मंगलवार, 24 सितंबर 2024

85. बोअर-युद्ध- 2 राष्ट्रपति क्रूगर का दांव

 गांधी और गांधीवाद

85. बोअर-युद्ध- 2

राष्ट्रपति क्रूगर का दांव



1899

बोअर युद्ध कला में कुशल

दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले गोरे मूलतः ब्रिटेन और हॉलैंड से आये थे। सभी गोरे समान रूप से ब्रिटेन के भक्त नहीं थे। दक्षिण अफ़्रीका का नेटाल प्रांत अंग्रेज़ों के अधीन था। ट्रांसवाल डच लोगों के अधिकार में था। ट्रांसवाल में जो डच किसान थे वे बोअर कहलाते थे। अपनी भाषा से चिपटे रह कर बोअरों ने उसे सुरक्षित रखा। वे अंग्रेज़ों से युद्ध कर चुके थे। बोअर युद्ध कला में बड़े ही कुशल थे। वे आपस में भले ही लड़ते-झगड़ते रहते थे लेकिन उन्हें अपनी स्वतंत्रता बहुत ही प्यारी थी। जब उनपर कोई आक्रमण होता तो वे सभी एक होकर लड़ने के लिए तैयार हो जाते। लड़ना उनका स्वाभाविक गुण था। इसलिए उन्हें युद्ध के लिए बहुत अधिक कवायद आदि सीखने की ज़रूरत नहीं थी। उस जाति के 18 से लेकर 60 साल तक के सारे पुरुष कुशल योद्धा थे। जातीय प्रेम में स्त्रियां पुरुषों से पीछे नहीं थीं। उनकी स्त्रियां भी तलवार के हाथ दिखा सकती थीं। न सिर्फ़ बोअर पुरुष वीर और सरल थे बल्कि बोअर स्त्रियां भी वीर और सरल थीं। अपनी स्त्रियों के साहस और प्रोत्साहन के कारण बोअर पुरुष युद्ध में उतना खून बहा सके। 

मातृभाषा की रक्षा

बोअर को अपनी जातीय अस्मिता की रक्षा की बड़ी चिंता रहती थी। इस अस्मिता की प्रतीक थी उनकी भाषा। उन्होंने अपनी भाषा की सेवा और रक्षा ऐसे ही की जैसे कोई सपूत अपनी मां की करता है। उनका यह मानना था कि जाति की स्वतंत्रता और उसकी मातृभाषा में बड़ा घनिष्ठ संबंध है। निरंतर प्रहार होने पर भी वे अपनी मातृभाषा की रक्षा करते रहे। हॉलैंड के साथ वे अपना निकट संबंध बनाए नहीं रख सके। इस कारण से उनकी भाषा ने अफ़्रीका में ऐसा नया रूप ग्रहण कर लिया जो वहां के लोगों के अनुकूल हो। डच भाषा से अपभ्रंश भाषा डच बोअर लोग बोलने लगे। बाद में उस भाषा को स्थायी रूप दे दिया गया और इसे टाल नाम से जाना जाने लगा। यूनियन की रचना के बाद समूचे दक्षिण अफ्रीका में दोनों भाषाएँ टाल या डच और अंग्रेजी चलती थी। वहाँ के सरकारी गजट और धारासभा की सारी कार्यवाही अनिवार्य रूप से दोनों भाषाओं में छपती थी।

लड़ना बोअरों का स्वाभाविक गुण

बोअर लोग सीधे, भोले और धर्म में पक्की निष्ठा रखते थे। एक-एक आदमी की पास सैकड़ों-हजारों बीघा ज़मीन होती थी। हर एक बोअर युद्ध-कला का पूरा पंडित होता था। जनरल स्मट्स, जनरल डी. वेट, जनरल हर्जोग, जितने बड़े वकील थे, उतने ही बड़े किसान भी थे। कुशल योद्धा तो थे ही। जब कभी उन पर आक्रमण होता तब सारे ही बोअर तैयार हो जाते और एक योद्धा के समान बहादुरी से लड़ते थे। लड़ना बोअर जाति का स्वाभाविक गुण था। जनरल बोथा के पास 9000 एकड़ का खेत था। खेती की सारी पेचीदगियों को वे जानते थे। जिस प्रकार बोअर पुरुष बहादुर थे, उसी प्रकार बोअर स्त्रियाँ भी बहादुर थीं। बोअर-युद्ध के समय बोअर लोगों ने अपना खून बहाया था; यह कुरबानी वे अपनी स्त्रियों की हिम्मत और उनके प्रोत्साहन से ही कर सके थे। बोअर स्त्रियों को तो अपने वैधव्य का भय था और न भविष्य का भय था। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बड़े से बड़ा दुःख भी सहन करने के लिए तैयार रहती थीं। बोअर स्त्रियों को झुकाने और उनके जोश को तोड़ने के उपाय करने में लॉर्ड किचनर ने कोई कमी नहीं छोडी। बोअर बहादुर स्त्रियाँ असह्य कष्टों को झेलते हुए किचनर के अत्याचार के आगे कभी नहीं झुकीं। इतनी छोटी-सी बोअर जाति ने सारी दुनिया में अपना साम्राज्य फैलाने वाली ब्रिटिश सत्ता को छका दिया।

