रविवार, 22 सितंबर 2024

83. गिरमिटिया मज़दूर

 

गांधी और गांधीवाद

83. गिरमिटिया मज़दूर

प्रवेश

इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने के पहले थोड़ी सी चर्चा गिरमिटिया मज़दूरों की कर ली जाए। पूंजीवाद के विकास और प्रसार का गहरा संबंध दासों के व्यापार से था। ज़्यादातर दास गन्ने और कपास के खेतों में काम करते थे। 1833 में ब्रिटिश साम्राज्य में दास प्रथा के उन्मूलन के तुरंत बाद, औपनिवेशिक बागानों के लिए सस्ते, कुशल अर्ध-दास श्रम की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। मुक्ति अधिनियम के पारित होने के परिणामस्वरूप, श्रमिकों की कमी की आशंका में, बागान मालिकों ने बंधुआ मजदूरी की एक प्रणाली तैयार की थी जिसे "बंधुआ मजदूरी" प्रणाली के रूप में जाना जाता है। गोरे पूंजीपति भारत जैसे पराधीन देशों में अपने एजेंट भेज कर यहां के ग़रीबों को फुसला कर उनसे करार करवा लेते थे कि वे इतने दिन अमुक देश में काम करेंगे और उन्हें इतना पैसा मिलेगा। उनकी बहुत बड़ी संख्या दक्षिण अफ़्रीका में भी थी। दास-प्रथा ख़त्म कर देने पर भी कैसे साम्राज्यवाद मज़दूरों को दास बनाकर उनसे काम कराता था, यह बात भारतीय मज़दूरों की दशा से ज़ाहिर होती है। उन्हें गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता था। गिरमिटिया मजदूरी की प्रथा, जिसके तहत भारतीयों को गन्ने के खेतों में काम करने के लिए आयात किया जाता था, गुलामी से थोड़ी बेहतर दासता की प्रणाली थी। यहां तक ​​कि स्वतंत्र भारतीयों को भी इसके अपमानजनक प्रभाव महसूस हुए। कुछ असाधारण मामलों को छोड़कर, उनके बीच कोई उच्च सिद्धांत, कोई महान महत्वाकांक्षा, कोई पुरुषत्व की चेतना नहीं थी, जिसके साथ वे औपनिवेशिक कानूनों के लगातार बढ़ते उत्पीड़न का विरोध कर सकें। वे जीने और गुलाम बनकर जीने से संतुष्ट थे।

गिरमिट शब्द

गिरमिट शब्द अंग्रेज़ी के एग्रीमेंट शब्द का अपभ्रंश है। हिन्दुस्तानी मजदूर नेटाल में एग्रीमेंट पर गये हुए मजदूरों के नाम से पहचाने जाते थे। जिस दस्तावेज़ में दस्तख़त करके मज़दूर भारत से बाहर नेटाल आदि देशों में 5 वर्ष का करार (एग्रीमेंट”) करके जाते थे वह दस्तावेज़ मज़दूरों और उनके मालिकों में गिरमिट नाम से प्रसिद्ध था। इस गिरमिट के अंतर्गत आने वाले मज़दूरों का नाम गिरमिटिया दिया गया और प्रथा गिरमिटिया प्रथा कहलाती थी।

