बुधवार, 25 सितंबर 2024

86. बोअर-युद्ध- 3 एम्बुलेंस कॉर्प्स बनाने की इजाज़त मिली

 गांधी और गांधीवाद

 

86. बोअर-युद्ध- 3

एम्बुलेंस कॉर्प्स बनाने की इजाज़त मिली

1899

प्रवेश

युद्ध छिड़ चुका था। एक तरफ डा. जेमिसन तो दूसरी तरफ  प्रेसिडेंट क्रूगर थे। दक्षिण अफ़्रीका पर नायकत्व के लिए अंग्रेज़ और बोअर दोनों गोरी जाति वाले एक-दूसरे का खून बहा रहे थे। यह देख भारतीयों को कोई दुख नहीं हुआ। भारतीयों को तो दोनों ही सताते थे। अंग्रेज़ कुछ कम, बोअर कुछ ज़्यादा। ऐसे में यह तय कर पाना कि कौन सा पक्ष न्याय पर है, संभव नहीं था। नेटाल के भारतीयों को तो मामूली-सा भी अधिकार प्राप्त नहीं था। गांधीजी को युद्ध से घृणा थी। वे मानते थे कि युद्ध का अर्थ हिंसा है।

युद्ध सहायता-कोष

अक्टूबर 1899 में जब युद्ध शुरू हुआ, तो औपनिवेशिक समाज के सभी वर्गों में जो हलचल और उत्साह था, उसका असर भारतीयों पर भी पड़ा और वे अपने आस-पास हो रही महान घटनाओं में कुछ हिस्सा लेना चाहते थे। अंग्रेजों ने युद्ध में भारतीयों के हिस्सा लेने की अनुमति देने से साफ इनकार कर दिया और कहा भारतीयों के लिए सबसे अच्छी बात यह होगी कि वे युद्ध प्रयासों में आर्थिक योगदान दें। गांधीजी की निजी हमदर्दी बोअरों के साथ थी, जो अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे थे। फिर भी उन्होंने भारतीय समुदायों को इस आधार पर अंग्रेज़ों की सहायता करने की सलाह दी कि वे अपने अधिकारों के दावे ब्रिटिश प्रजा के रूप में करते थे और इसलिए साम्राज्य के लिए खतरा पैदा होने पर उसकी रक्षा करना उनका कर्तव्य था। गांधीजी कुछ ही दिनों में भारतीय व्यापारियों से डरबन महिला देशभक्ति लीग कोष के लिए पर्याप्त योगदान एकत्र किया, जिसमें स्वयं उन्होंने तीन गिनी का योगदान दिया। इस समय तक गांधीजी अंग्रेज़ सरकार और अंग्रेज़ जाति के प्रशंसक थे, उन्हें अंग्रेज़ों की सफ़ाई, सलीक़ा और प्रजातंत्र पसंद था। अंग्रेज़ों की क़ानून-बद्धता और न्याय नीति भी आकर्षक थी। गांधीजी चाहते थे कि साम्राज्य की विपत्ति और संकट के दिनों में भारतीय कौम को भी सरकार की सक्रिय सहायता करनी चाहिए। गांधीजी का मानना था कि अधिकारों की मांग करनेवालों के भी कुछ कर्तव्य और दायित्व होते हैं।

ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा

बोअर युद्ध के दौरान गांधीजी असहज स्थिति में थे, जहां उन्हें बोअर्स के प्रति सहानुभूति और इस भावना के बीच संतुलन बनाना पड़ा कि व्यावहारिक राजनीति के लिए उन्हें ब्रिटिशों का समर्थन करना चाहिए, जिन पर भारतीय उन्नति निर्भर थी। रंगभेद नीति के बावजूद भी गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान थे। ब्रिटिश राज्य के प्रति उनकी यही वफ़ादारी उन्हें उस युद्ध में शामिल होने के लिए जबरदस्ती घसीट ले गई। वह गोरों के बीच भारतीयों की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते थे। वह भारतीय समुदाय के प्रति किसी भी तरह की दुश्मनी को भी रोकना चाहते थे। ब्रिटिश लोगों की मदद के लिए गांधीजी ने स्वयं सेवक जुटाने शुरु कर दिए।

