शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

74. आक्रमणकारियों के प्रति क्षमा भाव

 गांधी और गांधीवाद

74. आक्रमणकारियों के प्रति क्षमा भाव

जनवरी 1897

प्रवेश

टाउन हॉल में होने वाली बैठक, जिसकी घोषणा प्रदर्शन के नेता ने एलेक्जेंड्रा स्क्वायर में अपने भाषण में की थी, उस रात (13 जनवरी, 1897) नहीं हुई। सेंट्रल होटल की बालकनी के नीचे आधा दर्जन लोग भी नहीं दिखे, जहाँ आंदोलन शुरू होने के बाद से सुबह से लेकर आधी रात तक भीड़ जुटी रहती थी। होटल और उसके परिसर सुनसान नज़र आए। शहर में आम भावना आंदोलन के अपमानजनक अंत पर निराशा और गांधीजी के साथ कायरतापूर्ण व्यवहार पर खेद की थी।

जिम्मेदारी से मुकरने की कोशिश

अगली सुबह डरबन दस दिनों के अभूतपूर्व उत्साह के बाद अपनी सामान्य स्थिति पर लौट आया, और हर जगह हमेशा की तरह काम चलता रहा। तूफान के थम जाने के बाद, सभी संबंधित लोग जो कुछ हुआ था उसके लिए जिम्मेदारी से मुकरने के लिए उत्सुक थे। 14 जनवरी को नेटाल सरकार ने उपनिवेश सचिव को इस घटना की जानकारी देते हुए सारा दोष गांधीजी पर ही मढ़ दिया कि वे असमय जहाज से उतरे। इधर सुबह होते ही डिप्टी मेयर थाने पहुंचा और पिछले दिन हुई घटना पर अपना खेद प्रकट करने लगा। हालाकि दबी ज़बान से वह यह भी संकेत करना न भूला कि गांधीजी को दिन रहते जहाज से नहीं उतरना चाहिए था। गांधीजी ने डिप्टी मेयर को बताया कि उन्होंने जो भी क़दम उठाया पूरे विचार-विमर्श के बाद ही। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उन्हें उन लोगों के ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं है जिन्होंने उन पर आक्रमण किया था।

वकील एफ.ए. लॉटन भी, जिनकी सलाह पर गांधीजी बिना पुलिस सुरक्षा के जहाज से उतरे थे, चुप नहीं रह सके। लॉटन ने तुरंत अपने मित्र के कृत्य और अपनी भूमिका का जोरदार बचाव किया और कहा: 'जब उन्होंने देखा कि भीड़ उनका स्वागत करने के लिए इकट्ठा हो रही है, तो वे कैटो क्रीक में नाव पर ही रह सकते थे; वे पुलिस स्टेशन में शरण ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया; उन्होंने कहा कि वे डरबन के लोगों का सामना करने और उन्हें अंग्रेज़ मानकर उन पर भरोसा करने के लिए पूरी तरह तैयार थे। पूरे कठिन जुलूस के दौरान, उनकी मर्दानगी और साहस को कोई नहीं हरा सकता था, और मैं नेटाल को आश्वस्त कर सकता हूँ कि वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके साथ एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। उन्हें डराने-धमकाने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि अगर उन्हें पता होता कि टाउन हॉल में उन पर हमला होने वाला है, तो मुझे लगता है कि वह डरते नहीं।'