इतिहास

1843 में नेटाल पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया। अंग्रेज नेटाल में आकर बस गए थे। उन्होंने यह समझ लिया की नेटाल में गन्ने और कॉफी का अच्छा उत्पादन हो सकता है। बड़े पैमाने पर ये फसलें पैदा करने के लिए हजारों मजदूरों की ज़रूरत थी। उन्होंने हब्शियों को काम करने के लिए ललचाया और डराया भी। पर अब गुलामी का कानून रद्द हो चुका था, इसलिए वे इस प्रयत्न में सफल नहीं हो सके। मुक्त हुए नीग्रो दासों ने किसी भी हालत में अपने पुराने स्वामियों के पास लौटने से इनकार कर दिया। जब तक स्थायी मजदूर न मिले तब तक अंग्रेज अपना यह ध्येय पूरा नहीं कर सकते थे। बागान मालिकों ने अपनी नजरें चीन और भारत पर टिका दीं। भारत ब्रिटिश आधिपत्य में था। विदेशों में यूरोपीय बागानों के लिए भारतीय बंधुआ मजदूरों की भर्ती का सबसे पहला दर्ज प्रयास 1830 में हुआ था। भर्ती को विनियमित करने तथा अनुबंधों, परिवहन आदि का आधार तय करने के लिए 1837 में भारतीय उत्प्रवास अधिनियम (Indian  Emigration  Act ) पारित किया गया। 1837 के मध्य तक, बीस हजार से अधिक भारतीय प्रवासियों को भारत से मॉरीशस भेजा गया था, और एक दशक के भीतर भारतीय प्रवासियों की एक स्थिर धारा त्रिनिदाद, जमैका और ब्रिटिश गिनी में आने लगी। नेटाल की सरकार ने भारत सरकार के साथ पत्रव्यवहार शुरू किया और मजदूरों की पूर्ति के लिए हिंदुस्तान से सहायता माँगी। भारत सरकार ने नेटाल की माँग स्वीकार की और उसके फलस्वरूप 150 गिरमिटिया मजदूरों का पहला जत्था 16 नवम्ब, 1860 को नेटाल पहुंचा। इसके बाद पाँच महीनों के भीतर 1,029 पुरुषों, 359 महिलाओं तथा कुछ बच्चों को लेकर कई जहाज डरबन के लिए रवाना हुए। इस लेन-देन में भारत सरकार की भूमिका दोनों पक्षों के बीच एक तटस्थ मध्यस्थ की थी। इकरारनामे में  मजदूरों की रक्षा की यथासंभव अधिक से अधिक शर्तों को रखने बावजूद भारत के अंग्रेज अधिकारियों ने यह कभी नहीं सोचा कि कानून से भले ही गुलामी की प्रथा का अंत हो गया हो, लेकिन मालिकों के ह्रदय से दूसरों को गुलाम बनाने का लोभ तो दूर नहीं हुआ है। मजदूर सुदूर देश में जाकर एक निश्चित अवधि के लिए गुलाम बना दिए गए। वे अर्ध-गुलामी की स्थिति में रहते थे।

मज़दूर आयातक संघ

भारत से मज़दूरों को भर्ती करने के लिए उपनिवेशों के धनी मालिकों ने मज़दूर आयातक संघ बनाए थे। मज़दूरों की भर्ती को न्यायपूर्ण ठहराने के लिए यह तर्क दिया जाता था कि भारत में बहुत-सी फालतू आबादी है, वह इस तरह मज़दूर के रूप में बाहर चली जाती है। गिरमिटिया मज़दूरों की भरती करने के लिए भारत में औपनिवेशिक सरकारों के एजेंट मौज़ूद थे। भरती करने के लिए उन्हें 25 रुपये मिलते थे और ये 25 रुपये उन एजेंटों में बांट लिए जाते थे।

सब्ज़-बाग दिखाया गया

पराधीन भारत के ग़रीब और परेशान लोगों को बाहर के सब्ज़-बाग दिखाकर फुसलाया जाता था। उन्हें कहा जाता था कि नेटाल में उन्हें हर तरह की सुख सुविधा मिलेगी। उन्हें लगता कि 5 वर्ष की गुलामी के बाद स्वतंत्र रूप से वे अपना काम कर सकेंगे। हर साल भारत से लगभग ऐसे 12 हजार गिरमिटिए बाहर जाते थे। दिलचस्प बात यह है कि जहां पहले अफ़्रीकी ग़ुलाम काम करते थे वहीं बाद में भारतीय गिरमिटिया मज़दूर भेजे जाते थे। पहले ग़ुलामों को सामान्यतः पशुओं की जगह और पशुओं की तरह रखा जाता था। अंग्रेज़ी जनता के प्रयत्न से दास/ग़ुलामी प्रथा बंद हुई। किन्तु यह दूसरे रूप में दाखिल हो गई। क्योंकि जहां-जहां भारतीय गिरमिटिए रखे गए वहां-वहां पहले ग़ुलाम रखे जाते थे। अंग्रेजों ने गिरमिटियों की मदद से गन्ना, चाय, कॉफी वगैरह की बड़ा मुनाफा देने वाली फसलें पैदा कीं, गन्ने से शक्कर तैयार की। उन्होंने इतना धन कमाया कि अपने लिए बड़े-बड़े महल खड़े कर लिए। चीनी उद्योग इतना लाभदायक हो गया कि 1864 में भारत से बंधुआ मजदूरों के प्रवाह को प्रोत्साहित करने के लिए £ 1,00,000 का सार्वजनिक ऋण लिया गया। 1872 तक चीनी का निर्यात £ 1,54,000 के मूल्य तक बढ़ गया था। 1865 तक, 6,500 कुली नेटाल की समृद्धि की नींव रखने में मदद करने के लिए काम कर रहे थे। 1874 में एक भारतीय उत्प्रवास ट्रस्ट बोर्ड (Indian Emigration Trust Board) की स्थापना की गई; और नेटाल सरकार ने भारत सरकार को अनुबंधित श्रमिकों की निरंतर आपूर्ति के लिए अनुकूल भर्ती व्यवस्था को सुविधाजनक बनाने के लिए £ 10,000 की वार्षिक सब्सिडी का भुगतान करना शुरू किया। उस समय नेटाल की अनुमानित जनसंख्या 4,70,000 ज़ूलू और 45,000 यूरोपीय थी, जबकि 46,000 भारतीय थे, जिनमें से 16,000 गिरमिटिया और 25,000 गिरमिटिया या स्वतंत्र भारतीय थे। बाकी व्यापारी और उनके क्लर्क आदि थे, जिनकी संख्या लगभग 5,000 थी।

