गांधी और गांधीवाद
75. प्रसिद्धि
और प्रतिष्ठा बढ़ी
1897
प्रवेश
अफ्रीका में गांधीजी ने हिंदुस्तानियों पर
हो रहे तरह-तरह के अत्याचार और
अन्याय से प्रताडित लोगों के अधिकारों और मानवीय गरिमा के लिए अंग्रेजों से लगातार संघर्ष किया। गांधीजी के जीवन में बहुत से
ऐसे प्रसंग हैं जहाँ वे सबसे अधिक जोर कानून
के पालन, कर्तव्यों के निर्बहन,
अपने दोषों को दूर करने, रचनात्मक काम और सेवा
कार्य पर देते हैं। कांग्रेस के
कार्यकर्ताओं के आचरण की बात हो या ग्राम सेवा से जुड़े सेवकों का ज़िक्र हो गांधीजी हमेशा कर्तव्य और सेवा पर बल देते हैं। उनका पूरा रचनात्मक कार्यक्रम इन्हीं दो बिन्दुओं
पर केंद्रित है।
‘नेटाल एडवर्टाज़र’ ने तस्वीर साफ की
तूफ़ान जल्दी ही थम गया।
प्रेस ने गांधीजी को निर्दोष घोषित कर दिया और भीड़ की निंदा की। तीन-चार दिन बाद
वे अपने घर चले गए। तीन दिनों तक गांधीजी जी थाने में ही रहे थे। जिस दिन वे जहाज से
उतरे थे उसी दिन ‘नेटाल एडवर्टाज़र’ का प्रतिनिधि उनसे मिला था। उसने कई प्रश्न किए
थे और गांधीजी जी ने सभी आरोपों का जवाब दिया था। सर फिरोजशाह मेहता के सुझाव के अनुरूप
उन्होंने भारत में कोई भी भाषण बिना लिखे नहीं दिया था, और सबकी कॉपी उन्होंने संभालकर रखी
थी। अपनी बात को साबित करने के लिए कि उन्होंने भारत में ऐसी कोई बात नहीं कही थी
जो दक्षिण अफ़्रीका में नहीं कही हो, गांधीजी जी ने भारत में दिए गए भाषणों की सब प्रतियां उस प्रतिनिधि
को दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘कुरलैण्ड’ और ‘नादरी’ से जो यात्री आए
थे उन्हें लाने में उनका हाथ बिल्कुल नहीं था। उनमें से अधिकांश तो पुराने ही थे
और बहुत से नेटाल में रहने वाले नहीं थे, बल्कि ट्रांसवाल जाने वाले थे। उन दिनों नेटाल की अपेक्षा ट्रांसवाल
में अधिक कमाई होती थी, इसलिए अधिकतर भारतीय वहीं जाना पसन्द करते थे। ‘नेटाल एडवर्टाज़र’ ने गांधीजी
का इंटरव्यू प्रकाशित किया। लोगों को सही जानकारी मिली।
गोरे अपने कृत्यों के लिए शर्मिन्दा हुए
एक तो इस खुलासे का असर और
दूसरे हमलावरों पर मुकदमा नहीं दायर करने के गांधीजी के निर्णय ने चमत्कारिक असर
दिखाया और गोरे अपने कृत्यों के लिए काफ़ी शर्मिन्दा हुए। समाचार पत्रों ने गांधीजी
को निर्दोष करार दिया। उन्होंने स्वजातीय गोरे उपद्रवकारियों की भर्त्सना और
निन्दा की और विजातीय गांधीजी की सराहना की। इससे न सिर्फ़ गांधीजी को लाभ हुआ
बल्कि भारतीय समाज की भी प्रतिष्ठा बढ़ी। फिलहाल वे अपने इस नैतिक जीत से संतुष्ट थे।
नेटाल सरकार अप्रवास को प्रतिबंधित करने और भारतीय व्यापारियों की वित्तीय शक्ति
को कम करने के लिए दृढ़ थी। उसके पास अपनी इस इच्छा को लागू करने के लिए
शक्तिशाली हथियार थे। गांधीजी उनसे "राजनीतिक क्षेत्र में" लड़ते रहेंगे, लेकिन यह एक असमान संघर्ष था जिसमें वे शायद ही कभी जीतते। अक्सर
उन्हें यह पता चलता था कि कुरलैंड की घटना के समय उन्हें जो प्रसिद्धि या बदनामी
मिली थी, वह उनके लिए नुकसानदेह
थी। हालाँकि, भारतीय उनके कानून
कार्यालय में उमड़ पड़े, जिसे उनकी अनुपस्थिति के
दौरान खुला रखा गया था, जिसके परिणामस्वरूप वे
जल्द ही अपनी ज़रूरत से ज़्यादा पैसे कमाने लगे। वे एक सफल वकील बन रहे थे और