युद्ध छिड़ने के एक सप्ताह के भीतर, 16 अक्टूबर 1899 को, डरबन में भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग सौ लोगों ने नेटाल कांग्रेस के तत्वावधान में इस मुद्दे पर विचार करने और अपनी कार्रवाई का तरीका तय करने के लिए बैठक की। गांधीजी के इस क़दम (ब्रिटिश लोगों की मदद) की आलोचना हुई। लोगों ने सवाल किया कि ब्रिटिश जब डच लोगों का दमन कर रहे थे तो उनकी मदद करने का क्या नैतिक कारण था? कुछ लोगों ने कहा, अंग्रेज और बोअर दोनों ही हमें एक से तकलीफ देते हैं।  ट्रांसवाल में ही हमें दुःख भोगना पड़ता है और नेटाल व केप कॉलोनी में नहीं, ऐसी बात नहीं है। भेद केवल दुःख की मात्रा का है। फिर, हमारी कौम तो गुलामों की कौम कही जाती है। हम जानते हैं कि बोअरों जैसी एक छोटी-सी कौम अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजों से लड़ रही है। यह जानते हुए भी हम उसके नाश का कारण कैसे बन सकते हैं? इस बात की कोई निश्चितता नहीं थी कि अंग्रेज युद्ध जीतेंगे। और अंत में यदि बोअर लोग इस युद्ध में जीत गए, तो क्या हमसे बदला लिए बिना रहेंगे?

गांधीजी इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने इसका खंडन किया। उनकी दलील यह थी कि अंग्रेजी उपनिवेशों में बसने वाले भारतीय यदि 1858 की शाही घोषणा के तहत नागरिकता के सभी अधिकारों और सुविधाओं की मांग करते हैं, तो साथ ही उन्हें नागरिक के नाते अपने सभी कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिए और इन कर्तव्यों में, अपनाये गये नये देश की रक्षा में हाथ बंटाना भी उनका धर्म है। उस समय उनका मानना था, भारत को पूर्ण मुक्ति ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहकर ही विकास से मिल सकती है। इसलिए हमें उनकी सहायता करनी चाहिए।वह इस बात से भी अनजान नहीं थे कि ट्रांसवाल में बोअर शासन की भारतीय विरोधी नीतियों के कारण उनके अपने देशवासियों को कितनी पीड़ा झेलनी पड़ी थी। उस मामले में, एंग्लो-सैक्सन गोरों ने भारतीयों पर बोअर की तरह ही अत्याचार किए थे। तो क्या भारतीयों को दो पक्षों के बीच युद्ध से खुद को अलग रखना चाहिए, जिनमें से दोनों ने उनके साथ अन्याय किया था? यह विचार गांधीजी को पसंद नहीं आया। गांधीजी जानते थे कि भारतीय 'साम्राज्य में गुलाम' थे, फिर भी वे उस साम्राज्य के भीतर अपनी स्थिति सुधारने की उम्मीद कर रहे थे और बोअर युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन करके ऐसा करने का 'सुनहरा अवसर' था। गांधीजी अपने देशवासियों के बीच ज़्यादा लोकप्रिय होते अगर उन्होंने कुछ न करने की तटस्थ नीति की वकालत की होती। लेकिन टालमटोल करना गांधीजी के स्वभाव के विपरीत था। युद्ध के विषय पर टॉल्स्टॉय के विचारों के प्रति उनका कितना भी गहरा सम्मान क्यों न हो, गांधीजी ने इस अवसर पर उस विशिष्ट समस्या को देखने का फैसला किया जिसका वे सामना कर रहे थे, भारतीयों के नैतिक दायित्व के दृष्टिकोण से, जिस राज्य के प्रति वे निष्ठावान हैं।

