गांधी और गांधीवाद
73. गांधीजी पर जानलेवा हमला
13 जनवरी 1897
प्रवेश
भीड़ छंटने के बाद डरबन बंदरगाह पर पुलिस का नामो-निशान नहीं था।
तकरीबन साढ़े चार बजे गांधीजी एवं लाटन, जल पुलिस को सूचित किए बिना, जहाज से उतरे और रुस्तमजी के घर की तरफ पैदल निकले। उनका रास्ता डरबन के
बड़े-से-बड़े मुहल्ले से होकर जाता था। आकाश में कुछ थोड़े से बादल थे। सूरज उनके
पीछे छुपा हुआ था। सेठ रुस्तम के घर जाने में क़रीब एक घंटे का समय लगता। दुर्भाग्य से लाटन ने ख़तरे को कम करके
आंका था।
भीड़ ने घेर लिया
कुछ ही दूर चलने पर कुछ गोरे
लड़कों ने रास्ते में ही गांधीजी को पहचान लिया। गांधीजी जैसी पगड़ी पहनते थे वैसा
पहनने वाला अकेला वे ही तो थे। इससे लड़कों को पहचानने में देरी नहीं हुई। लोग इकट्ठे होने लगे। बड़ी उमर के आदमी
उनमें कोई नहीं था। शोर-शराबा होने लगा। ’गांधी’, ‘गांधी’
‘इसको मारो’, गालियां और धमकियां दी जाने लगीं। वे उनकी तरफ़ बढ़े। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। अब कुछ अधेड़ उमर के गोरे भी
उनमें मिल गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ बापू और लाटन के पीछे-पीछे चलने लगी।
गांधी गो बैक के नारे लगाती भीड़ चल रही थी। प्रतिक्षण भीड़ बढ़ती और उत्तेजित होती
जा रही थी। डरबन के मुख्य मार्ग वेस्ट स्ट्रीट के जंक्शन पर मेसर्स पार्कर, वुड एंड कंपनी के प्रतिष्ठान के पास पहुँचते ही भीड़ इतनी बढ़ गई कि
आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। उपहास और भी तेज़ हो गया। गांधीजी और उनके साथी को घेर
लिया गया। भीड़ ने हिंसक रूप धारण कर लिया। पत्थर
व सड़े अंडों की वर्षा की गई। रुस्तमजी का घर वहां से लगभग दो मील की दूरी पर था।
भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने सोचा पैदल जाने में खतरा लेना है। इसलिए उन्होंने रिक्शा
बुलाया। जिस सवारी को आदमी खींचता हो उसमें बैठने से गांधीजी को सख़्त नफ़रत थी। पर
उस दिन न चाहते हुए भी गांधीजी उसमें बैठने को तैयार हो गए। लेकिन गोरे लड़कों ने
रिक्शे चलाने
वाले जूलू लड़के को धमकाया कि तुमने इस आदमी को
रिक्शा में बैठाया तो हम तुम्हें पीटेंगे और रिक्शावाला उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। दूसरा रिक्शा मिलने का सवाल ही नहीं उठता था। अब उनके सामने पैदल ही जाने के सिवा
दूसरा कोई रास्ता नहीं रह गया था। गांधीजी और लाटन आगे बढ़े।
भीड़ द्वारा गांधीजी की पिटाई
वे पैदल ही आगे बढ़े। भीड़ भी पीछे-पीछे चलती रही। भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गये वैसे-वैसे गोरों की भीड़ भी
बढ़ती ही चली गई। वे (दोनों) मुख्य मार्ग से वेस्ट स्ट्रीट में पहुँचे, तब तक तो
छोटे-बड़े सैकड़ों गोरे इकट्ठे हो गए थे। वेस्ट स्ट्रीट पर अभी कुछ ही दूरी उन्होंने तय
की थी कि भीड़ ने लाटन को उनसे अलग कर दिया। अब तो गांधीजी चारों तरफ से घिरी भीड़
की दया पर निर्भर थे। भीड़ गांधीजी की ओर मुड़ी। बड़ी संख्या में लोगों
के आगे बढ़ने के कारण, कुछ ही क्षणों में गांधी
गुंडों के हाथों में आ गए, जिन्होंने उन पर हमला कर
दिया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया। गांधीजी को
