रविवार, 15 सितंबर 2024

76. बच्चों की पढ़ाई

 गांधी और गांधीवाद

76. बच्चों की पढ़ाई

बीच ग्रोव विला में रहने आ गये

गांधीजी, कस्तूरबाई, उनके साथ दस साल के उनके भांजे गोकुलदास, नौ साल के उनके बड़े बेटे हरिदास और पांच साल के दूसरे बेटे मणिदास सब बीच ग्रोव विला में रहने आ गये थे। यह मकान शहर से बाहर अच्छे मध्यवर्गीय लोगों के मोहल्ले में था। दोमंज़िला घर था, जिसमें कुल आठ कमरे थे। सामने लोहे का गेट था। जिसके सामने एक छोटा बगीचा था और पीछे एक बड़ा बगीचा था। एक बड़ा सा बरामदा था और बालकनी का रुख समुद्र की तरफ़ था। ऊपर से नीचे जाने के लिए यूरोपीय पद्धति की सीढ़ी थी। पहली मंजिल तक जाने वाली बाहरी सीढ़ियाँ भी थीं। व्यापारियों के लिए एक साइड प्रवेश द्वार था एक मात्र बाथरूम नीचे की मंजिल पर था, और तदनुसार ऊपर के प्रत्येक बेडरूम में चैंबर पॉट्स प्रदान किए गए थे। कालीन लगे मेहमान कक्ष में सोफ़े लगे हुए थे। बड़ी-सी आराम कुर्सी भी थी। पुस्तक रखने की आलमारी में तरह-तरह की पुस्तकें थीं। टॉल्स्टॉय, बाइबल, क़ुरान, शाकाहार की पुस्तकें और न जाने क्या-क्या? भोजन कक्ष में आयताकार टेबुल था जिसके चारों ओर आठ कुर्सियां लगी थीं। लेकिन राजकोट की तरह आंगन नहीं था। तुलसी का पेड़ नहीं था। रसोई घर में बैठकर खाना बनाने की सुविधा नहीं थी। खड़े-खड़े खाना बनाने में कस्तूरबाई को काफ़ी दिक़्कतों का सामना करना पड़ता था। महीनों से बन्द कमरों में धूल गर्द भर गये थे। उन्हें ठीक करने में बा की तो जान ही निकल गई। कोई पूजा घर नहीं था। उन्होंने उसका भी इंतज़ाम किया। सब कुछ कर लेने के बाद भी एक कमी तो सताती ही थी। आराम के समय राजकोट की तरह गप-शप करने के लिए लोग नहीं थे।

गांधीजी का दैनिक कार्यक्रम

गांधीजी ने बीच ग्रोव विला में रहना जारी रखा, लेकिन उनका कानूनी कार्य अब 14, मर्करी लेन में चल रहा था, जो नेटाल मर्करी कार्यालय और मुद्रण कारखाने के सामने था, जहां उन्होंने 1897 में प्रदर्शन के बाद अपना कार्यालय स्थानांतरित कर दिया था। बीच ग्रोव विला में जीवन सरल था। दिन की शुरुआत जल्दी होती थी। स्नान और प्रार्थना के बाद, गांधीजी पिछवाड़े में क्षैतिज सलाखों (horizontal bars) पर थोड़ा व्यायाम करते थे। नाश्ते के बाद वे ड्राइंग रूम में बैठते थे। पौने नौ बजे, विंसेंट लॉरेंस के साथ, वे सेंट्रल पुलिस स्टेशन के सामने वेस्ट स्ट्रीट में कानून की अदालतों के लिए निकल जाते थे। शाम को 5 बजे घर लौटते, स्नान और जलपान के बाद वे कुछ देर के लिए दैनिक समाचार पत्रों का अवलोकन करते और फिर कस्तूरबाई के साथ शाम की सैर पर निकल जाते। विंसेंट लॉरेंस बच्चों, गोकुलदास, हरिलाल और मणिलाल को शाम की सैर के लिए बाहर ले जाते थे। प्रमुख भारतीय व्यापारी और कुछ यूरोपीय लोग शाम को यहां आते थे और कभी-कभी रात के खाने के लिए रुकते थे। क्लर्कों सहित सभी लोग आयताकार डाइनिंग टेबल पर एक साथ खाना खाते थे, सिवाय कस्तूरबाई के, जो अक्सर अलग खाना खाती थीं। टेबल पर सेवा पश्चिमी शैली में थी। औपचारिक अवसरों पर कस्तूरबाई, पारसी शैली में बेदाग कपड़े पहनती थीं, और खाना परोसती थीं। बच्चे अंग्रेजी कपड़े पहनते थे। एक गुजराती हिंदू रसोइया रसोई का प्रभारी था। मेनू पूरी तरह से शाकाहारी होता था।