ज़्यादातर समय अपने कार्यालय में बिता रहे थे। गांधीजी की वकालत भी बढ़ गई। दूसरी तरफ़ प्रवासी भारतवासियों और उनके
नेता की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा का एक उल्टा परिणाम यह हुआ कि मन ही मन गोरों का उनके
प्रति द्वेष भी बढ़ा। उन्हें यह लगने लगा कि भारतीयों में मज़बूती से लड़ने की क्षमता
है। जिससे उनका डर भी बढ़ गया।
28 जनवरी को जहाज से उतरने के
बाद हुई घटना की जानकारी दादा भाई नौरोजी को दी गई। इसके अलावा सर मंचेरजी
भावनगरी और सर विलियम हंटर को भी इसकी सूचना भेजी गई। सर मंचेरजी भावनगरी उन दिनों
पार्लियामेंट के सदस्य थे। सर विलियम हंटर ‘टाइम्स’ के भारतीय विभाग के संपादक थे।
ये दोनों ही दक्षिण अफ़्रीका का सच्चा रूप ब्रिटिश जनता के सामने रखने लगे।
नेटाल की संसद में तीन क़ानून पास
ट्रांसवाल में अपने साथी देशवासियों की दुर्दशा ने गांधीजी का
ध्यान अपनी ओर खींचा था। क्रूगर की राड (संसद) ने दो क़ानून पास किए गए। इनसे भारतीयों की समस्या बढ़ गई। 14 फरवरी 1897
को सर जॉन रॉबिन्सन ने नेटाल प्रीमियरशिप से इस्तीफा दे दिया, जिस पर वे 1893 से काबिज थे, और 34 वर्ष की
आयु में शुरू हुई उनकी राजनीतिक यात्रा को, 37 वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद
सेवानिवृत्त हो कर विराम दे दिया। उनके बाद हैरी एस्कोम्बे प्रधानमंत्री बने।
नेटाल की संसद ने तीन क़ानून
पास किए। नेटाल क़ानून की किताब
को कलंकित करने वाला एक हानिकारक कानून जो भारतीय
व्यापारियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला था,
‘डीलर्स लाइसेसिंग एक्ट’, से भारतीय व्यापारियों के धंधे को
नुकसान पहुंचा। डीलर्स लाइसेंसिंग एक्ट (1897) ने खुदरा और थोक व्यापारियों के लिए
अपने बही-खाते अंग्रेजी में रखना अनिवार्य कर दिया और स्थानीय निकायों द्वारा
व्यापार लाइसेंस जारी करने और नवीनीकरण के लिए नियुक्त किए जाने वाले अधिकारियों
को पूर्ण अधिकार प्रदान किए, जबकि पीड़ित पक्ष को
न्यायालय में अपील करने का कोई अधिकार नहीं था। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य
भारतीय व्यापारियों के अप्रवास को हतोत्साहित करना और नगरपालिकाओं को उन लोगों से
छुटकारा पाने में सक्षम बनाना था, जिन्होंने पहले से ही
नेटाल में अपना व्यवसाय स्थापित कर लिया था।
स्वतंत्र भारतीयों के प्रवेश को अप्रत्यक्ष रूप से रोक देने
के उद्देश्य से लाया गया दूसरा भारतीय आप्रवासन
पर कठोर प्रतिबंध लगाने वाला क़ानून ‘इमिग्रेशन
रेस्ट्रिक्शन एक्ट’ से भारतीयों के आने जाने पर अंकुश लगा। आव्रजन प्रतिबंध
अधिनियम (1897) में किसी ऐसे व्यक्ति को निषिद्ध आप्रवासी घोषित किया जा सकता था,
जो किसी भी यूरोपीय भाषा के अक्षरों में आवेदन नहीं लिख सकता था और हस्ताक्षर नहीं
कर सकता था। इसलिए, कोई भी भारतीय, चाहे वह अपने देश की किसी भी भाषा को क्यों न जानता हो, अस्थायी रूप से भी नेटाल नहीं आ सकता था, अगर उसे कोई यूरोपीय भाषा नहीं आती थी,
जब
तक कि उसे विशेष अनुमति न दी जाए। इसने नेटाल में पहले से रह रहे भारतीयों के लिए
भी चीजें मुश्किल बना दीं।
उपद्रव मचाने वाले लोगों को रियायत देने के लिए अपने निर्धारित समय से एक महीने पहले ही एक विधेयक लाया गया और इसे
पास कराने में कोई विरोध नहीं हुआ। यह था ‘क्वारेन्टाइन अमेन्डमेंट एक्ट’। क्वारंटीन
संशोधन अधिनियम का उद्देश्य नियमों को कड़ा करना था,
