना देहरी, द्वार-दरवाजा सब आने-जाने लगी। फिर कुछ दिन में साड़ी कट के सलवार-फ़्राक हो गया। फिर घंघरी-कुर्ता। उ दिन तो और हद होय गया। उ मंगरुआ वाला बेल-बटम पहिन के लफ़्फ़-राइट करने लगी। मरद-मानुस मुरी घुमा के निकल जायें तो औरत जात मुँह पर अंचरा रख के हंसे… लड़िका-बच्चा सब तो आगे-पीछे डोलने ही लगा। भकोसन चचा खेत से लौट रहे थे। इ दिरिस देख के सो भकचोंधर लगा कि सांझे सोहर उठा दिये, “आग लगावे पानी में ई नयकी दुल्हिनिया…. !”

उन दिनों टोला में दुइए गप्प था। एक स्थल पर का सावनी मेला और दूसरा मंगरुआ की लुगाई का करतब। पहिल सोमवारी का सारा तैय्यारी हो गया था। ई दफ़े मंगरुआ कस के चंदा भी दिया था और मेला के सजावट में भी जी-जान से लगा रहा। दुकान दौड़ी सब लग गया था। खेल-तमाशा भी।

चच्ची बहुरिया से बोलीं, “आज सब कनिया-पुतरिया मेला जा रही हैं। तुम भी चाहो तो साथ में चली जाओ…!”

बहुरिया तो पहिलहि से डोला फ़नाई हुई थी जानेको। चच्ची कहती चाहे नहीं कहती। अब जब ससुरिया का औडर भी मिल गया तो लगी नख-शिख सिंगार करे। बड़की भौजी बता रही थी कि उ बम्बैया बहू तो कजरा-गजरा के बाद छः बार डरेसे बदली। खने ई घंघरी तो खने उ घंघरी।

आखिर घंटा भर के मेहनत के बाद जौन पहिर के तैय्यार हुई उ तो लगता था कि उके छ्ट्ठी का कपड़ा ही होगा। बेचारी घंघरी घुठने तक भी नहीं पहुँची। बहुरिया वही पहिन के मेला जाने को तैय्यार। चच्ची इन्डायरेट बोली भी मगर बहुरिया तो अपने में मगन। चल पड़ी।

अब लोग मेला क्या देखेगा…? यही को देखे। बेचारी जिधरे जाये उधरे मेला… ! अब उको कुछ उकठ लगने लगा था। फिर भी अब का करे…. मौडर्न फ़ैशन है। अब गाँव-समाज में न भल-मानुस बहिन-बेटी के नाता लगा कर मुरी झुका लेते थे। मेला-ठेला में तो बुझले बात। दस गाँव का दस किसिम का लोग? कौन लुच्चा कौन लफ़ंगा… केहु के माथा पर लिखा तो नहीं होता है। उसी में से किसी ने बहुरिया के कदली-स्तंभ जैसे मखमली पैर को देखकर बजा दिया सीटी। और पता नहीं क्या हुआ….।

images (26)कनिया बेचारी अगल-बगल देखी। सब घुंघट काढ़े। अब बेचारी गयी सरमाय। उधर आन गाँव से आये कुछ मनचले लड़कों की छिछली नजर लगातार इसी का पीछा कर रही थी। बेचारी इधर-उधर देखी। कौनो उपाय नहीं सूझा तो…. छपाक…! वही स्थल पर वाला पोखर में कूद पड़ी। हाहाकार मच गया। लोग-वाग दौड़ा। हल्ला सुनके हमलोग भी दौड़े। “हाय नारायण… उ को तैरने भी नहीं आता है।” एक औरत चिल्ला कर बोली थी। कौन है… कौन है? ऊ पानी में कभी तर कभी ऊपर हो रही थी। हमलोग कुछ सोचे उ से पहिलहि दो जवान पानी में गोता लगाके उको कंधा पर लिये उपराये। आहि तोरी के…. ई तो…. हम मंगरुआ का मुँह देखे लगे। मंगरुआ फ़टाक से आगे बढ़कर उको उठाइस। पेट-पीठी दबाया। चक्करघिन्नी नचाया।

तब तक में भकोसन चच्चा और चच्ची भी दौड़े आ गये। फिर उसको लाद-उद के घर लाया गया। जब सब शांत-उंत हो गया तो भकोसन चचा चच्ची से पूछे, “ का हुआ… तुम कछु कह दी थी कि मंगरुआ से लड़ाई झगरा…?”

