गांधी और गांधीवाद
70. डरबन पहुंचते ही संकटों का सामना
दिसंबर 1896
प्रवेश
गांधीजी की अतिशय सच्चाई
लोगों को जकड़ लेती थी। उन्हें देख और सुन कर लोगों के बीच शक्ति और बल का अनंत
सागर हिलोरें मारने लगता था। उनमें सबसे बड़ा गुण तो यह था कि अपनी
बातों और आचरण से वे विरोधियों को भी जीत लेते थे, कम-से-कम उन्हें निःशस्त्र तो
अवश्य ही कर देते थे। उनका व्यवहार शालीन, सौम्य और शिष्ट होता था। भद्देपन और खुरदरेपन का
उनमें बिलकुल अभाव था। जो भी वे करने को कहते थे पहले अपने पर आजमाते थे, फिर
दूसरों को वैसा करने को कहते थे। कष्टमय रास्ते पर दृढ़ता और निर्भयता से वे चलते
रहे।
तोड़ी-मरोड़ी रिपोर्ट से भ्रम की स्थिति
गांधीजी के दक्षिण अफ़्रीका
वापस पहुंचने के पहले ही भारत में उनके किए गए कामों और भाषणों की तोड़ी-मरोड़ी
रिपोर्ट नेटाल पहुंच चुकी थी। लापरवाह रिपोर्टिंग से कई बार भारी भ्रम की स्थिति
बन जाती है। इस लापरवाह रिपोर्टिंग से वहां के गोरे खासे नाराज़ थे। भारत में जो
आंदोलन गांधीजी ने की थी, उसकी सही रिपोर्ट नेटाल पहुंच नहीं पाई थी। ‘‘हरी पुस्तिका” (61. हरी पुस्तिका) में व्यक्त गांधीजी के विचार की तोड़ी-मोड़ी रिपोर्ट के आधार पर 18 सितम्बर 1896 को लंदन स्थित “रायटर” ने तार द्वारा दक्षिण
अफ़्रीका के प्रेस को बताया - “A pamphlet published in
India declares that the Indians in Natal are robbed and assaulted, and treated
like beasts, and are unable to obtain redress. The Times of India advocates an inquiry into
these allegations.’’ (भारत में छपी एक पुस्तिका में
कहा गया है कि नेटाल में भारतीयों को लूटा जाता है,
उनपर हमले किए जाते हैं और उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव
होता है, जिसकी कोई दाद-फ़रियाद नहीं। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने इन आरोपों के प्रति एक सार्वजनिक जांच की मांग की है।)
गोरे गांधीजी से नाराज़ हुए
इस तार के आशय पर जब नेटाल के समाचार पत्रों में समाचर
छपा तो इसने वहां बवंडर पैदा कर दिया था। नेटाल
वासियों में रोष व्याप्त हो गया। वहां
के गोरे गांधीजी से बहुत ही
नाराज़ थे। 14 सितम्बर, 1896 को सर वाल्टर पीस, जो
लंदन में नेटाल का एजेंट जेनरल था, ने
एक वक्तव्य ज़ारी किया था। इस तार से उत्तेजित हो डरबन के यूरोपवासियों ने 16 सितम्बर को मारित्ज़बर्ग में योरोपियन प्रोटेक्शन असोसिएशन (European Protection Association) गठित कर लिया। आक्रोश
सभाएँ आयोजित की गईं, और श्री गांधी की बहुत ही
जोरदार
शब्दों
में निंदा की गई। उन पर उस कॉलोनी के अच्छे नाम को बदनाम करने का आरोप लगाया गया। ‘हरी पुस्तिका’ के विवरण का अध्ययन कर नेटाल एडवर्टाइज़र ने
लोगों से शान्ति और धैर्य से काम लेने को कहा, पर
लोग कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थे। बल्कि खतरे की संभावना और बढ़ ही गई। 26 नवम्बर 1896 को डरबन में मेयर की अध्यक्षता में