उन्होंने गालियां दी। उनपर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उन्हें
घुड़सवारी के चाबुक से मारा, तो किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। गुस्से से भरा एक कद्दावर
मोटा गोरा उनपर लपका। लातों से उनकी पिटाई की। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई
उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। एक पत्थर आकर उनके सिर में लगा। सर से ख़ून बहने लगा।
एक चिल्लाया, “तुम वही हो ना जिसने प्रेस को पत्र लिखा था?” उसने गांधीजी के गाल पर तमाचा जड़ा।
उसके बाद उसने उनके पेट में लात से वार किया। फिर तो भीड़ द्वारा उनकी पिटाई-कुटाई
चलती रही। गांधीजी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की
रेलिंग को थामा। किसी तरह लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ने की
कोशिश की। पर वह असंभव था। लड़के घूंसे बरसाते और मारपीट करते ऊपर चढ़ आए। जीने की
आशा उन्होंने छोड़ ही दी थी।
श्रीमती एलेक्जेंडर द्वारा बचाव
उनके ऊपर फिर मार पड़ने लगी।
उनकी मौत निश्चित थी। इतने में संयोगवश डरबन के पुलिस
अधीक्षक की पत्नी श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधीजी को पहचानती थी, विपरीत दिशा से आ रही थीं। उन्हें पहचान कर वह चिल्लाई, ‘कायर’ और
बहादुरी से उन्हें बचाने के लिए दौड़ी। वह बहादुर
महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। वह उस समय उस तरफ से नहीं
गुज़र रही होतीं तो भयानक नतीजे निकल सकते थे। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल
ली ताकि पत्थरों से गांधीजी को और चोट न पहुंचे। अब स्थिति यह थी कि यदि गांधीजी
पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे। क्रुद्ध गोरे गोरी महिला श्रीमती
एलेक्जेंडर पर तो हाथ छोड़ नहीं सकते थे। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। गोरी मेम पर हाथ उठाने का किसी ने साहस नहीं किया। उस वीर स्त्री के कारण लज्जित होकर उनमें से कई लोग भाग निकले। जैसे
ही श्रीमती एलेक्जेंडर के हस्तक्षेप की बात भीड़ में मौजूद बाकी लोगों को पता चली, कुछ समय के लिए मामला शांत हो गया।
पुलिस गांधीजी लेकर पुलिस स्टेशन गयी
इस बीच एक भारतीय युवक जो यह
सब घटना देख रहा था दौड़ा हुआ थाने में गया। वह चिल्लाने लगा,
गांधीजी की हत्या की जा रही है। जब थाने में यह
खबर पहुंची तो पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर (51. एलेक्ज़ेंडर से पहचान) ने एक टुकड़ी गांधीजी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। पुलिस आई और गांधीजी
को सुरक्षित लेकर पुलिस स्टेशन की ओर वेस्ट स्ट्रीट होकर आगे बढ़ी। उन्होंने गांधीजी
के चारों ओर घेरा बना लिया। वेस्ट स्ट्रीट, गार्डिनर
स्ट्रीट और कमर्शियल स्ट्रीट के पार उत्साहित जुलूस आगे बढ़ा, जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, हूटिंग और शोर
ने अधिक से अधिक लोगों को आकर्षित किया। लेकिन भीड़ बढ़ने के साथ ही पुलिस की
संख्या भी बढ़ गई, जो लगभग बीस लोगों तक
पहुंच गई। फील्ड स्ट्रीट के पास पहुँचते समय गांधीजी को यह कहते सुना गया, “मुझे कुछ ऐसा ही
