शनिवार, 7 सितंबर 2024

68. शब्द-चित्र के कुशल चितेरे गांधीजी

 गांधी और गांधीवाद

68. शब्द-चित्र के कुशल चितेरे गांधीजी

गांधीजी के जन्म के समय तक (1869) ब्रिटिश राज्य भारत में अपनी जड़ें जमा चुका था। 1857 के सिपाही विद्रोह ने एक व्यापारी कम्पनी को एक साम्राज्य के रूप में रूपांतरित कर दिया था। भारत अब अंग्रेज़ों के अधीन था। यह अधीनता न सिर्फ़ राजनीतिक, बल्कि सामाजिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक भी थी। और जब गांधीजी की मृत्यु हुई तो भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र था। वंचित लोगों को उनकी विरासत मिल चुकी थी। यह एक चमत्कार से कम नहीं था कि एक अहिंसक आंदोलन ने शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को भारत छोड़कर चले जाने पर विवश किया। वह देश के राष्ट्रपिता कहलाए।

 Pen Portraits and Tributes by Gandhi पुस्तक के माध्यम से गांधीजी ने अपने समय के बड़े-बड़े नेताओं से लेकर अत्यंत सामान्य जन-सेवकों की सेवाओं को अपनी लेखनी द्वारा बहुत ही भावनात्मक तरीक़े से चित्रित किया है एक तरफ जहाँ तिलक जैसे महापुरुष, जो उस समय के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे, वहीँ दूसरी तरफ निरक्षर बी अम्मा जैसी अत्यंत साधारण लोक सेवक बी अम्मा जैसे जन-सेवक चुप-चाप अपने काम में लगे रहते हैं ऐसे मूक सेवकों को गाँधीजी ने आवाज़ प्रदान की है जहाँ वे एक तरफ तिलक और गोखले जैसे महान नेताओं को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं वहीं दूसरी तरफ सामान्य से सामान्य लोगों को भी बहुत ही गर्व और गौरव से याद किया है उन चरित्रों को जिन्हें छोटा मनाकर हीन दृष्टि से देखा जाता है, ऐसे लोगों को याद कर गांधीजी यह साबित करते हैं कि असल में वे छोटे नहीं हैं, उनकी सेवाओं का भी उतना ही मूल्य है जितना किसी महान नेता का

गांधीजी के जीवन में कुछ भी गोपनीय नहीं था यह उनकी आत्मकथा में तो दिखता ही है, साथ ही आप उनके शब्द-चित्र और संस्मरण में भी देख सकते हैं वे सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले पथिक थे ऐसे व्यक्तित्व के लिए कुछ भी गोपनीय रखना असंभव है सही मायनों में वे पारदर्शी थे जिसकी दृष्टि पारदर्शी होती है वह सहानुभूति से भरा होता है गांधीजी ने जब भी किसी के प्रति शब्द-चित्र गढा, तो सरल और सुगम्य भाषा में उसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण चित्र ही उकेरा है

गांधीजी का सार्वजनिक जीवन बहुमुखी था रोज़ ही उन्हें अनगिनत लोगों से मिलना होता था मिलने वालों में छोटे-बड़े सभी तबके के लोग होते थे देश के ही नहीं, विदेश के भी लोगों का ताँता लगा रहता था गांधीजी हर मिलने वाले से संबंध बना लिया करते थे यह संबंध बड़े ही आत्मीयता से भरे होते थे जिनके शब्द-चित्र उन्होंने गढ़े हैं, उनमें से कइयों के साथ उनका वर्षों पुराना संबंध था, तो कइयों के साथ सिर्फ कुछ दिनों का संबंध था कुछ उनसे बड़े थे, तो कई उनसे काफी छोटे थे इन लोगों से गांधीजी ने बहुत कुछ सीखा बहुतों से उन्होंने प्रेरणा ली और उनके प्रति गांधीजी के ह्रदय में हमेशा आदर और सम्मान का भाव था इनमें से कई उनके विरोधी भी थे उनके साथ गांधीजी को नैतिक और सैद्धांतिक लडाइयां भी लड़नी होती थी कई ऐसे थे जिनसे गांधीजी का कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं था, लेकिन किसी-न-किसी कारण से गांधीजी को उनमें रुचि थी गांधीजी लोगों में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण आदि के आधार पर कोई भेद नहीं करते थे जिनके ऊपर उन्होंने कलम उठाई है उनमें जहाँ एक ओर उनके समकालीन राजनीतिक धुरंधर हैं, वहीँ दूसरी ओर साधारण स्वयं-सेवक हैं, राष्ट्रवादी हैं, तो साम्यवादी भी हैं, विद्रोही तेवर वाले हैं, तो श्रद्धालु भी हैं, पूंजीपति हैं तो साधारण मज़दूर भी हैं, सभी हैं सबों के बारे में उन्होंने समान भाव और विचार के साथ लिखे हैं इनमें से कई ने गांधीजी के विचारों को प्रभावित किया और उनके व्यक्तित्व के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई

गांधीजी के द्वारा रचित ये जो ‘कलमबद्ध चित्र और श्रद्धांजलि’ हमारे सामने हैं, वह उन्होंने बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं लिखे हैं कभी किसी की मृत्यु हो जाने पर संवेदना और श्रद्धांजलि देने के लिए लिखा, तो कभी अपने ऊपर किए गए किसी आरोप के निराकरण करने के लिए लिखा आन्दोलन में साथ देने वाले या विरोध करने वाले के प्रति उन्होंने आंदोलनों के दौरान लिखे कुछ किसी के जन्मदिन पर लिखा, तो कभी सम्पादकीय के रूप में लिखा इस तरह के लेखों के माध्यम से वे हर तरह के, हर तबके के लोगों से आत्मीयता बढाने की कोशिश करते थे

गांधीजी शब्द-चित्र के एक कुशल चितेरे हैं, उनकी भाषा सरल, सुबोध और सुगम्य है जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण सत्य पर आधारित है अहिंसा में उनकी अटूट आस्था रही है इसलिए जब वे किसे व्यक्ति को परखते थे तो उनकी परख बहुत ही सही और सटीक हो जाती थी, वर्णन सजीव और मार्मिक कुछ संस्मरण तो इतने मार्मिक और हृदयस्पर्शी हैं कि पाठक की ऑंखें नम हो जाती हैं शब्द-चित्र गढ़ने के कुशल चितेरे गांधीजी दक्षिण अफ्रीका के एक बहुत ही साधारण आदमी थाम्बी नायडू का शब्द-चित्र गढ़ते हुए कहते हैं, उनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी नवीन प्रश्नों को वह बड़ी फुर्ती से समझ लेते थे उनकी हाज़िर-जवाबी आश्चर्यजनक थी वह भारत कभी नहीं आए थे, फिर भी उस पर उनका अगाध प्रेम था स्वदेशाभिमान उनकी नस-नस में भरा हुआ था उनकी दृढ़ता चेहरे पर ही चित्रित थी उनका शरीर बड़ा मज़बूत और कसा हुआ था मेहनत से कभी थकते ही न थे कुरसी पर बैठकर नेतापन करना हो, तो उस पद की भी शोभा बढ़ा दें, पर साथ ही हरकारे का काम भी उतना ही स्वाभाविक रीति से वह कर सकते थे सर पर बोझा उठाकर बाज़ार से निकलने में थम्बी नायडू ज़रा भी न शरमाते थे मेहनत के समय न रात देखते, न दिन कौम के लिए अपने सर्वस्व की आहूति देने के लिए हर किसी के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते थे

ऐसा नहीं है कि गांधीजी केवल लोगों की विशेषताओं को ही रेखांकित किया करते थे। किसी भी व्यक्ति की दुर्बलता उनकी नज़रों से छिप नहीं सकती थी। ज़रूरत पड़ने पर सही समय पर वे उसे प्रकट भी कर देते थे। सत्य का पुजारी किसी के व्यक्तित्व का अधूरा चित्रण नहीं कर सकता। जिस थाम्बी नायडू की चर्चा हम पहले कर आए हैं, उसी के बारे में अपने शब्द-चित्र में उन्होंने कहा है, अगर थाम्बी नायडू हद से ज्यादा साहसी नहीं होते और उनमें क्रोध न होता तो आज वह वीर पुरुष ट्रांसवाल में काछालिया की अनुपस्थिति में आसानी से कौम का नेतृत्व ग्रहण कर सकता था। ट्रांसवाल के युद्ध के अंत तक उनके क्रोध का कोई विपरीत परिणाम नहीं हुआ था, बल्कि तब तक उनके अमूल्य गुण जवाहिरों के समान चमक रहे थे, पर बाद में मैंने देखा कि उनका क्रोध और साहस प्रबल शत्रु साबित हुए और उन्होंने उनके गुणों को छिपा दिया। सरोजिनी नायडू के शब्द-चित्र में उन्होंने लिखा है, सरोजिनी नायडू काम तो बहुत बढ़िया कर लेती हैं, मगर सच्ची संस्कृति की कीमत देकर। अपने सचिव महादेव देसाई के बारे में उन्होंने लिखा है, महादेव की मैं भाट की तरह स्तुति करता हूँ, लेकिन मेरा मन उसकी शिकायत भी करता है।

लोगों का सटीक विश्लेषण करने की उनमें अद्भुत कुशलता थी। वे बड़े ही नपे-तुले सार्थक शब्दों का प्रयोग किया करते थे। ऐसा लगता था मानों व्यक्ति के अन्दर का चित्र कागज़ पर उतार दिया गया हो। एक चमत्कारिक शब्द-चित्र देखें, सर फिरोजशाह तो मुझे हिमालय जैसे मालूम हुए, लोकमान्य समुद्र की तरह। गोखले गंगा की तरह। उसमें नहा सकता था। हिमालय पर चढ़ना मुश्किल है, समुद्र में डूबने का भय रहता है, पर गंगा की गोदी में खेल सकते हैं, उसमें डोंगी पर चढ़ कर तैर सकते हैं।