झगड़े ने युद्ध का रूप लिया

बोअर और ब्रिटन के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष जिस मुद्दे पर टिका था, वह था आधिपत्य का मुद्दा। प्रिटोरिया कन्वेंशन (1881) के अनुसार ब्रिटिश सरकार का ट्रांसवाल पर आधिपत्य का दावा था। इसके विपरीत बोअर गणराज्य की ब्रिटिश दावे के प्रति आपत्तियाँ थीं, जो उन दोनों के बीच लगातार तनाव का कारण बनी हुई थीं। दोनों पक्षों का यह स्टैंड यूटलैंडर्स, केप कलर्ड्स और एशियाई लोगों के भविष्य से जुड़ी समस्याओं के प्रति उनके दृष्टिकोण को प्रभावित कर रहा था। ये सभी ट्रांसवाल की आबादी के महत्वपूर्ण घटक थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्रिटिश सरकार के दिल के सबसे करीब का मुद्दा यूटलैंडर्स का था। 1886 से, जब से ट्रांसवाल में सोने की खान का पता लगा, तब से छिट-पुट रूप से चल रही लड़ाई में एक समय ऐसा आया जब इन दो गोरे समुदायों, अंग्रेज़ और बोअरों के बीच चलने वाले झगड़े ने युद्ध का रूप ले लिया। इसे बोअर युद्ध कहा गया। 11 अक्तूबर 1899 को बोअर युद्ध छिड़ा। ट्रांसवाल का सोना ब्रिटिश और बोअर के बीच युद्ध के मुख्य कारणों में से एक था। बोअर रिपब्लिक ने ब्रिटिशों को नागरिकता देने से इंकार कर दिया और उनके द्वारा अदा किए जाने वाले कर की राशि भी बढ़ा दी थी।

जोहानिस्बर्ग पर अंग्रेजों का धावा



खनन व्यवसायी और राजनीतिज्ञ सेसिल रोड्स1890 से 1896 तक केप टाउन का प्रधानमंत्री था। 34 वर्ष की आयु तक सेसिल ने सम्पूर्ण किम्बरली हीरा क्षेत्र पर एकाधिकार कर लिया था, तथा हीरे से उसे £2,00,000 तथा सोने से £3,00,000 की अनुमानित आय प्राप्त हो रही थी। उसने और उसकी ब्रिटिश साउथ अफ्रीका कंपनी ने दक्षिणी अफ्रीकी क्षेत्र रोडेशिया (अब जिम्बाब्वे और जाम्बिया) की स्थापना की, जिसका नाम कंपनी ने 1895 में उसके (रोड्स) नाम पर रखा।  उसने संसद में काले लोगों को उनकी ज़मीन से हटाने और औद्योगिक विकास के लिए रास्ता बनाने के लिए कई अधिनियम पेश किए। रोड्स का मानना ​​था कि काले लोगों को उनकी ज़मीन से खदेड़ना ज़रूरी है। वह ब्रिटिश प्रभुत्व को पूरे दक्षिण अफ़्रीका में बढ़ाना चाहता था।