होने की उम्मीद थी।” भीड़ फिर से उत्साह में थी और गांधीजी को ले जा
रही पुलिस टुकड़ी के पीछे चल रही थी। जिन लोगों ने उन्हें देखा, वे उनके शांत भाव से प्रभावित हुए। रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि
पुलिस सुपरिंटेंडेंट खड़े उनकी राह देख रहे थे। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय
लेने की सलाह दी। गांधीजी ने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो
जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।” फिर भी गांधीजी इस बात पर राज़ी हो गए कि पुलिस उन्हें रुस्तमजी के
घर तक पहुंचा दे। अब तक भीड़ कई सौ लोगों की हो चुकी थी और उसमें कई काफिर भी शामिल
थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें पारसी रुस्तमजी के घर में सुरक्षित उतार दिया और
दरवाजों के चारों ओर कई जासूस तैनात कर दिए। लेकिन शहर के लोगों को अब गांधीजी का ठिकाना मालूम हो गया था।
गांधीजी की चोटों का इलाज
जैसे ही गांधीजी सुरक्षित रूप से अंदर आ गए, शटर लगा दिए गए और दरवाजा बंद कर दिया गया। बा बड़ी बेचैनी से गांधीजी के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने
जब गांधीजी को घर में प्रवेश करते देखा तो उनकी जान में जान आई। जब उन्होंने ठीक
से गांधीजी को देखा तो उनके तो होश उड़ गए। उन्हें जगह-जगह चोट लगी थी। कपड़े कई जगह
से फट गए थे। सर से खून बह रहा था। बाल बेतरतीब थे। सर पर पगड़ी भी नहीं थी। वह गांधीजी
की तरफ़ दौड़ पड़ीं और पूछा, “यह सब क्या हुआ आपको?” गांधीजी ने कहा, “कुछ नहीं हुआ मुझे। थोड़ी सी खरोंच है और कुछ नहीं।” पर बा को संतोष नहीं हुआ। पानी में रुई भिंगा कर वे खुद ही उनका उपचार
करने लगीं। गांधीजी की पीठ पर अन्दरूनी मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। कुरलैंड स्टीमर का डॉक्टर दाजी बरजोर जो एक पारसी था और वहां मौज़ूद था, ने गांधीजी की चोटों का इलाज किया।
रुस्तमजी के घर को उपद्रवियों ने घेरा
खतरा अभी
टला नहीं था। अब शहर को गांधीजी के ठिकाने का पता चल
गया था। भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। खून का स्वाद चख चुकी पागल भीड़ और
खून मांग रही थी। अभी गांधीजी के घावों की मरहम-पट्टी हुई भी नहीं थी कि भीड़ ने
रुस्तमजी के घर को घेर लिया और धमकी देने लगे, “यदि गांधी को हमारे हवाले नहीं किया तो हम घर को आग के हवाले कर देंगे।” आठ बजते-बजते हज़ारों की
संख्या में लोग एकत्रित हो गए और उन्होंने घर को पूरी तरह से घेर लिया। कई लुच्चे-लफंगे लोग भी उनमें
शरीक हो गये थे। रात घिर आई थी। इमारत के हर रास्ते पर
कड़ी नज़र रखी जा रही थी। वे गांधीजी की
मांग कर रहे थे। सफेद कपड़ों में तैनात की गई पुलिस इतनी कम संख्या में थी कि वह
सिर्फ़ तमाशा ही देख सकती थी। परिस्थिति का ख्याल करके पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट
एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। उन्हें जब यहां हो रहे उत्पात की खबर मिली थी तो वे अपनी ख़ुफ़िया पुलिस के
साथ आकर चुपके से उस मजमे में घुस गए थे। एक चौकी मंगाकर वे उसके ऊपर खड़े हो गये।