वहां के योरोपवासियों की एक आम सभा हुई। इस सभा में एशियाई आप्रवास की भर्त्सना की
गई। गांधीजी का नाम आने पर उपस्थित श्रोताओं ने सी-सी कर फुंफकार
भरा। एक
वक्ता ने कहा गांधीजी ने नेटाल के
उपनिवेशवादियों पर भारतीयों के साथ अन्याय करने, उनके
साथ दुर्व्यवहार करने, उन्हें लूटने और ठगने का
आरोप लगाया है। गांधी भारत जाकर हमें गटर में घसीट कर ले गए हैं और हमें अपनी
त्वचा की तरह ही काला और गंदा रंग दिया है। नवंबर में कोलोनियल
पैट्रिटिक यूनिन (Colonial Patriotic Union औपनिवेशिक देशभक्ति
संघ) का गठन हुआ, जिसका
कार्यक्रम नेटाल से भारतीयों को बाहर निकालने पर आधारित था। इन्होंने मांग की कि एशिया से
प्रवासियों का आना बंद किया जाए। आरोप लगाया गया कि ‘जिस देश ने उसको आश्रय दिया, गांधी उसे ही बदनाम करने लगा है।
नेटाल के यूरोपियन को गंदगी में खींचने और उनके चेहरे पर कालिख पोतने का काम कर
रहा है।’ इन आंदोलनों से दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के उस क़दम को बल मिला जिसके द्वारा
वे सदन में अप्रवासी भारतीयों के लिए बिल पेश करने जा रहे थे। नेटाल
के गोरों ने सोचा कि गांधीजी के काम का भारत में बहुत प्रभाव पडा है और उनके
क्रिया-कलापों से गिरमिट की प्रथा बंद हो जाएगी। इसके फलस्वरूप सैकड़ों गोरे
मालिकों को नुकसान पहुंचेगा। डरबन
के टाउनहॉल में दो हज़ार गोरों ने एक सभा कर ‘मुक्त भारतीयों’ को नेटाल की भूमि पर
न उतरने देने की सरकार से मांग की। सभा में गोरों की एक कमेटी नियुक्त की गयी। नेटाल
सरकार की सहानुभूति इस कमेटी से थी। नेटाल
सरकार के एक मंत्री एस्कंब उस कमेटी के क्रिया-कलापों में भाग लेते थे। वह
कमेटी को भड़काने का काम करता था। इस प्रकार डरबन में द्वन्द्व
युद्ध छिड़
गया। एक ओर मुट्ठी भर गरीब भारतीय और उनके इने-गुने अंग्रेज मित्र थे ; दूसरी
ओर धनबल, बाहुबल
और संख्याबल में भरे पूरे अंग्रेज थे। इन बलवान प्रतिपक्षियों को राज्य का बल
भी प्राप्त हो गया था, क्योंकि नेटाल की सरकार ने खुल्लम-खुल्ला उनकी मदद की थी।
आग में घी का काम
यह तो मात्र संयोग था कि बंबई
से दक्षिण अफ़्रीकी बंदरगाह के लिए दो जहाज साथ-साथ निकले। जब यह समाचार डरबन के
गोरों तक पहुंचा कि गांधीजी और उनके परिवार दक्षिण अफ़्रीका के लिए रवाना हो चुके
हैं और उनके साथ एक और जहाज भी आ रहा है तो इसने आग में घी का काम किया। उन्होंने
इसमें गांधीजी की कूटनीति और कारस्तानी की गंध पाई। हुआ यह था कि ‘कूरलैंड’ नामक
जहाज से गांधीजी और उनका परिवार सफ़र कर रहा था। ठीक उसी समय भारत से एक और जहाज
‘नादेरी’ भी नेटाल के लिए चला था। दोनों जहाजों ने बंदरगाह पर साथ-साथ लंगर डाले।
दोनों में कुल मिला कर 800 यात्री थे। इस बात को ऐसे फैलाया गया कि गांधीजी प्रवासी भारतवासियों की
संख्या बढ़ाने के लिए भारत से अपने समर्थकों के दो जहाज भरकर दक्षिण अफ़्रीका ला रहे
हैं। नेटाल को भारतीयों से भर देने का षडयंत्र कर रहे हैं। लोगों में काफ़ी आक्रोश