दुर्भावना गलतफहमी के कारण

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह दुर्भावना गलतफहमी के कारण थी, जिसका फायदा बेईमान लोगों ने उठाने की कोशिश की। उपनिवेशवासी इस बात से नाराज थे कि गांधीजी ने अतिशयोक्तिपूर्ण बयान दिए और झूठे आरोप लगाए। वे इस बात से नाराज थे कि उन्होंने नेटाल का अपमान किया। जब उन्होंने गांधीजी का छपा हुआ भाषण देखा और पाया कि इसमें डरबन में पहले प्रकाशित उनके भाषण से भी बदतर कुछ नहीं है। तब यह धारणा बनी कि उपनिवेशवादियों को गुमराह किया गया है। "नेटाल मर्करी" ने भी अपना गुस्सा भरा स्वर बदलते हुए कहा, "श्री गांधी ने अपनी ओर से और अपने देशवासियों की ओर से ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसके वे हकदार नहीं हैं, और उनके दृष्टिकोण से, जिस सिद्धांत के लिए वे काम कर रहे हैं, वह सम्मानजनक और वैध है। उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह भी माना गया कि रॉयटर्स का केबल गांधीजी के बयान का घोर अतिशयोक्ति है। उन्होंने केवल कुछ शिकायतों का उल्लेख किया है, लेकिन ये किसी भी तरह से किसी को यह कहने का औचित्य नहीं देते कि यह पम्फलेट घोषित करता है कि नेटाल में भारतीयों को लूटा जाता है और उन पर हमला किया जाता है और उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता है, और उन्हें कोई राहत नहीं मिल पाती है।

प्रेस ने साफ किया गांधीजी पर लगे आरोप ग़लत

प्रेस भी डरबन में हो रहे घटनाक्रम पर नज़र गड़ाए था। नेटाल एडवर्टाइज़र द्वारा लिया गया साक्षात्कार भी सुबह के समाचार पत्रों में आ ही गया था। सभी लोगों के सामने यह बात साफ़ हो चुकी थी कि जो भी आरोप गांधीजी पर लगाये गए थे सब ग़लत थे। गोरे सोचते थे कि बंदरगाह पर आए दोनों जहाजों में सभी भारतीयों को गांधीजी वहां लाए थे। जबकि उनका तो इन लोगों के आने से कुछ लेना-देना नहीं था। इनमें से अधिकांश तो अफ़्रीका के पुराने निवासी थे, जो भारत होकर लौटे थे। आने वाले यात्रियों में से अधिकतर तो पुराने ही थे और  बहुतेरे नेटाल में रहनेवाले नहीं थे बल्कि ट्रांसवाल जानेवाले थे। उन दिनों नेटाल में मन्दी थी। ट्रांसवाल में अधिक कमाई होती थी। इस कारण अधिक कर हिन्दुस्तानी वहीं जाना पसन्द करते थे। जब सारी स्थिति स्पष्ट हो गई, तो सच्चाई का वातावरण बना। गोरे शर्मिंदा हुए। समाचार पत्रों ने गांधीजी को निर्दोष सिद्ध किया और हुल्लड करने वालों की निन्दा की। नेटाल एडवरटाइजर ने लिखा, "यहां और अन्यत्र यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस युवा भारतीय बैरिस्टर पर क्रूर हमला गैर-जिम्मेदार बदमाशों का काम था... यह प्रदर्शनकारियों और आम तौर पर शहर वासियों पर निर्भर है कि वे कायर भीड़ के साथ सभी तरह के संबंधों को औपचारिक रूप से खारिज कर दें।" इन सब बातों का गांधीजी को फ़ायदा ही हुआ। गांधीजी का सम्मान नेटाल के गोरों में और भी बढ़ गया। वे स्वयं भी यह मानते थे कि ये घटनाएं बाद के उनके काम में सहायक सिद्ध हुईं। उनके कारण उनके काम में रुकावट नहीं आई।