जान हॉफमेयर एक राजनेता और अफ्रिकनेर बॉन्ड का नेता था, जो केप कॉलोनी में डच दक्षिण अफ्रीकियों के कृषि हितों का समर्थन करने वाला एक राजनीतिक दल था। दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले अफ़्रीकनर्स दो मुख्य वर्गों में विभाजित थे - अंग्रेज़ी बोलने वाला वर्ग और डच वर्ग। केप कॉलोनी में बॉन्ड में अंग्रेज़ी बोलने वाले वर्ग का प्रभुत्व था। जब सेसिल रोड्स प्रधानमंत्री बने (1890-95), तब हॉफमेयर उनके करीबी मित्र थे और उनकी विस्तारवादी योजनाओं का समर्थन करते थे। सेसिल रोड्स ने  अफ्रिकैन्डर बांड के नेता जान हेंड्रिक हॉफमेयर के साथ गठबंधन किया। हॉफमेयर अंग्रेजी-भाषी और डच वर्गों के बीच सहयोग के पक्षधर थे तथा नस्लीय असमानता के वूरट्रेकर सिद्धांत के विरोधी थे। रोड्स का मानना ​​था कि बॉण्ड की मदद से ब्रिटिश संरक्षण में दक्षिण अफ्रीकी संघ की स्थापना संभव होगी। एक शक्तिशाली वाणिज्यिक साम्राज्य रोड्स की राजनीतिक रणनीति का एक हिस्सा था। चेम्बरलेन भी लंबे समय से रोड्स के विचारों से सहमत थे और उनका मानना ​​था कि समय ब्रिटिश पक्ष में है।




डॉ.जेमिसन
 और जान हेन्ड्रिक हौफ़मेयर, ने अफ़्रीकन बौंड के साथ गुप्त सलाह-मशवरा किया। डॉ.जेमिसन पेशे से ब्रिटेन में एक चिकित्सक था वह भी सेसिल रोड्स की तरह स्वास्थ्य कारणों से दक्षिण अफ्रीका आया था। उसने किम्बर्ले में प्रैक्टिस शुरू की थी जहाँ उसकी मुलाकात रोड्स से हुई। वे शीघ्र ही मित्र बन गए और उनका सपना ब्रिटिश शासन को केप ऑफ गुड होप से काहिरा तक विस्तारित करने का था। उस समय से वह एक डॉक्टर से ज़्यादा एक राजनेता बन गया था। वह उस अशांत शहर में होने वाली सभी घटनाओं से अवगत रहते थे और उटलैंडवासियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे तथा उनके राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। ट्रांसवाल गणराज्य की बोअर सरकार रोड्स की ब्रिटिश के अधीन पूरे दक्षिण अफ्रीका के संघ की योजना में मुख्य बाधा थी।

संवैधानिक तरीकों से अपनी शिकायतों का निवारण सुनिश्चित करने में असमर्थ होने पर, उन्होंने क्रूगर शासन को हटाने और ग्रेट ब्रिटेन के साथ सहयोग करने वाली एक सरकार स्थापित करने के उद्देश्य से सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई। रोड्स ने तख्तापलट के प्रयास को अपना समर्थन दिया तथा इसके नेताओं को धन और हथियार से मदद की। योजना यह थी कि यूटलैंडर्स (अफ़्रीकी: "विदेशी"; यानी, ब्रिटिश) जोहानिस्बर्ग और प्रिटोरिया पर कब्जा कर लेंगे और साथ ही साथ जेमिसन के लोग भी वहां प्रवेश करेंगे।




डॉक्टर एल.एस.जेमिसन (सर लियंडर स्टार जेमिसन) ने सीमा के निकट खनन कम्पनी के क्षेत्र में एक छोटी सी सेना इकट्ठी की।
फिर उन्होंने जोहानिस्बर्ग पर धावा बोल दिया। यह अभियान दिसंबर 1895 में एल.एस.जेमिसन के नेतृत्व में 600 लोगों की सेना द्वारा किया गया था। उन्होंने यह सोच लिया था कि बोअर सरकार को धावे की खबर भी न होगी और वे जोहानिस्बर्ग पर क़ब्ज़ा जमा लेंगे। यह उनकी भूल थी। उन्होंने यह भी अंदाजा लगाया था कि उनके पास तो रोडेशिया में प्रशिक्षण प्राप्त निशानेबाज़ (शार्प-शूटर्स) हैं, उनके सामने बोअर-किसान कहां टिक पाएंगे। तीसरे उनका यह भी आकलन था कि जोहानिस्बर्ग की एक बड़ी आबादी उनका साथ देगी। डॉ. जेमिसन का सारा आकलन ग़लत सिद्ध हुआ। राष्ट्रपति क्रूगर को उनकी सारी योजना की ख़बर समय रहते लग गई।

