गांधी और गांधीवाद
66. अफ़्रीका से बुलावे का तार
नवंबर, 1896
कलकत्ता
पहुंचे
गांधीजी के शब्दों में कहें
तो वह जीवन भर एक 'जुआरी' रहे। सत्य का शोध करने के अपने उत्साह में और अहिंसा में अपनी आस्था के अनवरत अनुगमन में, उन्होंने बेहिचक बडे-से-बडे दांव लगाए। इसमें उनसे कदाचित गलतियां भी हुई, लेकिन ये वैसी ही थीं जैसी कि किसी भी युग या किसी भी देश के बडे-से-बडे वैज्ञानिकों से होती रही हैं। अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि लोग अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। मद्रास में एक पखवाड़ा रहने के बाद गांधीजी नागपुर होते हुए
कलकत्ता (कोलकाता) के लिए रवाना हुए। वह 10 नवंबर को कलकत्ता (कोलकाता) पहुंचे। पर यहां उन्हें मद्रास जैसा
वातावरण नहीं मिला। बल्कि गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “कलकत्ते में मेरी
कठिनाइयों का पार न रहा।” यहां उनकी किसी से जान पहचान नहीं थी। यहां के लोग शायद ही दक्षिण अफ्रीका
गए हों, इसलिए शायद उन्हें दक्षिण अफ्रीका की समस्याओं से उतना लेना-देना
नहीं था।
भारतीयों के प्रति अंग्रेज़ों का तिरस्कार
वे ‘ग्रेट ईस्टर्न’ होटल में ठहरे। होटल में ‘लंदन डेली टेलीग्राफ’ के प्रतिनिधि एलर थॉर्प से गांधीजी की पहचान हुई। वे बंगाल क्लब में
जाते थे। थॉर्प ने गांधीजी को वहां आने का न्यौता दिया, पर बंगाल क्लब में गांधीजी को जाने
नहीं दिया गया। क्लब के दीवान खाने में किसी हिन्दुस्तानी को नहीं ले जाया जा सकता था।
थॉर्प गांधीजी को अपने कमरे में ले गए। गांधीजी को दीवानखाने में न ले जा पाने के लिए
उन्होंने क्षमा माँगी। भारतीयों के प्रति स्थानीय अंग्रेज़ों का इस प्रकार का
तिरस्कार देख कर गांधीजी को काफ़ी खेद हुआ।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से मिले
कलकत्ते में वे ‘बंगाल के देव’ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी से
मिले। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी बंगाल के बेताज बादशाह थे। उस समय के बंगाल के वे एक सुविख्यात नेता थे। उन्होंने 1895 के पूना (पुणे)
के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक सत्र की अध्यक्षता की थी। जब गांधीजी
उनसे मिले उनके आसपास और भी मिलने वाले बैठे थे। उन्होंने गांधीजी से कहा, “हो सकता है लोग आपके काम में रुचि न
लें, फिर भी आप
ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिए। इस काम में आपको महाराजाओं की
मदद की जरुरत होगी। राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी और महाराज ज्योतीन्द्र मोहन
ठाकुर से भी मिलियेगा। दोनों उदार वृत्ति के हैं और सार्वजनिक काम में काफी हिस्सा लेते
हैं।'”
बढ़ती कठिनाइयां
गांधीजी इन सब से मिले पर
वहां उनकी दाल न गली। दोनों ने आगाह किया कि कलकत्ते में सार्वजनिक सभा करना आसान
काम नहीं है। गांधीजी की कठिनाइयां बढ़ती जा रही थी। अखबारों ने उनमें कोई खास रुचि