भड़काया गया। कैप्टन हैरी स्पार्क्स, जो एक कसाई था
और घुड़सवार सेना में कमीशन प्राप्त था, के नेतृत्व में
कुछ उग्रवादियों को पता चल गया था कि गांधीजी जहाज पर हैं, और वे गांधीजी तथा भारतीय यात्रियों को उतरने से रोकने के लिए
कृतसंकल्प थे। कैप्टन हैरी स्पार्क्स के अनुसार दोनों जहाजों पर आठ सौ भारतीय
यात्री सवार थे, उन सभी को डरबन श्रम बाजार पर आक्रमण करना था, और इसके अलावा जहाज
पर एक प्रिंटिंग प्लांट भी था जिसमें पचास प्रशिक्षित प्रिंटर थे जो भारतीय
आप्रवासन के पक्ष में प्रचार का एक सतत कार्यक्रम चलाने वाले थे। कैप्टन स्पार्क्स
ने गाँधी विरोधी अभियान की कमान संभालने की पेशकश की, जो भारतीयों को उतरने से
रोकेगा। 30 दिसंबर को नेटाल एडवरटाइजर में एक सूचना छपी, जिस पर
प्रारंभिक बैठक के अध्यक्ष हैरी स्पार्क्स के हस्ताक्षर थे: "डरबन के
प्रत्येक व्यक्ति से 4 जनवरी 1897 को आठ बजे होने वाली बैठक में शामिल होने की
अपेक्षा की जाती है, जिसका उद्देश्य बंदरगाह पर आगे बढ़ने और भारतीयों के उतरने के
खिलाफ विरोध प्रदर्शन की व्यवस्था करना है।" टाउन हॉल में आयोजित इस बैठक में
लगभग 2,000 लोग शामिल हुए, जिनमें से अधिकांश कारीगर वर्ग के थे। भाषणों से यह स्पष्ट हो
गया कि गांधीजी ही निंदा के सर्वोच्च पात्र हैं और एकत्रित नागरिक अपने उद्देश्य
को पूरा करने के लिए बल प्रयोग करने के लिए तैयार हैं।
नाराज़ लोगों द्वारा गांधीजी
पर जिस देश ने उन्हें आश्रय दिया उसी को बदनाम करने, नेटाल के यूरोपियनों को गंदगी
में खींचने और उनके चेहरों पर कालिख पोतने के आरोप लगाए गए। गोरे इस चीज़ को
गांधीजी का सोचा-समझा निंदा-अभियान समझ रहे थे। लोगों ने मांग की कि इन्हें वापस
भारत भेज दिया जाना चाहिए। यूरोपियनों ने भारतीय यात्रियों को समझाने-बुझाने और लोभ-लालच देने
से लेकर डराने-धमकाने तक के सभी उपाय आजमाए। उन्हें उल्टे कदम वापस लौट जाने को
कहा। वापसी का किराया भी देने की बात की। इंकार करने वालों को समुद्र में फेंक
देने की धमकी दी। जहाजों के मालिकों को चेतावनी दी गई कि या तो उन यात्रियों को
वापस ले जाएं या अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहें। ‘कूरलैंड’ और नादरी के आगमन को ‘नेटाल
पर चढ़ाई’ का रूप दिया गया। नेटाल की सरकार इस भ्रम का निराकरण कर सकती थी किंतु
उसे क्या पड़ी थी? भयभीत भारतीय नागरिकों को किसी भी समय भीड़ द्वारा हिंसा भड़कने की
आशंका थी।
वस्तुस्थिति यह थी कि
‘कूरलैंड’ नामक जिस जहाज से गांधीजी और उनका परिवार यात्रा कर रहा था, वह और
पर्शियन कंपनी का ‘नादेरी’ नामक एक दूसरा स्टीमर एक ही दिन बंबई से रवाना हुए और
एक ही समय नेटाल पहुंचे। गांधीजी के पुराने मुवक्किल अब्दुल्ला सेठ ‘कुरलैंड’ के
मालिक थे और ‘नादेरी’ के एजेंट। दोनों जहाजों को मिलाकर कुल आठ सौ यात्री थे।
उनमें से चार सौ नेटाल उतरने वाले थे। 18 दिसंबर 1896 को एस.एस. कुरलैंड नटाल
पहुंचा और शाम 6.34 बजे डरबन बंदरगाह के बाहरी हिस्से में लंगर डाला। एस.एस.