गिरमिट होना ग़ुलाम होना

गिरमिट होना ग़ुलाम होना ही था। जैसे ग़ुलाम पैसे देने से भी छूट नहीं सकता था, वैसे ही गिरमिटिए भी गिरमिट से छूट नहीं सकते थे। यदि ग़ुलाम काम नहीं करता तो उसे सज़ा दी जाती थी। उसी तरह गिरमिटिया भी अगर काम नहीं करता तो उसे सज़ा दी जाती थी। जैसे ग़ुलाम को एक मालिक दूसरे को बेच सकता था, उसी तरह गिरमिटिया को भी एक मालिक के पास से दूसरे के पास भेजा जा सकता था। जैसे ग़ुलामों के बाल-बच्चों पर ग़ुलामी का दाग़ लगता था, वैसे ही गिरमिटियों के बाल-बच्चों पर भी उनके लिए बने क़ानून लागू होते थे। हां निश्चित अवधि के बाद गिरमिटिए छूट सकते थे। पर सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह थी कि गिरमिट प्रथा गुलाम प्रथा ख़त्म होने के बाद शुरु हुई थी, और ग़ुलामों की जगह गिरमिटिए भर्ती किए गए।

गिरमिटिया मज़दूरों के साथ दुर्व्यवहार

गिरमिट प्रथा का काम करने का तरीका बहुत ही भयानक था। जहाजों में ठूंस-ठूंस कर उन्हें लाया जाता। कई तो रास्ते में ही बीमार पड़ जाते। जहाज से उतरने पर उन्हें गंदी बस्तियों में रखा जाता। कई टीबी आदि खतरनाक बीमारी के शिकार हो जाते, कइयों की मौत हो जाती। कई मामलों में मजदूरों को महीने के अंत में बहुत कम या कोई वेतन नहीं मिलता था। कुछ एस्टेटों में, मालिक इतने लापरवाह थे कि जब बीमारी आदि के लिए उनके द्वारा लगाया गया जुर्माना महीने के लिए देय वेतन से अधिक हो जाता था, तो वे अगले महीने के वेतन से कटौती के लिए शेष राशि को आगे ले जाते थे। गोरे मालिक मज़दूरों को मारते पीटते थे। स्त्रियों की हर प्रकार से दुर्दशा होती थी। कई स्त्रियों को जीवन यापन के लिए वेश्यावृति धारण करना पड़ा। गिरमिटिया मज़दूरों के साथ जैसा व्यवहार किया जाता वैसा व्यवहार क़ैदियों के साथ भी नहीं होता था। गिरमिटिया मज़दूर बीमार हो जाए, उसके इलाज पर पैसा न खर्च करना पड़े, इसलिए उसे कुछ दिन के लिए जेल भेजवा दिया जाता था। गिरमिटिया मज़दूरों के बच्चों को भी गिरमिटिया मान लिया जाता था। कई गिरमिटिया मज़दूर जुल्मों से ऊबकर आत्महत्या कर लेते थे। गिरमिटिया मज़दूरों की बहुत बड़ी संख्या नेटाल प्रांत में थी। नेटाल की समृद्धि भारतीय मज़दूरों के ऊपर निर्भर थी। ट्रांसवाल भी भारतीय मज़दूरों की कीमत पर धनवान हुआ। किन्तु जिनकी मदद से वे उतना धन कमा रहे थे उनकी उन्हें रत्ती भर भी चिन्ता नहीं रहती थी।

ख़ूनी कर

गिरमिटिया मज़दूरों की मेहनत सस्ती पड़ती थी। जो लोग अपनी सेवाएं इतनी कम दरों पर 5 वर्ष या इससे अधिक समय के लिए देते थे, उनको अपनी आज़ादी की क़ीमत 3 पाउंड वार्षिक कर चुकाकर देनी पड़ती थी। अंग्रेज़ी राज में भारत उपनिवेशों को ग़ुलाम भेजने का बाज़ार बन गया था। गिरमिट की मियाद ख़त्म होने पर मज़दूर इस हालत में नहीं होता था कि भारत लौटकर नए सिरे से अपनी गृहस्थी जमाए। इसलिए वह वहीं बस जाना चाहता था। परन्तु उसके लिए उसे हर साल 3 पाउंड का टैक्स देना पड़ता था। गांधी जी को यह ख़ूनी कर लगता था। इसे बन्द कराने के लिए उन्होंने आंदोलन करने की ज़रूरत महसूस की।