लोगों से बातचीत के बहाने रुस्तमजी के मकान के दरवाज़े पर उन्होंने क़ब्ज़ा जमा लिया
था, जिससे कोई उसको
तोड़कर घुस न सके। डरबन का मेयर शहर से बाहर गया हुआ था इसलिए उन्होंने डिप्टी मेयर
रामसे कोलिन्स से सहायता मांगी। रामसे कोलिन्स ने घटना स्थल पर पहुंच कर भीड़ को
शांत करने की कोशिश की। मि. कोलिन्स ने उपस्थित लोगों से अपील की कि वे "पूरे दिन बनाए
गए उल्लेखनीय अच्छे व्यवस्था" के अच्छे प्रभाव को खराब न करें। भीड़ द्वारा
एक व्यक्ति पर हमला करना 'गैर-अंग्रेजी' है, जब वह पहले से ही पीड़ित है। उन्होंने कहा जो कानून और व्यवस्था का
समर्थन करने और उसके साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं, आगे आ जाएं। लगभग एक दर्जन लोगों ने
जवाब दिया। हैरी स्पार्क्स जो इस उत्पात का मास्टर माइंड था ने भी लोगों को शांत
होने के लिए अपील की। संयोग से हैरी स्पार्क्स सड़क पर साइकिल चलाते हुए उधर से जा
रहा था। पास आने पर उसने भीड़ को संबोधित किया और अंग्रेजों के निष्पक्ष व्यवहार
के प्रति प्रेम के कारण उन्हें ‘बेचारे को अकेला छोड़ देना चाहिए’ कहा। हिंसा से
उनका उद्देश्य बर्बाद हो जाएगा। आगे चलकर तितर-बितर होने की अपील के बाद, उसने उन सभी लोगों से कहा जो उनके साथ सहमत थे कि वे उनके पीछे चलें।
कुछ लोगों ने ऐसा किया। लेकिन अधिकांश लोग वहीं रहे। यदि उसकी सलाह पर कुछ लोग चले
गए तो उनकी जगह अन्य लोग आ गए। बाद में पता चला कि जब हंगामा चरम पर था, तब प्रदर्शन
समिति के एक सदस्य ने दूसरे को एक नोट भेजा था, जिसमें कहा गया था कि
अगर भीड़ शांत नहीं हुई तो ‘हत्या हो सकती है’ या कुछ ऐसा ही होगा, और उस सदस्य को
तुरंत आने के लिए कहा गया था। उन्हें जवाब मिला कि सरकार ने मामले को उनके हाथ से
ले लिया है, इसलिए समिति ने इस्तीफा दे दिया है और जो कुछ हो रहा है उसके लिए वे
जिम्मेदार नहीं हैं।
उत्पातियों द्वारा प्रदर्शन पर क़ब्ज़ा
रात घिरने लगी थी। कई लोग जा
चुके थे, लेकिन जो बाक़ी थे वे अपनी ज़िद पर अड़े हुए थे। कुछ देर के बाद कुछ ऐसे
लोग आकर भीड़ में शामिल हो गए जो उत्पाती थे और उन्होंने शराब पी रखी थी। उनके आने से उत्तेजना फिर से भड़क उठी। भीड़ फिर से उग्र हो गई और पत्थर फेंके जाने लगे। भाषणों की एक नई लहर चल पड़ी। जॉर्ज स्प्रेडब्रो
नामक एक वक्ता ने अफ्रीकियों को झूठ के खिलाफ भड़काया। अपने आदेश के तहत प्वाइंट
पर उनके (भीड़ के) आचरण की प्रशंसा करते हुए उसने कहा, आप सभी जानते हैं कि भारतीय
दक्षिण अफ्रीका में वांछित नहीं हैं। कुली इतना घृणित है कि यूरोपीय लोगों द्वारा
उसके साथ दुर्व्यवहार या हत्या नहीं की जा सकती थी। स्थानीय लोग ही उससे निपटने के
लिए उचित व्यक्ति हैं। दंगा आसन्न लग रहा था। पुलिस अधीक्षक की सतर्कता से तबाही
टल गई, जिन्होंने 'देशी' कांस्टेबलों को भारतीयों और 'मूल निवासियों' के बीच किसी भी
तरह के टकराव को रोकने और बाद में उन्हें तितर-बितर करने का निर्देश दिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण से बाहर जा रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधीजी
को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। रुस्तमजी ऐसी धमकियों से