प्लेग
के जीवाणुओं के प्रवेश को रोकने के लिए नहीं बल्कि अवांछित भारतीयों को दूर रखने
के लिए। चूंकि क़ानूनी अड़चनों के कारण ही
जहाज से आने वाले यात्री को वापस भारत न भेजा जा सका था, इसलिए यह संशोधन लाया गया था। इसका उद्देश्य संक्रामक
बीमारी से पीड़ित गरीबों और अन्य अवांछनीय लोगों” के प्रवेश पर रोक
लगाना था। हालाकि भाषा ऐसी थी कि लगता था यह
क़ानून सब पर लागू होता है, लेकिन उसका मूल उद्देश्य तो भारतीयों पर दवाब डालना ही था। प्रधानमंत्री ने
खुले तौर पर कहा था कि यह सरकार को कॉलोनी में स्वतंत्र भारतीयों के प्रवास को
रोकने में सक्षम बनाएगा।
अपनी ओर से, आसन्न विधायी हमले की
आशंका को देखते हुए, गांधीजी ने उपनिवेशों के
लिए राज्य सचिव जोसेफ चेम्बरलेन को संबोधित एक ज्ञापन तैयार किया, जिसमें डरबन में 13 जनवरी के भारतीय विरोधी प्रदर्शन के महत्व और तीन
नए विधेयकों की उत्पत्ति को सामने लाया गया, जिन्हें पारित
करने के लिए नेटाल सरकार दृढ़ थी। इस ज्ञापन में उन्होंने जो मूल तर्क दिया, वह प्रस्तावित कानूनों के मूल में भय की काल्पनिक प्रकृति थी। इसने
स्पष्ट किया कि नेटाल में भारतीय सबसे अधिक घृणास्पद और गलत समझे जाने वाले समुदाय
थे। उन्हें 'काले कीड़े' के रूप में अपमानित किया गया था। एक सार्वजनिक बैठक में किसी ने कहा
था: ‘वे खरगोशों की तरह प्रजनन करते हैं।' एक अन्य व्यक्ति
ने कहा था: सबसे बुरी बात यह है कि हम उन्हें मार नहीं सकते। ज्ञापन के द्वारा यह मांग की गई कि शाही प्राधिकार द्वारा एक नई
घोषणा की जाए कि भारतीयों के साथ भारत के बाहर अन्य ब्रिटिश नागरिकों के समान
समानता का व्यवहार किया जाएगा। 15 मार्च, 1897 को
प्रस्तुत यह ज्ञापन पूरी तरह से लाभहीन था। राज्य सचिव से कोई मदद की उम्मीद नहीं
की जा सकती थी, जो खुद पक्षपातपूर्ण
कानून की अवधारणा के पीछे मास्टरमाइंड थे।
न तो भारतीय समुदाय की ओर से किए गए प्रतिनिधित्व और न ही
प्रेस द्वारा उठाए गए शोर-शराबे ने कोई ठोस प्रभाव डाला। तीनों विधेयकों को दोनों
सदनों से जल्दी-जल्दी पारित कर दिया गया, राज्यपाल की स्वीकृति
प्राप्त करने की औपचारिकता शीघ्रता से पूरी कर ली गई और मई और जून 1897 में
अधिनियमों को राजपत्रित कर दिया गया।
इससे भारतीय अधिक विचलित नहीं
हुए बल्कि उनकी जागृति और बढ़ी। अब तक भारतीयों को 25 पाउंड के कर देने पर
गणतंत्र में प्रवेश की अनुमति थी। लेकिन जनवरी 1897 के अंत में ट्रांसवाल सीमा पर
अधिकारियों ने उन्हें सीमा पार करने की अनुमति ही नहीं दी। गांधीजी ने प्रिटोरिया
में ब्रिटिश एजेंट के समक्ष यह मामला उठाया। गांधीजी ने भारतीयों को इन तीनों क़ानूनों की बारीकियों को बहुत ही खूबी के
साथ समझाया। विधेयकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया; उनके निहितार्थों को पूरी तरह से समझाया गया। झगड़ा आखिर विलायत पहुँचा। 2 जुलाई, 1897 को भारतीयों ने अंतिम उपाय के रूप में उपनिवेशों के लिए राज्य
सचिव को एक याचिका प्रस्तुत की। हालाँकि, उपनिवेशों के
लिए राज्य सचिव से राहत की उनकी उम्मीद व्यर्थ थी। कोई प्रभाव नहीं पड़ा और विधेयक कानून बन गए। जुलाई 1897 में लंदन में
आयोजित औपनिवेशिक प्रीमियर सम्मेलन में उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव एक कदम और आगे