बिना किसी शर्त के वहां उपस्थित लोगों ने अपनी सेवाएं अर्पित करने की पेशकश की।

युद्ध में सेवा करने का निवेदन

उन्होंने नेटाल की सरकार को युद्ध में कुछ मदद करने की पेशकश की। गांधीजी को उम्मीद थी कि इस संकट में उनकी कार्रवाई कम से कम साम्राज्य के प्रति उनकी वफादारी साबित करेगी और इस आम उपहास का खंडन करेगी कि, “अगर उपनिवेश पर खतरा मंडराता है, तो भारतीय भाग जाएंगे।शुरू में शुरू में अंग्रेजों ने कोई मदद लेने से इंकार कर दिया। उन दिनों आम तौर पर गोरे यह समझते थे कि भारतीय लोग डरपोक, स्वार्थी और पैसे के लालची होते हैं। वहां के अंग्रेज़ों की तब यह आम धारणा थी कि उपनिवेश पर संकट के समय भारतीय भाग खड़े होते हैं। उन्हें स्वार्थ के अलावे और कुछ नहीं सूझता। ये लोग दक्षिण अफ्रीका में केवल पैसे जमा करने ही आते हैं ये हम पर निरे बोझ बने हुए हैं जिस प्रकार दीमक लकड़ी में घुस जाती है और कुरेद-कुरेद कर उसे बिलकुल खोखला बना देती है, उसी प्रकार ये हिन्दुस्तानी हमारे कलेजे कुरेद कर खाने के लिए ही यहाँ आये हैं गांधीजी के इस प्रयास को भी इसी दृष्टि से देखा गया और जब गांधीजी ने युद्ध में सहायता देने की पेशकश अपने अंग्रेज़ मित्रों को दी, तो उन्होंने उन्हें निराश करने वाले जवाब ही दिए कि उन्हें भारतीयों से सहायता लेने की ज़रूरत नहीं है। 

इस निराशाजनक उत्तर के बावजूद गांधीजी ने तैयारी जारी रखने से मना नहीं किया। चिकित्सा सेवा में गांधीजी की रुचि थी। उन्होंने युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा का बीड़ा उठाया। उन्होंने सभी स्वयंसेवकों की मेडिकल जांच कराई और खुद सहित जो लोग फिट पाए गए, उनके लिए रेव. डॉ. बूथ की देखरेख में बने धर्मार्थ अस्पताल में एम्बुलेंस प्रशिक्षण की व्यवस्था की। गांधीजी ने ग्यारह सौ भारतीयों की एम्बुलेंस टुकड़ी संगठित की। उनमें चालीस दल-नेता थे। गांधीजी की इस पहल ने न केवल नेटाल प्रेस की प्रशंसा बटोरी, बल्कि इससे उनके देशवासियों की नजरों में उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी। नेटाल कांग्रेस के भीतर अब तक ज्यादातर लोग उनके नैतिक अधिकार को स्वीकार कर चुके थे।

फिर गांधीजी विधान परिषद के सदस्य माननीय आर. जेम्सन से मिले, जिनसे वे अच्छी तरह परिचित थे। फिर से वे निराश हुए, जेम्सन इस विचार पर हंसे। उन्होंने कहा, "आप भारतीय, युद्ध के बारे में कुछ नहीं जानते। फ़ौज के लिए तुमलोग खासा सिर दर्द हो जाओगे। युद्ध के समय तुम लोग मदद तो कुछ कर नहीं पाओगे, उलटे हमीं को तुम लोगों की हिफ़ाज़त की फ़िक्र करनी होगी।" "लेकिन," गांधीजी ने उत्तर दिया, "क्या हम कुछ नहीं कर सकते? क्या हम अस्पताल के संबंध में साधारण नौकरों का काम नहीं कर सकते? निश्चित रूप से इसके लिए बहुत अधिक बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं होगी?" "नहीं," उन्होंने कहा, "इसके लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है।"

हां डॉ. बूथ ने उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित किया। पहले भी उन्होंने गांधीजी को घायलों की सेवा और देखभाल करने का प्रशिक्षण दिया था। इस योग्यता से सम्बंधित प्रमाण-पत्र भी गांधीजी ने हासिल कर लिया था। 

