गांधी और गांधीवाद
79. बा
से कलह
1898 :
पत्नी और बच्चे दक्षिण
अफ़्रीका आ चुके थे। गांधीजी ने पहली बार बाकायदा एक घर बसाया। कस्तूरबा को घर की
मालकिन होने का एहसास हो रहा था। विवाह के बाद से यह पहला मौक़ा था जब कस्तूरबा
किसी जेठानी के अधीनस्थ नहीं बल्कि गृहस्वामिनी की रूप में घर संभाल रही थी। वह
ख़ुद को बहुत सम्मानित पा रही थीं और उन्हें अत्यंत आनंद का अनुभव हो रहा था। लेकिन
यह रोमांच ज़्यादा दिनों तक नहीं रहा। गांधीजी तानाशाह नहीं तो निरंकुश अवश्य ही
थे। उनकी सनक को सबको मानना और अपनाना पड़ता था, और वह भी मन मारकर नहीं, ख़ुशी
ख़ुशी।
जीवन सादगी भरा
गांधीजी का जीवन सादगी भरा
था। बाहरी ताम-झाम और तड़क-भड़क से उन्हें कोई मतलब नहीं था। तड़के उठने की तो उन्हें
आदत थी ही। उन्होंने घर के पिछवाड़े में एक छोटा-सा व्यायामशाला बना लिया था। सुबह
उठकर वे वहां के होराइजोन्टल बार पर हल्का व्यायाम कर लिया करते थे। स्नान, ध्यान,
और नाश्ते के बाद वे पौने नौ बजे तक अपने काम पर चल देते
थे। शाम को लौटकर स्नानादि के बाद थोड़ी देर अखबार पढ़ते और फिर बा के साथ टहलने
निकल जाते। बच्चे भी किसी देखभाल करने वाले के साथ घूम-फिर आते। इन दिनों गांधीजी
अच्छी चीज़ें, शाकाहारी ही, खाने में विश्वास रखते थे और एक गुजराती हिन्दू रसोइया भी रखा हुआ था
जो भोजन बनाता था। और ऊपरी कामों के लिए एक नौकर भी था। खाना पश्चिमी तौर-तरीक़े से
टेबुल पर परोसा जाता, हालाकि कस्तूरबाई अलग ही भोजन करतीं। अपने सीधे-सादे शाकाहारी
सिद्धांतों पर तो वे अडिग थे ही, लेकिन एक ऐसा जीवन-स्तर पाने के लिए प्रयासरत थे
जो औसत पाश्चात्य जीवन पद्धति से बहुत भिन्न नहीं हो ताकि यूरोपीय जो भारतीयों को
हीन समझते थे, गांधीजी के प्रति गरिमा का भाव रखें। राजकोट छोड़ने के पहले ही
उन्होंने पत्नी और बच्चों को जूते और मोजे पहनने के लिए तैयार कर चुके थे। उनको छुरी-कांटा
का इस्तेमाल करना भी सिखाया था।
बीच ग्रोव विला में गोपनीयता का अभाव
बीच ग्रोव विला के पांच
बेडरूम वाले मकान में कस्तूरबाई अपने बच्चों और पति के साथ काफ़ी ख़ुश थीं।
धीरे-धीरे हालात सामान्य होते गये। बा भी इस नए माहौल में रमने लगी थीं। उन्हें
लगा जैसे भगवान ने उनकी अरज सुन ली। लेकिन जल्दी ही यह दिवास्वप्न टूटने वाला था। कस्तूरबा को यह
समझने में देर नहीं लगी होगी कि गांधीजी जैसे व्यक्ति की पत्नी होना कितना
कष्टदायक, लेकिन रोमांचक था। कस्तूरबाई के लिए आराम का जीवन तो था,
पर कोई गोपनीयता या खुशनुमा पारिवारिक माहौल का अभाव था। गांधी के कई
सहयोगियों के साथ रहने से वह सहज महसूस नहीं कर सकती थीं। गांधीजी डरबन में वकालत करते थे। वक़ालत भी उत्कर्ष पर थी। पांच से छह
हजार पौंड सालाना वकालत से कमाई उनकी होने लगी थी। उन दिनों के लिहाज से यह एक