नादेरी उसी दिन दोपहर तक वहां पहुंच चुका था। 18 दिसंबर, 1896 को दोनों जहाजों का एक साथ डरबन पहुंचना महज एक संयोग ही था। जहाज़ पर कोई
छपाई संयंत्र नहीं था, और कोई प्रिंटर भी नहीं
था। दोनों जहाजों पर
यात्रियों की कुल संख्या पाँच सौ से भी कम थी। गांधीजी की गिनती के अनुसार उनमें से केवल बासठ ही स्वस्थ पुरुष थे जो नेटाल
में काम करना चाहते थे, क्योंकि बाकी महिलाएँ, बच्चे और पुरुष थे जो दूसरे बंदरगाहों पर जाना चाहते थे। लेकिन
कैप्टन स्पार्क्स को मामले के तथ्यों से कोई सरोकार नहीं था, और उनके पास
उपयोगी सहयोगी थे। भारतीयों के लिए इससे भी ज़्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि
बॉम्बे को प्लेग बंदरगाह घोषित कर दिया गया था, और डरबन के अधिकारी मांग
कर सकते थे कि दोनों जहाज़ तब तक समुद्र में ही रहें जब तक कि जटिल संगरोध (क्वारंटीन)
प्रक्रियाओं का हर अंतिम विवरण पूरा न हो जाए। नेटाल सरकार औपनिवेशिक देशभक्त संघ
के प्रति सहानुभूति रखती थी, और हैरी एस्कोम्ब, जो रक्षा मंत्री होने के
साथ-साथ अटॉर्नी जनरल भी थे, अब गांधी के मित्र नहीं थे। सर जॉन रॉबिन्सन
की अनुपस्थिति में, जो स्वास्थ्य कारणों से इंग्लैंड चले गए थे, अटॉर्नी जनरल और
अब कार्यवाहक प्रधानमंत्री हैरी एस्कोम्ब, आंदोलनकारियों से निपटने
में बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं थे। न ही उन्होंने तब कोई स्पष्ट बात कही, जब जहाज मालिकों
के वकीलों की ओर से एफ.ए. लॉटन ने उनसे मुलाकात की और यह पता लगाने की कोशिश की कि
सरकार प्रदर्शनकारियों द्वारा की जाने वाली हिंसक कार्रवाई से यात्रियों और माल की
सुरक्षा के लिए क्या प्रस्ताव रखती है।
जहाज को क्वारंटीन में रखा गया
उत्तेजना के इस माहौल में
नेटाल सरकार को गड़बड़ी फैलने की आशंका होने लगी। दिसंबर के तीसरे सप्ताह में, 18 दिसम्बर 1896 को दोनों जहाजों
ने डरबन बंदरगाह पर लंगर डाला। दोनों जहाजों को सलाह दी गई कि वे भारत वापस चले जाएं। जहाज का बम्बई छोड़ते वक़्त
वहां प्लेग फैलने का समाचार तो था ही। 19 दिसम्बर 1896 को इस बाबत अधिसूचना ज़ारी कर दी गई कि चूंकि बम्बई में उन दिनों
प्लेग फैला हुआ था इसलिए बिना स्वास्थ्य-परीक्षण के उन्हें वहां उतरने नहीं दिया
जाएगा। और जहाज को क्वारंटीन के लिए रखा
जाएगा। बाहरी बन्दर में लंगर डालने के बाद पीला झण्डा फहरा दिया गया। डॉक्टरी जांच
और उनकी हरी झंडी के बाद ही यह पीला झंडा उतरने वाला था। उसके बाद ही यात्रियों के
रिश्तेदारों आदि को स्टीमर पर जाने दिया जाता। स्वास्थ्य निरीक्षक डॉ. सदरलैंड ने
‘कुरलैंड’ और ‘नादरी’ के यात्रियों की स्वास्थ्य परीक्षा की। उसने लोगों में रोग
