गांधी और गांधीवाद
82.
गांधीजी ने अपने बच्चे का प्रसव ख़ुद करवाया
1898-1900
प्रवेश
बीमारों की सेवा करना गांधीजी
के दिल के लिए हमेशा से बहुत प्रिय रहा। यह उनके लिए सबसे बड़ी सांत्वना का स्रोत
रहा है और उनके कुछ सबसे पवित्र अनुभव इसी से जुड़े हुए हैं। ईसाई मिशनरी
गतिविधि में यही एक चीज़ थी जिसने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया था। वह एक
अस्पताल में नर्स के रूप में मानवीय सेवा में शामिल होने के अवसर तलाशते रहते थे। हमने देखा है किस तरह गांधीजी ने अस्पताल में रोगियों की सेवा की। यह
अनुभव भविष्य में उनके लिए व्यक्तिगत रूप से भी वरदान साबित हुआ। दक्षिण अफ़्रीका गांधीजी दो पुत्रों के साथ आए थे। दो और पुत्रों का
जन्म वहीं हुआ। इन बच्चों को किस तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाए, इसमें भी उनकी सेवा-शुश्रुषा की
भावना ने काफ़ी मदद किया।
बच्चा जनने की सुविधा का अभाव
उनकी पत्नी को एक और बच्चा होने वाला था। जब कस्तूरबाई दक्षिण अफ़्रीका के बीच ग्रोव विला में गर्भवती हुईं तो
उस मकान में बच्चा जनने के लिए कोई विशेष सुविधा नहीं थी। वह और कस्तूरबाई दोनों
ही स्वाभाविक रूप से प्रसव के समय सर्वोत्तम चिकित्सा सहायता पाने के लिए उत्सुक
थे। एक नए देश में इस मामले में सावधानी के साथ पहल करने की
ज़रूरत थी। इसके पहले के दो बच्चों के प्रसव के समय गांधीजी ने कस्तूरबाई पर ध्यान
नहीं दिया था, पर इस बार उन्होंने हर चीज़ का जिम्मा ख़ुद लिया और उनके लिए अच्छी से
अच्छी स्वास्थ्य सेवा जुटाने का प्रयास किया। बा और बापू ने निश्चय किया कि
प्रसूति आदि का काम वे शास्त्रीय पद्धति से करेंगे। हालाकि डॉक्टर और नर्स की
सुविधा तो वहां थी, लेकिन संशय यह तो था ही कि ऐन मौक़े पर अगर डॉक्टर न मिला, अगर दाई भाग गई तो...? दाई तो भारतीय ही रखी जा सकती थी।
योग्य और कुशल दाई को पाना तो भारत में मुश्किल था,
फिर दक्षिण अफ़्रीका की तो बात ही क्या थी? ऊपर से कस्तूरबा को किसी पुरुष
डॉक्टर से प्रसव के लिए मनाना बहुत ही टेढ़ी खीर थी। उन दिनों दक्षिण
अफ्रीका में एक योग्य नर्स इतनी आसानी से नहीं मिलती थी। इसके अलावा, उसे भारतीय होना था। और अगर प्रसव अप्रत्याशित रूप से हो जाए, जब न तो नर्स और न ही डॉक्टर मौजूद हों तो क्या होगा?