अपने निवास पहुंचे

गांधीजी का ठिकाना और उनके भावी आंदोलन अटकलों का विषय बने रहे। तीन दिनों तक गांधीजी को पहरे में थाने में रखा गया। जब तूफान थम गया तो वे वहां से निकले। दरअसल, सेंट्रल पुलिस स्टेशन में एक दिन आराम करने के बाद, जहाँ आर. सी. एलेक्ज़ेंडर ने उन्हें ऊपर के अधिकारियों के क्वार्टर में शरण दी थी, गांधीजी को चुपचाप 'बीच ग्रोव' स्थित उनके निवास पर ले जाया गया था। उनकी पत्नी और बच्चे उनसे पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे और अब वे अपनी चोटों से उबर रहे थे। नेटाल की घटनाओं का असर भारत और इंग्लैण्ड में भी हुआ। जहां भारत में वायसराय ने सारी घटना पर गहरी चिन्ता जताई वहीं इंग्लैण्ड में उपनिवेश सचिव मि. चैम्बरलेन ने नेटाल की सरकार को तार भेज कर उन लोगों पर मुकदमा चलाने का हुक्म दिया जिन्होंने गांधीजी पर हमला किया था, ताकि गांधीजी को न्याय मिले।

एक राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में

जब तूफ़ान थम गया और गांधीजी अपनी पत्नी और बेटों के साथ डरबन में बसने में सक्षम हो गए, तो उन्होंने पाया कि कई सूक्ष्म तरीकों से उनकी स्थिति बदल गई थी। अगर उन्होंने खुद से पूछा कि वे वापस क्यों आए हैं, तो उन्हें कोई सरल कारण नहीं मिला। नेटाल एडवरटाइजर के एक संवाददाता से, जिसने एस.एस. कुरलैंड पर उनका साक्षात्कार लिया, उन्होंने कहा: "मैं यहाँ पैसा कमाने के इरादे से नहीं, बल्कि दो समुदायों के बीच एक विनम्र दुभाषिये के रूप में काम करने के इरादे से आया हूँ।" यह सच था, लेकिन यह सच्चाई का केवल एक हिस्सा था। वे जाने-माने भारतीय नेताओं के आदेश के साथ दक्षिण अफ्रीका आए थे, और इसलिए उन्हें भारतीय और यूरोपीय लोग समान रूप से एक राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में देखते थे। पहले उन्होंने अपने नाम पर काम किया था; अब वे भारत के नाम पर काम कर रहे थे। उनका लहजा आधिकारिक और अधिक अडिग हो गया।

कस्तूरबाई की प्रार्थना

20 जनवरी को, गांधीजी बीच ग्रोव अपने परिवार के साथ रहने आ गए। अब तक कस्तूरबाई दिन-रात भगवान से पति की कुशलता की प्रार्थना करती रही थीं। अफ़्रीका में घुसते ही इतना कटु अनुभव होगा, यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। न अपना देश था, न अपनी भाषा थी वहां। जिनके भरोसे वो आई थीं, वही लुटे-पिटे पुलिस स्टेशन चले गए थे। इन चार दिनों में जितना असहाय अपने को उन्होंने महसूस किया उतना तो जीवन में कभी नहीं किया था। बस ईश्वर के प्रति आस्था ने उन्हें बचाए रखा। पति भेष बदलकर घर से बाहर चले गए थे। वे हमेशा भगवान से कहती रहतीं – मेरे पति की रक्षा करना। दिन-रात आंसू बहते रहते। मकान मालकिन रोम रुस्तमजी स्वभाव से बहुत अच्छी महिला थीं। वह कस्तूरबा को समझाती रहतीं, धैर्य बंधाती रहतीं। रुस्तमजी का घर छोड़ते हुए कस्तूरबाई भावुक हो रही थी। इन बुरे वक़्त में उस अजनबी देश में उन्होंने कस्तूरबाई और बच्चों का पूरा-पूरा ध्यान रखा। कस्तूरबाई को यह भी समझ में आया कि उनके पति इस देश में कितने प्रसिद्ध हैं। हालाकि पारसी परिवार का रहन-सहन राजकोट से बिल्कुल ही अलग था, फिर भी उन्होंने किसी तरह गुज़ारा किया था। पर अब तो अपने घर वो आ गई थीं और इसकी ख़ुशी उनके लिए बहुत मायने रख रही थी। पिछले 28 सालों में ऐसा अवसर पहली बार आया था जब घर की मालिक वो ख़ुद थीं।

किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं

उसी दिन न्याय-विभाग के प्रधान, एटॉर्नी जेनरल हैरी एस्कॉम्ब जो पड़ोस में ही रहता था, गांधीजी से मिलने आया। उसने सारी घटना पर अफ़सोस जताया। उसने यह भी बताया, “उपनिवेश सचिव जोसेफ़ चैम्बरलेन ने आक्रमणकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। आपने लाटन की सलाह मानकर तुरन्त उतरने का साहस किया। आपको ऐसा करने का अधिकार था, पर आपने मेरे सन्देश को मान लिया होता, तो यह दुखद वाकया न होता। अब अगर हमला करने वालों को पहचान सकें तो मैं उन्हें गिरफ़्तार करवाने और उन पर मुकदमा चलाने को तैयार हूं। मि. चैम्बरलेन का भी यही आदेश है।

गांधीजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “मुझे किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करवानी है। एक दो को अगर मैं पहचान भी लूं तो उन्हें सज़ा दिलवाने से मुझे क्या फ़ायदा होने वाला है। मैं तो उन्हें दोषी भी नहीं मानता। उन लोगों ने वही किया जो उसके नेता चाहते थे। मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता। अगर कोई इसके लिए जिम्मेदार है तो वह आप हैं या यहां की सरकार है। जब वस्तु-स्थिति प्रकट होगी और लोगों को पता चलेगा, तो वे ख़ुद पछताएंगे।

इस तरह के जवाब के लिए हैरी एस्कॉम्ब तैयार नहीं था। फिर भी उसने गांधीजी के जवाब पर उन्हें दाद देता हुआ कहा, “आपका यह आचरण भारतीय समुदाय के हक़ में अच्छा रहेगा। आपका किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करने के फैसले ने नेटाल की सरकार को एक संकट की स्थिति से बचा लिया। किन्तु मुझे तो चैम्बरलेन को जवाब देना है, इसके लिए आप मुझे लिखित जवाब दे देंगे? मैं नहीं चाहता कि आप जल्दी में कुछ लिखकर दें। मेरी इच्छा है कि आप लाटन और अपने अन्य मित्रों से भी बात कर लें।

एस्कॉम्ब की समझ संकुचित थी। वह गांधीजी की दृष्टि से वाकिफ़ नहीं था। गांधीजी ने कहा, “आप ग़लतफ़हमी का शिकार न हों। न तो मैंने किसी से कोई सलाह-मशवरा किया है और न ही किसी से करने का इरादा है। मैंने जो भी निर्णय लिया अपने विवेक से। अभी और यहीं आपको लिख कर दे देता हूं। गांधीजी ने आवश्यक पत्र लिख कर दे दिया।

गांधीजी मानते थे कि दोष नेटाल सरकार का है, और खास तौर पर अटॉर्नी जनरल हैरी एस्कोम्ब का, जिन्होंने औपनिवेशिक देशभक्त संघ को भारतीयों के खिलाफ यूरोपीय लोगों को भड़काने की अनुमति दी। गांधीजी ने साफ कहा था, "आपने नेटाल में यूरोपीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए जो उचित समझा, वही कदम उठाया। यह एक राजनीतिक मामला है, और मुझे राजनीतिक मैदान में आपसे लड़ना है।"