का कोई लक्षण नहीं पाया। उसने देखा कि इस रोग के कीटाणु का उद्भव काल (Incubation period) 23 दिनों का होता है। 18 दिनों की यात्रा में ये यात्री बम्बई से बाहर ही थे। इसलिए उन्होंने
यात्रियों को उतरने के पहले पांच दिन और जहाज पर काट लेने को कहा। सरकार इस अल्पावधि
से नाखुश थी। दूसरी तरफ़ जहाज के मालिकों ने अधिवक्ताओं की शरण ली। उनका तर्क था कि
क्वारंटीन की शर्तें तब लागू होतीं जब सरकारी अधिसूचना ज़ारी होने के बाद
रोग-ग्रसित बंदरगाह से जहाज ने अपनी यात्रा शुरु की हो। यहां तो जहाज के डरबन
पहुंचने पर अधिसूचना ज़ारी की गई थी।
जहाजों को क्वारंटीन में
रख दिया गया। क्वारंटीन की अवधि पांच दिन थी। बाद में उसे बढ़ाकर तीन सप्ताह कर
दिया गया। पहले पाँच दिन के क्वारंटीन के बाद जब बंदरगाह चिकित्सा
अधिकारी जहाजों को स्वस्थ घोषित करने वाला था,
तो उसे
निलंबित कर दिया गया, एक नए चिकित्सा अधिकारी, डॉ. बिर्टवेल, ने कार्यभार संभाला, और आगे ग्यारह दिन का क्वारंटीन लगाया गया। अब तो
यह स्पष्ट था कि इसे क्वारंटीन में रखने की वजह कोई स्वास्थ्य कारण नहीं बल्कि राजनीतिक
प्रयोजन है। इस काम में नेटाल के प्रभावशाली यूरोपियनों का हाथ था और वहां का
एटर्नी जनरल हैरी एस्कंब उनकी खुली मदद कर रहा था।
सभी पुराने कपड़ों को जला दिया जाना था,
अन्य सभी
कपड़ों को धोकर कार्बोलिक एसिड में डुबोना था, और सभी यात्रियों को एसिड के
कमज़ोर घोल में नहाना था; सभी होल्ड और यात्री क्वार्टरों को धूम्रित किया गया और
सफ़ेदी की गई। पानी और प्रावधान समाप्त हो रहे थे, लेकिन किनारे पर उन्हें मांगने
वाले संकेतों का जवाब नहीं दिया गया। 28 दिसंबर को, बाहरी बंदरगाह में लंगर डालने
के दस दिन बाद, जहाज़ों पर पानी डाला गया, और एक बार फिर जहाजों को जलते हुए सल्फर से अच्छी तरह से
धूम्रित किया गया। सभी बिस्तर, चटाई, और टोकरियाँ, और अन्य सभी चीज़ें जो बीमारी
फैला सकती थीं, जहाजों की भट्टियों में फेंक दी गईं। जहाज़ों के मुख्य अधिकारियों ने
सरकार से अनुरोध किया कि वे आधिकारिक आदेशों के तहत नष्ट हो चुके बिस्तर-चादरों और
कम्बलों की जगह अन्य बिस्तर-चादरें और कम्बल उपलब्ध कराएँ। अधिकारियों द्वारा उनके
संदेशों पर ध्यान न दिए जाने के कारण डरबन के भारतीय समुदाय को जहाज़ों पर सवार
लोगों की ज़रूरी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक राहत कोष का आयोजन करना पड़ा। इस तरह दिन बीतते गए, और 11 जनवरी तक चिकित्सा अधिकारी ने घोषणा नहीं की कि क्वारंटीन नियमों के सभी प्रावधानों का पालन किया गया था। उसी दिन कुरलैंड के कप्तान को
हैरी स्पार्क्स का पत्र मिला जिसमें लिखा था कि यात्रियों को उतारने का कोई भी
