गांधी और गांधीवाद
72. डरबन लौटने पर विरोध-प्रदर्शन
13 जनवरी 1897
प्रवेश
गांधीजी जब भारत से दक्षिण
अफ़्रीका के लिए चले थे तब उन्हें कहां पता था कि वे भाग्य के किस
कुचक्र में फंसेंगे। वह तो यह सोचकर निकले थे कि अपनी
दुखद स्थिति से बाहर निकल रहे हैं और कुछ कमाने वाले हैं। लेकिन भाग्य के छिपे हुए
अभिप्राय कुछ और ही थे। संकोची स्वभाववाला अनुभवहीन गांधी को दक्षिण अफ़्रीका में
उन ताकतों से टकराना पड़ा जिन्होंने उन्हें मज़बूर किया कि वह अपनी नैतिक शक्ति को
बाहर निकालें और अपमान और हताशा को एक रचनात्मक आध्यात्मिक अनुभव की शक्ल में ढाल
दें।
विरोध प्रदर्शन योजना
गांधीजी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल कि लिए स्टीमर से चले थे।
उधर डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। उसका केन्द्र बिन्दु गांधीजी थे।
उनपर दो आरोप लगाए गए थे .. उन्होंने भारत में नेटाल-वासी गोरों की अनुचित निन्दा
की थी, वे नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे। गांधीजी निर्दोष थे। उन्होंने भारत
में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो
कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था। जब स्टीमर 18 दिसम्बर 1896 को डरबन के बन्दर पर पहुंचा
तो कई दिनों तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इजाज़त नहीं मिली। जहाज को क्वारंटीन में रखा
गया। धमकी दी गई कि गांधीजी की जान खतरे में है। तेईस दिनों के बाद क्वारंटीन की
अवधि संपूर्ण हुई। आखिर 13 जनवरी को जहाज को बंदरगाह में प्रवेश करने की अनुमति दी गई। मालिकों को पता
चलने से बहुत पहले ही यह खबर पूरे शहर में फैल गई कि 13 जनवरी को दोपहर के समय
जहाजों को अंदर लाया जाएगा। आंदोलन के मुख्यालय सेंट्रल होटल में तुरंत ही समिति
के सदस्य प्रदर्शन के लिए अंतिम आदेश जारी करने के लिए एकत्र हुए। कार्य योजना सटीक रूप
से निर्धारित की गई थी।
उपद्रवी गलियों में उतरे
बुधवार की सुबह 10 बजे के कुछ ही समय बाद जैसे ही यह खबर फैली कि दोनों जहाज,
कुरलैंड और नादरी, बन्दरगाह पर आ रहे हैं, उपद्रवी गलियों में उतर आए और लोगों से बन्दरगाह पहुंचने की अपील
करने लगे। तुरत ही दुकानों के शटर गिरा दिए गए ताकि सारे काम करने वाले लोग
प्रदर्शनकारियों का साथ दे सकें। कुछ ही समय में एलेक्ज़ेण्ड्रा स्क्वायर पर तीन
हजार से ज़्यादा की भीड़ इकट्ठी हो गई जिसमें तीन सौ से अधिक काले लोग भी थे, और उनके हाथ में लाठी आदि थे। 12 बजे से कुछ
पहले एलेक्जेंड्रा स्क्वायर पर 900 से 1,000 रेलवे के लोग, याची क्लब, प्वाइंट क्लब और रोइंग
क्लब के 150, बढ़ई और जॉइनर 450, प्रिंटर 80, दुकान सहायक लगभग 400, दर्जी और सैडलर
70,
प्लास्टर और ईंट बनाने वाले 200 और आम जनता लगभग 1,000 जुट गए। वे लोग किसी भी हाल में भारतीय यात्रियों को जहाज से न उतरने देने पर
उतारू थे, चाहे बल प्रयोग ही क्यों न करना पड़े।