डरने वाले व्यक्ति नहीं थे। पुलिस अधीक्षक को अफ्रीकी कांस्टेबलों को विशेष
सावधानी से यह निर्देश देना पड़ा कि वे स्थानीय लोगों को तितर-बितर कर दें। गांधीजी और परिवार के सदस्य ऊपर की मंजिल पर थे। लोगों का शोर वहां तक पहुंच
ही रहा था। बा डर से कांप रही थीं। इस शहर को क्या हो गया है? क्यों वे इनको जान से मार देने पर
उतारू हैं? हरिलाल और मणिलाल का क्या होगा? बेचारा गोकुलदास तो मुफ़्त में ही इस फ़साद में फंस गया है।
एलेक्ज़ेण्डर भीड़ को धमकी से
नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। अवसर के अनुरूप गीतों और
भाषण से भीड़ को रिझा रहे थे। वे उस घर के सामने भीड़ से गाना गवा रहे थे,
“चलो, हम गांधी को फांसी पर लटका दें,
खट्टे सेब के उस पेड़ पर फांसी लटका दें।”
पुलिस
अधीक्षक को विश्वास नहीं था कि वह इस वहशी भीड़ को अधिक देर तक क़ाबू में रख पाएगा। एलेक्ज़ेंडर ने गांधीजी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल
जाना चाहिए।”
“हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”।
भेष बदलकर बच निकले
गांधीजी को भेष बदलने पर गंभीर नैतिक आपत्ति थी। लेकिन दंगाइयों
द्वारा घर को जला देने की संभावना बहुत अधिक थी। एलेक्ज़ेंडर ने समझाया "यही एकमात्र
तरीका है, जिससे मैं आपको और दूसरों को बचा सकता हूँ। भीड़ इतनी उत्तेजित है
कि मैं उसे नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं हूँ। यदि आप मेरे निर्देशों का पालन
करने में तत्पर नहीं हैं, तो मुझे डर है कि भीड़ रुस्तमजी के घर को तहस-नहस कर देगी और
मेरे लिए यह कल्पना करना असंभव है कि कितने लोगों की जान चली जाएगी और कितनी
संपत्ति नष्ट हो जाएगी।" इसलिए गांधीजी के पास चोरी-छुपे भागने के अलावा कोई
चारा नहीं था। सार्जेंट बॉल को शुरू में ही इमारत के अंदर रखा गया था। जासूस
सार्जेंट मैकबीच को कहा गया कि वह पीछे की दीवार से होते हुए अंदर जाए और छद्मवेश
का काम देखे। वह भारतीय व्यापारी की पोशाक पहनकर अंदर घुस गया। एक भारतीय
कांस्टेबल, जो कम से कम कद और कद-काठी के मामले में गांधीजी का हमशक्ल था, को चुपके से घर
के अंदर घुसने के लिए कहा गया। विचार यह था कि उसकी वर्दी का उपयोग गांधीजी को
चोरी-छुपे बाहर निकालने के लिए किया जाए। भागने के प्रयास में वे अपनी चोटों को
भूल गए थे। उन्होंने भारतीय सिपाही की वर्दी पहनी। सिर पर लाठी आदि की चोट से बचने
के लिए पीतल की एक तश्तरी रखी और ऊपर से मद्रासी तर्ज़ का बड़ा साफा बांधा। साथ में
खुफ़िया पुलिस के दो जवान थे। उनमें से एक (सार्जेंट मैकबीच)
ने भारतीय व्यापारी की पोशाक पहनी और अपना चेहरा भारतीय
की तरह रंग लिया। दूसरे (सार्जेंट बॉल) ने वाहन चालक का वेश धरा। वे बाड़ फांद गए, रेलिंग से होकर गुजरे, एक संकरी गली से
नीचे रेंगते हुए, वे सभी पड़ोस की एक दुकान में पहुंचे। गोदाम में लगी हुई बोरों की
थप्पियों को लांघते हुए दुकान के दरवाज़े से भीड़ में घुसकर आगे निकल गये। गली के
नुक्कड़ पर गाड़ी खड़ी थी उसमें बैठाकर गांधीजी को उसी थाने में ले जाया गया जहां
आश्रय लेने की सलाह एलेक्ज़ेण्डर ने दी थी। भेष इतना अच्छा था कि जब वे भीड़ के बीच