प्रयास खतरनाक संघर्ष का कारण बन सकता है और इसलिए यह उचित है कि वह अपने
यात्रियों को लेकर तुरंत भारत लौट जाए। यह स्पष्ट था कि नेटाल सरकार खर्च का
भुगतान करने के लिए तैयार है।
दादा अब्दुल्ला को सूचना
दी गयी कि यदि वह दोनों स्टीमरों को वापस ले जाये तो गोरे नुकसान
की भरपाई करने को तैयार थे। दादा अब्दुल्ला किसी की धमकी से डरने वाले नहीं थे। इस
समय वहाँ सेठ अब्दुल करीम हाजी आदम दुकान पर थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि कितना
ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े, वे स्टीमरो को बन्दर पर लायेंगे और यात्रियों को उतारेंगे।
जहाज पर क्रिसमस त्योहार मनाया गया
गांधीजी लोगों को बराबर
हिम्मत बंधाते रहे। उन्हें आशा दिलाते रहे। इससे कोई भी यात्री गोरों की धमकियों
से विचलित नहीं हुआ। जहाज़ों के मालिकों को चेतावनी दी गई कि या तो अनचाहे यात्रियों को बंदरगाह से
वापस भारत ले जाओ या नेटाल सरकार और वहाँ के गोरों की कोपाग्नि का सामना करने को
तैयार हो जाओ। दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी पर भी धमकियों का कोई असर नहीं पड़ा।
गांधीजी जानते थे कि नेटाल के यूरोपियनों का सारा गुस्सा उनके कारण ही था। उनकी
वजह से सैकड़ों यात्रियों की जान मुसीबत में थी। उनका अपना परिवार भी खतरे से बाहर
नहीं था। मज़बूरी में जहाज पर ही क्रिसमस मनाना पड़ा। 25 दिसम्बर, क्रिसमस के दिन एस.एस. कुरलैण्ड के कप्तान ने गांधीजी और उनके परिवार, बच्चों के साथ रात्रि-भोज रखा।
भोजनोपरांत गांधीजी ने दार्शनिक अंदाज़ में सहयात्रियों को संबोधित किया। उन्होंने
पाश्चात्य सभ्यता पर भाषण देते हुए कहा कि आज की परिस्थिति में उनके इरादे
जग-ज़ाहिर हो गए हैं। गांधीजी ने पश्चिम की सभ्यता को हिंसक और पूर्व की सभ्यता को
अहिंसक बताया।
अहिंसा के सिद्धांत पर क़ायम
दक्षिण अफ्रीकी गोरों द्वारा
जो हमले किए जा रहे थे, उसके केंद्र बिंदु में गांधीजी थे। उन पर दो आरोप लगे जा रहे थे, एक उन्होंने भारत में नेटालवासी
गोरों की अनुचित निन्दा की थी और दूसरे वह नेटाल को हिन्दुस्तानियों से भर देना
चाहते थे और इसलिए खासकर नेटाल में बसाने
के लिए हिन्दुस्तानियों को 'कुरलैण्ड' और 'नादरी' में भर कर लाए थे। पर गांधीजी बिलकुल निर्दोष थे। उन्होंने किसी को नेटाल आने के लिए लालच
नहीं दिया था। 'नादरी' के यात्रियों को तो वह पहचानते भी नहीं थे। 'कुरलैण्ड' में अपने दो-तीन रिश्तेदारों को छोड़कर बाकी के
सैकड़ों यात्रियों के नाम-धाम तक वह नहीं जानते थे। उन्होंने हिंदुस्तान में नेटाल के अंग्रेजों
के बारे में ऐसा एक भी शब्द नहीं कहा, जो नेटाल में न कह चुके थे।
और जो कुछ उन्होंने कहा था,
उसके लिए उनके पास काफी प्रमाण थे। लोगों के अपने पूर्वाग्रह
