गांधी और गांधीवाद
89. बोअर-युद्ध-6
“कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि
फरवरी 1900
असिस्टैंट
सुपरिन्टेन्डेन्ट
बोअर युद्ध के दौरान जनरल बुलर ने
उन्हें “असिस्टैंट सुपरिन्टेन्डेन्ट” कहना शुरु कर दिया था। ‘प्रिटोरिया न्यूज’ के सम्पादक विअर स्टेंट ने रणक्षेत्र में सेवा-कार्य में लगे
गांधीजी का यह स्फूर्तिदायक शब्दचित्र अपने अखबार में छापा था,
“सारी रात की कड़ी मेहनत के बाद, जिसने तगड़े जवानों को भी ढीला कर दिया था, बड़े सवेरे मेरी भेंट श्री गांधी से हुई। वह सड़क के किनारे बैठे हुए
फौजी राशन में दिए गए बिस्कुट का कलेवा कर रहे थे। उस दिन जनरल बुलर की फौज का हर
आदमी थका-मांदा, सुस्त और उदास था और सारी दुनिया को कोस रहा था। अकेले गांधीजी ही
प्रस़न्न, अविचलित और संतुलित थे। उनकी वाणी में आत्मविश्वास की झलक और नेत्रों
में करुणा की ज्योति जगमगा रही थी।”
अंततोगत्वा 28 फरवरी 1900 को जनरल बुलर की फ़ौज़ चार महीने की घेराबन्दी तोड़ लेडी स्मिथ में
प्रवेश पाने में सफल हुई। शहर में चारों तरफ़ गन्दगी फैली थी। महामारी का खतरा
उत्पन्न हो गया था। उसकी तुरत साफ़-सफ़ाई की ज़रूरत थी। गांधीजी से 200 लोगों की सहायता की मांग की गई। इस काम को भी भारतीय दस्ते ने पूरी
दक्षता से अंजाम दिया। छह सप्ताह के बाद गांधीजी की टुकड़ी वापस लौट आई। गोरों के
दस्ते को भी घर जाने की इजाज़त दे दी गई थी। लड़ाई तो इसके बाद भी बहुत दिनों तक
चलती रही, पर दस्ते के विघटन के आदेश दे दिए गए। साथ ही यह भी कहा गया कि अगर
फिर ऐसी जबर्दस्त जंगी कार्रवाई करनी पड़ी तो सरकार आपकी सेवा का उपयोग अवश्य
करेगी।
चतुर्दिक
प्रशंसा
भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी थी, विनम्र भारतीयों ने लेडीस्मिथ
की रक्षा में खुद को प्रतिष्ठित किया था, अमीर व्यापारियों ने युद्ध के संचालन के लिए धन के
उपहार दिए थे और एक हजार स्वयंसेवकों ने स्ट्रेचर-वाहक के रूप में काम किया था। गांधीजी और उनके दस्ते के इस प्रयास की चतुर्दिक प्रशंसा हुई। इस काम से भारत
की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जनरल बुलर ने भी गांधीजी के काम की काफ़ी तारीफ़ की। उनकी सेवाओं के लिए गांधीजी
और सैंतीस अन्य भारतीय स्वयंसेवकों को युद्ध पदक से सम्मानित किया गया। गांधीजी की सेवाओं से प्रभावित होकर सरकार ने उन्हें “कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि से सम्मानित किया। जनरल
बुलर ने इस टुकड़ी के सैंतीस “मुखियों” को तमगे दिए। गोरे अखबारों
ने भारतीयों की प्रशंसा करते हुए उन्हें “साम्राज्य सुपुत्र” तक कहा। गांधीजी को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने वाले गोरों में तो जनवरी 1897 में डरबन में उनपर
घातक हमला करनेवाले भारतीय-विरोधी प्रदर्शन के कई
सरगना भी थे। उन भारतीयों की स्मृति में, जिन्होंने युद्ध के
दौरान अपने प्राण गंवाए थे, जोहन्सबर्ग में एक भव्य स्मारक बनवाया गया। इस पर अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी में लिखा है “Sacred to the memory of British Officers, Waaraant Officers,
Native N.C.O’s and Men, Veterinary Assistants, Nalbands and Followers of the
Indian Army, who died in South Africa. 1899-1902.’’