जहाज-घाट की तरफ़ लौटा
जहाज़ों पर इस बात को लेकर बहुत अनिश्चितता थी कि प्रदर्शन
किस रूप में होगा। कुरलैंड के कैप्टन मिल्ने को पहले अपने जहाज़ को ले जाने की अनुमति दी गई। उन्होंने तय किया कि
यात्रियों की सुरक्षा के लिए कुछ प्रयास किए जाने चाहिए, क्योंकि उन्हें सरकार से कोई आश्वासन नहीं मिला था। मिल्ने ने जहाज़
के अगले भाग पर यूनियन जैक को फहराया, मुख्य मस्तूल पर जहाज़
के ध्वज के ऊपर लाल ध्वज लगाया, तथा जहाज़ के पिछले भाग पर भी लाल ध्वज प्रदर्शित किया।
उन्होंने अपने अधिकारियों को निर्देश दिया था कि यदि संभव हो तो किसी भी
प्रदर्शनकारी को जहाज पर आने से रोका जाए, लेकिन फिर भी यदि वे
जहाज पर आ ही जाएं तो यूनियन जैक को उतारकर आक्रमणकारियों के सामने प्रस्तुत कर
दिया जाए। उनका ख्याल था कि इस आत्मसमर्पण के बाद कोई भी अंग्रेज जहाज
पर सवार लोगों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा। सौभाग्यवश, इस कार्रवाई की ज़रुरत
ही नहीं पड़ी। जैसे ही कुरलैंड खाड़ी में दाखिल हुआ, जहाज पर सवार सभी
यात्रियों की निगाहें उस ओर टिकी थीं कि प्रदर्शन किस तरह से हो रहा है। मुख्य घाट
के दक्षिणी छोर से लेकर उत्तरी घाट तक लोगों की एक कतार देखी जा सकती थी, लेकिन वे शांत
थे। गांधीजी और कुछ अन्य यात्री डेक पर से यह नज़ारा देख रहे
थे। तब तक पांच हजार से अधिक की भीड़ जुट चुकी थी। यह प्रदर्शनकारियों का
मुख्य समूह था, जो मुख्य घाट पर उमड़
पड़ा था, और आने वाले स्टीमर से दिखाई नहीं दे रहा था। जैसे ही कुरलैंड जहाज-घाट की तरफ़ बढ़ने लगा, वहाँ का सारा माहौल तनाव से भर गया। वे इधर-उधर भागने
लगे, वे पूरी तरह से
असमंजस में थे कि आगे कैसे बढ़ें, और जल्द ही वे सभी
एलेक्जेंड्रा स्क्वायर पर बैठक में भाग लेने के लिए चले गए।
इस बीच हैरी एस्कॉम्ब एक रोइंग-बोट द्वारा, जिस पर कैप्टन बैलार्ड, पोर्ट कैप्टन, रीड, घाट-मास्टर, सिम्पकिंस, मूरिंग-मास्टर भी सवार थे, कुरलैंड
की ओर रवाना हुआ। उसका एक मात्र उद्देश्य था जहाज के कप्तान कैप्टन मिल्ने और यात्रियों को समझाना कि उन्हें चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। वे
इस सरकार के अंदर उसी तरह सुरक्षित हैं जैसे वे अपने गांव में होते। नादरी के
यात्रियों को भी उसने इसी तरह का आश्वासन दिया और जहाज-घाट की तरफ़ लौट आया।
हैरी एस्कॉम्ब का भाषण
एटॉर्नी जनरल हैरी एस्कॉम्ब
को प्रदर्शन कमेटी वाले अपने साथ एलेक्ज़ैण्डर स्क्वायर ले गए। वहां पर हैरी स्पार्क्स
द्वारा बुलाई गई एक विशाल भीड़ एकत्रित थी। भीड़ क्रुद्ध थी। एस्कोम्ब की नीति अब भीड़ को तितर-बितर करने की
थी। एक बजे के आस पास हैरी एस्कॉम्ब ने भाषण देना शुरु किया।
भीड़ के उत्तेजित स्वरूप को देखकर वह घबड़ाया हुआ था। इसके लिए वह भी कम
उत्तरदायी नहीं था। लेकिन अब यह उसके लिए आवश्यक हो गया था कि उन्हें नियंत्रण में
रखे। श्रोताओं को समझाने के लिए उसने अपनी पूरी कुशलता और योग्यता का परिचय दिया।