नहीं दिखाई। वे ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ के कार्यालय भी गए। इस अखबार के दफ़्तर में किसी ने उनकी कोई खास
तवज़्ज़ो नहीं दी। जबकि ‘बंगबासी’ के संपादक का व्यवहार तो बहुत ही रूखा था। एक घंटे तक इंतज़ार कराने
के बाद उसके संपादक का कहना था, “देखते नहीं हमारे पास कितना काम पड़ा है। तुम्हारी तरह न जाने यहां
कितने लोग आते रहते हैं ..। तुम वापस चले जाओ। हमें तुम्हारी बात नहीं सुननी है।” तब गांधीजी काफ़ी युवा थे।
हालाकि सार्वजनिक जीवन के उनके सिर्फ़ तीन साल का अनुभव उनके पीछे था, फिर भी काफ़ी मान-सम्मान उनको प्रेस
से मिलता रहा था। यहां तक कि लंदन के ‘द टाइम्स’ ने भी उनपर कई फीचर आलेख छापे थे। लंदन के टाइम्स ने 27 जनवरी, 1896 को गांधी को एक ऐसे
व्यक्ति के रूप में संदर्भित किया गया था, ‘जिनके अपने
भारतीय साथी नागरिकों के लिए किए गए प्रयास ... उन्हें सम्मान का हकदार बनाते
हैं’। इसलिए युवा गांधी कुछेक क्षण के लिए
तो बहुत ही विचलित हुए, पर तुरत ही उन्हें यह महसूस हुआ कि यहां के लोगों का उनके प्रति यह
व्यवहार दक्षिण अफ़्रीका में क्या हो रहा है, उसकी जानकारी न होने के कारण है।
समर्थन मिला
इस तरह भारतीय नेताओं और
भारतीय संपादकों द्वारा अप्रत्याशित रूप से हतोत्साहित किए जाने के बावज़ूद भी गांधीजी
ने हिम्मत नहीं हारी। वे ‘द स्टेट्समैन’ के दफ़्तर गए। पॉल नाइट ने उन्हें बताया कि उन्हें इस प्रश्न
में गहरी दिलचस्पी है। वहां उनका एक लंबा
साक्षात्कार लिया गया और वह पूरा का पूरा छपा भी। ‘द इंगलिशमैन’ के संपादक सॉण्डर्स ने, गांधीजी की बातों की पूरी तरह से
तहकीक़ात कर जब यह पाया कि उन्होंने कोई बात बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कही है और उनमें
सच्चाई भी है, उनके अभियान को पूर्ण-समर्थन देने का आश्वासन दिया। उसने आमुख कथा के
लिए एक आलेख लिखा। उसके प्रूफ़ को गांधीजी के पास किसी भी उचित सुझाव के लिए भेजा।
इन सब बातों से उत्साहित गांधीजी ने सोचा कि कलकत्ता (कोलकाता) में एक आम सभा की
जा सकती है। गांधीजी की सत्य के प्रति निष्ठा और अतिशयोक्ति से दूर रहने की भावना
ने सॉण्डर्स को विशेष रूप से प्रभावित किया। गांधीजी ने जो
सबक सीखा वह यह था कि "हम दूसरे पक्ष को न्याय देकर सबसे जल्दी न्याय प्राप्त
करते हैं"।
डरबन से सेठ अब्दुल्ला का तार
आम सभा की तैयारियां होती कि
ऐन मौक़े पर 12 नवम्बर, 1896 को डरबन से सेठ अब्दुल्ला का तार मिला, “आप शीघ्र नेटाल
चले आएं, संसद ने संस्तुति की है कि भारतीयों को निर्धारित जगहों में ही रहना
होगा। संसद का सत्र जनवरी में शुरु होगा।” गांधीजी समझ गए कि भारतीयों
के ख़िलाफ़ कोई नया आंदोलन उठा होगा। इसलिए उन्होंने कलकत्ते के काम को बिना पूरा
किए ही वापसी का निश्चय किया।
निम्नलिखित तार मेसर्स दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी के बम्बई
स्थित एजेंटों द्वारा भेजा गया, “मोहनलाल रोड (ROAD) के प्रवर्तन