स्टेफ़नस जोहान्स पॉलस क्रूगर (पॉल क्रूगर 10 अक्टूबर 1825–14 जुलाई 1904) 1883 से 1900 तक दक्षिण अफ़्रीकी गणराज्य (ट्रांसवाल) के राष्ट्रपति थे। उन्होंने डॉ. जेमिसन के हमले का सामना करने की तैयारी बड़ी ही कुशलता से किया। फलतः डॉ. जेमिसन के जोहानिस्बर्ग पहुंचने के काफ़ी पहले ही बोअर-सेना ने गोलियों की बौछार से उनका स्वागत किया। इस अप्रत्याशित हमले के सामने डॉ. जेमिसन की सेना टिक न पाई। क्रूगर ने जोहानिस्बर्ग में किसी भी बग़ावत को कुचलने का पूरा प्रबंध भी कर रखा था। परिणामस्वरूप किसी की साहस ही न हुई बग़ावत करने की। इस दुर्घटना से यूटलैंडर्स के उद्देश्य को बहुत बड़ा झटका लगा। इसने क्रूगर को अपनी शक्ति मजबूत करने में मदद की। इसने दो बोअर गणराज्यों को एक दूसरे के करीब ला दिया। इसने रोड्स के पतन और उनके राजनीतिक करियर के अंत में भी योगदान दिया।

क्रूगर का दाव

डॉ. जेमिसन और उनके मित्र, सोने की खानों के मालिक, पकड़े गये। मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई। उपनिवेश सचिव चेंबरलेन ने बीच-बचाव का रास्ता अपनाते हुए राष्ट्रपति क्रूगर से दया दिखाते हुए सभी बन्दियों को छोड़ देने की अपील की। क्रूगर अपना दाव अच्छी तरह खेलना जानता था। उसने चेंबरलेन की अपील स्वीकार करते हुए किसी को भी फांसी की सज़ा नहीं दी। उसने सभी को क्षमादान देकर छोड़ दिया।

बोअर युद्ध के कारण




कुछ समय के लिए उटलैंडवासियों को चुपचाप रहना पड़ा।
प्रेसिडेंट क्रूगर जानते थे कि डॉ. जेमिसन का धावा तो गंभीर रोग का एक सामान्य सा लक्षण भर था। जोहानिस्बर्ग के धनिकों को इस हार में बेईज़्ज़ती दिखाई दे रही थी। उनका हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना संभव नहीं था। दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधान प्रतिनिधि (हाई कमिश्नर) लॉर्ड अल्फ्रेड मिलनर की उनसे पूरी हमदर्दी थी।  मिलनर, एक राजनेता और औपनिवेशिक प्रशासक था, जो 1897 में केप कॉलोनी का गवर्नर और दक्षिण अफ्रीका का उच्चायुक्त बना। केप कॉलोनी और दक्षिण अफ्रीका जेमिसन छापे के बाद की स्थिति से निपट रहे थे। यह एक असफल तख्तापलट था। छापे के बाद रोड्स को केप कॉलोनी के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था और केप की राजनीति में उथल-पुथल मची हुई थी।

1898 में केप कॉलोनी के प्रधानमंत्री चुने गए डब्ल्यू.पी. श्रेनर ने मिलनर और क्रूगर के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की कोशिश की, लेकिन मिलनर ने इन विरोधों को अनदेखा कर दिया, और क्रूगर को कुचलने का दृढ़ निश्चय किया। 9 मई को जान हॉफमेयर ने प्रस्ताव रखा कि मिलनर ब्लूमफोंटेन में क्रूगर के साथ बातचीत करें। 31 मई 1899 को मिलनर ने क्रूगर से मुलाकात की। समझौता करने के लिए एक प्रयास किया गया। लेकिन मिलनर के पास तनाव का शांतिपूर्ण समाधान निकालने की कोई ईमानदार इच्छा नहीं थी। मिलनर ने मांग की कि क्रूगर यूटलैंडर्स को गणराज्य में पांच वर्ष के निवास के आधार पर मताधिकार का अधिकार मिले। क्रूगर ने जवाब दिया, "मताधिकार से वंचित नगरवासियों की संख्या लगभग तीस हजार है; मताधिकार की मांग करने वाले यूटलैंडर्स की संख्या लगभग साठ हजार है, और यदि हम उन्हें मताधिकार देते हैं...तो हमें गणतंत्र को छोड़ना भी पड़ सकता है।" हालांकि क्रूगर 'रियायतें' देने के लिए तैयार थे, लेकिन मिलनर उस चीज में शामिल होने के लिए तैयार नहीं थे जिसे उन्होंने 'काफिर सौदा' कहा था। उनका रुख साफ था। क्रूगर को वही करना था जो उनसे कहा गया था, "जिस स्थिति में अंग्रेज़ों को वह सब मिल जाएगा जो वे चाहते हैं, या फिर पीछे हटने से इनकार करके कड़े कदम उठाना उचित होगा"।