बहुत बड़ी राशि है। इसके साथ ही वे दक्षिण अफ़्रीका में नए अनुभवों से गुज़र रहे थे। गांधीजी
और कस्तूरबाई बहुत ही मिलनसार प्रवृत्ति के थे, इसलिए लोगों का आना-जाना लगा रहता था। अनेक गोरे भी मित्र बन गये थे
और उनके भी आने-जाने का सिलसिला लगा रहता था। भोजन बड़ी मात्रा में बनता था। घर में
परिवार के सदस्यों के अलावे दस-बारह लोग रोज़ भोजन करते थे। व्यवस्था उत्तम थी।
स्वादिष्ट भोजन बनता था। दफ़्तर के सभी लोग गांधीजी के घर में परिवार के समान रहते
थे और खाते-पीते थे।
घर में सभी तरह के लोग
घर में जो उनके मुहर्रिर उनके
साथ ही रहते थे, उसमें सभी तरह के लोग थे। कुछ हिन्दू थे तो कुछ ईसाई, कुछ गुजराती थे तो कुछ मद्रासी। उनके
घर में किसी के प्रति भेदभाव का सवाल ही नहीं था। गांधीजी कहते थे, “मैंने संबंधियों और अजनबियों में, देशवासियों और विदेशियों में, गोरों और कालों में, हिन्दुओं और दूसरे धर्म मानने वाले भारतीयों में, चाहे वो मुसलमान हों, पारसी, यहूदी या ईसाई हों, कोई भेद नहीं जाना।” वह सबको अपना कुटुम्ब मानते, और
सबसे एक सामान व्यवहार करते थे। इनमें शेख महताब,
जिसने बचपन में उन्हें मांस खिलाया था, भी शामिल था। हालाकि कुछ वर्षों
पूर्व गांधीजी उसे दक्षिण अफ़्रीका लाये थे, किन्तु उसके ग़लत आचरण के कारण उसे घर से निकाल दिया था। किन्तु अब वह
बदल गया था। उसने शादी भी कर ली थी। गांधीजी की प्रशंसा में उसने कई कविताएं भी
लिखी थी। उनके साथ रहने वाले उनके पुराने विश्वासपात्र विंसेंट लॉरेंस, कन्फ़िडेन्शियल क्लर्क था। इसके अलावा जोसेफ
रोएपेन भी थे, जो नेटाल इंडियन
कांग्रेस से संबंधित काम के प्रभारी थे। उनके दो सहयोगी, मनसुखलाल नज़र और आर.के. खान भी वहाँ थे। ख़ान 1898 में नेटाल बार में एक प्रैक्टिसिंग वकील के रूप में आए और बस
गए। इसके बाद, जब बोअर युद्ध छिड़ा, तो गांधी ने जोहानिस्बर्ग से दो अंग्रेजों को अपने घर में रहने दिया, जिससे कस्तूरबा का बोझ और बढ़ गया। उनमें से एक, हर्बर्ट किचिन ने इस हद तक शराब पीना शुरू कर दिया था कि अक्सर वह
अपनी सामान्य स्थिति में नहीं रहता था, जिससे हालात और
भी बदतर हो गए। गांधीजी जैसे उदार हृदय के स्वामी के लिए किसी को मना करना कठिन था।
और कस्तूरबा को सबकी देखभाल करनी होती थी।
महात्मा बनने वाले व्यक्ति के लिए यह सब ठीक था; वह इसमें ढल चुके थे। सामुदायिक जीवन आत्म-साक्षात्कार के लिए उनके
प्रयास का अभिन्न अंग बन गया। लेकिन कस्तूरबाई के लिए यह बहुत मुश्किल था, क्योंकि उन्हें इस काम में झोंक दिया गया था। इस गृहस्थी के प्रबंधन
का खामियाजा लगभग पूरी तरह से उन्हें ही उठाना पड़ा। न केवल उन्हें अपने
पूर्णतावादी पति के सख्त घरेलू मानकों का पालन करना था, बल्कि उन्हें तीनों बच्चों की देखभाल भी अकेले ही करनी थी। गांधीजी ने इस बात पर जोर दिया कि वह उनके घर पर एकत्रित हुए