उसने कहा, “डरबन में यूरोपियों ने खूब एकता और हिम्मत दिखाई। आप लोगों से जितना
हो सकता था उतना आपने किया, सरकार ने भी आपकी सहायता की। इन लोगों को 23 दिनों तक जहाज से उतरने नहीं दिया। आपने
अपनी भावनाओं और अपने जोश का जो प्रदर्शन किया वह काफ़ी है। इसका इंग्लैण्ड की सरकार पर गहरा असर
होगा। अब आपने बल प्रयोग करके एक भी भारतीय मुसाफ़िर को उतरने से रोका तो अपना काम
आप अपने हाथों से बिगाड़ देंगे। नेटाल सरकार की स्थिति भी कठिन हो जाएगी। ऐसा करके
भी आप इन लोगों को रोकने में सफल नहीं होंगे। मुसाफिरों का तो कोई अपराध है ही
नहीं। उनमें स्त्रियां और बालक भी हैं।
इसलिए आप मेरी सलाह मानकर अपने-अपने घर चले जाएं। मैं आप
लोगों को वचन देता हूं कि सरकार आपकी भावनाओं का पूरा सम्मान करते हुए एक ऐसा
विधेयक लाएगी जो आपकी इच्छा के अनुरूप होगा। साथ ही यह अपील भी करता हूं कि आप कोई
ऐसी हरकत न करें जो इंग्लैण्ड की महारानी की भावनाओं को आहत करे। आप लोग उसी
प्रकार सरकार पर भरोसा रखें जिस तरह से सरकार ने आप पर भरोसा जताया है।” श्रोतागण उनके भाषण से निराश हुए।
उसके बाद हैरी स्पार्क्स ने बात की और उसका भी उतना ही जोरदार
स्वागत हुआ। उसने कहा कि हमें सरकार के सामने झुकना होगा। सरकार ने मामले को अपने
हाथ में ले लिया है। हमने अपना उद्देश्य हासिल कर लिया है। हम मामले को सरकार के
हाथों में छोड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। आज रात टाउन-हॉल में एक सार्वजनिक
बैठक आयोजित की जाएगी। डॉ. मैकेंजी ने भीड़ को शांत करने की कोशिश की। उसने कहा कि
उन्हें सरकार से यह आश्वासन चाहिए कि वे भारतीयों के इन जहाज़ों को कॉलोनी में आने
से रोकने के लिए हर वैध प्रयास किया जाएगा। यदि श्री एस्कोम्ब हमसे कहें कि जहाँ
तक सरकार का संबंध है, जब तक कि कानून द्वारा प्रश्न का समाधान नहीं हो जाता, तब तक कोई और
जहाज नहीं आएगा, तो हम यह कहने के लिए तैयार हैं कि यह मामला सरकार पर छोड़ दिया जाना
चाहिए। हमें आंदोलन नहीं छोड़ना था। आंदोलन को हमने सरकार के हाथों में सौंप दिया है।
डॉ. मैकेंजी ने अपने भाषण के समापन में श्री एस्कोम्ब से यह पूछा कि सरकार कानून
बनने से पहले उपनिवेश में और अधिक जहाज भरकर आने वाले भारतीयों को रोकने के लिए
क्या करने का इरादा रखती है। अटॉर्नी जनरल ने जवाब दिया कि सरकार अपनी शक्ति में सब
कुछ करेगी, जो वैध कार्रवाई की प्रकृति का है।
भीड़ छंटी
भीड़ की प्रतिक्रिया मिश्रित
थी। कुछ सहमत थे, कुछ असहमत। प्रदर्शन समिति के नेता,
जो अब तक आग को भड़काने में लगे थे, अब उनका उसे बुझाने का कोई इरादा
नहीं दिख रहा था। उनमें से एक डैन टेलर, ने भाषण देते हुए कहा कि अब तक सरकार आंखें बन्द कर सारा खेल देख
रही थी। हमारे प्रयासों ने सरकार की आंखें खोल दी है। अब यह उम्मीद की जा सकती है
कि सरकार स्थिति को सही तरीक़े से संभालेगी। इन सब का इच्छित परिणाम हुआ। एस्कोम्ब के लिए