निराश होकर, लेकिन हतोत्साहित न होते हुए, गांधीजी ने अपने मित्र, मि. लॉटन से संपर्क किया, जिन्होंने उनके सुझाव को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया। उन्होंने कहा, "यह बहुंत अच्छी बात है, इसे करें; इससे आपके लोगों का हम सबकी नज़र में सम्मान बढ़ेगा, और इससे उनका भला होगा। मि. जेमिसन की तो बात ही छोड़िए।"

19 अक्टूबर को गांधीजी ने श्री एस्कोम्बे से मुलाकात की और उनके पास औपनिवेशिक सचिव को संबोधित एक पत्र था जिसमें भारतीय नेताओं का निर्णय बताया गया था। एस्कम्ब ने भी गांधीजी के इस विचार को पसन्द किया था। इस पत्र में गांधीजी ने निवेदन किया था, “हमें हथियार चलाना नहीं आता। इसमें हमारी ग़लती नहीं है। ये हमारा दुर्भाग्य है कि ये कला हमें नहीं आती। लेकिन लड़ाई के मैदान में और भी कई महत्वपूर्ण काम होंगे जो हम कर सकते हैं, और यदि हमें वह करने का मौक़ा मिलेगा तो ये हमारा सौभाग्य होगा। हमें किसी भी समय इस काम के लिए बुलाया जाएगा, हम आने के लिए तैयार हैं। अगर और कहीं नहीं तो कम से कम हम लड़ाई के मैदान में जख़्मी लोगों की सेवा और अस्पतालों में काम तो कर ही सकते हैं।

अंग्रेज़ों ने इस काम में प्रवासी भारतीयों को दूर ही रखना चाहा। सरकार ने दो टूक जवाब दे दिया कि हमें आपकी सेवा की ज़रूरत नहीं है। गांधीजी ‘ना’ से हार मान कर बैठ जाने वालों में से नहीं थे। वे इंडियन एंग्लिकन मिशन के डॉ. बूथ के साथ नेटाल के बिशप बेयन्स से मिले। गांधीजी की टुकड़ी में बहुत से भारतीय ईसाई भी थे। बिशप को गांधीजी का प्रस्ताव पसन्द आया। उन्होंने गांधीजी की सहायता करने का भरोसा दिया।

बोअर डटकर लड़ने वाले वीर



बोअर्स को यह उम्मीद थी कि गणतंत्र के साथ युद्ध की स्थिति में ग्रेट ब्रिटेन के उपनिवेश और आश्रित क्षेत्र ब्रिटेन के खिलाफ उठ खड़े होंगे। उनकी उम्मीद के विपरीत, युद्ध के शुरू होने से पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में वफादारी की अभूतपूर्व अभिव्यक्ति हुई। परिस्थितियां भी तेज़ी से करवट ले रही थी। बोअरों ने युद्ध की जबरदस्त तैयारी कर रखी थी। बोअरों का समूचा पुरुष-वर्ग युद्ध में चला गया। उनकी दृढ़ता और वीरता आदि अंग्रेज़ों की अपेक्षा से अधिक तेजस्वी सिद्ध हुई। बोअर सेना का नेतृत्व, माजुबा हिल का नायक, जहां उसने ब्रिटिशों को हार का मज़ा चखाया था, Commandant-General पीट जौबर्ट (Petrus Jacobus Joubert) ने किया था। (28 नवंबर 1899 को, नटाल में तुगेला नदी के दक्षिण में एक चढ़ाई के दौरान, जौबर्ट अपने घोड़े से गिर गया और उसे गहरी आंतरिक चोटों का सामना करना पड़ा। जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, शारीरिक कमजोरी के कारण जौबर्ट की सेवानिवृत्ति हो गई। 28 मार्च 1900 को पेरिटोनिटिस बीमारी से ग्रसित जौबर्ट की प्रिटोरिया में मृत्यु हो गई।) उनके साथ थे क्रिस्टियान डे वेट, जिन्होंने बाद में गुरिल्ला योद्धा के रूप में अपने कारनामों से महान ख्याति अर्जित की, पीट क्रोन्ये, हर्ट्जोग, डे ला रे, और युवा लुईस बोथा और जान स्मट्स। ब्रिटिश सेनाएं जनरल सर रेडवर्स बुलर के सर्वोच्च कमान के अधीन थीं।