क्रूगर अधिकतम सात वर्षों के लिए एक संरक्षित मताधिकार के लिए तैयार थे बदले में क्रूगर ने ब्रिटिश आधिपत्य का त्याग, शाही सरकार द्वारा 'तटस्थ मध्यस्थता' की स्वीकृति और पूरे स्वाज़ीलैंड को ब्रिटिश द्वारा सौंपे जाने की मांग की ताकि ट्रांसवाल को समुद्र तक अपनी लंबे समय से वांछित पहुंच प्रदान की जा सके। मिलनर ने फ्रेंचाइजी प्रश्न का निपटारा होने तक सहायक मुद्दों पर विचार करने से इनकार कर दिया, तथा धमकी दी कि यदि उनकी मूल मांगें स्वीकार नहीं की गईं तो वे ‘बातचीत बंद कर देंगे’। मिलनर को अडिग पाकर, क्रूगर ने अंततः कहा: "महामहिम के तर्कों से मैं समझता हूं कि यदि मैं अपनी भूमि और सरकार का सम्पूर्ण प्रबंधन अजनबियों को नहीं सौंपता हूं तो कुछ भी नहीं किया जा सकता... मैं अपना देश अजनबियों को सौंपने के लिए तैयार नहीं हूं।" चूंकि सभी पक्ष चर्चा के मुख्य विषय पर सहमत होने में असमर्थ रहे, इसलिए यथास्थिति बहाल रही। 

एंग्लो-बोअर युद्ध शुरू

जेमिसन छापे के बाद दोनों पक्षों द्वारा लगातार मौखिक प्रचार के माध्यम से जाति युद्ध चलाया गया। ब्रिटिश पक्ष में इसका वाहक दक्षिण अफ्रीकी लीग था। केप के पूर्वी जिलों में छापे के तुरंत बाद गठित, यह वहाँ से पूरे केप कॉलोनी, नेटाल और ट्रांसवाल के यूटलैंडर जिलों में फैल गया था। ट्रांसवाल में क्रूगर कार्यपालिका में सर्वोच्च थे। छापे ने उनकी घटती लोकप्रियता को पुनर्जीवित किया, सभी विरोधों को शांत किया और नगरवासियों के सभी वर्गों को अपने इर्द-गिर्द लामबंद किया। लगभग हर विभाग को अपने अधीन करके, उन्होंने खुद को लगभग तानाशाह बना लिया था। वोक्सराड ने उनकी इच्छा पूरी की। यूटलैंडर्स पर सख्त नियंत्रण के लिए, उन्होंने कई प्रतिबंधात्मक उपाय लागू किए- एलियंस निष्कासन अधिनियम, उत्प्रवास अधिनियम, प्रेस कानून और बिना लाइसेंस के खुली हवा में होने वाली बैठकों की रोकथाम के लिए कानून। अदालतों में किसी भी अपील को रोकने के लिए, उन्होंने आदेश दिया कि अदालतें अब से वोक्सराड के सीधे अधिकार के अधीन होंगी।

जिन सुधारों के लिए डॉ. जेमिसन के आक्रमण की योजना बनाई गई थी, उनमें से अभी तक एक भी सुधार नहीं किया गया था। इधर अंग्रेज़ दुनिया को यह बताते रहते थे कि राष्ट्रपति क्रूगर खान मालिकों को न्याय नहीं दे रहा है। अधिकतर खान मालिक ब्रिटिश थे। राष्ट्रपति क्रूगर का यह इरादा बिलकुल नहीं था कि ब्रिटिश मांगों को पूरा-पूरा या इस हद तक मान लिया जाए कि खानों के मालिकों को संतोष हो जाए। इसलिए इसका फैसला तो युद्ध के बिना संभव दिख नहीं रहा था। यह वह समय था जब ब्रिटेन ने अन्य बातों के अलावा ट्रांसवाल सरकार से गणतंत्र में अश्वेत ब्रिटिश नागरिकों को समान नागरिक अधिकार प्रदान करने का आह्वान किया। ब्रिटिशों ने नेटाल-ट्रांसवाल सीमा पर सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी भेजी, और ट्रांसवाल और फ्री स्टेट ने इसे युद्ध की ओर कदम के रूप में देखा।  ट्रांसवाल तक खबर पहुंची कि भारत और भूमध्य सागर से 10,000 सैनिकों को दक्षिण अफ्रीका भेजा जाएगा। मिलनर ने शहर की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए किम्बरली में सेना और अधिकारी भेजे। 22 सितंबर को चेम्बरलेन ने क्रूगर सरकार के साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिए। उसी दिन नटाल में मौजूद सेना डंडी तक पहुंच गई। केप डच युद्ध नहीं चाहते थे। युद्ध को टालने के लिए आखिरी समय में उन्होंने रानी से शांतिपूर्ण समाधान के लिए याचिका दायर की। स्वतंत्र राज्य के राष्ट्रपति ने अमेरिकी मध्यस्थता की मांग की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वोक्सराड, जिसके पास शांति या युद्ध के बारे में अंतिम निर्णय था, बंद दरवाजों के पीछे मिले, प्रत्येक सदस्य ने गोपनीयता की शपथ ली। अधिकांश सदस्य युद्ध के पक्ष में थे। वे अपने घरों और स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। न्याय उनके पक्ष में था।