तीन जयकारे लगाने के बाद बैठक दो बजकर पाँच मिनट पर समाप्त हो गई। भीड़ छंटी। दुकानें फिर से खुल गईं। जो कट्टर उग्रवादी थे, उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया।
लेकिन कुल मिलाकर यह महसूस किया गया कि जो कुछ भी हुआ वह सबसे अच्छा था।
गांधीजी के सर पर खतरा
13 जनवरी 1897 को जहाज घाट पर लगा। शहर शांत हो चुका था। यात्रियों को उतरने की इजाज़त
मिली। सारे यात्री बिना किसी नुकसान के उतर गए, लेकिन गांधीजी और उनके परिवार को
सभी यात्रियों के साथ नहीं उतरने दिया गया। भारतीय यात्री छोटे-छोटे ग्रुप में उतर
कर जा रहे थे। दोपहर हो चुकी थी। कस्तूरबाई और बच्चे नये कपड़े पहनकर सुबह से ही
तैयार बैठे थे। उनका सामान बांधा जा चुका था। वे जहाज से उतरने को उतावले थे, पर गांधीजी कहीं दिख नहीं रहे थे।
कुछ देर पहले एक आदमी आया था और वह उन्हें बुलाकर जहाज के कैप्टन की केबिन की तरफ़
ले गया था। कस्तूरबाई इस न खत्म होने वाली प्रतीक्षा से ऊब चुकी थी। अन्य यात्री
उतर रहे थे। यह सब देख बच्चे अधीर हो रहे थे। पांच वर्ष के मणिलाल को झपकियां आ
रही थीं। आठ साल के हरिलाल और दस साल के गोकुलदास की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
हरिलाल हर पांच मिनट के बाद मां से पूछते, “और कितनी देर हमें यहां रुकना होगा?”
हर बार मां कस्तूरबा उनकी पीठ प्यार से थपकाते हुए कहती, “मुझे नहीं मालूम।”
इधर हैरी एस्कॉम्ब ने जहाज के
कैप्टन मिल्ने को खबर भिजवाई, ``बैरिस्टर गांधी और उनके परिवार को शाम को जहाज से उतारा जाए क्योंकि
गोरे बहुत जोश में हैं और गांधीजी की जान को खतरा है। गोरे खास तौर से उन्हीं से
नाराज़ हैं। दिन ढलने के बाद अंधेरा होने पर शाम को पोर्ट सुपरिंटेंडेंट टेटम
उन्हें अपनी हिफ़ाज़त में ले जाएंगे।” यह कोई हुक्म नहीं था, बल्कि कप्तान के लिए गांधीजी को उतरने न देने की सलाह थी। गांधीजी के
सर पर जो खतरा मंडरा रहा था, यह उसकी चेतावनी थी। कप्तान गांधीजी को जबरदस्ती तो
रोक नहीं सकता था। लेकिन गांधीजी ने सोचा कि उन्हें यह सलाह मान लेनी चाहिए। गांधीजी
इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए। केबिन में लौट कर गांधीजी कस्तूरबा और बच्चों को सूचना
दी कि उन्हें शाम तक जहाज पर ही रहना होगा। कस्तूरबा और बच्चों के लिए तो यह
वज्रपात था। उन्होंने कस्तूरबा को समझाया कि हालाकि भीड़ छंट चुकी है, शहर शांत हो चुका है पर मेरे एक
मित्र एस्कॉम्ब ने सलाह दी है कि हमें अंधेरा घिर आने के बाद ही जाना चाहिए।
कस्तूरबाई की तो सांस ही थम गई। “कैसे-कैसे लोग रहते हैं यहां?” यही ख्याल उनके मन में आया।
छिप कर नहीं जाना चाहिए
अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था
कि अब्दुल्ला एंड अब्दुल्ला कंपनी के क़ानूनी सलाहकार और गांधीजी के यूरोपियन वकील
मित्र एफ़.ए. लाटन आ गए। उन्होंने गांधीजी से पूछा,
“आप अब तक क्यों नहीं उतरे?”