क़ुर्बानी
में भी किसी से पीछे नहीं
सबसे बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि गोरी
सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय लोग क़ुर्बानी में भी किसी से पीछे नहीं हैं।
इस प्रयास का एक और फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय अब अधिक संगठित हुए। भारतीय अनुशासन और
एकता के सूत्र में बंध गए। उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ। उनकी प्रतिष्ठा और गोरों
के साथ मैत्री भी बढ़ी। गांधीजी स्वयं गिरमिटिया आन्दोलनकारियों के काफ़ी निकट
सम्पर्क में आए। हिन्दुस्तानियों में अधिक जागृति आई। हिन्द, मुसलमान, ईसाई, मद्रासी, गुजराती, सिन्धी सब हिन्दुस्तानी है, इस भावना का विकास
हुआ। सबने माना कि भारतीयों का दुख दूर होना चाहिए। गोरों से भी मित्रता बढ़ी। वे
भी भारतीयों के साथ मित्रता का व्यवहार करने लगे। दुख के समय सब एक दूसरे का प्यार
और मैत्री से साथ दे रहे थे। इन स्वयं-सेवकों के प्रभाव से गोरे सैनिकों के दिल से
रंगभेद और काले लोगों के प्रति घृणा भाव मिट-सा गया। गोरे सैनिकों ने देखा कि
डरपोक कहे जाने वाले भारतीयों ने अपनी जान का खतरा उठा कर भी सैनिकों की जान बचाई।
वे गांधीजी के प्रति उपकृत थे। लड़ाई के मैदान में सब लोगों का साथ-साथ खाना-पीना, उठना-बैठना बिना भेदभाव के बढ़ने लगा था।
सैन्य
अनुशासन और वीरता
गांधीजी अंग्रेजों की ओर से मोर्चे पर गए थे। लेकिन वे उस दृढ़
संकल्प और साहस को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे जिसके साथ बोअर्स ने खुद को एक ऐसी
शक्ति के खिलाफ़ लड़ा था जिसके पास बहुत ज़्यादा संसाधन थे। जिस चीज़ ने उन्हें
ब्रिटिश चुनौती स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया था, वह था उनका स्वतंत्रता के
प्रति प्रेम। साथ ही, वे इस बात से भी उतने ही
प्रभावित थे कि पहले चरण में बहादुर बोअर्स से कुछ ज़बरदस्त प्रहार झेलने के बाद
अंग्रेज़ों ने किस दृढ़ता के साथ युद्ध लड़ा। दोनों पक्षों की सेनाओं द्वारा
प्रदर्शित वीरता को ध्यान से देखने के बाद, वे सैनिकों के मानसिक दृष्टिकोण को एक अलग नज़रिए से
देखने लगे थे। वे देख सकते थे कि यह धैर्य, इच्छा शक्ति, सहनशक्ति, दृढ़ता, समय की पाबंदी और सटीकता के गुण थे जो अच्छे योद्धा
बनाते हैं। सैन्य अनुशासन और वीरता को नज़दीक से देखने पर उनमें आत्म-संयम और
दृढ़ता के विचार भर गए। वे यह देखकर चकित थे कि संकट के समय इंसान किस तरह खुद को
बदल लेते हैं। भाईचारे की भावना युद्ध के मैदान में कहीं और की तुलना में ज़्यादा
आम थी। दुःख के समय मनुष्य का स्वभाव किस
तरह पिघलता है, इसका एक संस्मरण गांधीजी ने दिया है। वे चीवली छावनी की तरफ जा रहे
थे। यह वही क्षेत्र था, जहाँ लॉर्ड रॉबर्ट्स के पुत्र को प्राण घातक चोट लगी थी। लेफ्टिनेंट रॉबर्ट्स के शव को ले जाने का सम्मान उनकी टुकड़ी को मिला था। अगले दिन धूप-ताप में कूच करते-करते गोरे सिपाही और भारतीय टुकड़ी के सदस्य
दोनों समान रूप से प्यासे थे। रास्ते में एक छोटा-सा झरना दिखाई दिया। गोरो ने कहा, पहले भारतीय लोग पानी पीएंगे और भारतीय आग्रह करते थे कि पहले गोरे
अपनी प्यास बुझाएंगे। सेवा और सहयोग से परस्पर शंका और वैमनस्य रखने वालों के बीच
भी प्रीति पैदा हो जाती है।
गांधीजी
पर गहरा असर
युद्ध का मुख्य भाग 1900 में पूरा हो गया। इंगलैण्ड से प्रशिक्षित यूनिट पहुंच गई। ब्रिटिश की
क़िस्मत चमक गई। लेडीस्मिथ, किंबरली और मेफ़ेकिंग का छुटकारा हो गया। जनरल क्रोन्जे पारडीबर्ग में
हार चुके थे। बोअरों ने ब्रिटिश उपनिवेशों का जितना भाग जीत लिया था वह सब ब्रिटिश
सल्तनत को वापस मिल चुका था। लार्ड किचनर ने ट्रांसवाल और ऑरेंज फ़्री स्टेट को भी