बच्चों को कहां पढ़ाया जाए

गांधीजी कभी भी इस सिद्धांत से सहमत नहीं हुए, जिसे वे एक प्रकार का अंधविश्वास मानते थे, कि बच्चे को अपने जीवन के पहले पांच वर्षों में सीखने के लिए कुछ नहीं होता। इसके विपरीत, तथ्य यह है कि बच्चा अपने जीवन के बाद कभी भी वह नहीं सीख पाता जो वह अपने पहले पाँच वर्षों में सीखता है। बच्चे की शिक्षा गर्भाधान से शुरू होती है। बाद के जीवन में उनके इस विश्वास को ‘बेसिक एजुकेशन’ की उनकी योजना में अभिव्यक्ति मिली, जो एक व्यक्ति के जीवन के पूरे दायरे को कवर करती है - ‘गर्भाधान से लेकर अंतिम संस्कार तक’। बचपन से ही गांधीजी अपने माता-पिता के बहुत बड़े प्रशंसक थे। वे उनके पवित्रतम विचारों के केंद्र थे, उनकी गहरी प्रेरणा के स्रोत थे, उनके सबसे ऊंचे प्रयासों का उद्देश्य थे। उनके प्रति अपने ऋण को चुकाने का एकमात्र तरीका यह था कि वे अपने बच्चों के लिए एक आदर्श माता-पिता बनें। गांधीजी ने बच्चों की शिक्षा के लिए कई प्रयोग किए जिनकी शुरुआत अपने घर से ही की। जब व्यवस्थित हुए तो सबसे बड़ी समस्या थी कि बच्चों को कहां पढ़ाया जाए। उन दिनों डरबन में हिंदी बच्चों के लिए शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी। नेटाल में लगभग पच्चीस स्कूल थे, जिनमें लगभग 2,000 विद्यार्थी पढ़ते थे, और ये स्कूल विशेष रूप से गिरमिटिया भारतीयों के बच्चों की शिक्षा के लिए थे। ये इमारतें बहुत ही आदिम किस्म की झुग्गियाँ थीं, जिन्हें कुछ नालीदार चादरों और कुछ तख्तों से बनाया गया था, और इनमें फर्श नहीं था। विद्यार्थी, सबसे गरीब भारतीय वर्ग से थे, इसलिए वे खराब कपड़े पहने रहते थे। परिणामस्वरूप, भारतीय समुदाय का समृद्ध वर्ग जैसे क्लर्क, दुभाषिए और दुकानदार अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं भेजते थे। गांधीजी के सामने बच्चों की शिक्षा के लिए दो विकल्प थे। एक वे बच्चों को गोरों के लिए चलाये जा रहे स्कूल में भेज तो सकते थे, पर यह मेहरबानी होती, जो उन्हें पसंद नहीं थी। वह नेटाल बार के एक प्रमुख सदस्य और भारतीय समुदाय के नेता थे। वहां तो कोई भारतीय बालक पढ़ सकते नहीं थे। कौम के आम बच्चे जिस सुविधा से वंचित रहे, वहां अपने बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था का उपयोग करना गांधीजी को अनुचित लगा। दूसरा भारतीय बालकों के लिए ईसाई मिशन के स्कूल थे। पर उन्हें वहां भेजने को गांधीजी तैयार नहीं थे। वहां दी जाने वाली शिक्षा गांधीजी को पसंद नहीं थी। मिशनरी स्कूल में प्रवेश तो आसान था लेकिन वहाँ हिंदी और गुजराती में पढ़ाई ठीक से नहीं हो सकती थी। उन्होंने शिद्दत के साथ यह महसूस किया कि भारतीय बच्चों और विशेष रूप से ग्रामीण बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित शिक्षा सही नहीं है। उनका दृढ़ विश्वास था कि ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़े बच्चों में राष्ट्र-प्रेम या समाज-सेवा की भावना की कमी होती है। गुजराती माध्यम से पढ़ाई तो वहां मिलने से रही। माध्यम तो अँग्रेज़ी ही थी। गांधीजी ने अपने बच्चों को यूरोपीय स्कूल में नहीं पढ़ाया। इसलिए गांधीजी ने बच्चों की पढ़ाई घर पर रहकर अपनी तरह से कराने का तीसरा विकल्प चुना। वे खुद ही बच्चों को पढ़ाने की कोशिश करते। बच्चों को अपने साथ दफ़्तर ले जाते और रास्ते में उनसे बातें करते और शिक्षा देते जाते। उनके विचार में बच्चों के लिए यही अच्छी शिक्षा थी। लेकिन अपनी अन्य व्यस्तताओं के चलते वह भी नियमित रूप से न हो पाता।