से गुजरे तो अधीक्षक के अलावा कोई भी उन्हें पहचान नहीं पाया। और यहां तक कि जब
बाद में उसने गांधीजी को पुलिस स्टेशन में देखा तो वह भी उन्हें पहचान नहीं पाया।
दो दिनों तक गांधीजी पुलिस थाने में छिपे रहे और दक्षिण
अफ्रीका में भारतीयों के भाग्य तथा पुलिस के स्वेच्छा से कैदी बनने के अपने भाग्य
के बारे में सोचते रहे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में
जो लिखा है, “कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के
जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार की प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि
संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह
की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को
मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा
सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो
परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।”
जब एलेक्ज़ेंडर को यह खबर मिली
कि गांधीजी सही-सलामत थाने पहुंच गए हैं तो उसने भीड़ से कहा, “आपका शिकार तो इस दुकान में से सही
सलामत निकल भागा है।” भीड़ को विश्वास न
हुआ। उनके प्रतिनिधि ने अन्दर जाकर कर तलाशी ली। उन्हें निराशा हुई। धीरे-धीरे भीड़
बिखर गई। केवल कुछ दृढ़ निश्चयी लोग ही थोड़ी देर तक डटे रहे, जब तक कि भारी बारिश के कारण उन्हें वहां से जाना नहीं पड़ा। तब तक रात के ग्यारह बज चुके थे।
गांधीजी के लिए यह एक बहुत
बड़ी संकट की घड़ी थी। कुछ ही घंटों के भीतर उन्हें दो बार जानलेवा खतरे का सामना
करना पड़ा। साथ ही साथ कस्तूरबा की भी यह एक
ज़बरदस्त कसौटी थी। उन्हें मार तो नहीं पड़ी थी, लेकिन एक अनजान देश में पैर रखते ही पति के प्राण संकट में पड़ गये।
उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी। थाने में दूसरे दिन सुबह गांधीजी से मिलने एक पत्र-प्रतिनिधि पहुंचा।
गांधीजी ने उसे अपने पर लगाए सभी आरोपों का खुलासेवार जवाब दिया। लोगों कि ग़लतफहमी
दूर हुई। गांधीजी को छोड़ दिया गया। इसमें कोई संदेह
नहीं कि यह दुर्भावना गलतफहमी के कारण थी, जिसका फायदा बेईमान लोगों ने उठाने की
कोशिश की। उपनिवेश वासी इस बात से नाराज थे कि श्री गांधी ने अतिशयोक्तिपूर्ण बयान
दिए और झूठे आरोप लगाए। वे इस बात से नाराज थे कि उन्होंने नेटाल का अपमान किया। जब उन्होंने छपा
हुआ भाषण देखा और पाया कि इसमें डरबन में पहले प्रकाशित उनके भाषण से भी अलग कुछ
नहीं है, तो आम धारणा बन गई कि
उपनिवेशवादियों को गुमराह किया गया है, और यहां तक कि
"नेटाल मर्करी" ने भी अपना गुस्सा भरा स्वर बदलते हुए कहा, श्री गांधी ने अपनी ओर से और अपने देशवासियों की ओर से ऐसा कुछ भी
नहीं किया है, जिसके वे हकदार नहीं हैं, और उनके दृष्टिकोण से, जिस सिद्धांत के
लिए वे काम कर रहे हैं, वह सम्मानजनक और वैध है।
वे अपने अधिकारों के भीतर हैं और जब तक वे ईमानदारी से और सीधे तरीके से काम करते
हैं, उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता या उनके काम में
हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
लेकिन, जाहिर है, नेटाल की चिढ़ के पीछे दो और झूठे कारण थे। यह अफवाह थी कि गांधीजी