क्रूगर ने सोचा कि यदि देर की तो ब्रिटिश को अपनी तैयारी बढ़ाने का अधिक समय मिल जाएगा। इसलिए अपने विचार उसने लॉर्ड मिलनर को लिख भेजा और साथ ही ऑरेंज फ़्री स्टेट के सरहदों पर फौज भी जमा कर दिया। राष्ट्रपति क्रूगर ब्रिटिश सेना को और अधिक समय नहीं देना चाहते थे। 9 अक्टूबर को उन्होंने स्वयं पहल की और ब्रिटिश सेना को तत्काल वापस बुलाने तथा अड़तालीस घंटे के भीतर जवाब देने की मांग करते हुए अल्टिमेटम जारी किया। साथ ही यह धमकी भी दे डाली कि तय सीमा के भीतर अगर उसकी बातें नहीं सुनी गई तो कुछ भी हो सकता है। उधर लंदन में कंजर्वेटिव सरकार ने पुष्टि की कि मानव अधिकारों की मुक्ति केवल बोअर के दमन से ही सुरक्षित हो सकती है।

यूनाइटेड किंगडम में राजनीतिक रूप से जागरूक प्रगतिवादियों का एक समूह बोअर युद्ध के विरोध में था। गांधीजी इसके बारे में अच्छी तरह जानते थे। लेकिन उनका विचार उनसे अलग था। गांधीजी ग्रेट ब्रिटेन के एक आश्रित देश के नागरिक थे। बोअर युद्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण इंग्लैंड के विभिन्न राजनीतिक दलों के दृष्टिकोण जैसा नहीं हो सकता था। सच है, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय को ब्रिटिश सरकार से कई शिकायतें थीं। लेकिन कोई भी सरकार संपूर्ण नहीं होती। इसलिए गांधीजी ने महसूस किया कि जब तक वे ब्रिटिश संविधान के आदर्शों में विश्वास करते हैं और ब्रिटिश सरकार की नेकनीयती में विश्वास बनाए रखते हैं, तब तक उन्हें इसकी कमियों को स्वीकार करना चाहिए और उनके अधीन रहना चाहिए। जब वह किसी गंभीर संकट का सामना कर रहा था, तो उसकी मुश्किलों को और बढ़ाना उसके निर्णयों को प्रभावित करने या उसकी या ब्रिटिश लोगों की सहानुभूति जीतने का सबसे अच्छा तरीका नहीं था। लेकिन इसके अलावा, यह उनके अधिकारों और कर्तव्यों के दर्शन के खिलाफ था, जो बाद में उनके सत्याग्रह के सिद्धांत में परिणत हुआ।

11 अक्टूबर 1899 को, जब शाम पांच बजे अल्टिमेटम की अवधि समाप्त हो गई, बोअर्स घुड़सवार सेना के साथ सीमा पार कर नेटाल और केप कॉलोनी में घुस आए। बोअर सेना तेज़ी से आगे बढ़ी। उसने लेडी स्मिथ, किंबरली और मेफ़ेकिंग का घेरा डाल दिया। बोअर्स ने सीमा पार की, 12 अक्टूबर 1899 को नेटाल पर आक्रमण किया। इस प्रकार एंग्लो-बोअर युद्ध शुरू हो गया था। इस युद्ध के कारणों मेंअर्थात ब्रिटिश माँगो मेंएक कारण बोअर-राज्यों में हिन्दुस्तानियों की दुर्दशा भी थी।

(बोअर युद्ध अभी ज़ारी है …)

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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