बढ़ गए। उन्होंने नेटाल के उदाहरण की सराहना करते हुए कहा कि अन्य उपनिवेशों को भी
इसका अनुकरण करना चाहिए।
इस बीच, नेटाल में राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया। सितंबर 1897
के अंतिम सप्ताह में आम चुनाव में उनके नेतृत्व वाली फॉरवर्ड पार्टी को बहुमत
मिलने के बाद हैरी एस्कोम्बे को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। हालांकि, पार्टी में कुछ
मतभेदों के कारण, उन्हें एक सप्ताह के भीतर ही पद छोड़ना आवश्यक लगा। इस्तीफा देने से
पहले उन्होंने अपने बंगले में गांधीजी सहित भारतीयों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ
एक महत्वपूर्ण बैठक की। यह चुनाव से ठीक पहले डीलर्स लाइसेंसिंग एक्ट के लागू होने
के बाद भारतीय व्यापारियों के बीच घबराहट से संबंधित था, हालांकि इसे
लगभग तीन महीने तक रोक कर रखा गया था। गांधीजी ने इस बैठक में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई, जिसके परिणामस्वरूप यह समझ बनी कि मौजूदा दृढ़ हितों की सरकार द्वारा
रक्षा की जाएगी। बदले में भारतीयों ने आव्रजन प्रतिबंध और अन्य नए पारित अधिनियमों
के कार्यान्वयन में सहयोग करने पर सहमति व्यक्त की, जब तक कि वे स्टैच्यू
बुक में थे। प्रधानमंत्री ने बैठक के चार दिन बाद गांधीजी को एक व्यक्तिगत पत्र
लिखा, जिसमें उन्होंने इस समझौते के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और आश्वासन
दिया कि वे भारतीयों की सद्भावना के योग्य बनने का प्रयास करेंगे। हेनरी बिन्स ने
हैरी एस्कोम्ब का स्थान लिया।
बड़ी कठोरता से आप्रवासन और संगरोध कानून लागू किए गए। इसका मुख्य उद्देश्य
भारत से आने वाले आप्रवासन को रोकना था। 1897 में इन कानूनों के लागू होने के बाद, 1901 तक 5,388 भारतीयों को
प्रवेश देने से मना कर दिया गया। भारत से आने वाले 3,355 लोगों में
से 2,482 वयस्क थे, जिनमें से 2,295 ने पिछले निवास को साबित करके प्रवेश प्राप्त किया। केवल
187 लोगों को शैक्षिक आवश्यकता पूरी करने पर प्रवेश दिया गया। नेटाल सरकार ने जिस
उदारता से कानून को लागू करने का बीड़ा उठाया था, वह कहीं नहीं दिखाई
दिया। एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्र भारतीयों के आने को रोकना था और यह पूरी तरह से
पूरा किया गया।
सार्वजनिक काम में अधिक समय
गांधीजी का सार्वजनिक कार्य काफी बढ़ गया। समुदाय अपने
कर्तव्य के प्रति अधिक सजग हो गया। उनका अधिकांश
समय सार्वजनिक काम में ही बीतता था। जैसे-जैसे गांधीजी की प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा
बढ़ती जा रही थी उनका कार्यक्षेत्र भी विस्तृत होता चला जा रहा था। उनके सत्य और
अहिंसा ने दक्षिण अफ़्रीका के गोरों का जोश और उत्तेजना काफ़ी हद तक ठंडा कर दिया
था। भारत वासियों में साहस और हिम्मत पैदा हो गई थी। उनका खोया हुआ आत्मसम्मान लौट
आया था। वे अपने अधिकारों के प्रति रक्षा के लिए एक जुट हो गये थे। गांधीजी की
वकालत अच्छी चलने लगी थी।
कांग्रेस का अपना स्थाई कोष
13 जनवरी 1897 को डरबन में घटी घटनाओं और उसके बाद जो कुछ हुआ, उसने गांधीजी को
एक नैतिक अधिकार प्रदान किया था, जिसकी न तो उनके भारतीय मित्र और न ही उनके यूरोपीय विरोधी
आसानी से अवहेलना कर सकते थे। गांधीजी ने नेटाल इंडियन कांग्रेस की ओर से अधिक