दोनों जहाजों पर सवार यात्रियों को सरकार पर मुकदमा करने के लिए उकसा रहे थे, क्योंकि उन्होंने उन्हें संगरोध में रखा था, और यह भी कि उन्होंने भारत में एक स्वतंत्र आव्रजन एजेंसी का गठन
किया था, जो अपने देशवासियों को
एक से दो हजार प्रति माह की दर से नेटाल में उतारेगी, इन यात्रियों की संख्या आठ सौ थी, जो पहली किस्त
थी। आरोप था गांधीजी दक्षिण अफ्रीका को भारतीय प्रवासियों से भर देने की इच्छा
रखते थे। पूरा आरोप बेशर्मी से झूठा था। श्री गांधी ने कभी भी नेटाल सरकार के
खिलाफ मामला उठाने की कोशिश नहीं की, और इन यात्रियों
के साथ उनका होना, जिनकी संख्या वास्तव में
छह सौ थी, जिनमें से दो सौ केवल
नेटाल के थे, जिनमें से एक सौ पुराने
निवासी थे, उनके अचानक वापस बुलाए
जाने के कारण था। फिर भी, बार-बार दोहराई गई इन अफवाहों ने तीव्र आक्रोश को जगा दिया -
एक ऐसी भावना जिसे उस समय के बेईमान नेताओं ने बढ़ावा दिया और तीव्र रूप दिया।
गांधीजी ने गोरों को क्षमा कर दिया
इस घटना के बाद ऑक्सफ़ोर्ड के
प्रोफ़ेसर एडवर्ड टामसन ने लिखा है, - “गांधीजी को चाहिए था कि जीवन भर हर एक गोरी शक्ल से नफ़रत करते।” लेकिन गांधीजी ने डरबन के उन गोरों को क्षमा कर दिया, जो उन्हें ज़िन्दा जला डालने के लिए
जमा हुए थे। उनको भी क्षमा कर दिया जिन्होंने उन्हें घायल किया और मारा था। इस समय
तक गाँधीजी अफ्रीका और भारत में मशहूर हो गये थे, इसलिए गांधीजी पर भीड़ के जानलेवा हमले की खबर समाचारपत्रों के
माध्यम से इंग्लैण्ड तक भी पहुँच गई थी। लंदन से उपनिवेश मंत्री जोसेफ चेम्बरलेन ने हमला करने वालों को गिरफ़्तार कर मुकदमा चलाने का आदेश दिया। इसलिए एस्कम्ब ने गांधीजी को तलब कर कहा, ‘आप यह तो मानेंगे ही कि आपका बाल भी बांका
हो तो मुझे उससे कभी ख़ुशी नहीं हो सकती।
आपने लाटन की सलाह मानकर तुरन्त उतर जाने का साहस किया।
आपको ऐसा करने का हक था, पर आपने मेरे संदेश को मान लिया होता तो यह दुखद घटना न घटती। यदि आप
हमलावरों को पहचान लें तो उन पर हमला करनेवालों पर सरकार मुकदमा चलाएगी। मि. चेम्बरलेन भी यही चाहते हैं।' गांधीजी कुछ हमलावरों को पहचानते थे लेकिन उन्होंने अपने ऊपर हमला
करने वाले लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए इनकार कर दिया। गांधीजी ने कहा, “मुझे
किसी पर मुकदमा नहीं चलाना है। उन्हें सज़ा दिलाने से मेरा क्या लाभ होगा। मैं तो
उन्हें दोषी ही नहीं मानता हूं। उन्हें तो भड़काया गया था। दोष तो बड़ों का है। वे
सही रास्ता दिखा सकते थे। जब वस्तु-स्थिति प्रकट होगी और लोगों को पता चलेगा,
तो वे खुद पछताएंगे।”
जो कुछ हुआ था, उस पर गांधीजी ने काफी चिंतन-मनन
किया। दो दिन तक गांधीजी पुलिस स्टेशन में रहे। उन्हें ऊपर
के अधिकारियों के छात्रावास में रखा गया था। इस शांत ठिकाने पर उन्होंने दक्षिण
अफ्रीका में भारतीयों के सामने आने वाले भविष्य की अनिश्चितताओं के बारे में सोचा
और साथ ही कुरर्लैड से उतरने के बाद की घटनाओं के
परिणामस्वरूप उनके जीवन में आए नाटकीय मोड़ के बारे में भी सोचा। अचानक वे मूल्यों