बोअर की रणनीति अपने आप में सरल थी। उन्हें बलपूर्वक हमला करना था, जितनी जल्दी हो सके पोर्ट नेटाल तक पहुंचना था और पहले से ही समुद्र में मौजूद ब्रिटिश सेना को उतरने से रोकना था। नेटाल के उत्तरी छोर पर एक तरफ ट्रांसवाल और दूसरी तरफ फ्री स्टेट के कारण बीच में एक खाई बनाता था। इस संकरी भूमि के नीचे प्रिटोरिया और जोहान्सबर्ग से डरबन तक रेलमार्ग था। इसमें डंडी में कोयला खदानें भी थीं। जौबर्ट के नेतृत्व में मुख्य बल रेलमार्ग से नीचे आया। सीधे लेडीस्मिथ पर ध्यान केंद्रित करते हुए, उन्होंने डंडी से अंग्रेजों को खदेड़ दिया और शहर को घेर लिया। डटकर लड़ने वाले वीर बोअर लोगों ने अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिए। युद्ध के पहले चरण में बोअर्स ने, जो पूरी तरह से आक्रामक थे, ब्रिटिश सेना पर बहुत दबाव डाला था। 12 अक्टूबर को माफ़ेकिंग और किम्बरली को घेर लिया गया था। ब्रिटिश सेना केप कॉलोनी में स्टॉर्मबर्ग में पराजित हो गई थी। फ्री स्टेट में, किम्बरली तक पहुँचने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा किए गए प्रयास को विफल कर दिया गया था। बोअर्स के दृष्टिकोण से नेटाल अभियान सबसे महत्वपूर्ण था। वे कॉलोनी को तेज़ी से खत्म करना चाहते थे और समुद्र तट तक पहुँचना चाहते थे। उन्होंने 500 मील की रेलमार्ग पर कब्ज़ा कर लिया और लगभग आधे नेटाल को अपने कब्जे में ले लिया।



गार्डेन कोलोनी पर नायकत्व के लिए बोअरों और अंग्रेज़ों का पारस्परिक संघर्ष अपने चरम पर पहुंच गया। दोनों के बीच घमासान छिड़ा हुआ था। घटनाएँ एक के बाद एक तेज़ी से घटित हुईं। लेडीस्मिथ, एक छोटा सा गैरीसन शहर, लेकिन रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण, घेराबंदी में था। अब बहुत कुछ जनरल बुलर पर निर्भर था, जो बोअर की स्थिति पर सीधा हमला करने और लेडीस्मिथ को राहत देने के लिए अपने सैनिकों को इकट्ठा कर रहा था। 30 अक्तूबर को लेडीस्मिथ में गैरीसन की कमान संभाल रहे जनरल सर जॉर्ज व्हाइट को लेडी स्मिथ में वापस धकेल दिया गया। सर जॉर्ज व्हाइट के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना, भागने के प्रयास में निकोलसन नेक और लोम्बार्ड कोप में भारी हार झेलने के बाद, लेडीस्मिथ में वापस आ गई। 2 नवम्बर को शहर की संचार व्यवस्था ठप्प कर दी गई। 3 नवम्बर को रेल यातायात काट दिया गया। 10 नवम्बर तक बोअर वासियों ने कोलेन्सो और टुगेला नदी तक क़ब्ज़ा जमा लिया और उन्होंने कई कैदियों को पकड़ लिया जिनमें श्री विंस्टन चर्चिल भी शामिल थे। 18 नवम्बर तक शत्रु एस्टकोर्ट तक पहुंच चुका था। 21 नवम्बर को वे मुई नदी तक पहुंच गये और 23 नवम्बर को हिल्डयार्ड ने विल्लो ग्रैन्ज पर हमला बोल दिया।