भारत के तत्कालीन नेताओं के बारे में लिखते हुए और उनका तुलनात्मक चित्रण करते हुए उन्होंने अपने विचार बडे बेबाकी के साथ रखे है। दादाभाई नौरोजी के बारे में लिखते हुए उन्होंने कहा है, शिष्य होना परम पवित्र है, पर व्यक्तिगत भाव है। मैंने 1888 में दादाभाई के चरणों में अपने को समर्पित किया, पर मेरे आदर्श से वह बहुत दूर थे। मैं उनके पुत्र के स्थान पर हो सकता था, उनका शागिर्द नहीं हो सकता था। शिष्य का दर्ज़ा पुत्र से ऊँचा है। शिष्य, पुत्र रूप से दूसरा जन्म ग्रहण करता है। शिष्य होना अपनी स्वकीय प्रेरणा से समर्पित करना है। वे तो हमारे संरक्षक बन गए। उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य थी। जो कुछ कहते, चुपचाप मैं स्वीकार करता। बंबई के उस शेर ने मुझे आज्ञापालन का मर्म सिखाया। उन्होंने मुझे अपना शागिर्द नहीं बनाया। उन्होंने आजमाइश भी नहीं की।

इसी तरह जस्टिस रानाडे के बारे में उन्होंने कहा है, उनसे मुझे भय लगता था। उनके सामने मुझे बयान करने का भी साहस नहीं होता था। लोकमान्य तिलक के बारे में अपने अनुभव बांटते हुए कहते हैं, जिस समय मैं लोकमान्य से मिला, वे अपने साथियों से घिरे बैठे थे। उन्होंने मेरी बातें सुनी और कहा, आपका भाषण सार्वजनिक सभा में होना ज़रूरी है। पर आप जानते हैं कि यहाँ दलबंदी है। इससे ऐसा सभापति होना चाहिए जो किसी दल विशेष का नहीं हो। आप जाकर भंडारकर से मिलें तो उत्तम हो। मैंने उनकी सलाह स्वीकार की और लौट आया। सिवा इसके कि स्नेहमय मिलाप के भाव प्रदर्शित करके उन्होंने मेरी घबराहट दूर की, नहीं तो लोकमान्य का उस समय मुझ पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पडा। गुरु से मिलने की तलाश यहाँ पूरी न हो सकी। जब भंडारकर से मिले तो अनुभव कुछ इस तरह का रहा, डॉक्टर भंडारकर ने मेरा स्वागत उसी तरह किया जिस तरह गुरु शिष्य का करता है। उनके चेहरे से विद्वता टपक रही थी। मेरे ह्रदय में श्रद्धा का ज्वर उमड़ आया, पर गुरु-भक्ति का भाव फिर भी न भरा। वह ह्रदय सिंहासन उस समय खाली रह गया। मुझे अनेक धीर-वीर मिले, पर राजा की पदवी तक कोई न पहुँच सका।

लेकिन उनकी यह तलाश गोखले से मिलने पर पूरी हुई। यह मिलन ठीक उसी तरह हुआ था जैसे कोई दो विछोही का होता है। मेरा ह्रदय शांत हुआ। मेरा ह्रदय श्रद्धा से भर गया। मैंने अपने दिल में कहा – बस मेरे मन का आदमी मिल गया। प्रथम दर्शन से ही ह्रदय में प्रगाढ़ प्रेम का अंकुर जम गया था।

अपने समय के इन महान नेताओं का चित्र प्रस्तुत करते हुए उन्होंने अपनी तीव्र और प्रखर अनुभूति को स्पष्ट किया है। अहिंसा के पुजारी गांधीजी किसी व्यक्ति से प्रेम की शर्त मित्रता मानते थे, दासता नहीं। तिलकजी से गांधीजी का मतभेद जग-ज़ाहिर है। पर उनकी मृत्यु पर अपनी संवेदना प्रकट करते हुए उनका सही मूल्यांकन करना वे नहीं भूले। हम लोगों के समय में ऐसा दूसरा कोई नहीं जिसका जनता पर लोकमान्य जैसा प्रभाव हो। हज़ारों देशवासियों की उन पर जो भक्ति और श्रद्धा थी वह अपूर्व थी। वे जनता के आराध्य देव थे। उनके वचन हज़ारों आदमियों के लिए नियम और क़ानून-से थे। पुरुषों में सिंह संसार से उठ गया। केसरी की घोर गर्जना विलीन हो गई।

उन्होंने अपने युग के न सिर्फ महापुरुषों के ऊपर लिखा बल्कि फकीरी जीवन जी रहे लोगों पर भी लिखा। गांधीजी कोई साहित्यकार नहीं थे। वे एक साधारण आदमी की तरह ही थे। लेकिन सारा जीवन उन्होंने लोगों को जीने की कला सिखाई। सारा जीवन उन्होंने सत्य के प्रयोग करने में बिताया। सारा जीवन वे अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे। वे कहा करते थे, मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है। आइए उनके सन्देश को अपनाएं।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

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