और पहले से बंधे हुए विचार होते हैं, किसी चीज को ऊपर-ऊपर से पढ़
लेते हैं और फिर उसके आधार पर एक सार तैयार करते हैं, जो कभी-कभी आंशिक रूप में उनकी कल्पना की उपज होती है। लन्दन
से आए तार के विभिन्न स्थानों में विभिन्न अर्थ लगाये गए। हिंदुस्तान में रहते हुए उन्होंने
नेटाल के गोरों की टीका की थी, उन पर आरोप लगाये थे; गिरमिटिया मजदूरों पर लगाये गये 3 पौंड के मुंड-कर की उन्होंने बहुत कड़े शब्दों में निंदा की थी।
बालासुंदरम के कष्टों का चित्रण उन्होंने अपने भाषणों में की थी। उनके भाषणों का
तोड़ा-मरोड़ा हुआ सार नेटाल के गोरों ने पढ़ा, तो वे उन पर आग-बबूला हो उठे। 'रायटर'
के तार से नाराज़
नेटाल के गोरों ने इस आकस्मिक संयोग को षडयंत्र समझ लिया।
डरबन के टाउन हॉल में दो हज़ार गोरों ने सभा करके 'मुक्त भारतीयों' को नेटाल की भूमि पर न उतरने देने की सरकार से माँग की।
बात-चीत के क्रम में एक
यात्री ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, अगर वे अपनी धमकी में क़ामयाब हो गए,
और अगर आपको चोट पहुंचायें,
तो आप किस प्रकार अपनी अहिंसा के सिद्धांत पर क़ायम रहेंगे?” गांधीजी ने उत्तर देते हुए कहा, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने
की और उन पर मुक़दमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा। मुझे उनके ख़िलाफ़
कोई क्रोध नहीं है। उनके अज्ञान और उनकी नासमझी के लिए दुख है।”
प्रश्न करने वाला फीकी हंसी
हंसकर रह गया। पर ऐसा लगता था कि आगे जो होने वाला है उसका गांधीजी को आभास हो रहा
था। वे आने वाली हर परिस्थिति के लिए ख़ुद को तैयार कर रहे थे। किंतु एक बात जो
निकलकर आई वह यह कि पहली बार वे लियो टॉल्सटॉय के अहिंसा के अर्थ को आजमाने जा रहे
थे। बाद के दिनों में यही सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का रूप लेने वाला था।
ईश्वर पर भरोसा
कस्तूरबाई को समझ में नहीं आ
रहा था कि क्यों गोरे गांधीजी से इतने खफ़ा हैं? हालाकि गांधीजी जहाज में सभी यात्रियों को समझा रहे थे कि वे भयभीत न
हों। उनका दक्षिण अफ़्रीका में रहने का पूरा अधिकार है। लेकिन कस्तूरबाई को सांत्वना
नहीं हो रही था। जिस तरह का माहौल तैयार हो रहा था इससे वह बहुत आशंकित थीं।
उन्हें इतना तो समझ में आ रहा था कि यह सब गांधीजी के ही विरुद्ध है। लेकिन उन्हें
यह नहीं समझ में आ रहा था कि गांधीजी ने ऐसा क्या कर दिया था कि इतने लोग उनसे
क्रुद्ध हैं। अपने लिए तो उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी लेकिन बच्चों और खास कर गांधीजी
के लिए उन्हें काफ़ी चिन्ता थी। उन्होंने गांधीजी से पूछ ही लिया, “आपने ऐसा क्या कर दिया है जो लोग आप