गांधीजी ने उन्हें एस्कॉम्ब के संदेश की बात कही। लाटन ने
कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधीजी को अपनी जिम्मेवारी पर
ले जाएंगे। फिर लाटन ने गांधीजी से कहा, “इस समय शांति है। किसी तरह का ख़तरा नहीं है। अगर आपको ज़िन्दगी का डर
न हो, तो मैं चाहता हूं कि श्रीमती गांधी और बच्चे गाड़ी में पारसी रुस्तम
सेठ के घर जायें और आप और मैं सरेआम रास्ते से पैदल चलें। आप अंधेरा होने पर
चुपचाप शहर में दाखिल हों, यह मुझे तो ज़रा भी नहीं जंचता। मैं तो मानता हूं कि आपका बाल भी
बांका नहीं होगा। अब तो सब शान्त है, गोरे सब तीतर-बीतर हो गये हैं। और मेरी राय है कि कुछ भी क्यों न हो, आपको छिप कर तो हरगिज नहीं जाना
चाहिए।”
कैप्टन मिल्ने को यह जंच नहीं
रहा था और गांधीजी खुद भी सरकार की सलाह को नकारना नहीं चाह रहे थे। पर लाटन ने
कहा कि अंधेरा हो जाने पर शहर में चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है। उससे
लोगों के मन में व्यर्थ का विवाद और शंका जन्म ले सकता है। और यह भी तो हो सकता है
कि रात के अंधेरे में भेजने में उनकी कोई चाल हो। विचार-विमर्श के बाद गांधीजी
लाटन की सलाह पर सहमत हुए।
यह सुन कर तो कस्तूरबाई के मन
में विचारों का तूफान उठ खड़ा हुआ। बच्चे तो खुशी से उछल पड़े थे। गांधीजी ने सामान
उठाया और बा और बच्चों को गाड़ी पर चढ़ने को कहा। बा ने पूछा, “और आप?”
गांधीजी ने कहा, “हम पैदल आ रहे हैं।” यह सुनकर बा ने कहा, “मैं भी आपके साथ ही जाऊंगी।” गांधीजी ने बताया, “रुस्तमजी का घर यहां से दो मील से भी अधिक की दूरी पर है। तुम उतनी
दूर नहीं चल पाओगी और बच्चों को अकेले भेजना भी उचित नहीं है।” बा के मन में तरह-तरह की शंकाएं घिरने लगीं। कुछ गड़बड़ ज़रूर है। अगर ये
संकट में हैं तो मुझे भी उनके साथ ही होना चाहिए। किन्तु अधिक तर्क वो कर न सकीं और
पति जो आदेश दे रहे थे उसी का पालन करना उन्होंने उचित समझा। गर्भवती कस्तूरबा एवं
बच्चे गाड़ी में बैठकर गांधीजी के पारसी मित्र रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए।
गांधीजी को एक और
परीक्षा से गुज़रना था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
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