अधिकारियों को स्थानों पर भेजें।” यह सोचते हुए कि "रोड" शब्द
"रोड्स" (“Rhodes”) के लिए शायद एक त्रुटि थी, उन्होंने संदेश की व्याख्या इस तरह की
कि केप सरकार ने ईस्ट लंदन नगरपालिका को भारतीयों को स्थानों पर हटाने का अधिकार
दिया था और यह निर्णय इस तथ्य के बावजूद लागू किया जा रहा था कि पूरा भारतीय
प्रश्न श्री चेम्बरलेन के समक्ष लंबित था। बाद में उन्हें पता चला कि मूल
टेलीग्राम में इस्तेमाल किया गया शब्द "रोड" या "रोड्स" नहीं
था, बल्कि
"राड" (“Raad”) था, यानी ट्रांसवाल संसद, और प्रभावित भारतीय केप के भारतीय नहीं
थे, बल्कि
क्रूगर के गणराज्य के भारतीय थे, जिनके खिलाफ अब डिविलियर्स के पुरस्कार (Awards) को लागू किया जा रहा था।
स्टीमर में सीट बुक
इधर कलकत्ता में सभा की
तैयारियां अपने चरम पर थी। गांधीजी ने ‘द इंगलिशमैन’ को 13 नवम्बर को पत्र लिख कर दक्षिण अफ़्रीका की वर्तमान स्थिति की जानकारी
दी साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि क्यों उनका तुरत वापस जाना ज़रूरी है। उन्होंने बताया
कि उन्हें जो तार मिला था, उसके परिणामस्वरूप उनके
लिए पहले उपलब्ध स्टीमर से दक्षिण अफ्रीका वापस जाना आवश्यक हो गया था। उन्होंने
बताया कि वहां की विभिन्न सरकारें लंदन में औपनिवेशिक कार्यालय पर दबाव डालने के
लिए व्यग्र प्रयास कर रही थीं, ताकि दक्षिण अफ्रीकी
गोरों के दृष्टिकोण से भारतीय प्रश्न पर संतोषजनक निर्णय लिया जा सके। कलकत्ते की सभा रद्द कर अगली गाड़ी से वे बम्बई (मुंबई) के लिए रवाना
हुए। उन्होंने दादा अब्दुल्ला से किसी स्टीमर में सीट बुक करवा देने को
कहा। दादा अब्दुल्ला ने स्वयं ‘कुरलैंड’ नामक स्टीमर ख़रीद लिया था। उसने निवेदन किया कि गांधीजी और उनकी
पत्नी-बच्चे उसके ही स्टीमर ‘कुरलैंड’ से यात्रा करें। गांधीजी ने इस आग्रह को मान लिया।
उपसंहार
अपने देश में उनका आगमन जनता की सहानुभूति के महान प्रदर्शन
का संकेत था। बंबई, मद्रास और पूना में बैठकें
आयोजित की गईं, जिनमें उन्हें बोलने के लिए
आमंत्रित किया गया। वह अपने सुनने वाले सभी लोगों पर जो छाप छोड़ते थे,
वह
अपरिवर्तनीय और सुंदर शिष्टाचार की होती थी। भारत के
बड़े शहरों के दौरों से गांधीजी को भारत के प्रमुख नेताओं का स्नेह और सहयोग मिला।
भारत के सभी पक्षों और दलों के नेता दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों के हितों
और अधिकारों के प्रश्न पर एकमत थे। भारत छोड़ने के पहले गांधीजी प्रवासी भारतीयों
की समस्या के प्रति देशवासियों की रुचि जाग्रत कर जनमत तैयार कर चुके थे। उन्होंने
साम्राज्यवाद की असलियत लोगों पर ज़ाहिर कर दी थी। दक्षिण
अफ्रीका में ब्रिटिश भारतीयों के साथ जो अन्याय हो रहा था, उसकी भावना ने लोगों को बहुत अधिक झकझोर दिया। इस बार जब वे
दक्षिण अफ्रीका पहुँचाने वाले थे, तब उन्हें अकेले खड़ा होना था, अकेले चलना था, और पूरा बोझ अपने अकेले कंधे
पर लादना था।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।