डरबन में तीव्र उत्साह व्याप्त था। इससे समुदाय के सभी वर्गों को एक साथ लाने में मदद मिली और जो लोग मोर्चे पर जाने के लिए तैयार थे, उनमें वीरता का संचार हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि आपदा का दबाव और युद्ध की अप्रत्याशित घटनाएँ निश्चित रूप से नेटाल के रवैये को बदल रही थीं। ब्रिटन और बोअर के बीच घातक संघर्ष चल रहा था और युद्ध के क्षेत्र में अब हर किसी की ज़रूरत थी। ब्रिटन और बोअर मौत के संघर्ष में उलझे हुए थे, जिसका इनाम गार्डन कॉलोनी था।

अंग्रेज़ सैनिकों के हौसले पस्त



टुगेला नदी दक्षिण अफ़्रीका के क्वाज़ुलु-नेटाल प्रांत की सबसे बड़ी नदी है।  टुगेला नदी के किनारे जनरल बुलर की फ़ौजें बुरी तरह पिटने लगी। अंग्रेज़ सैनिकों के हौसले बुरी तरह से पस्त थे। बोअर युद्ध के लिए कमांडर-इन-चीफ के रूप में जनरल रेडवर्स बुलर की नियुक्ति हुई थी। लोगों को जनरल बुलर से काफी आशा थी, लेकिन उनकी समस्या कठिन थी, और आशा हमेशा प्रबल नहीं होती। जब लेडी स्मिथ को घेर लिया गया तो उन्होंने सेना के अधिकांश हिस्से को नेटाल ले जाने का फैसला किया। जनरल बुलर इस प्रयास में अपनी सारी सैन्य शक्ति लगा देना चाह रहा था कि नदी को पार कर किसी तरह लेडी स्मिथ को दुश्मन के क़ब्ज़े से छुड़ाया जाए। इसके लिए सरकार को बहुत से रंगरूटों की ज़रूरत महसूस हुई। जो भी सीमा पर जाना चाहता था उससे उनकी रज़ामन्दी पूछी गई। इस अभियान में जान माल की काफी हानि भी हो सकती थी। इसका मतलब यह था कि उन्हें अस्पताल और एम्बुलेंस की आवश्यकता थी। जितने भी गोरे डॉक्टर, नर्स और एम्बुलेंस कॉर्प्स थे उन्हें सीमा पर भेज दिया गया। टुगेला के तट पर दिन ब दिन घमासान तेज़ होता जा रहा था। इस अत्यंत आवश्यकता के कारण ही भारतीयों को सफलता मिली। ऐसा अक्सर नहीं होता कि लोग अनिच्छुक लोगों पर अपनी मदद के लिए इतना भरोसा जताते हैं, जबकि मदद करने वालों के लिए इसका मतलब ख़तरा, पीड़ा और शायद मौत भी हो सकता थी। यह खुद को सम्मान के योग्य साबित करने के दृढ़ संकल्प का परिणाम था। इस अवसर का लाभ उठाते हुए गांधीजी ने सरकार को बताया कि किस तरह से उन्हें और उनके साथियों को एम्बुलेंस के काम के लिए प्रशिक्षित किया गया है और उन्हें जो भी कर्तव्य सौंपा जा सकता है, उसे करने की पेशकश दोहराई। इस समय, डॉ. बूथ, जो उस समय भारतीय एंग्लिकन मिशन के प्रभारी थे, और बिशप बेयन्स ने भारतीयों के प्रयास को आगे बढ़ाने के लिए एक और प्रयास किया। पहले तो कोई सफलता नहीं मिली, लेकिन जब बिशप ने कर्नल जॉनस्टोन से पूछताछ की, और पहले से किए गए प्रावधान को बढ़ाने या पूरक करने की आवश्यकता बताई, जबकि तुगेला के तट पर आवश्यकता का दबाव हर दिन अधिक तीव्र होता जा रहा था, तो गांधीजी के प्रस्ताव को आखिरकार अनुकूल रूप से स्वीकार कर लिया गया, और एक भारतीय एम्बुलेंस कोर के गठन के लिए मंजूरी दे दी गई।

** रोचक तथ्य :: कई बोअर युद्ध बंदियों को भारत लाया गया और उन्हें शाहजहांपुर, अहमदनगर और अन्य स्थानों पर स्थापित युद्ध बंदी शिविरों में नजरबंद कर दिया गया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 


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