से इतने ख़फ़ा हैं?” गांधीजी ने कहा, “मैंने कोई ग़लत काम नहीं किया है। जो भी तथ्य मैंने ज़ारी किए हैं, सब सही हैं। जो मांगें हमने मांगी
हैं, सारी जायज़ हैं।
वही मांग मैं नेटाल में पिछले दो साल से मांगता रहा हूं। अवसर मिला तो मैं उन्हें
विस्तार से समझा दूंगा …” कस्तूरबा ने कहा, “पर वे आपकी सुनेंगे नहीं। वे तो काफ़ी
गुस्से में हैं … इस तरह के आग-बबूले हुए लोगों को आप कैसे समझा पाएंगे ..?” यही प्रश्न तो गांधी खुद से भी कर
रहे थे। उन्होंने कस्तूरबा को जवाब दिया, “ईश्वर पर भरोसा रखो … वही हमें इस संकट से मुक्ति दिलाएगा …।”
सौभाग्य से लंदन के नज़र ब्रदर्स के मनसुखलाल नज़र गांधीजी से
मिलने के लिए डरबन पहुँच चुके थे। वे सूरत से थे - न्यायमूर्ति नानाभाई हरिदास के
भतीजे और स्टॉकहोम ओरिएंटल कांग्रेस के सदस्य। उन्होंने भारतीय समुदाय का
मार्गदर्शन किया। दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी के वकील एफ. ए. लॉटन ज़रूरत के समय
उनके दोस्त बन गए। अपनी पेशेवर सलाह से उनकी मदद करने के अलावा, उन्होंने गोरे निवासियों के आचरण की खुलकर निंदा करके उनका समर्थन
किया। गांधीजी यात्रियों के बीच गए और उनका उत्साहवर्धन किया। समय का बोझ
कम करने के लिए उन्होंने एस.एस. कौरलैंड पर खेलों का आयोजन करवाया। उन्होंने
एस.एस. नादेरी के यात्रियों को भी सांत्वना संदेश भेजे और उन्हें नियमित रूप से
सभी समाचारों से अवगत कराया। उनके उदाहरण का असर हुआ। हर बीतते दिन के साथ उनका
उत्साह बढ़ता गया और वे नेटाल में उतरने के अपने अधिकार को लेकर पहले से कहीं अधिक
दृढ़ हो गए।
संकट अगले ढाई सप्ताह ज़ारी
रहा।
उपसंहार
जब क्वारंटीन की अवधि पाँच दिन
से बढाकर तीन सप्ताह कर दी गई तो स्वास्थ्य-रक्षा की अपेक्षा उसके राजनैतिक प्रयोजन
में कोई भी संदेह नहीं रह गया। इसमें नेटाल के प्रभावशाली यूरोपियनों का हाथ था और वहाँ
का एटार्नी-जनरल हैरी एस्कंब उन लोगों की खुल्लमखुल्ला मदद कर रहा था। भारतीय यात्रियों
में ज़्यादातर अनपढ थे और पहली बार इतनी लंबी समुद्री यात्रा कर अपने परिवारों के साथ यहाँ
तक पहुँचे थे। लेकिन कोई भी गोरों की धमकियों से विचलित नहीं हुआ, क्योंकि गांधीजी उन्हें बराबर धीरज बँधाते
और आशा दिलाते रहते थे। असल में बलि का बकरा तो वह ही थे। नेटाल के यूरोपियनों का
सारा गुस्सा उन्हीं के कारण था। गांधीजी भी इस बात को महसूस करते थे कि उन्हीं की वजह से
सैकडों यात्रियों की, जिनका वे नाम-धाम तक नहीं जानते, जान जोखिम में थी और खुद उन्हीं के अपने बाल-बच्चे भी मुसीबत में पड
गए थे।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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