चचा की बात पुरी होने से पहिले ही चच्ची बोल पड़ी, “मार बढ़नी… हम काहे कुछ बोलेंगे… मंगरुआ तो उको माथे पर नचाता है।”

“फिर उ जलसमाधि काहे ले रही थी….?”, चच्चा का अगिला सवाल, “हमें फ़ंसाने के लिये….?”

चच्ची बांये हाथ को नचाकर ठुड्डी के नीचे लगाते हुए बोली, “अ दुर्र जाओ… ! अरे देखे नहीं कैसन बित्ता भर के घंघरी पहिन के गयी थी मेला…? सब यही को घूर रहा था। शायद कोई कुछ कह भी दिया। पहिरावा-ओढावा कैसनो हो मगर है तो उच्च कुल की। लाजे पोखर में कूद गयी।”

चच्ची का जवाब पूरा हुआ तो चचा मुँह बनाकर बोले,



“वाह! ’आपहि टांग उघारिये, आपहि मरिये लाज।’ कोई कहा था वैसा डरेस पहनने के लिये? अपने मन से न गयी थी। अपने गयी थी फ़ैशन में देह उघार के और अपने लाजे डूबकर मरने भी लगी। भई ससुराल गाँव में थोड़ा पर्दा-लिहाज से रहना चाहिये कि नहीं…. अपनी ही करनी से न डूब रही थी। जैसी करनी वैसी भरनी।”



चच्चा हमरे तरफ़ मुँहकर के बोले थे, “है कि नहीं हो सिकी पहलवान ?”

हम बोले,



“हाँ चचा ! ठीके कहते हैं। ’आपहि टांग उघारिये, आपहि मरिये लाज।’ आखिर हमरे करम का फ़ल हमें ही मिलता है। हमरे गलती की सजा भी हमें ही मिलेगी।



बात समाप्त होने पर चचा की प्रशंसा भरी नजरों से नजरें टकराई थी।

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

भारत और सहिष्णुता-11

भारत और सहिष्णुता-11
clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

जितेन्द्र त्रिवेदी

अंक-11

imagesआइये अब हम बुद्ध के गृह त्‍याग के कारणों पर विचार करें। बुद्ध के गृह त्‍याग के कारणों में सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्‍त करने वाला प्रकरण वह है जिसमें बुद्ध का अलग-अलग घटनाओं में एक बीमार व्‍यक्ति को देखना, एक वृद्ध व्‍यक्ति से रास्‍ते में टकराना और एक शव यात्रा का दर्शन करना प्रमुखता से उनमें बैराग भाव के उदय और अन्‍तत: गृह त्‍याग का दृढ़ निश्‍चय करने में सहायक बताया जाता है। किन्‍तु बौद्ध साहित्‍य का गम्‍भीरता से अध्‍ययन करने पर ऊपर दिये कारणों को प्रमुखता से स्‍वीकार करना ठीक प्रतीत नहीं होता। बुद्ध के गृह त्‍याग के उपरोक्‍त कारणों के अलावा कुछ महत्‍वपूर्ण कारणों की ओर ध्‍यान खींचना और उनके माध्‍यम से यह बताना हमारा प्रधान उद्देश्‍य रहेगा कि यदि आज भी समूचा विश्‍व बुद्ध की प्रारम्भिक चिंता पर गौर करे और उनके द्वारा सुझाये रास्‍ते पर चलने की कोशिश करे तो बुद्ध के बताये सहिष्‍णुता के मार्ग के जरिये कई तरह की आपाधापी और झगड़ों से बचा जा सकता है। बुद्ध के घर छोड़ने का सबसे बड़ा कारण था उनकी मनोवैज्ञानिक दशा, जिसकी वजह से वे बचपन से ही घर को कूड़े-कचरे की जगह और प्रवज्‍या को खुली हवा समझा करते थे और उनके इस मनोविज्ञान के कारण जब उन्‍होंने बचपन से ही शाक्‍य, कोलिय आदि गणराज्‍यों की जमीन, नदी आदि के लिये नियमित होने वाली लड़ाइयों और खून-खराबे को देखा तो उनके बालमन में यह बात दृढ़ता से स्‍थापित हो गयी होगी कि इस तरह तो एक के बाद एक बदला लेने की लड़ाइयाँ अनंत काल तक जारी रह सकती हैं और मानवता कभी भी सुखी हो ही नहीं सकेगी। उन्‍होंने यह दृढ़ निश्‍चय किया कि मानव को इन लड़ाइयों से अलग कोई राह दिखाना आवश्‍यक है, क्‍योंकि बात-बेबात की छोटी-बड़ी लड़ाइयों को देख-देख कर उनका जी उकता गया था। गौतम बुद्ध स्‍वयं इस मनोदशा को चित्रांकित करते हुये ‘अत्‍तदण्‍डसुत्‍त’ में इस प्रकार कहते है:

अत्‍तदण्‍डा भयं जातं, जनं पस्‍सथ मेधकं।

संवेगं कित्‍तयिस्‍सामि यथा संविजितं मया।।1।।

फन्‍दमानं पजं दिस्‍वा मच्‍छे अप्‍पोदके यथा।

अन्‍जज्यण्‍णेहि व्‍यारूद्धे दिस्‍वा मं भयभाविसि।।2।।

समन्‍तमसरो लोको, दिसा सब्‍बा समेरिता।

इच्‍छं भवनमत्‍तनो नाद्दसासिं अनोसितं।

ओसाने त्‍वेव व्‍यारूद्धे दिस्‍वा में अरती अह।।3।।

अर्थात् (1) शस्‍त्र भयावह लगा। (उससे) यह जनता कैसे झगड़ती है देखो। मुझे संवेग वैराग कैसे उत्‍पन्‍न हुआ, यह मैं बताता हूँ। (2) अपर्याप्‍त पानी में जैसे मछलियाँ छटपटाती हैं वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे अन्‍त:करण में वैराग उत्‍पन्‍न हुआ। (3) चारो ओर का जगत असार दिखाई देने लगा, सब दिशाऍं कॉंप रही हों ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्‍थान खोजने पर स्‍थान नहीं मिला, क्‍योंकि अन्‍त तक सारी जनता को परस्‍पर लड़ते हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।

नदी के पानी और जमीन को लेकर या ऐसे ही अन्‍य क्षुद्र कारणों से शाक्‍य और कोलियों में प्राय: झगडे़ हुआ करते थे। ऐसे अवसरो पर बुद्ध के सामने यह असमंजस रहता था कि वे शस्‍त्र उठायें या नहीं। वे समझने लग गये थे कि शाक्‍यों और कोलियों के झगडे़ यदि बलपूर्वक निपटा भी दिये जाएं तो भी वे खत्‍म नहीं होगें क्‍योंकि आगे फिर किसी नये कारण से झगड़े की गुंजाइश बनी रहेगी। इस तरह अनंत काल तक बदला लेने की प्रवृत्ति मनुष्‍य को चैन से जीने नहीं देगी। उन्‍हें ऐसा लगा कि फिर इस शस्‍त्र ग्रहण से क्‍या लाभ? इस शस्‍त्र धारण करने के मार्ग पर चलने से वे ऊब गये और उन्‍होंने यह निश्‍चय कर लिया कि वे इसके उलट मार्ग प्रतिपादित करेंगे।

इसकी पुष्टि इस संवाद से होती है जिसमें जब वे घर छोड़ रहे थे तब अपने घोड़े कंथक से कहा था- ‘हे तात्! तू एक रात आज मुझे तार दे, बाद में मैं देवताओं समेत मनुष्‍यों का तारनहार बनूँगा’ इस प्रकार बुद्ध के गृह त्‍याग के कारणों में सर्व प्रमुख कारण था - तत्‍कालीन समाज में होने वाले लड़ाई-झगड़े और बुद्ध का उन झगड़ों से जी मिचलाना उबना। इस तरह गौतम ने केवल आत्‍मबोध द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिये गृह त्‍याग नहीं किया था अपितु उनके मन में सदैव यह विचार चलता रहता था कि क्‍या शास्‍त्रों के बिना, परस्‍पर मित्रता के आधार पर किसी समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता? उन्‍होंने ऐसे समाज के लिये कुछ मानदण्‍ड स्‍थापित किये और समाज को ऐसे लोगों को पहचानने के लक्षण बताये ताकि उनसे सावधान रहा जा सके -