अतिथियों के लिए आदर्श परिचारिका की भूमिका निभाएं।
आदर्श भारतीय नारी की तरह पति
का हर आदेश शिरोधार्य कर वह इस काम में जुटी रहतीं। गांधीजी का यह मानवतावाद का
सूचक सार्वभौमवादी दृष्टिकोण कस्तूरबा जैसी गृहिणी के लिए चिढ का कारण बनता। थोड़ी
सी भी चूक कलह का कारण बनती। गांधी लगातार घर
के कामों में दखल देते रहते थे; इससे कस्तूरबाई नाराज़
हो जाती थीं। वे खुद को उनका गुरु मानते थे,
जिससे
वे नाराज़ हो जाती थीं। उन्होंने व्यवहार के नए,
कठोर
नियम लागू किए। कस्तूरबाई को दिया गया उनका 'अंधा, मोहग्रस्त' प्यार इन कष्टों के लिए
कम होता हुआ प्रतिफल था। लेकिन गांधी ने कहा, 'एक हिंदू पत्नी' अपने पति के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता को सर्वोच्च धर्म मानती है। एक
हिंदू पति खुद को अपनी पत्नी का स्वामी और मालिक मानता है, जिसे हमेशा उसकी सेवा में नाचना चाहिए।' इस अवधि में गांधी एक बहुत ही हिंदू पति थे। वे खुद को 'एक क्रूर दयालु' जीवनसाथी मानते थे।
हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि गांधीजी पारिवारिक संबंधों से
अछूते थे, लेकिन उन्होंने अपनी
आत्मा को इस कारण से सीमित नहीं किया था। वे दूसरों के लिए अपने ऊपर किसी भी तरह
का अधिकार रखने के द्वार बंद नहीं कर सकते थे। उनका मानना था कि ‘जो आस्तिक दूसरों
में भी वही ईश्वर देखते हैं जो वे खुद में देखते हैं, उन्हें सभी के बीच पर्याप्त रूप से निर्लिप्त होकर रहना चाहिए। और इस
तरह जीने की क्षमता ऐसे संपर्कों के लिए अनचाहे अवसरों से भागकर नहीं, बल्कि सेवा की भावना से उनका स्वागत करके और खुद को उनसे अप्रभावित
रखकर विकसित की जा सकती है।’ एक विस्तृत परिवार के प्रति यह झुकाव धीरे-धीरे
सामुदायिक जीवन के लिए उत्सुकता में बदल गया, जो बाद में उनके
जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। हालांकि, कस्तूरबा के लिए
इस पैटर्न में फिट होना और सभी सदस्यों को परिवार के सदस्यों के रूप में मानने के
अपने पति के आग्रह के साथ तालमेल बिठाना आसान नहीं था। भारतीय परंपरा के अनुसार, उन्होंने उनकी इच्छाओं का पालन करने की पूरी कोशिश की। उनकी ओर से
थोड़ी सी भी आपत्ति अप्रियता का कारण बन सकती थी।
घर का सारा काम खुद ही करते
गांधीजी और बा घर में अपना
सारा काम खुद ही करते थे। उन दिनों घरों में स्नानागार पास नहीं होते थे। गांधीजी के घर
में पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी; हर कमरे में एक
बर्तन था। वह और कस्तूरबाई बर्तन साफ करते थे। फ़्लश-युक्त टॉयलेट की भी व्यवस्था नहीं थी। इसलिए रिटायरिंग सुइट्स
में चैंबर-पॉट की व्यवस्था थी। उन्हें साफ करना घरेलू काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा
था। एक मात्र बाथरूम निचले तले पर था, इसलिए रात को लघुशंका के लिए हर सोने
वाले कमरे में पॉट (पेशाब का बरतन) रहता था। गांधीजी को इसकी
साफ-सफाई के लिए नौकर या सफाईकर्मी रखने का विचार पसंद नहीं था। उन्हें उठाने का काम गांधीजी और बा खुद करते थे। घर के सभी सदस्य
अपना-अपना पॉट खुद ही साफ़ करते पर कोई नया मेहमान आ जाने पर यह काम बा को करना
पड़ता। बा को यह काम करते थोड़ी हिचक रहती थी। परम वैष्णवी बा को लगता वे ऐसे कामों
के लिए नहीं हैं। वास्तव में वह पूरे काम से नफरत करती थी और उन्हें समझ में नहीं आता
था कि उन्हें या उसके पति को ऐसे काम क्यों करने चाहिए। गांधीजी को हर चीज़ की ज़िद चढ जाती थी। उस पर से उनका गुस्सा उग्र
था। उनका आग्रह था कि काम कैसा भी हो, करना ही चाहिए और ख़ुशी-ख़ुशी करना चाहिए। गृहिणी के जादुई स्पर्श
से इस स्थान को एक नई सुगंध मिलनी चाहिए थी, लेकिन कस्तूरबा
अपनी राह पर नहीं चल सकती थी: उन्हें गांधीजी की विचित्रताओं का ख्याल रखना था।
मल-पात्र को साफ़ करने को लेकर कलह
घर में बंधु-बांधवों का तांता
तो लगा ही रहता उसपर से अजनबियों और दफ़्तर के क्लर्कों को घर का सदस्य भी बना
लेते। यह सब कस्तूरबा के लिए चिढ़ का कारण बन जाता। कभी-कभी इस कारण दोनों में
टकराव और तलखी पैदा होती। एक दिन बरतन को उठाने को लेकर दोनों में ठन गई। इनका एक
मुंशी, जो ईसाई था, उनके घर पर नया-नया रहने आया था। उसके साथ घर के सदस्यों सा व्यवहार
किया जाता था। पानी की व्यवस्था समुचित नहीं थी इसलिए मल-पात्र को बाहर ले जाकर
साफ़ किया जाता था। परिवार के सभी सदस्य ऐसा ही करते थे, पर वह मुंशी ऐसा करने को तैयार नहीं
था। वह पंचम कुल में उत्पन्न मुहर्रिर था। गांधीजी चाहते थे कि यह काम बा करे। गांधीजी
ने कहा, “तू उसका ‘कमोड’ साफ़ कर दे।” बा ने कहा, “क्यों वह ख़ुद नहीं कर सकता?” गांधीजी का तर्क था, “कर तो सकता है, पर उसने नहीं किया। इसलिए तू कर दे।” हालाकि कस्तूरबा एक समर्पित पत्नी और मां थीं, इच्छा से पति की सेवा
के लिए भी तत्पर रहतीं, लेकिन अजनबियों के मूत्र का पात्र साफ करने के लिए जब वही
पति मज़बूर करता तो उसका विरोध भी करतीं। बा अड़ गई और उसके शौच के बरतन को उठाने से
मना कर दिया। गांधीजी अड़ गए। गांधीजी जिसको सबसे अधिक चाहते और अपना समझते, उसके
प्रति वे घोर निर्दयी भी बन जाते। दोनों के बीच ठन गई। कलह हुआ। आंखों से आँसुओं की
बरसात हो रही थी, लेकिन बा ने हाथ में बरतन उठाया और लाल-लाल आंखों से बापू को उलाहना
देती सीढ़ियां उतर गईं, “हां-हां कर देती हूं। जब भाग्य में यही लिखा है तो करना ही पड़ेगा।”
पर गांधीजी को इससे संतोष न
हुआ। उनको तो संतोष तब होता जब बा हंसते हुए यह काम करतीं। बोले, “देख,