जीत लिया था। अब कुछ बाक़ी था तो केवल गुरीला युद्ध! बोअर्स, हालांकि पूरी तरह से पराजित
हो चुके थे, लेकिन हार स्वीकार करना पसंद
नहीं करते थे। मार्टिनस स्टेन (फ्री स्टेट के राष्ट्रपति) द्वारा उकसाए जाने पर, लुइस बोथा, डे वेट और डे ला रे ने
गुरिल्ला दल का गठन किया और लड़ाई जारी रखी। जान स्मट्स भी उनके साथ शामिल हो गए
और जल्द ही 'हिट एंड रन' रणनीति में माहिर हो गए।
गुरिल्ला लड़ाई डेढ़ साल तक चली और अंग्रेजों ने इसे युद्ध का एक बेहद कठिन दौर
माना। अंततोगत्वा अंग्रेजों ने विजय हासिल की। विजयी अंग्रेजों ने जित हासिल करने के लिए पूरी तरह से क्रूर तरीके
अपनाए।
युद्ध के मैदान में गांधीजी के अनुभव ने उनके व्यक्तित्व पर अपनी
छाप छोड़ी। बन्दूकें, हिंसा, माराकाटी, जख़्मों से बहते ख़ून, ख़ाली मैदान, आकाश और वहां चमकते सितारे, हर चीज़ ने गांधीजी
पर गहरा असर डाला। हजारों विचार उनके दिमाग को मथने लगे। कई बार उन्हें लगता कि
‘सत्य’ के ऊपर जो आवरण-सा पड़ा था, यह सब देखकर कुछ-कुछ हटने लगा था। उन्होंने देखा कि ज़िन्दगी और मौत का अटूट साथ है।
‘मौत’ नए जीवन की शुरुआत है। युद्ध का असली कारण मनुष्य की लालसा है। यदि मनुष्य
की आत्मा को मुक्ति दिलानी है तो इस लालसा पर विजय प्राप्त करनी होगी। उन्होंने यह
विचार करना शुरु किया कि वे अपने स्वयं की लालसा से कैसे मुक्ति पाएं जिससे वे
निर्द्वन्द्व होकर मानव सेवा कर सकें।
बोअर युद्ध भारतीयों के लिए एक नया अनुभव था, उनके अन्दर यह भावना मजबूत
हुई कि उन्होंने अपने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। लेकिन जो खास बात थी
वह यह कि बोअर, जो अंग्रेजों की तुलना में
मुट्ठी भर लोग थे, ने एक बड़े साम्राज्य की ताकत
को चुनौती दी थी और बहादुरी, दृढ़ संकल्प और आत्म-बलिदान का परिचय दिया था। इसके अलावा, यह भावना केवल पुरुषों द्वारा
ही नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चों
द्वारा भी प्रदर्शित की गई थी। बहादुर बोअर महिलाओं ने लड़ाई में भी हिस्सा लिया
और जब वे ऐसा नहीं कर सकीं तो उन्होंने अपने पतियों और बेटों को अपने देश और अपनी
स्वतंत्रता के लिए लड़ने और मरने के लिए प्रोत्साहित किया। महिलाओं और बच्चों ने
कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन अपने पुरुषों से संघर्ष
बंद करने के लिए नहीं कहा। गांधीजी ब्रिटिश यातना
शिविरों में बोअर स्त्रियों की सहनशक्ति से अन्दर तक हिल गए और ब्रिटिश जनता की
प्रतिक्रिया से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने लिखा था, “जब यह करूँ पुकार इंग्लैण्ड पहुंची
तो अँग्रेज़ जनता को गहरा कष्ट हुआ। वह बोअरों की बहादुरी की सराहना कर रही थी।
श्री स्टीड ने सार्वजनिक रूप से प्रार्थना की और दूसरों को भी ऐसी प्रार्थना करने
के निमंत्रण दिया की ईश्वर युद्ध में अंग्रेजों को शिकस्त दे। यह एक अद्भुत दृश्य
था। बहादुरी से सहे गए वास्तविक कष्ट पत्थर का दिल भी पिघला देते हैं। कष्ट या ताप
में ऐसी ही शक्ति होती है। और यही सत्याग्रह का मूल मन्त्र है।”
उपसंहार
बोअर युद्ध गांधीजी के लिए एक महान अनुभव था जिसने उन पर अपनी छाप
छोड़ी और उनके चरित्र को आकार दिया। गांधीजी को उम्मीद थी कि युद्ध में भारतीयों की दृढ़ता दक्षिण
अफ्रीका की निष्पक्षता की भावना को आकर्षित करेगी और रंगीन एशियाई लोगों के प्रति
श्वेत शत्रुता को कम करने में मदद करेगी। शायद दोनों समुदाय धीरे-धीरे एक-दूसरे के
करीब आ जाएंगे। गांधीजी के पास खुद कोई आक्रामकता नहीं थी और दक्षिण अफ्रीका में
आगे न कोई योजना थी, न ही महत्वाकांक्षा। लेकिन फिर भी नेतृत्व और संघर्ष वहां उनका
इंतजार कर रहा था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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