"इन लोगों की बात सुनकर उन लोगों में विरोध पैदा करने के लिये वह इन्‍हें आकर बता देता है। एकता से रहने वालों में फूट डालता है या झगड़ने वालों को भड़काता है। झगड़े बढ़ाने में उसे मजा आता है, झगड़े बढ़ाने वाली बातें वह करता है अथवा वह गाली गलौज करता है। दुष्‍टता से भरा हुआ कर्कश, कटु, हृदय को चुभने वाला, क्रोधयुक्‍त एवं संतोष को भंग करने वाला वचन वह बोलता है या फालतू बकवास करता है। अनुचित समय बोलता है, न कही हुई बातें गढ़कर कहता है, अधार्मिक, शिष्‍टाचार विरुद्ध, ध्‍यान न देने योग्‍य प्रसंग पर शोभा न देने वाला, व्‍यर्थ विस्‍तार वाला और अनर्थकारी भाषण वह करता है।"

इस तरह बुद्ध ने हमको हमारे ही भीतर दुष्‍ट और सज्‍जन व्‍यक्ति के लक्षण बताकर अपने जीवन को उत्‍तरोत्‍तर ऊंचाई पर ले जाने के तरीके बताये।

बुद्ध ने सारे समाज को एक झटके में सुधारने की बजाय व्‍यक्ति के सुधार को अधिक महत्‍व दिया। उन्‍होंने अपनी पूरी प्रतिभा और बल इस बात पर केन्द्रित किया कि सभी को बदलने की अपेक्षा व्‍यक्ति अपने भीतर झॉंकना शुरू कर देगा तो मानवता स्‍वत: ही सुखी हो जायेगी। बुद्ध का सीधे-साधे शब्‍दों में कहना था- "तुम अपना देख लो, दूसरा भी देर-सवेर अपना देख ही लेगा, कोई व्‍यक्ति जब तक खुद कीचड़ में खड़ा है तो दूसरे को भला वह कैसे कीचड़ में से निकाल सकता है पर जो कीचड़ से बाहर निकल आया है, वह दूसरों को भी बाहर निकालने में मदद कर सकता है।

"इस तरह उन्‍होंने स्‍व-विकास (self development) को ही प्राथमिकता दी और इसे ही संपूर्ण सृष्टि (उनके शब्‍दों में प्रजा) के उद्धार का तरीका बताया। दूसरों में सुधार की चिंता करने की अपेक्षा प्राणपण से व्‍यक्ति अपने को सतत ऊपर उठाता जाये, यही बुद्ध का मूल मंत्र था, जो आज भी प्रांसगिक है। जब तक हम दूसरों पर अंगुली उठाने की जगह अपने भीतर नहीं झांकेगें तब तक यह उठापटक चलती रहेगी। दिनकर ने अपनी पुस्‍तक ‘संस्‍कृति के चार अध्‍याय में गांधी विषयक विचार में बड़ी मार्मिक बात कही है जो महात्‍मा बुद्ध के ऊपर भी उपरोक्‍त प्रसंग में लागू होती है:-

"गांधी और मार्क्‍स में एक मुख्‍य भेद यह है कि मार्क्‍स सारे भूगोल को चमड़े से मढ़ देना चाहते हैं किन्‍तु गांधी समझते हैं कि हर आदमी के पाँव में जूते पहना देने से भी वही कार्य संपन्‍न होता है।"

बुद्ध सारे समाज के लिये सुधार के किसी पैकेज की अपेक्षा व्‍यक्ति के भीतर सुधार की चिन्‍ता से ओत-प्रोत थे और तार्किक ही है कि जब व्‍यक्तियों में सुधार होने लगेगा तो समाज स्‍वत: ही सुधरा कहा जायेगा।