इस तरह से रो-झींककर करने की ज़रूरत नहीं है।”
गांधीजी ने फिर उन्हें
बुरा-भला कहा। बा की आंखों से आंसू निकल आए। गांधीजी बा से दिए गए कामों को बिना
किसी ना-नुकुर के पूरा करने की आशा रखते थे। कस्तूरबा में इतना साहस था कि वे लड़े
बिना हार नहीं मानती थीं। बा को जो नहीं जंचता उसे करने से इंकार कर देतीं। गांधीजी
ने ऊंची आवाज़ में कहा, “मैं अपने घर में यह बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूंगा।”
गांधीजी के इस तरह कहने से
बात बा के दिल में तीर की तरह चुभ गई। वो भड़क उठीं,
बोलीं, “रखो अपना घर द्वार अपने पास और मुझे जाने दो।”
उस समय बापू भगवान को भूल
गये। उनमें दया का अंश भी नहीं रहा। गांधीजी ने कस्तूरबा का हाथ पकड़ा और घसीटते
हुए दरवाज़े तक ले गए और उन्हें धक्का देने के लिए दरवाज़ा खोलने लगे। बा की आंखों
में आंसू भर आए। दरवाजा आधा खोले। बा रोती रहीं। बा ने कहा, “क्या तुम में शर्म-हया नहीं है? अपना आपा खो बैठना क्या ज़रूरी है? मैं कहां जाऊं? यहां मुझे शरण देने वाले मां-बाप या
कोई और सगे-संबंधी नहीं हैं। तुम्हारी पत्नी हूं तो तुम समझते हो कि मैं तुम्हारी
लात-घूंसा सहती रहूं।”
फिर थोड़ा संयत होते हुए बोलीं, “भगवान के लिए अपने-आपे में रहो और
गेट बंद कर दो। तुम्हें तो शर्म नहीं है। लेकिन मुझे है। ज़रा तो शरमाओ। मैं बाहर
निकल कर कहां जाऊंगी बताओ ज़रा? यहां मेरे मां-बाप नहीं हैं कि उनके घर चली जाऊं। मैं तुम्हारी पत्नी
हूं, इसलिए मुझे
तुम्हारी डांट-फटकार सहनी होगी। अब शरमाओ और दरवाजा बंद करो। कोई देखेगा, तो दो में से एक की भी लाज नहीं
बचेगी।”
गांधीजी का चेहरा तो क्रोध से
लाल था ही, पर वे शर्मिन्दा भी हुए। दरवाज़ा उन्होंने बन्द कर दिया। एक आम दम्पती
की तरह वे भी आपस में लड़ते थे, पर हर बार बा अपनी अद्भुत सहनशक्ति से विजय प्राप्त कर जातीं। यह वह
समय था जब गांधीजी यह मान कर चलते थे कि पत्नी विषय-भोग का भाजन है, और पति की कैसी भी आज्ञा क्यों न हो, उसका पालन करने के लिए वह सिरजी गयी
है।
बाद में गांधीजी इस घटना पर
पश्चाताप करते हुए ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं,
“यदि पत्नी मुझे छोड़कर नहीं जा सकती थी, तो मैं भी उसे छोड़कर कहां जा
सकता था? हमारे बीच झगड़े तो बहुत हुए हैं, पर परिणाम सदा शुभ जी रहा है। हमारे बीच शांति स्थापित हुई। अपनी बेमिसाल सहनशक्ति के कारण मेरी पत्नी हमेशा ही जीतती रही है।”
इस अवसर पर गांधीजी ने कस्तूरबा के प्रति जो कठोरता दिखाई थी, वह उनके घर के लोगों के प्रति उनकी चिंता को भी दर्शाती थी। यह सब
उनकी सेवा पूर्ण जीवन की लालसा से उपजा था, जो उनके हृदय
में करुणा से भरपूर थी।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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