तीसरे बेटे का जन्म
पर गांधीजी किसी भी परिस्थिति
से हार मानने वालों में से नहीं थे। मुश्किलों से मुक़ाबला करना उन्हें ख़ूब आता था।
इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने बाल-संगोपन का अध्ययन कर लिया। डॉ. त्रिभुवन
दास की दाईगिरी पर पुस्तिका “माने शिखामण (एक माँ को सलाह)” नामक पुस्तक उन्होंने पढ़ डाली। इससे सुरक्षित
प्रसव से संबंधित उन्होंने इतनी जानकारी इकट्ठी कर ली थी
कि यदि ज़रूरत पड़ती तो ख़ुद दाई का काम कर लेते। लेकिन उन्हें अपने इस ज्ञान के इस्तेमाल
की ज़रूरत नहीं पड़ी, क्योंकि उनके तीसरे बेटे रामदास का जन्म ऐसे समय (मई 1898) हुआ जब आसानी से
मदद बुलाई जा सकती थी। बीच ग्रोव विला के ऊपरी तले के कमरे में कस्तूरबा थीं, और जब प्रसव वेदना शुरु हुई तो
डॉक्टर मिल गया। प्रसव के समय गांधीजी वहीं उपस्थित थे, डॉक्टर की मदद के लिए। कस्तूरबा काफ़ी
कमज़ोर हो गई थीं। अगले दो सप्ताह तक गांधीजी ने मां और बच्चे की अच्छी तरह से
देखभाल की। इसके अलावा दोनों बड़े बच्चों को भी देखते रहे। दाई की मदद भी ली, पर दो महीने से ज़्यादा नहीं। वह भी
बा की सेवा के लिए ही। बालकों को नहलाने-धुलाने का काम तो वे ख़ुद ही किया करते थे।
चौथे बेटे का प्रसव खुद कराया
बोअर युद्ध से लौटने के बाद उनकी
पत्नी फिर से गर्भवती थी। गांधीजी को प्रसव के समय कस्तूरबा की देखभाल के
लिए एक सक्षम भारतीय दाई और माँ तथा नए आगमन की देखभाल के लिए एक नर्स ढूँढनी थी। 21 मई 1900 को चौथे और अंतिम शिशु, देवदास के जन्म के समय तो उनके इस अर्जित ज्ञान की पूरी परीक्षा ही
हो गई और वे पूरे नम्बर से पास हुए। बा को प्रसव-वेदना शुरु हो गई। डॉक्टर घर पर
नहीं था। ऐसे में क्या किया जाए? दाई को बुलवाने का विचार आया। पर समस्या यहां भी कहां पीछा छोड़ने
वाली थी? एक तो उसका घर दूर था, उसके आने तक तो बच्चा भी हो सकता था,
दूसरे उसके आ भी जाने के बाद वह इतना सक्षम नहीं थी कि
प्रसव करा सके। कस्तूरबा की प्रसव वेदना काफ़ी तेज़ थी। गांधीजी ने निश्चय किया कि
प्रसव का सारा काम वे खुद ही करेंगे। “माने शिखामण” से अर्जित किताबी ज्ञान का प्रयोग ख़ुद दाई बनकर उन्होंने सफलता पूर्वक
किया। उन्हें कोई घबराहट नहीं हुई। गांधीजी खुद दाई बन गए। नाल काटने से लेकर नवजात
शिशु को नहलाने तक का सारा काम ख़ुद किए। कस्तूरबाई को इससे ज़्यादा कोमल और निपुण नर्स
अभी तक कभी नहीं मिली थी। कस्तूरबा की सेवा भी उन्होंने उतनी ही कोमलता से की।
उपसंहार
गांधीजी का मानना था कि
बच्चों के समुचित पालन-पोसन के लिए माता-पिता दोनों को साधारण ही सही, ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। बच्चे
बड़े होकर कितना स्वस्थ रहेंगे उस पर उनके जन्म से लेकर पांच वर्षों के लालन-पालन
का बहुत बड़ा हाथ होता है। यही हाल शिक्षा के सन्दर्भ में भी है। पहले पांच वर्षों
में बालक को जो मिलता है वह बाद में कभी नहीं मिलता। बल्कि सच तो यह है कि बच्चों
की शिक्षा मां के पेट से ही शुरु हो जाती है। गर्भाधान काल की माता-पिता की
शारीरिक और मानसिक स्थिति का प्रभाव बालक पर पड़ता है। माता की प्रकृति और उसके
आहार-विहार के भी असर होते हैं।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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