हालाँकि उन्हें उन लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए आमंत्रित किया गया था जिन्होंने उन पर हमला किया था, लेकिन उन्हें सार्वजनिक सुनवाई के लाभों के बारे में संदेह था। उन्हें किसी भी तरह की सज़ा के प्रति धार्मिक आपत्ति थी, और अपने हमलावरों को कारावास की सज़ा सुनाए जाने से उन्हें कोई संतुष्टि नहीं होती। यह मुकदमा यूरोपीय लोगों को भारतीयों के खिलाफ़ भड़का देता, जिन्हें इससे कुछ हासिल नहीं होता। यह एक सादगी से जी रहे संत स्वभाव वाले आदमी का वचन था। इस तरह की नैतिकता का उदाहरण गांधीजी के आने वाले जीवन में हमें कई और देखने थे, यह तो एक झलक भर थी। उन्हें मालूम था कि सिद्धान्ततः वे सही थे, और उसका नतीज़ा जल्द ही सामने आने वाला था। अपने आक्रमणकारियों के प्रति गांधीजी के क्षमाभाव की चर्चा पूरे नेटाल में फैल गई। मुकदमा न चलाने वाले, प्रतिशोध के निराकांक्षी, क्षमाशील गांधीजी के सद्व्यवहार की ऐसी छाप पड़ी कि गोरे शर्मिन्दा हुए। गांधीजी के निर्दोष होने का समाचार वहां के सभी अख़बारों में छापा गया। अब वहां गांधीजी को एक विशेष व्यक्ति माना जाने लगा। हिंदुस्तानी कौम की प्रतिष्ठा बढ़ी। सज्जन गोरे लोग गांधीजी की उदारता से प्रभावित हो गए। कई उनकी सराहना करने लगे। कितनों ने उनके साथ व्यक्तिगत मैत्री स्थापित कर ली। इस घटना से सारा डरबन शहर गांधी नाम से परिचित हो गया।

एलेक्ज़ेण्डर दंपत्ति की भूमिका

इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस अधीक्षक आर.सी. एलेक्ज़ेण्डर और उसकी पत्नी की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही। 22 जनवरी को गांधीजी ने उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता एक पत्र और उपहार भेजा। गांधीजी के आभार ज्ञापन के तरीक़े ने उस दम्पत्ति के दिल को छूआ और दोनों की निकटता और प्रगाढ़ हुई। एलेक्ज़ैण्डर ने भी अपना खेद प्रकट करते हुए बताया कि उसके पास पुलिस बल कम थे इसलिए वह उन्हें पूरी तरह से सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाया और गांधीजी को भेष बदलकर निकलने की उसे सलाह देनी पड़ी। उन्होंने आगे कहा: ‘मुझे विश्वास है कि आप और आपके लोग क्षमा करेंगे, और आप हमारे अपने पैगंबर की तरह, जब इसी तरह के मुकदमे में होंगे, तो अपने आरोप लगाने वालों को क्षमा कर देंगे, क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि उन्होंने क्या किया है।’ श्रीमती एल्क्ज़ेण्डर ने तो यहां तक कहा कि वह जितना कर सकती थी की, पर जो अन्याय आपके साथ किया गया है वह हमारे देशवासियों के कृत्य को क्षमा करने लायक नहीं है। गांधीजी द्वारा प्रदर्शन के दौरान दिखाए गए शानदार साहस और आत्म-नियंत्रण के गुणों से प्रभावित हो कर हैरी एस्कोम्ब और सर जॉन रॉबिन्सन अंततः उनके अच्छे दोस्त बन गए। ए.एम. कैमरून, जो नेटाल में टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष प्रतिनिधि थे, भी गांधीजी के अच्छे दोस्त बन गए। ऐसे और भी कई लोग थे, जो गांधीजी के परम मित्र बने।