गिरमिटिया इकरार से मुक्त होने के बाद

गिरमिटिया मज़दूरों के नियोक्ता को मज़दूर को उसके रख-रखाव के अलावा, पहले साल दस शिलिंग प्रति महीने से शुरू होने वाली मज़दूरी देनी थी, और तीसरे साल में बारह शिलिंग प्रति महीने तक बढ़ जाती थी। तीन साल के बाद मज़दूर को चौथे साल या अगर वह चाहे तो दो और साल के लिए फिर से बंधुआ बनवाना पड़ता था। 1864 में अनुबंध की मूल अवधि तीन वर्ष से बढ़ाकर पांच वर्ष कर दी गई। पांच वर्ष पूरे होने पर मजदूर को अपनी मर्जी से जीने और खुले बाजार में रोजगार तलाशने की स्वतंत्रता थी। अगले पाँच साल के बाद उसे या तो मुफ़्त वापसी यात्रा या इसके बदले में मुफ़्त यात्रा के बराबर मूल्य (लगभग £ 10) की क्राउन भूमि का अनुदान पाने का अधिकार था। कानून में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके तहत आप्रवासी को भारत लौटने के लिए मजबूर किया जा सके। उसके हितों की देखभाल के लिए अप्रवासियों के संरक्षक के रूप में जाना जाने वाला एक अधिकारी नियुक्त किया गया था। नवंबर 1870 और मार्च 1871 के बीच नेटाल में दस साल पूरे करने के बाद लगभग 1,400 अप्रवासियों के पहले समूह में से, जो मुफ़्त यात्रा के हकदार बन गए, लगभग 400 ने भारत लौटने का विकल्प चुना। घर वापस आने पर, दक्षिण अफ्रीका में अपने कड़वे अनुभव बताते हुए, उन्होंने असंतोषजनक चिकित्सा देखभाल, अवैध जुर्माना, कोड़े मारने और वेतन और राशन रोके जाने की बात कही। आम तौर पर मजिस्ट्रेट उनके खिलाफ़ पक्षपाती थे, इसलिए पीड़ित व्यक्तियों के पास निवारण पाने का कोई साधन नहीं था। अगर उनमें से कोई भी अदालत जाता, तो उन्हें अपने लौटने पर होने वाले प्रतिशोध को ध्यान में रखना पड़ता।

उपसंहार

ये सभी लोग, दक्षिण अफ्रीका को अपना नया घर बनाने के लिए निकले थे। लेकिन शुरू से ही बागानों में काम करने वाले ज़्यादातर मालिकों ने उनके साथ उस तरह से व्यवहार नहीं किया जिससे मालिक-मज़दूरों के बीच सहज संबंध बन पाते। नेटाल के गोरे मालिकों को केवल गुलामों की ज़रूरत थी। ऐसे मजदूर की उन्हें ज़रूरत नहीं थी, जो गिरमिट की अवधि पूरी करने के बाद स्वतंत्र हो सकें और उनके साथ कोई स्पर्धा कर सकें। बहुत से गिरमिटिया इकरार से मुक्त होने के बाद नेटाल में कोई न कोई छोटा-मोटा धंधा करने लगे। यह बात धनी गोरों को अच्छी नहीं लगी। उन्हें लगा कि आज तक जिसे वे अपना एकाधिकार मानते थे, उसमें अब हिस्सा बँटाने वाले पैदा हो गये हैं। इन गरीब गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानियों के विरुद्ध एक आन्दोलन नेटाल में शुरू हो गया। जो व्यवहार गिरमिटिया मजदूरों के साथ किया गया वही स्वतंत्र हिन्दुस्तानियों के साथ भी किया गया। गोरों ने गिरमिटिया मजदूरों और मुक्त मजदूरों के बीच और मजदूरों और अन्य भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं किया। उनके लिए वे सभी "कुली" थे, और वे उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते थे। कभी-कभी उन्हें सामी कहा जाता था - स्वामी का अपभ्रंश, दक्षिण भारतीय नामों का सामान्य अंत स्वामी के साथ होता था, गिरमिटिया मजदूरों का बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत से था। सामी शब्द का इस्तेमाल गोरे लोग तिरस्कार के तौर पर करते थे। 1890-91 के दौरान लगभग 1,50,000 भारतीय प्रवासी दक्षिण अफ्रीका में बस गये थे, जिनमें से अधिकांश ने नेटाल में अपना निवास बनाया था।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।