बच्चे कभी स्कूल नहीं गये

वह चाहते थे एक अच्छा गुजराती शिक्षक जो घर में रहकर उनके निर्देशों के अनुसार उन्हें पढ़ाए, लेकिन ऐसा कोई गुजराती शिक्षक उपलब्ध नहीं था। ऐसे में तो काम चलने वाला नहीं था। गांधीजी ने एक अँग्रेज़ी शिक्षक का विज्ञापन दिया। एक अंग्रेज़ महिला मिली। 7 पौण्ड प्रति माह पर उसने पढ़ाना शुरु किया। गांधीजी स्वयं बच्चों से गुजराती में ही बातचीत किया करते थे। आसपास अंग्रेज़ी का माहौल था, अतः बच्चे खेल-कूद में ही अंग्रेज़ी सीख गये। गांधीजी का मानना था कि छोटे बच्चों को मां-बाप के साथ ही रहना चाहिए, इसलिए उन्हें भारत भेजने का तो सवाल ही नहीं था। बाद के दिनों में हरिदास व्यस्क होने पर, अपनी इच्छा से अहमदाबाद के हाई स्कूल में पढ़ने के लिए दक्षिण अफ़्रीका छोड़कर भारत चले आए। गोकुलदास की शिक्षा वहीं हुई और इससे गांधीजी काफ़ी संतुष्ट थे। दुर्भाग्यवश, भरी जवानी में कुछ ही दिनों की बीमारी के बाद, उनका देहान्त हो गया। गांधीजी के बाक़ी के तीन बच्चे कभी स्कूल में नहीं गये। सत्याग्रह के दिनों में उन्होंने एक स्कूल खोला था। इन बच्चों ने इसी में थोड़ी-बहुत नियमित शिक्षा प्राप्त की। औपचारिक शिक्षा के लाभ से वंचित, वे सभी अपनी जन्मजात क्षमता के अनुसार जीवन में आगे बढ़े। एक समय ऐसा भी आया जब वे अपने भाग्य से असंतुष्ट थे और उन लोगों से ईर्ष्या करते थे जिन्हें वह मिला था जो उन्हें नहीं मिला था। लेकिन समय के साथ उन्होंने उस भावना को पूरी तरह त्याग दिया और जो कुछ उन्होंने खो दिया था उसके बदले में जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया था, उसके महत्व की सराहना करना सीख लिया।