सदस्यता और धन की अपील की। मनसुखलाल नाजर
उनके साथ ही थे। वे गांधीजी के इस काम में हाथ बंटाते थे। इससे गांधीजी काम कुछ
हलका ज़रूर हुआ। गांधीजी की अनुपस्थिति में सेठ आदमजी मियांखान ने कांग्रेस का काम
बखूबी आगे बढ़ाया। इसके कोष में फण्ड का इज़ाफ़ा हुआ। कोष में लगभग पाँच हजार पौण्ड जमा
हो गये। गांधीजी चाहते थे कि
कांग्रेस का अपना स्थाई कोष हो जाए। उसके ब्याज से कांग्रेस का काम चलाना चाहते थे। उन्होंने अपने विचार साथियों के सामने रखे। सभी ने इसका स्वागत किया।
मकान खरीदे गए और उसे भाड़े पर उठा दिया गया। उसके किराए से कांग्रेस का मासिक खर्च
आसानी से चलने लगा। सम्पत्ति का ट्रस्ट बना दिया गया। किन्तु उनका यह अनुभव अच्छा
नहीं रहा। गांधीजी के दक्षिण अफ़्रीका छोड़ देने के बाद वह स्थायी कोष आपसी कलह का
कारण बना। इसके बाद गांधीजी के विचार में बदलाव आया। उनका मानना था कि किसी भी
सार्वजनिक संस्था को स्थायी कोष पर निभने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उनकी
नैतिक अधोगति का बीज छिपा रहता है। ऐसी संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो जाती है। इनका
हिसाब किताब का कोई ठिकाना नहीं रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक बन बैठते हैं। वे किसी के प्रति उत्तरदायी
भी नहीं होते।
महामारी
और अकाल
वर्ष 1897 की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका के लिए अशुभ रही और
भारतीय समुदाय के लिए यह विशेष रूप से विपत्तिपूर्ण साबित हुआ। घर से बुरी खबर आई।
मातृभूमि पर अभूतपूर्व पैमाने का अकाल पड़ा था। उन्नीसवीं सदी की अंतिम तिमाही में
भारत पर महामारी और अकाल की छाया लंबी होती जा रही थी। दुर्भाग्य से यह वर्ष
दक्षिण अफ्रीका के लिए भी संकटपूर्ण रहा। भयंकर सूखे के कारण कई जिले संकटग्रस्त
क्षेत्रों में तब्दील हो गए। गांधीजी ने तुरंत नेटाल मर्करी के माध्यम से एक अपील
जारी की, जिसमें उपनिवेशवादियों से कहा गया कि, वे अपने "बटुए में
भरपूर पैसा डालें" ताकि भारत में अपने लाखों साथी नागरिकों को बचाया जा सके, जो भुखमरी के
कगार पर थे। नेटल मर्करी ने उपनिवेशवासियों से अपील की कि वे एशियाई आप्रवास के
प्रश्न पर अपनी शिकायतों से ऊपर उठें, तथा अपनी व्यक्तिगत
शत्रुता को मानवता की अपनी उत्कृष्ट भावनाओं को कुचलने की अनुमति न दें। इस फंड
में कुल 1535.19 पाउंड की धनराशि एकत्रित हुई, जिसमें से 1194 पाउंड से
अधिक भारतीयों द्वारा दान किया गया।
उपसंहार
13 जनवरी 1897 का वह दिन गांधीजी के जीवन और नेटाल के भारतीय
समुदाय के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। प्रेस के एक हिस्से ने गांधीजी
द्वारा अपने हमलावरों को सजा दिलाने से इनकार करने की दिल से सराहना की थी। इस समय
से, नेटाल में भारतीय प्रवासियों और श्वेत
उपनिवेशवादियों के बीच सौहार्द का युग शुरू हो सकता था, अगर श्वेत उपनिवेशवादी ऐसा चाहते। वास्तव में यूरोपीय समुदाय के
नेताओं में से कोई भी ऐसा नहीं था जो शांति और सद्भाव के लिए व्यापक अभियान चला
सके। इसके विपरीत, बहुत से हठी
अंधराष्ट्रवादी थे जिनके प्रभाव में एशिया विरोधी उपायों के लिए शोर बढ़ता जा रहा
था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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