नैतिक जीत हासिल की

मार खाकर और अपमान झेलकर भी गांधीजी ने एक नैतिक जीत हासिल की थी। हैरी एस्कॉम्ब और नेटाल की सरकार की कलई खुल गई थी। सरकार और प्रदर्शन समिति के बीच टकराव की संभावना भी नज़र आने लगी थी। यह बात खुल कर सामने आ गई कि एटॉर्नी जनरल ने प्रदर्शनकारियों को आश्वासन दे रखा था कि उन्हें प्रशासन का पूरा सहयोग मिलेगा और ज़रूरत पड़ने पर क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात सुरक्षा बल को भी हटा लिया जाएगा। हर कोई जानता था कि अटॉर्नी जनरल ने समिति को यह आभास दिया था कि उसे प्रशासन का समर्थन प्राप्त है और सरकार कानून-व्यवस्था की स्थिति से निपटने के लिए सेना बुलाने की बजाय इस्तीफा दे देगी। कुछ लोगों ने तो यहां तक मान लिया था कि यह क़दम आने वाले आम चुनाव को मद्दे नज़र रखकर बहुत सोच समझ कर उठाया गया था। सत्ताधारी पार्टी का वोट पाने के लिए इतना नीचे गिरना एक कलंक था जिसे आसानी से मिटाया नहीं जा सकता था। हैरी एस्कोम्ब ने प्रदर्शन समिति के साथ छेड़छाड़ करके विपक्ष को आगामी चुनावों में मंत्रालय के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए तैयार गोला-बारूद उपलब्ध करा दिया। डरबन की भीड़ और प्रदर्शन के नेताओं के अत्यंत गैर जिम्मेदाराना आचरण के कारण सभी संबंधित पक्षों ने उनकी कड़ी निंदा की और यहां तक ​​कि सरकार के मुखपत्र को भी अपने कुछ कार्यों से पल्ला झाड़ना पड़ा। यह तो गांधीजी की उदारता थी जिसके कारण सरकार को आक्रमणकारियों के ख़िलाफ़ कोई दण्डात्मक कार्रवाई नहीं करनी पड़ी वरना उनकी और भी फ़ज़ीहत होती।

इंग्लैंड में प्रभाव

प्रदर्शन प्रकरण का इंग्लैंड में भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। जोसेफ़ चैम्बरलेन को संसद में सदस्यों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। जोसेफ चेम्बरलेन को संसद में सर विलियम वेडरबर्न के शर्मनाक सवालों का खामियाजा भुगतना पड़ा। गोपाल कृष्ण गोखले ने भारत में इसकी विस्तृत समीक्षा करते हुए इसे "एक ऐसी कहानी बताया जिसे कोई भी भारतीय बिना कड़वाहट के नहीं पढ़ सकता और किसी भी समझदार अंग्रेज को गहरी शर्म और आक्रोश की भावना के बिना नहीं पढ़ना चाहिए"। प्रदर्शन समिति के गलत विचार वाले साहसिक कार्य ने चेम्बरलेन को जिस मुश्किल स्थिति में पहुंचा दिया था, उसका जिक्र करते हुए जोहान्सबर्ग के स्टार ने लिखा: "नैतिक रूप से, वह (श्री चेम्बरलेन) भारतीयों की स्थिति की न्यायसंगतता को बनाए रखने के लिए बाध्य हैं; आर्थिक रूप से, वह उपनिवेशवादियों के दावे की न्यायसंगतता को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं; राजनीतिक रूप से, यह मनुष्य की बुद्धि पर निर्भर है कि वह किस पक्ष का पक्ष ले।"

उपसंहार

गांधीजी को पता था कि भीड़ उनका इंतजार कर रही है, जिसका सामना करने के लिए काफी साहस की आवश्यकता थी, लेकिन ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने कोई हिचकिचाहट दिखाई या विशेष सुरक्षा मांगी। यह साहस उनके भाग्य के प्रति जागरूकता से आता है, जो संभवतः वर्गीय गौरव और सम्मान की भावना के साथ संयुक्त है। यही वह चीज है जो उन्हें इन करो या मरो वाले क्षणों में सहारा देती है, जहां वह जानते थे कि उन्हें चोट खाने के लिए तैयार रहना होगा। उन्हें एहसास था कि अगर वह झुक गए या पीछे हट गए तो वह अपनी नियति को समर्पित कर देंगे। नियति की भावना उनके अन्दर हो या न हो, निश्चित रूप से उनमें एक मिशन की भावना थी, और उन्होंने - आखिरकार - भारतीय समुदाय के सामने स्वयं को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया था, जिसमें श्वेत व्यक्ति का सामना करने का साहस था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 


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