की खोज में एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुँच गए थे, जिसका उद्देश्य उनके जीवन को एक गहरा अर्थ और
उद्देश्य देना था। उस दिन के बारे में गांधीजी लिखते
हैं, “जब भी मैं उस दिन को याद करता हूं तो
मुझे लगता है कि ईश्वर मुझे सत्याग्रह का अभ्यास करवा रहा था!” इस अवसर पर उनके अनुभव और उसके बाद के चिंतन ने गांधीजी को एक सुनहरा नियम
बनाने के लिए प्रेरित किया जिसे उन्होंने बाद में विरोधियों और सहकर्मियों के
संबंध में जीवन में लागू किया। यह था, कभी भी दिखावे पर भरोसा न करें; कभी भी किसी का न्याय न करें या पूरी और गहन
जांच के बिना किसी निष्कर्ष पर न पहुंचें, चाहे पहली नज़र में कोई विशेष निष्कर्ष कितना भी विश्वसनीय
क्यों न लगे, और अंत में, दूसरों, खासकर विरोधियों के शब्दों या कार्यों पर सबसे अनुकूल व्याख्या करें, जब एक से अधिक व्याख्या संभव हो। उन्होंने घोषणा
की, दुनिया में आगे बढ़ने का सबसे व्यावहारिक, सबसे सम्मानजनक तरीका है, "जब आपके पास इसके विपरीत कोई सकारात्मक कारण न
हो, तो लोगों की बात पर विश्वास करना" और
उन्हें उनकी ईमानदारी के लिए उतना ही श्रेय देना जितना हम खुद के लिए दावा करते
हैं।
उपसंहार
13 जनवरी 1897
का वह दिन बडा ही महत्त्वपूर्ण और निर्णायक दिन था। गांधीजी मौत से
बाल-बाल बचे थे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, इस घटना के बाद उनकी प्रतिष्ठा
बढी और उनके लिए अफ्रीका में रहकर अपना काम करना पहले से अधिक आसान हो गया। प्रेस
ने गांधीजी को बेगुनाह घोषित किया और भीड़ की निंदा की। इस प्रकार वह पिटाई आखिरकार
गांधीजी के ध्येय के लिए वरदान साबित हुई। उनकी आत्मा ने अपने
शरीर के विरुद्ध पिछले पापों का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा। दोषियों पर मुकदमा चलाने
के बजाय उन्होंने अपने देशवासियों का दुख दूर करने के अधिक रचनात्मक कार्य को आगे
बढ़ाया। जिस संयम, क्षमा और उदारता का परिचय गांधीजी ने
दिया इससे उस कुली बैरिस्टर के प्रति दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के दिल में
श्रद्धा और गोरों में प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई। उनके अन्दर का सोया हुआ महात्मा अब
जाग रहा था, और अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहा था। गांधी से
महात्मा की राह पर अब मोहनदास चल पड़ा था।
पुनश्च
गांधीजी के जीवनीकार लुई फिशर कहते हैं, गांधीजी को एक सुखद अवसर का लाभ
उठाने के लिए दक्षिण अफ्रीका वापस बुलाया गया था। लंदन से उपनिवेश सचिव जोसेफ
चेम्बरलेन और भारत में ब्रिटिश सरकार के दबाव में, नेटाल विधानमंडल नस्लीय भेदभाव को खत्म करने और
उसकी जगह एक शैक्षिक परीक्षा लाने के लिए एक कानून पर बहस कर रहा था। यह गांधीजी
का लक्ष्य था। 1897 में पारित नेटाल अधिनियम ने ब्रिटिश नागरिकों, जिनमें भारतीय भी शामिल थे, के लिए समान चुनावी अधिकारों की उनकी मांग को
पूरा किया; कुछ सौ भारतीयों को मताधिकार से वंचित करने का
प्रयास छोड़ दिया गया। गांधीजी को कुछ संतुष्टि महसूस हुई। गुस्सा शांत हुआ और
तनाव कम हुआ।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
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