बच्चों की शिकायत

बड़ी ही विकट स्थिति थी। बच्चों को जो शिक्षा गांधीजी देना चाहते थे, दे नहीं पाए। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चों को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली और हालाँकि गांधीजी अक्सर उन्हें स्कूल न भेजने के लिए अपना बचाव करते थे, लेकिन उन्हें इस बात का अस्पष्ट एहसास था कि उन्होंने बच्चों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया है; और उनके सभी बेटों को लगता था कि उनके द्वारा उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है। बच्चों की हमेशा उनसे शिकायत रही। गांधीजी ने खुद स्वीकार किया है कि बाद में उनके बच्चे उनके फैसले से खुश नहीं थे। व्यवस्थित शिक्षण के अभाव का क्षोभ चारों बच्चों के मन में जीवन भर बना रहा। डिग्री के अभाव में ऐसे बच्चों का एक तरह की हीन भावना से ग्रसित होना स्वाभाविक था। लेकिन गांधीजी का दृढ़ मत था कि गुलाम क्लर्क पैदा करने वाली अंग्रेजी शिक्षा और केवल अक्षर ज्ञान सार्थक जीवन के लिए नाकाफी है। फिर भी गांधीजी और कस्तूरबाई के सान्निध्य में उन्हें काफ़ी अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता रहा। उन्होंने सेवा भाव सीखा। सादगी सीखी। स्वतंत्रता के पाठ पढ़े। देश कार्य सीखा। मनुष्यता सीखी। हो सकता है गांधीजी उन्हें अपने से दूर रखकर अक्षर-ज्ञान दे सकते थे, किन्तु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो पाठ उन्होंने सीखा वह न सीख पाते। मां-बाप के सादगीपूर्ण जीवन से ये चारों बच्चे भी मेहनती, देश-प्रेमी और सेवा भावी बन गये। बच्चे संस्कारी, नम्र और समझदार बने। गांधीजी व्यक्ति  को संस्कारित करने और स्वरोजगार में सक्षम बनाने वाली शिक्षा के पक्षधर थे। गांधीजी तो न्यायनीति के उपासक थे, उन्हें सत्य की साधना करनी थी, न कि बच्चों को ऐश्वर्यशाली बनाना था। बच्चों ने कोई डिग्री भले ही न पाई हो, किन्तु उनका आभिजात्य और निर्भयता, सदाचार, सेवा भाव और सच्चरित्र उच्च कोटि का था। वे स्वावलंबी, स्वाभिमानी और न्यायप्रिय थे। कभी किसी हस्ती से नहीं डरे। अन्याय का प्रतिकार करने में उन्होंने कोई कमी नहीं की। कालांतर में गांधीजी ने इसी तरह की संस्कारित करने और आत्म निर्भर बनाने वाली शिक्षा के कई प्रयोग अपने अफ्रीका और भारत के आश्रमों और चांपारन के आंदोलन के दौरान वहां के पिछड़े इलाके में भी किये।

उपसंहार

अपने बच्चों के साथ शिक्षा के लिए प्रयोग के बारे में गांधीजी कहते हैं, सत्य का पुजारी इस प्रयोग से यह देख सके कि सत्य की आराधना उसे कहाँ तक ले जाती है, और स्वतंत्रता देवी का उपासक दखे सके कि वह देवी कैसी बलिदान चाहती है। बालकों को अपने साथ रखते हुए भी यदि मैंने स्वाभिमान का त्याग किया होता, दूसरे बालक जिसे न पा सके उसकी अपने बालकों के लिए इच्छा न रखने के विचार का पोषण न किया होता, तो मैं अपने बालकों को अक्षर ज्ञान अवश्य दे सकता था। किन्तु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो पदार्थ पाठ वे सीखे वह न सीख पाते। और जहाँ स्वतंत्रता तथा अक्षर-ज्ञान के बीच ही चुनाव करना हो तो वहाँ कौन कहेगा कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार गुनी अधिक अच्छी नहीं हैं? सन्1920 में जिन नौजवानों को मैंने स्वतंत्रता-घातक स्कूलों और कॉलेजों को छोडने के लिए आमंत्रित किया था, और जिनसे मैंने कहा था कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर रहकर आम रास्ते पर गिट्टी फोड़ना गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने से कहीं अच्छा हैं, वो अब मेरे कथन के मर्म को कदाचित  समझ सकेंगे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 

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